इस साल मई महीने की 30 तारीख़ को पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ ने एक टिप्पणी की थी कि पाकिस्तान ने करगिल में सैन्य घुसपैठ करके 1999 में भारत के साथ लाहौर घोषणा के अंतर्गत हुए शांति समझौते का उल्लंघन किया था. इस टिप्पणी के संदर्भ में एक सवाल का जवाब देते हुए भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि भारत अब यह देख पा रहा है कि पाकिस्तान में भी अब एक निष्पक्ष दृष्टिकोण उभर रहा है. हो सकता है कि प्रवक्ता द्वारा कही गई यह बात केवल एक अनौपचारिक टिप्पणी हो लेकिन जो लोग भारत-पाकिस्तान संबंधों पर पारखी नज़र रखते है उन्होंने विदेश मंत्रालय की इस प्रतिक्रिया को इस संकेत के रूप में देखा है कि पाकिस्तान के लिए जो दरवाज़े अब तक बंद थे वह भारत में आम चुनाव ख़त्म होने के बाद फिर से खुल सकते हैं. भारत और पाकिस्तान को बांटने वाली रेडक्लिफ लाइन के दोनों ओर से अटकलें लगाई जा रही हैं कि अब चुनाव नतीजों के बाद दोनों देशों के बीच फिर से बातचीत हो शुरू सकती है.
बेबुनियाद आशावाद
यह कहना बहुत मुश्किल है कि दोनों देशों के बीच फिर से बातचीत शुरू होने की इस आशावादिता के पीछे की प्रेरणा क्या है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक इंटरव्यू में स्पष्ट किया था कि उन्होंने "पाकिस्तान के मुद्दे को अब संदूक में बंद कर दिया है” और पाकिस्तान अपने काम ख़ुद कर सकता है लेकिन भारत का विकास अब पाकिस्तान के मुद्दे पर आश्रित नहीं रहेगा. नरेंद्र मोदी ने यह वक्तव्य देकर उन सभी लोगों को भी निराश किया जो सोचते थे कि अगर उन्हें तीसरा कार्यकाल मिला तो वे अपनी व्यक्तिगत विरासत को बनाने पर ध्यान केंद्रित करेंगे और इसलिए पाकिस्तान मुद्दे को सुलझाने के लिए कोई नई पहल करेंगे. मोदी ने साफ़ शब्दों में कहा कि वे अपने कार्यकाल की विरासत के रूप में भारतीय बच्चों के उज्ज्वल भविष्य का निर्माण चाहते हैं न कि पाकिस्तान के साथ संबंधों का सामान्यीकरण. पाकिस्तान की ओर से, भले ही नवाज शरीफ़ जैसे नेता और अन्य गैर-सैन्य शख्सियतों ने कभी कभार भारत को फिर बातचीत में शामिल करने के पक्ष में बयान दिया हैं लेकिन सेना ने, जो पाकिस्तान की सत्ता के असली आका है, उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि उनका भारत के ख़िलाफ़ अपने आक्रामक रुख़ को कमज़ोर करने का कोई इरादा नहीं है.
भारत और पाकिस्तान को बांटने वाली रेडक्लिफ लाइन के दोनों ओर से अटकलें लगाई जा रही हैं कि अब चुनाव नतीजों के बाद दोनों देशों के बीच फिर से बातचीत हो शुरू सकती है.
पाकिस्तानी सेना के फॉर्मेशन कमांडरों की हाल ही में हुई बैठक में उन्होंने न केवल कश्मीर के लिए आत्मनिर्णय और संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों को लागू करने के मंत्र को दोहराया बल्कि "भारत में अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुसलमानों के साथ हुए व्यवहार पर चिंता जाहिर की और निहित राजनीतिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए बढ़ते फ़ासीवाद” का उल्लेख करते हुए भारत की घरेलू राजनीति में भी हस्तक्षेप करने की कोशिश की. पाकिस्तानी कमांडरों के वक्तव्य में वही घिसा पिटा परमाणु हथियार की धमकी वाला राग भी शामिल था. संभवतः वे प्रधानमंत्री मोदी की उस टिप्पणी का जवाब देते हुए यह सब कह रहे थे जिसमें उन्होंने पाकिस्तान के परमाणु हथियार की धमकी को सिरे से ख़ारिज़ किया था.
