Image Source: Getty
बेहतर रोज़गार के अवसर, आय की संभावना, और धन सृजन की तलाश में, हजारों लाखों की संख्या में लोग ग्रामीण इलाकों से शहरी क्षेत्रों की ओर काफी तेजी से पलायन कर रहे है. हाल ही हुए भारत के आर्थिक सर्वेक्षण 2018 के अनुसार, देश की शहरी आबादी के साल 2030 तक 600 मिलियन और 2050 तक 800 मिलियन तक पहुंच जाने का अनुमान है. हालांकि, काफी तेज़ गति से दर्ज हो रही शहरी आबादी की बढ़त और अव्यवस्थित म्युनिसिपल स्वःशासन, अपर्याप्त बुनियादी ढांचे, हानिकारक सतत विकास, सामाजिक-आर्थिक असमानताएं एवं रहने योग्य घरों की कमी सरीखी जटिल एवं महत्वपूर्ण चुनौतियां उत्पन्न कर रही है, जिसका नतीजा ये हुआ कि सामाजिक, आर्थिक व पर्यावरण के स्तर पर काफी अस्थिर परिस्थितियों का जन्म हुआ है. इन चुनौतियों को संबोधित करने के लिए, शहरों में हो रहे बदलाव को समझना एवं उस अनुसार उसका प्रबंधिन करना आवश्यक होगा ताकि भारतीय शहरों में तेजी से बढ़ रही जनसंख्या के रोजमर्रा के जीवनशैली में सुधार किया जा सके जो शहरों को पूरी तरह से आत्मनिर्भर करते हुए देश के सतत् एवं समावेशी विकास में सहायक साबित हो सके.
केंद्र सरकार, कानून, नीति नियमों, एवं कार्यक्रमों को सही तरह से निर्धारित करने के लिये, शहरी प्रशासकीय सुधारों का मार्गदर्शन अथवा नेतृत्व करते हुए रणनीतिक नेतृत्व करती है. हालांकि, ये सुधार कितने प्रभावी होते हैं यह शुद्ध रूप से राज्य इसे किस तरह से लागू करती है उसपर निर्भर करती है.
शक्तिहीन शहरीकरण: कमज़ोर संघीय ढांचा
केंद्र सरकार, कानून, नीति नियमों, एवं कार्यक्रमों को सही तरह से निर्धारित करने के लिये, शहरी प्रशासकीय सुधारों का मार्गदर्शन अथवा नेतृत्व करते हुए रणनीतिक नेतृत्व करती है. हालांकि, ये सुधार कितने प्रभावी होते हैं यह शुद्ध रूप से राज्य इसे किस तरह से लागू करती है उसपर निर्भर करती है. जो कई बार शहरी योजना के लिए, एक कमजोर संस्थानिक क्षमता एवं प्रबंधन, कमज़ोर राजनीतिक इच्छाशक्ति, नौकरशाही लालफीताशाही, दयनीय अंतर-विभागीय समन्वय, और वित्तीय बाधाओं जैसे अवरोधों एवं बाधाओं का सामना करती रहती है. भारतीय शहरों को इन चुनौतियों का सामना करने के लिये केन्द्रीकृत फ्रेमवर्क अथवा ढांचों में फिट बैठने के लिये पूरी तरह से तैयार नहीं किया गया है. इसके साथ ही, भारत में मेयर और काउंसिलर (महापौर एवं पार्षदों) का वित्त एवं कोष पर काफी सीमित अधिकार होता है, जिसके कारण, शहरी स्थानीय निकाय (यूएलबी), स्वः प्रशासन के किसी सशक्त स्थानीय रूप के बजाय केवल एक अन्य नागरिक एजेंसी बनी हुई है. 74वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम (सीएए) 1992 ने यूएलबी के कौशल में वृद्धि करके, उसके बेहतर कामकाज एवं क्षमताओं को सुनिश्चित करने के लिये राज्य सरकारों से कुछ ज़िम्मेदारियां लेकर एक विशिष्ट समूह को देने का निर्णय किया है. ऐसा करते हुए सार्वजनिक भागीदारी को शामिल करने व नागरिकों को स्थानीय ज़रूरतों को पूरा करने का भी प्रयास किया गया है.
