Published on Jan 12, 2021 Updated 0 Hours ago

2021 में दुनिया की आर्थिक तकदीर ग्लोबल इकॉनमी (वैश्विक अर्थव्यवस्था) लिखना जारी रखेगी, लेकिन इसके संकेत को समझने से महामारी के बाद की दुनिया के बारे में अंदाजा लगा सकते हैं

साल 2021 में जियोपॉलिटिक्स और जियोइकॉनमिक्स के तीन नए ट्रेंड

गुज़रे हुए साल में हमने देखा कि कोविड-19 महामारी ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को किस कदर प्रभावित किया. यही सिलसिला 2021 में भी जारी रहेगा. मैं उम्मीद करता हूं कि महामारी सदी में एक बार की घटना साबित हो. हमें यह भी याद रखना होगा कि इसकी वजह से लॉकडाउन हुए, सामाजिक दूरी बरतना मजबूरी बन गई और दुनिया भर के देशों ने आर्थिक और स्वास्थ्य क्षेत्र को लेकर जो कदम उठाए, उससे कई आर्थिक और जियोपॉलिटिकल (भूराजनीतिक) ट्रेंड उभरकर सामने आए. वैसे सच तो यह है कि ये ट्रेंड महामारी के दस्तक देने से पहले ही दिखने लगे थे. गुजरे साल में महामारी ने जिस तरह से अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया, उसी तरह से 2021 में भी यह दुनिया की आर्थिक तकदीर लिखेगी. अगर हम नए साल के इन ट्रेंड्स को समझ पाए तो महामारी के बाद की दुनिया के बारे में हमारे लिए अंदाजा लगाना आसान हो जाएगा. अब इससे उभरने वाले ट्रेंड के बारे में बात करते हैं.

अमेरिका जैसे देशों में, महामारी से कुछ अल्पसंख्य़क नस्लों में मौत के अधिक मामले सामने आए. भारत में हमने महामारी के दौरान हजारों की संख्य़ा में प्रवासी मज़दूरों को पैदल अपने गांव की ओर जाते हुए  देखा.

इसका पहला बड़ा ट्रेंड तो यही है कि इसने समाज में गैर-बराबरी बढ़ाई है. किसी देश के अंदर सरकारी संस्थानों, एजेंसियों तक पहुंच और आय में जो असमानता पहले से चली आ रही थी, महामारी ने उसे और बढ़ा दिया है. यूं तो हम अक्सर यही सुनते हैं कि बीमारी अमीर-गरीब में भेदभाव नहीं करती, लेकिन सच यह है कि यह उनमें फर्क करती है. मिसाल के लिए, अगर आप अमीर हैं तो आपके लिए सामाजिक दूरी का पालन करना बहुत आसान था. कोविड-19 को ख़ासतौर पर बुजुर्गों के लिए घातक माना गया. लेकिन अगर उनके पास अच्छी आमदनी और सपोर्ट सिस्टम हो तो वे आसानी से सामाजिक दूरी बरत सकते हैं. अमेरिका जैसे देशों में, महामारी से कुछ अल्पसंख्य़क नस्लों में मौत के अधिक मामले सामने आए. भारत में हमने महामारी के दौरान हजारों की संख्य़ा में प्रवासी मज़दूरों को पैदल अपने गांव की ओर जाते हुए  देखा. इसका मतलब है कि देश में जो लोग दिहाड़ी मजदूरी या असंगठित क्षेत्र में नौकरी कर रहे थे, उनके लिए गुज़ारा करना बहुत मुश्किल था. यही असमानता या भेदभाव दुनिया भर में राहत पैकेज को मौजूदा सामाजिक सुरक्षा योजनाओं और कल्याणकारी कार्यक्रमों के ज़रिये पहुंचाने में भी दिखा. यह राहत असंगठित क्षेत्र या गिग-इकॉनमी के कामगारों तक नहीं पहुंच पाई, जिनकी स्थिति सबसे ज्य़ादा खराब थी.

सच तो यह भी है कि इसका राहत पैकेज को लेकर दरियादिली दिखाने या हाथ बांधने से कोई लेना-देना नहीं था. अमेरिका ने तो केयर्स एक्ट के ज़रिये इतना पैसा खर्च किया कि 2021 में वहां रहने वाले परिवारों की बचत कुछ फीसदी  बढ़ गई. इसके बावजूद अमेरिका में बड़े पैमाने पर लोगों को अभाव का सामना करना पड़ा और कुछ जगहों पर तो फूड बैंकों तक को लूट लिया गया. महामारी के दौरान समाज के सभी वर्गों तक राहत नहीं पहुंची. इससे यह बात सामने आ गई कि सामान्य वक्त में भी सभी ज़रूरतमंदों तक सरकारी सेवाएं और राहत नहीं पहुंच पाती.

