भारत के विकास की कहानी, ख़ासकर बीते तीन दशकों में आर्थिक उदारीकरण के समय से, केवल आर्थिक वृद्धि पर केंद्रित रही है. इस वृद्धि की क़ीमत को ज्य़ादा तवज्जो नहीं दी गयी है. यह सही है कि वृद्धि ने बड़े पूंजीगत ख़र्चों के ज़रिये नयी पूंजी का सृजन सुनिश्चित किया, लेकिन ज्य़ादातर मामलों में समाज और प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र पर इसकी जो क़ीमत थोपी गयी वह इतनी ज्य़ादा रही है कि उसने ऐसे निवेशों की प्रभावकारिता पर सवाल खड़े किये हैं. ऐसे पूंजीगत ख़र्चों ने रेखीय अवसंरचना (linear infrastructure), कृषि, उद्योग, और शहरी बसाहटों; प्राकृतिक जलप्रवाह को बाधित करनेवाले बांधों के निर्माण इत्यादि के लिए बड़े पैमाने पर भू-उपयोग में बदलावों को देखा है. इनका ताल्लुक पुनर्वास की सामाजिक क़ीमत या पुनर्वास के अभाव में सामाजिक टकरावों को उत्पन्न करने से भी रहा है. फिर भी, आर्थिक वृद्धि को प्रोत्साहित करने में भौतिक पूंजी की बेहद अहम भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता है, वह भी तब, जब भौतिक अवसंरचना के मैक्रो-स्केल पर पूरे कारोबारी माहौल और आर्थिक प्रतिस्पर्धात्मकता को बढ़ाने के अनुभवजन्य साक्ष्य भी पर्याप्त हैं.
आर्थिक वृद्धि को प्रोत्साहित करने में भौतिक पूंजी की बेहद अहम भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता है, वह भी तब, जब भौतिक अवसंरचना के मैक्रो-स्केल पर पूरे कारोबारी माहौल और आर्थिक प्रतिस्पर्धात्मकता को बढ़ाने के अनुभवजन्य साक्ष्य भी पर्याप्त हैं.
हालांकि, वृद्धि को ही विकास का इकलौता मानदंड मानने की दृष्टि को आधी सदी से अधिक समय वैश्विक स्तर पर चुनौती दी जाती रही है. विकास को ‘टिकाऊ विकास लक्ष्यों’ या SDG के चश्मे से देखे जाने से हाल में यह चुनौती और प्रमुख होती जा रही है. काफ़ी हद तक, SDG की सैद्धांतिक बुनियाद मोहन मुनासिंघे की sustainomics में मौजूद है, जो आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय लक्ष्यों के संयोजन के एक पारविषयी ज्ञान आधार की बात करती है. यह विकास के आयामों समता, दक्षता, और टिकाऊपन की बेमेल तिकड़ी के बीच एक मेल-मिलाप के रूप में भी ख़ुद को पेश करती है. इस वैश्विक नीति और अकादमिक चिंतन के काफ़ी उलट, भारत के ‘वृद्धि-अंधमोह’ ने एक ऐसा विकास प्रतिमान बनाया है, जो पर्यावरणीय टिकाऊपन के अलावा, समता और वितरणात्मक न्याय के साथ समझौते का ही अक्सर गवाह रहा है. कोविड-19 महामारी के मद्देनज़र 2020 के आर्थिक लॉकडाउन के दौरान संकट में सहारा देने के लिए सामाजिक सुरक्षा का घोर अभाव प्रदर्शित हुआ. लॉकडाउन ने देश के प्रवासी मजदूरों, सूक्ष्म और लघु उद्यमों, और ग़रीबों की तकलीफ़ों को साफ़ तौर पर उजागर किया. यह स्पष्ट था कि अब तक गरीबों और कमज़ोर लोगों को सामाजिक सहारा बाज़ार की शक्तियों द्वारा मुहैया कराया गया है, और इस तरह, नीति-चालित वितरण और समता की विफलता सामने आयी है. लॉकडाउन स्वाभाविक बाजार शक्तियों पर तालाबंदी करने जैसा था, जिसने अनौपचारिक श्रम शक्ति को अधर में छोड़ दिया.
