Published on Jun 18, 2021 Updated 0 Hours ago

तकलीफ़ का जनता के बीच तमाशा. यह हमेशा से सत्ता के विमर्श से जुड़ा रहा है. दुख के इस तमाशे की तस्वीरें और उन्हें लेकर दिए जाने वाले संदेशों का मक़सद निचले वर्ग के लोगों को डराना और उनके वर्चस्व की भावना को दबाने के साथ सामाजिक नियंत्रण करना भी होता है

भारत में महामारी की दूसरी लहर की कवरेज से पश्चिम ने अपना ‘काला चेहरा’ उजागर किया
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लॉर्ड बायर्न की कविता, Childe Harold’s Pilgrimage (1812) में नायक हेरल्ड, कोलोसियम की भव्यता पर मंथन कर रहा है. वह अभिशप्त ग्लेडिएटर के बारे में सोचता है, जो गरिमामय है और उदास भी. जिसे छुट्टी के रोज़ उन्मत्त और खून की प्यासी रोमन जनता के मनोरंजन के लिए मार दिया जाता है.

तकलीफ़ का जनता के बीच तमाशा. यह हमेशा से सत्ता के विमर्श से जुड़ा रहा है. दुख के इस तमाशे की तस्वीरें और उन्हें लेकर दिए जाने वाले संदेशों का मक़सद निचले वर्ग के लोगों को डराना और उनके वर्चस्व की भावना को दबाने के साथ सामाजिक नियंत्रण करना भी होता है. जो लोग ऐसा करते हैं, वे खुद को उच्च नैतिक आदर्शों वाला मानते हैं. यही बात इसके केंद्र में होती है. ‘वेन बैड थिंग्स हैपेन टू अदर पीपल’ जॉन पोर्टमैन की शानदार किताब है. वह इसमें लिखते हैं कि ‘दूसरों’ की तकलीफ़ देखकर आनंदित होना कोई असाधारण बात नहीं है. ख़ासकर तब जबकि ऐसा करने वाले को लगता है कि ‘दूसरे’ के साथ ऐसा होना ही चाहिए था. वह इसी का हक़दार है. ऐसी स्थिति में तो तकलीफ़ देना या इस तरह का सलूक सही या मनगढ़ंत भ्रांतियों को जायज़ ठहराने का बहाना बन जाता है. ऐसी स्थिति में प्रताड़ित करने वाले को लगता है कि वह न्याय कर रहा है. इसलिए वह ऐसे किसी मामले में ‘दंड’ देकर आनंदित होता है.

भारत आज कोविड-19 की दूसरी लहर के बाद के दौर से गुजर रहा है. इस लहर में मौत ने हर वर्ग के लोगों को निशाना बनाया है. देश इन हालात से निपटने के लिए प्रतिबद्ध है. दूसरी लहर और उसके बाद की घटनाएं वैश्विक सुर्खियां बनी हैं और उन पर दुनिया की वैसी ही चिंताएं भी सामने आई हैं. मौत के मुहाने खड़े पीड़ितों, एक साथ कई चिताएं जलाए जाने की तबाही वाले मंजर की तस्वीरों के साथ अक्षमतामुनाफाखोरी और लापरवाह रवैये की ख़बरें ज्य़ादातर अमेरिकी अख़बारों और प्राइमटाइम टेलीविज़न का हिस्सा बनी हैं. ये छवियां वैसी ही हैं, जो पिछली तीन सदियों से एशियाई देशों के साथ ताल्लुक़ात के दौरान यहां को लेकर गढ़ी गईं. यह ‘तुम्हारा ही करा धरा है’, इसलिए ‘यह ठीक ही है’. यही सोच इन मामलों में दिखी है.

तक़नीक और सोशल मीडिया की भूमिका

आज संचार तकनीक बहुत तरक्की कर चुकी है. बिजली की गति से सूचनाएं दुनिया भर में पहुंच रही हैं और इससे स्थानीय ख़बरों का भी वैश्विक प्रभाव हो रहा है. भारत में महामारी की नई लहर के वीडियो क्लिप और तस्वीरें इंटरनेट के ज़रिये दुनिया भर में पहुंचीं. सोशल मीडिया के ज़रिये इनका और भी विस्तार हुआ. इससे जुड़ी सनसनीखेज तस्वीरें और लच्छेदार भाषा में खबरें दुनिया भर के ड्रॉइंगरूम में पहुंचाई गईं. इससे दूरदराज़ के और इन घटनाओं से कटे रहने वाले लोग भी जटिल सामाजिक-राजनीतिक बहस में शामिल हो गए.