वैश्विक पूंजी बाज़ार से उधार

अलग-अलग देशों की बात करें तो उनमें भी रिकवरी समान रूप से नहीं हो रही है. कुछ देश इस महामारी से दूसरों के मुकाबले कहीं तेजी से बाहर निकलेंगे, तब यह गैप और बढ़ेगा. चीन जैसे देश, जहां तानाशाही है, वह महामारी से जल्द उबरने में कामयाब रहा. दूसरी ओर, ताइवान और न्यूजीलैंड भी वायरस को शुरुआती दौर में नियंत्रित करने में सफल रहे. इसलिए इन देशों में अर्थव्यवस्था को दूसरे देशों की तुलना में कम नुकसान हुआ. 2021 में जिन देशों में वैक्सीन प्रोग्राम को असरदार ढंग से लागू किया जाएगा, वहां सामाजिक दूरी की बंदिश जल्द खत्म होंगी. इसलिए ऐसे देश नॉर्मल प्रोडक्शन और आमदनी के स्तर को जल्द हासिल कर लेंगे. जिन देशों में सरकारें वैश्विक पूंजी बाजार से उधार लेकर राहत कार्यक्रमों पर अधिक खर्च करेंगी, उन्हें भी महामारी से निपटने और उससे जल्द बाहर आने में मदद मिलेगी. विकासशील देशों के लिए यही काम मुश्किल होगा और इस वजह से वे पीछे छूट सकते हैं. देश के अंदर इस तरह की असमानता से जो असंतोष पनपेगा, उससे निपटना नीति-निर्माताओं की प्राथमिकता होनी चाहिए.

अंतरराष्ट्रीय बॉन्ड बाजार बहुत बेरहम है, लेकिन इन देशों के महामारी से निपटने के बेहतर रिकॉर्ड की वजह से उनके लिए अंतरराष्ट्रीय बाजार से उधार लेना आसान हो गया है. यानी वे अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में अपने बॉन्ड बेचकर पैसा जुटा सकते हैं.

दूसरे अहम ट्रेंड के तार पहले से जुड़े हैं और वह है ग्रोथ, ESG (एनवायरमेंटल, सोशल और गवर्नेंस) में इन्वेस्टमेंट और फ़ाइनेंस जैसे फैक्टर्स. जैसा कि मैं पहले बता चुका हूं, जिन देशों में सक्षम सरकारी संस्थान और एजेंसियां हैं, वहां आय और प्रोडक्शन स्थिर बना रह सकता है. जिन देशों में समावेशी सामाजिक व्यवस्था है और राहत पैकेज का फायदा समाज के सभी वर्गों को मिल रहा है, महामारी से निपटने में उनका रिकॉर्ड बढ़िया रहा है. यह एक आर्थिक सच्चाई है.

कहा जाता है कि अंतरराष्ट्रीय बॉन्ड बाजार बहुत बेरहम है, लेकिन इन देशों के महामारी से निपटने के बेहतर रिकॉर्ड की वजह से उनके लिए अंतरराष्ट्रीय बाजार से उधार लेना आसान हो गया है. यानी वे अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में अपने बॉन्ड बेचकर पैसा जुटा सकते हैं. एक सच यह भी है कि ESG से जुड़े फंड में महामारी के बावजूद पिछले साल निवेश बढ़ा. बात सिर्फ इतनी नहीं है, यह निवेश नए शिखर पर पहुंच गया. इसमें पर्यावरण संबंधी पहलू भी केंद्र में आ गए, जब यूरोपीय संघ ने राहत पैकेज की ख़ातिर फंड जुटाने के लिए ग्रीन बॉन्ड बेचे. 2021 में घरेलू और अंतरराष्ट्रीय आर्थिक विमर्श के केंद्र में किस तरह से राहत दी जा रही है और अर्थव्यवस्था में कैसे रिकवरी होगी, पैसा राहत पर खर्च किया जाएगा या इसका इस्तेमाल निवेश के लिए होगा? क्या रोज़गार बचाने के लिए उन उद्योगों में निवेश बढ़ाया जाएगा, जिनसे काफी प्रदूषण फैलता है या इस पैसे को उभरते हुए ग्रीन सेक्टर्स में लगाया जाएगा और ग्रोथ बढ़ाने की कोशिश होगी? वैश्विक वित्तीय संकट के बाद जिस तरह से पूरी दुनिया ने तालमेल के साथ राहत पैकेज दिए थे, क्या उसी तरह की कोशिश इस बार भी होगी? क्या नई आर्थिक सच्चाइयों को देखते हुए कर्ज़ चुकाने की शर्तें उदार बनाई जाएंगी या सॉवरेन को दूसरी रियायतें मिलेंगी और क्या 2021 में चीन दुनिया में सबसे अधिक कर्ज देने वाला मुल्क बनकर उभरेगा?

