Author : Girish Luthra

Published on May 23, 2023 Updated 0 Hours ago
पोखरण-II के बाद भारत का न्यूक्लियर त्रिमूर्ति और समुद्र से हमले की क्षमता!

यह लेख पोखरण के 25 साल: भारत की परमाणु यात्रा की समीक्षा श्रृंखला का हिस्सा है.


भारत पोखरण में अपने परमाणु परीक्षण के पच्चीस साल बीतने के बाद आज वैश्विक और क्षेत्रीय स्तर पर एक विशेष व महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है. इतना ही नहीं इस दौरान वैश्विक स्तर पर न केवल भारत की प्रासंगिकता में तेज़ी से इज़ाफा हुआ है, बल्कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में स्थिरता, सुरक्षा और विकास को बढ़ावा देने में भी इसकी भूमिका का महत्व बढ़ा है. इसके साथ ही भारत एक संतुलित परमाणु सिद्धांत और मज़बूत सुरक्षा उपायों के साथ एक ज़िम्मेदार परमाणु ताक़त के रूप में भी उभरा है. भारत स्थानीय स्तर के विवादों और संघर्षों के दौरान किसी भी तरह की गैर-ज़िम्मेदार परमाणु अस्थिरता से दूर रहा है. साथ ही साथ भारत ने हथियारों के विकास और परीक्षण के अलावा वितरण प्लेटफॉर्म्स, कमांड और कंट्रोल सिस्टम्स के मामले और संवेदनशील सामग्री के परिवहन और भंडारण के मोर्चे पर अपनी परमाणु प्रतिरोधक क्षमता को धीरे-धीरे मज़बूत किया है. जनवरी 2003 में जारी किए गए भारत के परमाणु सिद्धांत में इसका स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि किसी परमाणु हमले की स्थिति में जवाबी कार्रवाई के दौरान लैंड-बेस्ड यानी भूमि आधारित और हवाई मार्ग से डिलीवरी क्षमताओं को एक साथ अमल में लाया जाए.

भारत का SSBN कार्यक्रम

पनडुब्बी से परमाणु हथियार प्रक्षेपित करने की क्षमता का अत्यधिक महत्व है. आमतौर पर इस क्षमता को परमाणु ट्रायड के थर्ड लेग यानी तीसरे क़दम के रूप में संदर्भित किया जाता है. इस क्षमता को शुरुआत में ही पहचान लिया गया था, विशेष रूप से इसका अंतर्निहित लचीलापन, विपरीत परिस्थियों में भी इसके बने रहने की विशेषता और गोपनीयता, भारत के नो-फर्स्ट यूज (NFU) के सिद्धांत और विश्वसनीय न्यूनतम प्रतिकार नीति के साथ-साथ अच्छी तरह से जुड़ा हुआ था. भारतीय नौसेना, रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO) और निजी क्षेत्र के बीच स्वदेश में निर्मित परमाणु-संचालित, परमाणु बैलिस्टिक मिसाइल ले जाने वाली सबमरीन (SSBN) के बीच साझेदारी का एक नया मॉडल रूस की सहायता के साथ कुछ क्षेत्रों में विकसित और कार्यान्वित किया गया था. वर्ष 1988 से 1991 तक तत्कालीन सोवियत संघ से चक्र-I और वर्ष 2012 और 2021 के बीच रूस से चक्र-II के लीज के माध्यम से सामानांतर में परमाणु आधारित पनडुब्बियों (SSN) के संचालन को लेकर भारतीय नौसेना द्वारा मूल्यवान अनुभव प्राप्त किया गया था. वर्ष 2025 से एक और रूसी SSN के लीज के लिए भी वर्ष 2019 में एक अनुबंध पर हस्ताक्षर किए गए थे.

कई चुनौतियों पर पार पाने के बाद पहली स्वदेशी SSBN वर्ष 2009 में लॉन्च की गई थी और वर्ष 2016 में INS अरिहंत (कोडनेम S2) के रूप में उसे कमीशन किया गया था. इस सबमीन ने वर्ष 2018 में अपना पहली निवारक गश्त की थी. देश के न्यूक्लियर ट्रायड के परिचालन के अवसर पर भारत के प्रधानमंत्री द्वारा चालक दल को शुभकामनाएं दी गई थीं और उन्हें सम्मानित किया गया था. प्रधानमंत्री ने न्यूक्लियर कमांड अथॉरिटी के अंतर्गत कड़े प्रोटोकॉल के साथ भारत के मज़बूत कमांड एवं कंट्रोल स्ट्रक्चर और प्रभावी सेफ्टी एश्योरेंस आर्किटेक्चर पर भी प्रकाश डाला. इस सबमरीन ने वर्ष 2022 में अपनी बैलिस्टिक मिसाइल का पहला सफल प्रक्षेपण किया. इस सबमीरन द्वारा ले जाई जाने वाली K15 बैलिस्टिक मिसाइल की सीमित रेंज से संबंधित चिंताओं को अधिक रेंज वाले इसके संस्करणों के सफल परीक्षण के साथ धीरे-धीरे दूर किया गया है. इसके साथ ही पनडुब्बी के मुश्किल रखरखाव, प्रशिक्षण और परिचालन प्रक्रियाओं से संबंधित पहलुओं को भी ध्यान में रखा गया. इसके क्षमता निर्माण से संबंधित बुनियादी ढांचे में सुधार के लिए भी कई नए-नए उपाय अमल में लाए गए. अगली SSBN (कोड नेम S3 और जिसे INS अरिघाट के रूप में कमीशन किया जाना है) नवंबर 2017 में लॉन्च की गई थी और इसका अभी परीक्षण चल रहा है. उम्मीद है ज़ल्द ही इसका कमीशन हो जाएगा.