वहां भारत को जिस तरह से पेश किया गया, वह महामारी के घरेलू संकट के रिपोर्ताज से बिल्कुल अलग था. महामारी के घरेलू संकट को लेकर उन देशों में लोगों की एकजुटता, क्या कदम उठाए जा रहे हैं और उबाऊ राष्ट्रवाद ही मीडिया में पेश किया गया. पश्चिमी मीडिया एलीट (अभिजात्य) वर्ग का दोहरा चरित्र इसमें साफ़ दिख रहा था. उन्होंने झूठ और फ़रेब का सहारा लेकर और हमारी तकलीफ़ों पर मनगढ़ंत बातें बनाकर हमें नीचा दिखाने की कोशिश की, क्योंकि हम उनके लिए ‘दूसरे’ थे, वह भी दूरदराज़ में रहने वाले, जिनसे उन्हें कोई सहानुभूति नहीं थी. कुछ इसी तरह का सलूक उन्होंने अपने यहां के निचले तबके के लोगों के साथ किया, जो सामाजिक प्रभुत्व रखने वाले समूहों के साथ ‘फिज़िकल और इमोशनल स्पेस’ यानी एक भौतिक और भावनात्मक दायरा साझा करते थे, लेकिन सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक तौर पर हाशिये पर पड़े हुए थे. सिर्फ़ इसलिए कि उनकी जाति, वर्ग, रंग या संस्कृति उनसे अलग थी.

भारत में महामारी की नई लहर के वीडियो क्लिप और तस्वीरें इंटरनेट के ज़रिये दुनिया भर में पहुंचीं. सोशल मीडिया के ज़रिये इनका और भी विस्तार हुआ. इससे जुड़ी सनसनीखेज तस्वीरें और लच्छेदार भाषा में खबरें दुनिया भर के ड्रॉइंगरूम में पहुंचाई गईं. 

फिलिप ड्रे ने अपनी किताब ‘ऐट द हैंड्स ऑफ़ पर्संस अननोनः द लिंचिंग ऑफ ब्लैक अमेरिका’ में इसका ज़िक्र किया है कि किस तरह से अश्वेतों की पब्लिक लिंचिंग के लिए समूचा परिवार, रविवार की अपनी शानदार पोशाकों में घरों से बाहर निकलता था. वह लिखते हैं कि ये घटनाएं गांव के मेले की तरह होती थीं. उसी तरह की सामाजिक चहल-पहल और जश्न का माहौल इनमें दिखता था. मेले की तरह ही खाने और ड्रिंक का इंतजाम इस दौरान होता था. इतना ही नहीं, घटनाओं को याद रखने के लिए तस्वीरें और सुवेनियर (स्मृति चिन्ह) लिए जाते थे, अक्सर एक लाचार अश्वेत के शरीर के किसी हिस्से के साथ, जिसे बीच बाज़ार में मार दिया गया था.

हावर्ड स्मीड समझाते हैं कि अमूमन पीड़ितों पर किसी अपराध में शामिल होने का आरोप नहीं होता था बल्कि लिंचिंग की कार्यवाही ‘एक सांकेतिक प्रथा बन गई थी, जिसमें अश्वेत पीड़ित अपनी नस्ल के प्रतिनिधि होते थे और उन्हें एक से अधिक अपराध के लिए दंडित किया जाता था….लिंचिंग के इस ख़तरनाक कृत्य के ज़रिये अश्वेतों को यह चेतावनी दी जाती थी कि वे श्वेतों के वर्चस्व को चुनौती न दें.’ यह कुछ वैसा ही था, जैसे छुट्टी के दिन कोलोसियम के ग्रैंड एरीना में ग्लेडिएटर की मौत रोम की उन्मादी भीड़ को रोमांचित करती थी. उसी तरह से मारे जाने से पहले असहाय अश्वेत को प्रताड़ित किया जाता था. उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े किए जाते थे और फिर उसे ज़िंदा जला दिया जाता था. इस तरह से वाइट सुपरमैसिस्ट यानी श्वेत वर्चस्ववादी अपनी ख़ून की प्यास बुझाते थे.