लॉकडाउन ने देश के प्रवासी मजदूरों, सूक्ष्म और लघु उद्यमों, और ग़रीबों की तकलीफ़ों को साफ़ तौर पर उजागर किया. यह स्पष्ट था कि अब तक गरीबों और कमज़ोर लोगों को सामाजिक सहारा बाज़ार की शक्तियों द्वारा मुहैया कराया गया है, और इस तरह, नीति-चालित वितरण और समता की विफलता सामने आयी है.
दूसरी तरफ़, एसडीजी एजेंडा मोटे तौर पर पूंजी की चार शक्तियों- मानव पूंजी (एसडीजी 1 – 5), भौतिक पूंजी (एसडीजी 8 और 9), प्राकृतिक पूंजी (एसडीजी 14 और 15) और सामाजिक पूंजी (एसडीजी 10 और 16) पर आधारित है. ‘इन्क्लूसिव वेल्थ’ पर यूएनएपी का प्रकाशन 1990 से 2014 की अवधि में इन पूंजीगत संपत्तियों में से तीन- प्राकृतिक पूंजी, मानव पूंजी और उत्पादित या भौतिक पूंजी के सामाजिक मूल्यों में बदलाव की बात करता है. इस रिपोर्ट के मुताबिक़, 1990 और 2014 के बीच, भौतिक पूंजी और स्वास्थ्य-और शिक्षा- उत्प्रेरित मानव पूंजी वैश्विक स्तर पर क्रमश: 3.8% और 2.1% प्रति वर्ष की दर से बढ़ी- दोनों की यह वृद्धि प्राकृतिक पूंजी में 0.7% की गिरावट की क़ीमत पर हुई. यह रिपोर्ट यह निष्कर्ष निकालती है कि भारत में जंगलों में आ रही कमी टिकाऊपन के साथ विकास करने की क्षमता पर दबाव उत्पन्न कर रही है. इस अवधि के दौरान मानव और भौतिक पूंजी में वृद्धि के कारण भारत की ‘समावेशी संपदा’ बमुश्किल 1.6% प्रति वर्ष की दर से बढ़ी, जबकि 2014 में प्रति व्यक्ति समावेशी संपदा 368 अमेरिकी डॉलर से घटकर 359 अमेरिकी डॉलर (दोनों 2005 के मूल्यों पर) हो गयी. अगर समावेशी संपत्ति को विकास के मूल आधार या कारक के रूप में लिया जाए, तो इस तरह की गिरावट विकास प्रक्रिया के टिकाऊपन पर गंभीर सवाल खड़े करती है. इस तरह का एकांगी विकास पथ अगले 10-15 सालों में 10 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था की ओर जानेवाली भारत की राह को टिकाऊ रहने नहीं दे सकता. इसे एक संपूर्णता भरा दृष्टिकोण चाहिए.
महामारी से उपजी हताशा
दूसरी तरफ़, अपनी Limits to Growth थीसिस में क्लब ऑफ़ रोम द्वारा की गयी प्रलय की भविष्यवाणी के माल्थसवादी पंथ का अनुसरण करते हुए, कैटलन अर्थशास्त्री (जैसे जॉन मार्टिनेज-एलियर) पहले ही आगे के रास्ते के रूप में अवृद्धि का प्रचार कर रहे हैं. Degrowth या इनी गतिविधियों में धीमापन लाने या पीछे की ओर बढ़ने की बात करता है, ताकि प्राकृतिक पूंजी के रूप में जीवन के सबसे मूल आधार को टिकाये रखा जा सके. विकास को ‘वृद्धि से परे’ (बल्कि ‘वृद्धि-विरोधी’) परिप्रेक्ष्य में देखते हुए ग्लोबल नॉर्थ में आर्थिक गतिविधियों में संकुचन की इस प्रक्रिया ने ग्लोबल साउथ में सामाजिक संगठन के वास्ते एक ज्यादा स्वपरिभाषित मार्ग के लिए जगह पैदा करने की स्थिति बनायी है.