मोदी की नीति बनाम बातचीत की राजनीति
असल बात यह है कि 2016 में हुए उरी आतंकवादी हमले के बाद से और इससे भी आगे चलकर 2019 में बालाकोट हवाई हमलों के बाद से पाकिस्तान के प्रति मोदी सरकार की नीति बदली है. इसके अलावा जम्मू-कश्मीर में हुए संवैधानिक सुधारों ने भी इस नीति को सुदृढ़ किया है. यह नीति मूल रूप से बातचीत की गुंजाइश को जिंदा रखने भर तक सीमित है अन्यथा इस नीति के अंतर्गत कोई भी संपर्क शामिल नहीं है. वर्षों से, पाकिस्तानियों ने अपनी घिसी पिटी प्रतिक्रियाओं से अपने आपको अलग-थलग किया हुआ है विशेष रूप से जम्मू-कश्मीर में संवैधानिक सुधारों की घोषणा के बाद राजनयिक संबंधों को कम करने और लगभग सभी व्यापारों पर पाकिस्तान की ओर से प्रतिबंध लगाए जाने पर इस तरह की प्रतिक्रया को फिर से देखा गया. वास्तव में भारत के लिए इस माहौल में पाकिस्तान के प्रति कोई भी ढिलाई बरतने का कोई कारण नहीं है क्योंकि जहां तक भारत के प्रति पाकिस्तान के शत्रुतापूर्ण रवैये का सवाल है, उस रवैए में बुनियादी रूप से कुछ भी नहीं बदला है. अपने पश्चिमी मोर्चे पर ईरान और अफ़गानिस्तान दोनों के साथ फंसे होने के अलावा चीन के साथ उसकी बातचीत में ज़मीनी स्तर पर कोई प्रगति नहीं होने के कारण पाकिस्तान को अब भारत की ज़रूरत है. लेकिन पाकिस्तान इस रिश्ते को मुफ़्त में चाहता है. इससे भी बदतर पाकिस्तान सिर्फ़ वही सब चुनना चाहता है जो उसके लिए लाभदायक है जैसे कि व्यापार और वह आतंकवाद जैसे गहन मुद्दों को पीछे छोड़ देना चाहता है. पाकिस्तान के साथ फिर से बातचीत की वकालत करने वाले लोग भी यह नहीं बताते कि इस तरह की फिर से बातचीत भारत के लिए कैसे फ़ायदेमंद होगा. बहरहाल जो भी हो, लेकिन यह भी सच है कि इस समय पाकिस्तान को बातचीत के टेबल पर लाकर सामान्य रिश्तों के लिए पहल करना फिर से पुराने ढर्रे पर लौटने जैसा है जो पिछले आठ वर्षों में भारत को मिले कूटनीतिक लाभ को गंवाने जैसा होगा.
पाकिस्तान के साथ फिर से बातचीत की वकालत करने वाले लोग भी यह नहीं बताते कि इस तरह की फिर से बातचीत भारत के लिए कैसे फ़ायदेमंद होगा. बहरहाल जो भी हो, लेकिन यह भी सच है कि इस समय पाकिस्तान को बातचीत के टेबल पर लाकर सामान्य रिश्तों के लिए पहल करना फिर से पुराने ढर्रे पर लौटने जैसा है जो पिछले आठ वर्षों में भारत को मिले कूटनीतिक लाभ को गंवाने जैसा होगा.