लिंचिंग से जुड़ी राजनीति

लिंचिंग का वह दौर तो काफी पहले ख़त्म हो गया, लेकिन जिस रवैये के कारण यह कुकृत्य होता था, वह खत्म नहीं हुआ. अमेरिका में जॉर्ज फ्लॉयड और दूसरे अश्वेतों की श्वेत पुलिस अधिकारियों के हाथों हत्या बताती है कि वहां नस्लीय रिश्तों की आज भी क्या स्थिति है. पहले भी ऐसा होता था और अब भी ऐसा होता है, वास्तविक घटनाओं को लेकर जो रिपोर्ताज होती है, उससे बड़ा उन घटनाओं को लेकर किया गया प्रोपगेंडा बन जाता है. इससे श्रोताओं या दर्शकों को ख़ासतौर से सोचने और फिर उस पर प्रतिक्रिया हासिल करने का मक़सद पूरा होता है. कोरोना की दूसरी लहर से तबाह भारत को लेकर एक ऐसी ही खामोश बहस हुई है, जिससे वे खुश हैं. और इसका एक ख़ास संदेश हैः वायरस ने तुम्हें तुम्हारी औक़ात बता दी है. आख़िर तुम्हारे मन में महामारी से निपटने को लेकर ‘सभ्य पश्चिम’ से बेहतर प्रदर्शन करने का ख्य़ाल भी कैसे आया?

रघु राय कहते हैं कि पश्चिम के फोटोजर्नलिस्ट, ख़ासतौर पर भारत की ऐसी भड़काने वाली तस्वीरें लेना पसंद करते हैं, क्योंकि वे उनकी अंतरराष्ट्रीय जूरी को अपील करती हैं. ग़रीबी और निराशा की दिल दुखाने ख़बरें एलीट नज़रिये से देखी और बताई जाती हैं. उनके पीछे का शोषण करने वाला और स्याह चेहरा छिपा लिया जाता है, जिसका मक़सद करियर को आगे बढ़ाना और फौरन प्रसिद्धि हासिल करना होता है. अलेसियो मामो इटली के फोटोजर्नलिस्ट हैं, जो पुरस्कृत भी किए जा चुके हैं. उन्होंने मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के गांवों में ‘ड्रीमिंग फूड’ नाम से फोटो सीरीज़ की थी. इसमें ग़रीब और भूखे बच्चों के सामने ‘नकली खाना’ रखा गया, जो तस्वीरों में अच्छा दिखता है. इसके बाद उनसे आंखें बंद करके यह बताने को कहा गया कि टेबल पर उनके सामने जो खाने की चीजें रखी गई हैं, उनमें से उन्हें क्या पसंद है? वे कौन सा फूड लेना चाहेंगे?

कोरोना की दूसरी लहर से तबाह भारत को लेकर एक ऐसी ही खामोश बहस हुई है, जिससे वे खुश हैं. और इसका एक ख़ास संदेश हैः वायरस ने तुम्हें तुम्हारी औक़ात बता दी है. आख़िर तुम्हारे मन में महामारी से निपटने को लेकर ‘सभ्य पश्चिम’ से बेहतर प्रदर्शन करने का ख्य़ाल भी कैसे आया? 

अश्वेतों की तकलीफ़ की मामूली डिटेल भी टीवी पर लाइव दिखाई जाती है और सोशल मीडिया वह तमाशा पेश करता है, जो उस लिंच मॉब को रोमांचित करता है, जो ऐसे सुवेनियर की तलाश में रहते हैं. दूसरी तरफ श्वेत लोगों के साथ ऐसा नहीं होता. उनके सम्मान से जीने और निजता के अधिकारों का ख़्याल रखा जाता है. इस बात से न सिर्फ़ यह पता चलता है कि नस्लीय खाई चौड़ी और गहरी बनी हुई तो है ही, बल्कि नस्लीय खांचे से ही दूसरे वर्ग का रवैया भी तय हो रहा है.