10 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था केवल एक आंकड़ा नहीं है- यह एक सपना है और एक दृष्टि है. ऐसा कोई सपना न तो गैर-समावेशी तरीक़े से हासिल किया जा सकता है, न यह सपना किसी को पीछे छूटे रहने दे सकता है.
हालांकि, भारत का विकास ‘अवृद्धि’ की दिशा में नहीं हो सकता. जैसा कि मैंने पहले प्रस्तावित किया है, अवृद्धि केवल एक ऐसी दुनिया से निकला वक्तव्य नहीं है जो पहले ही विकसित हो चुकी, बल्कि एक ऐसी दुनिया से है जो आर्थिक लिहाज़ (आमदनी या संपदा में बराबरी के मानदंडों पर) ज्यादा बराबर है, वितरणात्मक न्याय के परिप्रेक्ष्य में ज्यादा समतापूर्ण है, और जहां सामाजिक सुरक्षा ने कल्याणकारी राज्य का विकास होने में मदद की है. भारत में स्थिति ठीक उलट है. 1.3 अरब से ज्यादा आबादी वाले देश में समता और वितरण संबंधी चिंताएं अब भी एक चुनौती पेश करती हैं, एक हालिया लेख यह तर्क देता है कि कैसे आमदनी और संपदा की बढ़ती ग़ैर-बराबरी भारत की दीर्घकालिक वृद्धि की संभावनाओं को बाधित कर सकती है, ख़ासकर जब उपभोग से जुड़ी मांग वृद्धि की मुख्य वाहक हो.
अगर समावेशी संपत्ति को विकास के मूल आधार या कारक के रूप में लिया जाए, तो इस तरह की गिरावट विकास प्रक्रिया के टिकाऊपन पर गंभीर सवाल खड़े करती है. इस तरह का एकांगी विकास पथ अगले 10-15 सालों में 10 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था की ओर जानेवाली भारत की राह को टिकाऊ रहने नहीं दे सकता.
10 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था केवल एक आंकड़ा नहीं है- यह एक सपना है और एक दृष्टि है. ऐसा कोई सपना न तो गैर-समावेशी तरीक़े से हासिल किया जा सकता है, न यह सपना किसी को पीछे छूटे रहने दे सकता है. महामारी के चलते भारत में लॉकडाउन को ध्यान में रखकर लिखे गये अर्मत्य सेन के निबंध ने एक बार फिर समता और वितरणात्मक न्याय की ज़रूरत को दोहराया और इसके लिए उन्होंने हवाला दिया कि कैसे ब्रिटेन में युद्ध के दशकों के दौरान जीवन प्रत्याशा बढ़ गयी. सेन ने जोर दिया, ‘ समता के अनुसरण और अलाभकर स्थितियों में रहनेवालों पर ज्यादा ध्यान दिये जाने से मिली सकारात्मक सीखों ने उस [व्यवस्था] के उदय में मदद की जिसे कल्याणकारी राज्य के रूप में जाना जाने लगा’.
महामारी के चलते उपजी आर्थिक अव्यवस्था से, भारत को 10 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था के सपने को साकार करने के लिए फ़ीनिक्स की तरह राख से उठ खड़ा होना होगा. यह दो मुख्य तत्वों पर निर्भर करेगा : पहला, प्राकृतिक पूंजी के टिकाऊपन से समझौता किये बिना, स्वास्थ्य-और शिक्षा- से उत्प्रेरित मानव पूंजी और भौतिक पूंजी में एक साथ वृद्धि; और दूसरा, ग़ैर-बराबरी, जो दीर्घकालिक विकास संभावनाओं की राह में पेश आनी है, को कम करने के ज़रिये वितरणात्मक न्याय के उद्देश्य के लिए काम करनेवाला एक ज्यादा बराबरी वाला भारत. इसलिए, इस 10 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर वाले भारत को ‘समता, दक्षता और टिकाऊपन’ की बेमेल तिकड़ी के बीच मेल कराते हुए, ख़ुद को SDG पर आधारित ज्यादा समतापूर्ण हरित अर्थव्यवस्था के रूप में पेश करना चाहिए.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.