हालांकि, भारत में एक पक्ष ऐसा भी है जो यह मानता है कि पाकिस्तान ने अपनी पहले की गई मूर्खता को समझ लिया है और भारत को इस नई समझ वाले पाकिस्तान को प्रोत्साहित करना चाहिए. अगर पूरी तरह रिश्तों में सामान्यता की पहल नहीं तो कम से कम भारत को इस स्थिति को परखना तो ज़रूर चाहिए. लेकिन इस तर्क के पक्ष में जो कुछ भी पेश किया गया है वह कुछ ऐसे बयान है जो पाकिस्तानी राजनेताओं ने दिए हैं. जो कुछ भी तथ्य दिए जाते हैं वे एक मुहावरे से ज़्यादा कुछ नहीं हैं जैसे की ‘हम अपने दोस्त चुन सकते हैं, लेकिन हम अपने पड़ोसियों को नहीं चुन सकते’ इत्यादि. जो लोग ये बातें रट्टा लगाकर बोलते रहते हैं वे यह बात भूल जाते हैं कि ये बातें सिर्फ बोलने में अच्छी लगती है और इनका अंतरराष्ट्रीय संबंधों में कुछ ज़्यादा महत्व नहीं है. लेकिन फिर भी भारत में ऐसे राजनेता हैं जो पाकिस्तान द्वारा तैयार किए गए विकेट पर खेलने के लिए तत्पर हैं, शायद उनके चुनावी राजनीति की अनिवार्यताओं के कारण या वोट पाने के चक्कर में, लेकिन ये नेता उन लॉबियों तक पहुंचने की कोशिश करते है जो यह बात कहते है. यह सब राष्ट्रीय नीति को भी कमज़ोर करता है.
राजनीति से परे यह सवाल भी प्रासंगिक है कि क्या फिर से सुलह की ये नीति काम करेगी. अगर बयानों के आधार पर कुछ लोग अपने आशावाद के चलते इस तरह के बयान दे रहे है तो उन्हें यह भी जान लेना चाहिए कि पहले भी ऐसे बयान न सिर्फ़ नेताओं से बल्कि पाकिस्तान के सैन्य जनरलों की ओर से भी आए हैं. लेकिन, न तो नागरिक नेतृत्व और न ही सैन्य अधिकारी ने कभी भी ऐसे खोखले बयान के आगे कोई बात कही है. मूल रूप से यह जानना ज़रूरी है कि अब तक पाकिस्तान की तरफ से ऐसा कोई संकेत नहीं मिला है जो यह साबित कर सके कि पाकिस्तान ने अपनी कट्टरता और प्रॉक्सी आतंकवादी गतिविधि का रास्ता छोड़ दिया है. पाकिस्तान को लगता है कि वह भारत के साथ पुरानी शर्तों पर बातचीत कर सकता है और साथ ही साथ भारत को उन मुद्दों पर भी घेर सकता है जो उसके लिए महत्वपूर्ण हैं. इन परिस्थितियों में, अगर फिर से बातचीत होती है, तो हम यह पाएंगे कि पाकिस्तान एक दोहरा समानांतर रास्ता अपना रहा है.