अपने यहां के गरीबों और वंचितों को हाशिये पर धकेलने का काम सिर्फ़ पश्चिमी देशों में ही नहीं हो रहा है. कम आय वाले देशों में भी एलीट वर्ग ने गरीबी को सामान्य मान लिया है और उस पर परदा डाले रखा है. ये लोग जब अपनी बड़ी, चमकती कारों और चीन की बनाई हाई-स्पीड ट्रेनों से फर्राटा भरते गुजरते हैं, तब अपने यहां निराशा में जीने वाले लोगों से अनजान बने रहते हैं. इन देशों में जो वर्ग हाशिये पर है, उसे लगातार पावर स्ट्रक्चर और पॉलिसी फ्रेमवर्क से बाहर रखा जाता है. इसका मक़सद एलीटों के बीच एक सहमति कायम करना है. महामारी ने इन समुदायों के बीच की दरार को सामने ला पटका है. इससे अमीरी-गरीबी की खाई चौड़ी हुई है और वर्ग और जाति के बीच का अंतर भी स्पष्ट हो गया है. इसमें कोई शक नहीं है कि गरीबों और हाशिये पर पड़े लोगों पर महामारी की सबसे अधिक मार पड़ी है. इस वर्ग के हाथ से बड़े पैमाने पर रोज़गार छिन गया है. उसकी पहुंच बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं तक नहीं है. दूसरी तरफ, अमीर लोग अपनी संपत्ति की रक्षा में जुटे हैं. उन्हें अपने स्वास्थ्य की फिक्र है. हाल यह है कि इस वर्ग के लोग अपनी पसंद की वैक्सीन लगवाने के लिए दूसरे महादेश तक का सफ़र कर रहे हैं.

वायरस के ख़िलाफ़ सामूहिकता की जीत

भारत की राष्ट्रीय चेतना यहां के जीवंत लोकतंत्र से भी परिभाषित होती है. इसमें अलग-अलग सामुदायिक ढांचों के बीच अनोखा लेनदेन होता है. यहां की मीडिया अपनी बात जोर देकर कहती है, लोग जागरूक हैं और सरकार सचेत. यहां सैकड़ों, बल्कि हजारों, क्षेत्रीय और उप-क्षेत्रीय पहचानें हैं, जिन्हें मिलाकर एक भारतीय पहचान बनती है. हमें इस पर गर्व है. ‘विविधता में एकता’, यह हमारी ख़ासियत है. यह हमें आज अलग-अलग देशों से बिल्कुल अलहदा पहचान देती है. भारत में महामारी को रोकने में हमने जो कामयाबी हासिल की है, उसमें इसी सामूहिक जज्ब़े का योगदान है. इसी की बदौलत हमने यह लड़ाई मिलकर लड़ी है. इसमें अलग-अलग समुदायों का सहयोग मिला है. ऐसा सिर्फ़ भारत में ही हो सकता था. हमारा रास्ता उन देशों से बिल्कुल अलग रहा है, जहां महामारी से जंग सिर्फ़ सरकारी तरीकों के ज़रिये हुई है.

भारत में महामारी को रोकने में हमने जो कामयाबी हासिल की है, उसमें इसी सामूहिक जज्ब़े का योगदान है. इसी की बदौलत हमने यह लड़ाई मिलकर लड़ी है. इसमें अलग-अलग समुदायों का सहयोग मिला है. ऐसा सिर्फ़ भारत में ही हो सकता था

यहां कई स्वास्थ्यकर्मियों ने अपना कर्तव्य पूरा करते हुए जान की कुर्बानी दे दी, यह उनकी सेवा और त्याग की कहानियां हैं. आम लोगों ने अपनी जिंदगी भर की बचत उन पर खर्च कर दी, जिन्हें मदद की ज़रूरत थी. अपने समुदाय की फिक्र में पड़ोसियों ने रतजगे किए. बीमारों की मदद के लिए नौजवान आगे बढ़े. आम पुलिस वाला अस्पतालों से बाहर संघर्ष करते लोगों की मदद में जुटाता रहा. इसी तरह से जिस भारतीय के पास स्मार्टफोन है, वह किसी न किसी सोशल मीडिया कोविड सपोर्ट ग्रुप का हिस्सा बन गया. भारत की असल कहानी यही है. इसे भी बताया जाना चाहिए था.