हालांकि , यूएलबी की ज़िम्मेदारी, यथोचित वित्त अथवा प्रबंधन क्षमता और योजना की क्षमता से समर्थित नहीं है. उदाहरण के लिए, भारत में, नगरपालिका द्वारा अर्जित राजस्व, ने 2007-2008 में देश के कुल घरेलू सकल उत्पाद (जीडीपी) का केवल 1.08 प्रतिशत था, जो कि 2012-13 में घट कर 1.03 प्रतिशत हो गया और आगे जाकर वर्ष 2019-20 में मात्र 0.72 प्रतिशत तक रह गया था. 2010 में हुई एक तुलना में, जितना राजस्व अर्जित हुआ था, वो दक्षिण अफ्रीका के जीडीपी का 6 प्रतिशत, ब्राजील में 7.4 प्रतिशत, यूनाइटेड किंगडम में 13.9 प्रतिशत, और नॉर्वे में 14.2 प्रतिशत थी. राज्य सररकारों से यूएलबी तक इसके हस्तांतरण के मामले में भी भारत काफी पीछे है. एशियन डेवलपमेंट बैंक, वर्ल्ड बैंक और मैंकिंस्की ग्लोबल इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत समेत अन्य विकासशील देश अधिकारियों की खराब गुणवत्ता और दयनीय दक्षता की समस्या से पीड़ित हैं. इसके अलावा योजना, सशक्तिकरण, जवाबदेही, और पारदर्शिता की कमी की एक बड़ी बाधा है; एवं स्थानीय प्रशासन एवं सरकारों के अपर्याप्त वित्त पोषण एवं संसाधन की कमी आदि की भारी किल्लत का सामना भी करना पड़ रहा है.
2013 तक, भारत के कुल 31 राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों (यूटी) में से केवल 11 ने 74वें सीएए की अनुसूची 12 के अंतर्गत आवश्यक सभी 18 कार्यों को यूएलबी को हस्तांतरित किया था. यहाँ तक की भारत की सबसे समृद्ध महानगरपालिका – बृहन्मुंबई नगर निगम, जिसका वार्षिक बजट लगभग 60 अरब रुपये है, उसके पास भी पट्टे पर देने के लिए भूमि और स्वतंत्र तौर पर भूमि उपयोग के लिए आवश्यक राजस्व जमा करने के लिए कोई स्वतंत्र निकाय का प्रावधान नहीं है. शहरों एवं नगरों के प्रबंधन की जिम्मेदारी से लैस होने के बावजूद भारत में, यूएलबी नागरिकों की सहभागिता तय कर पाने में अक्षम है, जिसकी वजह काफी हद तक विकेन्द्रीकरण एवं हस्तांतरण सुधार का एक अधूरा एजेंडा बना रहना है. साल 2023 तक, 35 में से मात्र 3 राज्यों और केंद्र शासित राज्यों ने शहर के बजट पर सार्वजनिक परामर्श को अनिवार्य घोषित किया है, जबकि 35 में से पांच राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों ने समितियों एवं क्षेत्र सभाओं का निर्माण करके नागरिक भागीदारी के लिए एक सामुदायिक भागीदारी कानून लागू किया है. कई कारण जिनमें जिम्मेदारियों में अस्पष्टता, कर्मचारियों की अपर्याप्त संख्या एवं कम कौशल, राजनीतिक प्राथमिकताएं, कमज़ोर पारदर्शिता एवं परस्पर विरोधी कानून सरीख़े कारकों का संयोजन, यूएलबी को नागरिकों के प्रति सुलभ एवं उत्तरदायी होने से रोकता है.