इसके साथ ही सबमीरन में कई डिज़ाइन फीचर्स को बढ़ाने की भी ज़रूरत महसूस की गई, जिनमें से कई फीचर्स को अगली दो पनडुब्बियों, यानी S4 और S4 स्टार में सम्मिलित किया जा रहा है. SSBNs की अगली जेनरेशन के हिस्से के रूप में एक बड़ी और ज़्यादा सक्षम SSBN, जिसका कोडनेम S5 है, के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर की स्थापना करने हेतु अनुमति दी गई थी. देखा जाए तो सबमरीन्स के निर्माण के दौरान फ्लोट, मूव और फाइट तीनों ही क्षेत्रों में स्वदेशी सामग्री का उपयोग भी काफ़ी बढ़ गया है. हालांकि, एक अहम मसला यह है कि SSBN को लॉन्च करने और उन्हें कमीशन करने के बीच का अंतराल काफ़ी लंबा रहा है और इस लंबी अवधि को कम करने की ज़रूरत है.

चीन के विरुद्ध प्रतिरोध

भारत और चीन दोनों देशों के पास परमाणु हथियारों को लेकर नो-फर्स्ट यूज पॉलिसी यानी पहले परमाणु हथियारों का इस्तेमाल नहीं करने की नीति है. घरेलू स्तर पर इस मुद्दे पर तमाम चर्चा-परिचर्चाओं के बावज़ूद दोनों ने इस नीति के साथ बने रहने का रास्ता चुना है. हाल के वर्षों में देखा जाए तो सबमरीन आधारित क्षमताओं समेत चीन का परमाणु हथियार कार्यक्रम तीव्र गति से आगे बढ़ा है और आने वाले दशक में भी वह इसकी गति को बनाए रखने के लिए पूरी तरह से तैयार है. चीन का परमाणु हथियारों का भंडार वर्ष 2027 तक लगभग 700 परमाणु हथियारों तक पहुंच जाने की संभावना है, फिलहाल उसके पास क़रीब 400 परमाणु हथियार मौज़ूद हैं. एक संतुलित नज़रिए के साथ भारत अपने परमाणु संपन्न पड़ोसियों के साथ परमाणु हथियारों की संख्या में बराबरी नहीं चाहता है, बल्कि वह अपनी घोषित नीतियों के अनुरूप स्वीकार्यता बनाए रखने की योजना बना रहा है. दोनों देशों के बीच लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल यानी वास्तविक नियंत्रण रेखा के साथ चीन की ओर से जो आक्रामक और बलपूर्वक कार्रवाइयां होती हैं, उनके मद्देनज़र विश्वसनीय न्यूनतम प्रतिरोध ही ऐसी चीज़ है, जो एक अहम स्तंभ बना हुआ है. इसके अतिरिक्त, इस क्षेत्र में चीन का जो व्यापक नज़रिया है, वो चिंता की वजह रहा है. पूर्वी लद्दाख में (और बाद में अन्य जगहों में) झड़पों और चीनी सैन्य इन्फ्रास्ट्रक्चर के निर्माण के बाद से परमाणु प्रतिरोध का मुद्दा फिर से केंद्र में आ गया है. यहां यह देखना बेहद महत्त्वपूर्ण है कि परमाणु हथियारों से लैस पनडुब्बियां लो-यील्ड टैक्टिकल न्यूक्लियर हथियारों की श्रेणी में नहीं आती हैं और इस वजह से सबमरीन्स परमाणु हथियारों का कोई पहला उपयोग रोकने के लिए एक विश्वसनीय, दूसरी-स्ट्राइक क्षमता प्रदान करती हैं. इतना ही नहीं सबमरीन्स सामरिक स्थिरता की दिशा में अहम योगदान देते हुए देश की रक्षा के लिए एक अनूठी क्षमता प्रदान करने का काम करती हैं.