पाकिस्तान का दोहरा समानांतर ट्रैक का रास्ता
पाकिस्तान का पहला समानांतर मार्ग भारत को बातचीत में शामिल करना और भारत के साथ कूटनीतिक रिश्तों की पूरी बहाली के साथ व्यापार को फिर से शुरू करना होगा. साथ ही, पाकिस्तान आतंकवाद के मुद्दे को नज़रअंदाज कर उस रास्ते पर चलते भी रहना चाहता है. उस रास्ते को अपनाते हुए आतंकवाद को सावधानीपूर्वक चलाया जाएगा ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि बहुत अधिक तल्ख़ी न पैदा हो जाए. इस प्लान के तहत जिहाद के कारखाने को चालू रखने के लिए निम्न-स्तरीय और निम्न-तीव्रता वाले हमले जारी रखें जाएंगे. इस बीच, पाकिस्तान द्वारा न केवल कश्मीर में बल्कि ख़ालिस्तान के मुद्दे पर भी आतंकवाद के आंशिक रूप से ध्वस्त माहौल को फिर से खड़े करने के लिए सभी प्रयास किए जाएंगे. बहरहाल, पाकिस्तान ख़ालिस्तानी तत्वों को उकसाकर पंजाब को अस्थिर करने के लिए चीन के साथ सहयोग कर रहा है. वहां जम्मू-कश्मीर में, अचानक आतंकवाद की जननी मानी जाने वाली प्रतिबंधित जमात-ए-इस्लामी एक बहाना बना कर अब सक्रिय हो गई है और मुख्यधारा की राजनीति में भाग लेने और यहां तक कि चुनाव लड़ने का भी नाटक कर रही है. इससे पहले जब भी मामला गरमाता था उस समय भी जमात-ए-इस्लामी सार्वजनिक रूप से या तो ख़ुद को आतंकवाद से या राजनीति से अलग कर लेती थी, और फिर रडार से दूर चली जाती थी और देश की व्यवस्था में घुसपैठ करना जारी रखती थी. इस बार भी वह यही प्रयास कर रही है.
पाकिस्तान का दूसरा समानांतर मार्ग यह होगा कि जब नागरिक संबंध दोस्ताना और उचित प्रतीत होंगे तो सेना कट्टरपंथी होने लगेगी और नागरिक नेतृत्व सेना को काबू में रखने के लिए अवसर ढूंढ़ने लगेगा. यह पाकिस्तानियों की एक पुरानी चाल है. उनका बहाना होता है कि "नागरिकों का समर्थन करो अन्यथा सेना हमें अस्थिर कर देगी."
पाकिस्तान का दूसरा समानांतर मार्ग यह होगा कि जब नागरिक संबंध दोस्ताना और उचित प्रतीत होंगे तो सेना कट्टरपंथी होने लगेगी और नागरिक नेतृत्व सेना को काबू में रखने के लिए अवसर ढूंढ़ने लगेगा. यह पाकिस्तानियों की एक पुरानी चाल है. उनका बहाना होता है कि "नागरिकों का समर्थन करो अन्यथा सेना हमें अस्थिर कर देगी." भारतीय नेता इस खेल में कच्चे खिलाड़ी हैं उन्हें भारत में पाकिस्तान की बात करने वालों के द्वारा पाकिस्तान की इस चाल में फंसने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा. भारतीय ख़ेमे में 'पाकिस्तान में लोकतंत्र को मजबूत करने' जैसे बयान देकर कुछ शुभ संकेत देने का प्रलोभन भी होगा और साथ ही भारत में एक और झूठ बेचा जाएगा कि पाकिस्तान में एक नई नागरिक सरकार है और यह पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारने का अवसर है. हालाँकि, तथ्य तो यह है कि पाकिस्तान में एक हाइब्रिड प्रो-मैक्स शासन है जिसका नेतृत्व केवल एक नागरिक प्रधानमंत्री द्वारा किया जाता है. नागरिकों के पास कोई सत्ता नहीं होती जैसे कि शहबाज़ शरीफ़ की सरकार जो सत्ता में है वह सिर्फ तब तक ही शासन में रहेगी जब तक सेना प्रमुख असीम मुनीर चाहेंगे. भारत के साथ संबंधों पर पाकिस्तान सरकार के पास अपना कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है. पाकिस्तान को घेरे हुए बहुत से संकटों को देखते हुए पाकिस्तान सरकार की उम्र भी ज़्यादा नहीं लगती. इस तरह के शासन के साथ कोई भी बातचीत या जुड़ाव जो एक साल भी नहीं चल सकता वो किसी भी तरह से बातचीत के लायक नहीं है.