केंद्र सरकार की भूमिका
स्थानीय स्व-प्रशासन को मज़बूत करने में भारत सरकार काफी अहम भूमिका निभा सकता है और ऐसा राज्यों द्वारा, 74वें CAA को लागू करके ही सुनिश्चित किया जा सकता है. ‘शहरी स्थानीय निकायों’ को ‘शहरी स्थानीय स्वशासन’ में बदलना बेहद ज़रूरी है. भारत के विकास पथ को बनाए रखने के लिये व्यवस्थित एवं सुनियोजित शहरीकरण को प्रोत्साहन दिया जाना सबसे उपर है. राज्यों द्वारा आदर्श कानून एवं योजनाओं को लागू करने के लिये नीतिगत फ्रेमवर्क और जवाबदेही तंत्र को मज़बूत किए जाने की आवश्यकता है. इन उपायों में, मौजूदा कानून (उदाहरण के लिए,74वें सीएए) में संवैधानिक संशोधन को भी शामिल किया जाना चाहिए, जिसके अंतर्गत यूएलबी के लिए वित्तीय संसाधनों की व्यवस्था, स्टेटस पेश करना, और ऐसे पदाधिकारियों एवं प्राधिकरणों की स्थापना करना जो कि शहरी प्रशासनिक सुधार की देखरेख करें एवं अनुपालन की निगरानी करे वो भी शामिल हो. नीतियों के सामंजस्य एवं राज्यों में नियम कायदे सही तरह से लागू हो इसके लिये स्वाभाविक तौर पर मॉडल दिशा-निर्देशों एवं टूलकिट का इस्तेमाल किया जाना चाहिये. इस तरह की कार्यवाही अंतरराज्यीय अस्थिरता को कम कर सकती है, और सक्षम, कुशल एवं न्यायसंगत शहरी विकास योजनाओं एवं उनके कार्यान्वयन की ओर ले जाती है.
नीतियों के सामंजस्य एवं राज्यों में नियम कायदे सही तरह से लागू हो इसके लिये स्वाभाविक तौर पर मॉडल दिशा-निर्देशों एवं टूलकिट का इस्तेमाल किया जाना चाहिये.
ये सब करने के दौरान पहले चरण में महापौर एवं नगर पार्षद, नागरिक एवं सरकार के बीच के सेतु है. इस वजह से, शहरी स्थानीय प्रशासन के लिए किसी सुधारीकृत ‘मॉडल म्यूनिसिपल अधिनियम’ द्वारा शहरी स्थानीय सरकारों के लिए एक मज़बूत संस्थागत ढांचा तैयार करने के लिए महापौरों एवं पार्षदों को ज़रूरत अनुसार स्वायत्तता देना आवश्यक है. भारत सरकार ने 2005 में जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन (जेएनएनयूआरएम) जैसे कार्यक्रम की शुरुआत की, राज्यों को अलग-अलग नगरपालिका प्रशासनीय कैडर बनाने की वकालत करती है. हाल ही में, कायाकल्प एवं शहरी परिवर्तन के लिए अटल मिशन (अमृत) ने अपने 11 अनिवार्य सुधारों के संग संवैधानिक एवं व्यावसायीकरण का समावेश किया है.
उसी तरह, केंद्र को एक मज़बूत सचिवालय की मदद से मज़बूत काउंसिल का ढांचा, डिजिटलीकरण (जहां परिषद की कार्यवाही की लाइव स्ट्रीमिंग हो), रिसर्च सपोर्ट इकोसिस्टम एवं नगर परिषदों एवं निगमों के वर्तमान कामकाज को मज़बूत करने के लिये नियुक्त पार्षदों को उचित मुआवजा आदि दिया जाना चाहिए. द ग्रेटर लंदन अथॉरिटी और उनका प्रशासन (1) एक उदाहरण है. इसके अलावा, क्षमता निर्माण कार्यशालाएं एवं नेतृत्व विकास कार्यक्रमों द्वारा नगर पालिका कर्मियों को उन्नत एवं पुन:कुशल बनाने से उनकी प्रबंधन क्षमता एवं शासन कौशल को और भी बेहतर किया जा सकता है.