चीन के साथ चल रहे सीमा गतिरोध और द्विपक्षीय चर्चाओं में से जो एक बात बाहर निकल कर आती है कि चीन की ओर से ख़तरा बने रहने की संभावना है. ऐसे में कम से कम वक़्त में संघटनात्म क्षमताओं को बढ़ाने की ज़रूरत है, साथ ही यह भी कहा गया है कि स्थानीय स्तर पर सैन्य टकराव में बढ़ोतरी के लिए भी मुस्तैद रहने की आवश्यकता है. राष्ट्रीय सामर्थ्य बेहद अहम है, क्योंकि भारत की इंडो-पैसिफिक रीजन में किसी भी प्रतिरोधी शक्ति सैन्य गठबंधन का हिस्सा बनने की योजना नहीं है. नए हथियारों और प्रौद्योगिकियों, जिनमें हाइपरसोनिक डिलीवरी प्लेटफॉर्म्स और साइबर टूल्स शामिल हैं, उनमें पारंपरिक प्रतिरोध तंत्र को प्रभावित करने की क्षमता है, जो बदले की धमकी देने का काम करते हैं. यही वजह है कि परमाणु प्रतिरोध क्षमता का सामना करने वाला एक विविध और व्यापक चीन वर्तमान सुरक्षा माहौल में SSBNs के एक आवश्यक और अहम स्तंभ होने के साथ भारत के लिए ज़्यादा प्रासंगिक हो गया है.

प्रमुख अनिवार्यताएं

भूमि और वायु संचालन के उलट, SSBN की तैनाती गश्ती क्षेत्रों में और सबमरीन मेंटिनेंस साइकिल की ट्रांज़िट (से और तक) अवधि के दौरान किसी निर्णय को प्रभावित नहीं करे, इसके लिए आवश्यक क़दम उठाने की ज़रूरत है. इसलिए, लंबे समय तक एक विश्वसनीय सेकेंड-स्ट्राइक क्षमता को बनाए रखने के लिए कम से कम 4 से 6 SSBNs आवश्यक हो जाती हैं. इतनी संख्या में सबमरीन्स होने से तेज़ी के साथ बदलती परिस्थितियों के मुताबिक़ उन्हें ज़ल्दी-ज़ल्दी हमले के लिए तैयारी करने में सक्षम बनाया जा सकता है. इन पनडुब्बियों में पर्याप्त क्षमता वाला परमाणु रिएक्टर, लंबी रेंज और लक्ष्य हासिल करने वाले हथियार होने चाहिए, साथ ही इनमें बेहद उच्च गुणवत्ता, विश्वसनीयता और क्रियान्वयन मानकों वाले ऑनबोर्ड उपकरण भी होने चाहिए.

निश्चित तौर पर वर्तमान में चल रहे प्रयासों से भारत में सबमरीन निर्माण, उनके परीक्षण और देश के पहले पूर्ण SSBN स्क्वाड्रन के संचालन में तेज़ी आनी चाहिए. ज़ाहिर है कि ऐसा होने पर अलग-अलग क्षेत्रों में आख़िरकार नियमित तौर पर इन पनडुब्बियों की गश्त होनी चाहिए. इसके अलावा, सबमरीन के निर्माण में स्वदेशी सामग्री के प्रतिशत को बढ़ाने में हुई प्रगति को भी उच्च गुणवत्ता मानकों और कल-पुर्जों के समर्थन के साथ हर लिहाज़ से सक्षम बनाने की ज़रूरत होगी. अहम प्रौद्योगिकियों के लिए आपूर्ति के स्रोतों और नई द्विपक्षीय व्यवस्थाओं के विविधीकरण पर भी विचार किया जा सकता है, उल्लेखनीय है कि फिलहाल इसके लिए या तो विदेशी सहायता बेहद ज़रूरी है या फिर उसके बगैर किसी भी सूरत में काम नहीं चल सकता है.

भारत ने मई 1998 में यह बताया था कि पोखरण में परमाणु परीक्षणों की वजह चीन की परमाणु क्षमता और परीक्षण परीक्षण एवं चीन-पाकिस्तान सैन्य सहयोग था. इंडो-पैसिफिक रीजन में एक मुश्किल और अनिश्चितिता से भरे माहौल के अलावा तमाम चुनौतियों और ज़ोख़िमों के साथ भारत का यह तर्क न सिर्फ़ सही साबित हुआ है, बल्कि मौज़ूदा परिस्थितियों को देखते हुए और अधिक मज़बूत भी हुआ है. ऐसे में इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत के परमाणु ट्रायड का एक मज़बूत और विश्वसनीय थर्ड लेग यानी तीसरा क़दम एक अनिवार्यता है और अंतत: उसे वह प्रमुखता मिलने की संभावना है, जिसके वह योग्य है.


गिरीश लूथरा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में डिस्टिंग्विश्ड फेलो हैं.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.