यह बात और है कि जिन लोगों को विकासशील देश से मायूसी और लाचारी की खबरों की उम्मीद रहती है, उन्हें ये रोमांचित नहीं करतीं. भारत से ख़बरें उम्मीद और फिर से खड़े होने की होनी चाहिए थीं. किस तरह से सामुदायिक स्तर पर पहल करके अनगिनत बाधाओं को पार किया गया, ख़बरें इसकी होनी चाहिये थीं. महामारी से जूझने के बेमिसाल हौसले की भी होतीं. महामारी ने जिस भयानक अंदाज़ में हमला किया, उससे सरकार की सीमाएं सामने आ गईं. उसकी कमियों से परदा हट गया. ऐसे में सामुदायिक स्तर पर महामारी से लड़ने को जो जज्ब़ा दिखाया गया, उसे लंबे वक्त तक याद रखा जाएगा. जिन लोगों ने इन हालात में जूझने का हौसला दिखाया और यहां तक कि सत्ता की भी मदद की, उनकी कहानियां आने वाली पीढ़ियां भी याद रखेंगी. दूसरी तरफ, संपादकीय पूर्वाग्रह, बने-बनाए ढांचे में दिखाने की कोशिश और भारत के हालात पर अपने यहां बेतुकी बहस को हवा दी गई, जबकि महामारी को लेकर यहां से उनका तजुर्बा बिल्कुल अलग था. इससे कोविड से जूझने को लेकर भारत की ग़लत तस्वीर पेश की गई, साथ ही वैचारिक मतभेदों को हथियार की शक्ल दे दी गई.

मई के महीने में भारत को लेकर जिस तरह की ख़बरें प्रसारित की गईं, वह एक मिनी-सीरीज़ थी, जिसमें संवेदनशीलता बिल्कुल भी नहीं थी. यह दुख़ का व्यापार और मनोरंजन था

नीत्से ने कहा था, ‘दूसरों को तकलीफ़ में देखना किसी के लिए अच्छा नहीं होता, दूसरों को और प्रताड़ित करना…बिना क्रूरता के भी जश्न का सबब नहीं होता.’ दिन-रात हिंसा और संघर्ष की ख़बरें दिखाकर, पाठकों को सुन्न करके, पाठकों के पैटर्न में बदलाव लाने से एक कुचक्र बनता है, जहां तकलीफ़ और यातना को और अधिक नाटकीय बनाया जाता है ताकि कुछ और दर्शक बटोरे जा सकें. इन हालात में दूसरों की तकलीफ़ को तोड़-मरोड़कर पेश किया जाता है क्योंकि वे उन घटनाओं से नहीं गुज़रे होते हैं. पूर्वाग्रह, बनी-बनाई सोच और घिसा-पिटा नज़रिया, इस तरह की नाटकीय ग़लतियों का ज़रिया बनता है. यह बात और है कि इन गलत सोच को ही ‘दूसरों’ को समझने का आधार बताया जाता है. इसलिए मई के महीने में भारत को लेकर जिस तरह की ख़बरें प्रसारित की गईं, वह एक मिनी-सीरीज़ थी, जिसमें संवेदनशीलता बिल्कुल भी नहीं थी. यह दुख़ का व्यापार और मनोरंजन था, कुछ वैसा ही, जब रविवार के दिन अश्वेतों को मारने के लिए लकदक पोशाकों में अभिजात्य श्वेतों का पूरा का पूरा परिवार घर से निकला करता था.

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Authors

Samir Saran

Samir Saran

Samir Saran is the President of the Observer Research Foundation (ORF), India’s premier think tank, headquartered in New Delhi with affiliates in North America and ...

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Jaibal Naduvath

Jaibal Naduvath

Jaibal is Vice President and Senior Fellow of the Observer Research Foundation (ORF), India’s premier think tank. His research focuses on issues of cross cultural ...

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