'मदर इंडिया' वाली सोच का पुनरुत्थान
एक तर्क दिया जाता है कि चूँकि पाकिस्तान संकट से गुज़र रहा है इसलिए भारत को उसके साथ सामान्य रिश्ता बहाल करने की ज़रूरत है. इस सोच को अक्सर 'मदर इंडिया' वाली सोच कहा जाता है जो 'पृथ्वीराज चौहान सिंड्रोम' के रूप में जाना जाता है. जो यह कहता है की जब दुश्मन संकट में हो उसे बचाना चाहिए. लेकिन इस तर्क को आगे रखने वाले बिना किसी सबूत के दावा करते हैं कि पाकिस्तानी सेना भारत के साथ एक नई लड़ाई लड़ने के लिए सक्षम नहीं है और यह बात शायद सच भी हो सकती है लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि पाकिस्तानी सेना भारत के साथ शांति और सामान्यीकरण के लिए तैयार है. अगर ऐसा होता तो वह पंजाब में हिंसा भड़काना बंद कर देती और वह कश्मीर में आतंकवाद को जीवित नहीं रखती. और अगर यह सही होता तो पाकिस्तान भारत को कुछ मोस्ट वांटेड अपराधी जैसे कि दाऊद इब्राहिम और टाइगर मेमन जैसे भारतीय भगोड़ों और हाफ़िज सईद और मसूद अज़हर जैसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नामित आतंकवादियों को सौंप देता या फिर उनका सफाया कर देता. जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक यह मानने का कोई कारण नहीं है कि पाकिस्तान भारत के साथ अपने संबंधों में एक नया मोड़ लाने के लिए तैयार है.
आज आठ साल बाद, जब पाकिस्तान संकट में है और भारत से एक तरह से राजनैतिक राहत की मांग कर रहा है, तो इस नीति की प्रभावशीलता अब स्पष्ट है. अब इसे बदलना पिछले आठ वर्षों की मेहनत को ख़राब करने की तरह है. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसा कुछ भी करना जो एक कठोर शत्रु राज्य को सहायता प्रदान करे एक बहुत बड़ी भूल होगी.
भारत में जो नई सरकार आई है उसे उस नीति पर टिके रहने की ज़रूरत है जो वर्तमान में चल रही है. इस तरह की नीतियों का परिणाम दिखने में वर्षों लग जाते हैं. इस नीति पर चलने के तीन महीने के भीतर ही कुछ लोगों द्वारा सवाल किए जाने लगे थे क्योंकि इसका कोई ठोस परिणाम नहीं दिख रहा था. आज आठ साल बाद, जब पाकिस्तान संकट में है और भारत से एक तरह से राजनैतिक राहत की मांग कर रहा है, तो इस नीति की प्रभावशीलता अब स्पष्ट है. अब इसे बदलना पिछले आठ वर्षों की मेहनत को ख़राब करने की तरह है. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसा कुछ भी करना जो एक कठोर शत्रु राज्य को सहायता प्रदान करे एक बहुत बड़ी भूल होगी. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत सरकार के पास पाकिस्तान से निपटने के लिए एक स्पष्ट नीति होनी चाहिए. यह भावनाओं या पुरानी यादों से भरी नीति होनी चाहिए और इस नीति को केवल पाकिस्तान से भारत की पीठ मोड़ने और दिखावा करने से परे होना चाहिए. पाकिस्तान से संबंध न रखना नीति का केवल एक हिस्सा हो सकता है, न कि पूरी नीति. नई दिल्ली को अब यह स्पष्ट करने की आवश्यकता है कि पाकिस्तान केवल एक दुश्मन राज्य नहीं है बल्कि एक हानिकारक मानसिकता है और भारत की नीति को पाकिस्तान नामक समस्या के इन दोनों आयामों को प्रभावी ढंग से ध्यान में रखना चाहिए.
(सुशांत सरीन ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं.)
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