आर्थिक राष्ट्रवाद की होड़

इसी सवाल से तीसरा ट्रेंड जुड़ा है, और वह है जियोइकॉनमिक कंपटीशन. महामारी के बाद से सप्लाई चेन को कई देशों तक फैलाने, उसे बचाने या सुरक्षित रखने पर काफी जोर रहा है. असल में महामारी के शुरुआती दौर में दुनिया को अहसास हुआ कि वे ज़रूरी सामान के लिए चीन पर किस हद तक निर्भर हो चुके हैं. इस वजह से तब उन्हें काफी परेशानी भी उठानी पड़ी. चीन की हरकतों ने भी दूसरे देशों की बेचैनी बढ़ाई. शुरुआती दौर में उसने पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट (पीपीई) को लेकर एकाधिकार जताने की कोशिश की . इसके बाद आर्थिक राष्ट्रवाद की होड़ शुरू हुई. तब कई देशों और सूबों ने अपने लिए पीपीई का इंतज़ाम करने की पहल शुरू की. वैक्सीन की सप्लाई सुनिश्चित करने को लेकर भी उनमें यही रुख़ दिखा. ऐसा करते वक्त उन्हें इसका ख्य़ाल भी नहीं रहा कि वे किस मकसद से ऐसा कर रहे हैं. यहां तक कि उन्होंने व्यापार व्यवस्था की सेहत तक की अनदेखी की. 2008 में वित्तीय संकट वाले दौर में जहां व्यापार को जारी रखने की कोशिश हुई थी, इस बार वैसी पहल भी नहीं हुई.

असल में महामारी के शुरुआती दौर में दुनिया को अहसास हुआ कि वे ज़रूरी सामान के लिए चीन पर किस हद तक निर्भर हो चुके हैं. इस वजह से तब उन्हें काफी परेशानी भी उठानी पड़ी. चीन की हरकतों ने भी दूसरे देशों की बेचैनी बढ़ाई.

2021 में चीन नया शिगूफा खड़ा कर सकता है. पिछले साल उसने जिस तरह से महामारी को काबू करने में कामयाबी हासिल की, वह उसकी दुहाई देकर यह दावा कर सकता है कि चीन का इकॉनमिक सिस्टम सुपीरियर है. 2021 में चीन से व्यापार पर एक हद तक निर्भर रहने वाले ऑस्ट्रेलिया जैसे देश भी उसके खिलाफ़ तनकर खड़े हो सकते हैं. इसकी शुरुआत गुज़रे साल में हो चुकी है. उधर, जर्मनी जैसे देश जो पारंपरिक तौर पर चीन को लेकर न्यूट्रल रहे हैं, उनकी तरफ़ से भी प्रतिरोध बढ़ सकता है. इस मामले में बहुत कुछ चीन के प्रति नरम रुख़ रखने वाली एंगेला मर्केल के पद छोड़ने के बाद जर्मनी के नए चांसलर के रुख़ से तय होगा. दूसरे देशों के लिए भी समझदारी इसी में होगी कि वे अंतरराष्ट्रीय व्यापार व्यवस्था में चीन के प्रभाव से बचने के लिए आपस में सहयोग बढ़ाएं. उम्मीद है कि यह अमेरिका में नई सरकार की प्राथमिकता में भी शामिल होगा. अगर अमेरिका इस पहल में भागीदार नहीं बनता तो ऐसी कोई भी कोशिश नाकाम हो सकती है.

इन तीनों ही मामलों में भारत स्विंग स्टेट (भारतीय विदेश मंत्री के शब्दों में हम अग्रणी भूमिका में नहीं हैं) है। अगर वह देश के अंदर गैरबराबरी को दूर करने की कोशिश करता है, कल्याणकारी योजनाओं को अलग आयाम देता है और उभरते हुए देशों के लिए वैक्सीन फैक्ट्री बन पाता है तो वह असमानता के पहले ट्रेंड के दुष्प्रभाव को कम करने में सफल हो सकता है. अगर वह आर्थिक रिकवरी की प्रक्रिया में पर्यावरण हितों का ख्य़ाल रखता है, मार्केट फ्रेंडली गवर्नेंस रिफॉर्म करता है तो दूसरा ट्रेंड भी उसके हक में जाएगा. वहीं, अगर वह आत्मनिर्भर औद्योगिक नीति की भूल-भुलैया को छोड़कर नई व्यापार व्यवस्था में अग्रणी भूमिका निभाता है तो महामारी के बाद की व्यापार व्यवस्था कहीं मज़बूत और समावेशी होगी. 2021 में हमें इस पर नज़र रखनी होगी.

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