भारत सरकार को चाहिए कि उसे राज्यों को सहभागी निर्णय लेने की प्रक्रिया को आत्मसात करने, खुला डेटा पहलों, और नागरिकों की प्रतिक्रिया तंत्र के द्वारा सार्वजनिक सहभागिता को मुख्य धारा के साथ जोड़ना चाहिए. शहरी प्रशासन में नागरिकों का सशक्तिकरण, पारदर्शिता को प्रोत्साहन देने, और शहरी प्रशासन में जवाबदेही को बढ़ावा देने के लिए, जागरूकता अभियान चलाना चाहिये. इसमें क्षमता को बढ़ाने वाले वर्कशॉप, और टेक्नोलॉजी सक्षम मंचों को प्रोत्साहन दिया जाना भी शामिल है. उदाहरण के लिए, लंदन, सिंगापूर, न्यूयॉर्क, म्यूनिच, शंघाई, जकार्ता, और टोक्यो जैसे शहरों में ‘ओपन सिटी’ फ्रेमवर्क है जो रियल टाइम में नागरिकों की भागेदारी को प्रभावी बनाने के लिये, वेब तकनीक एवं उपयोगकर्ता इंटरफ़ेस का इस्तेमाल करता है.
अब वक्त है कि भारत सरकार को चाहिए की वो राज्यों को बेहतर तौर-तरीके लागू करने को प्रेरित करें, जिसमें कि मॉडल सामुदायिक भागीदारी कानून (CPL), एवं मॉडल नागरिक सामुदायिक भागीदारी कानून (PDL) शामिल है, जिन्हें सबसे पहली बार वर्ष 2005 में JNNURM के तहत पेश किया गया था और बाद कई मिशन एवं योजनाओं में मांगा गया था.
इस प्रकार के स्थानिक एवं डाटा संचालित फ्रेमवर्क अथवा ढांचे, नागरिकों, महापौर, पार्षदों, और नगर निगम के समस्त अधिकारियों को एक दूसरे से संवाद के लिए उपयुक्त मंच मुहैया करा सकेगी. इस प्रकार के ढांचे, सहभागी बजट एवं स्वयंसेवी जुड़ाव प्रक्रियाओं की मदद से नागरिकों को प्रत्यक्ष जुड़ाव की सुविधा उपलब्ध करा सकती है. जिससे नागरिकों से जुड़े मुद्दों के समाधान की दिशा में लोग सक्रिय भूमिका निभा सकेंगे. अब वक्त है कि भारत सरकार को चाहिए की वो राज्यों को बेहतर तौर-तरीके लागू करने को प्रेरित करें, जिसमें कि मॉडल सामुदायिक भागीदारी कानून (CPL), एवं मॉडल नागरिक सामुदायिक भागीदारी कानून (PDL) शामिल है, जिन्हें सबसे पहली बार वर्ष 2005 में JNNURM के तहत पेश किया गया था और बाद कई मिशन एवं योजनाओं में मांगा गया था.
सीपीएल का उद्देश्य शहरी विकास परियोजनाओं की योजना बनाने, लागू करने एवं उनकी निगरानी में स्थानीय समुदायों को शामिल करना रहा है. इसके लिए वे पूरे सिस्टम को संस्थागत बनाना चाहते हैं. सीपीएल की कुछ विशेषताएं इस तरह से है:
-
समाज के विभिन्न तबकों, जिनमें की स्थानीय निवासी, नागरिक सोसाइटी संस्थान, एनजीओ, चुने गए प्रतिनिधियों, शिक्षाविद, और शहरी विशेषज्ञ रूपी सदस्य हैं उन्हें लेकर वार्ड समितियों का गठन करना.
-
सभी शहरी विकास परियोजनाओं के लिए निर्णय लेने की प्रक्रिया में स्थानीय समुदायों, नागरिक समाज संगठनों, कल्याण संघों, एनजीओ और अन्य हितधारकों या स्टेक होल्डर्स की अनिवार्य रूप से सहभागिता सुनिश्चित करना.
शहरी नियोजन में उनकी प्राथमिकताओं एवं चिंताओं को शामिल किए जाने के लिये सामुदायिक इनपुट एकत्र करने के लिए सार्वजनिक सुनवाई एवं प्रतिक्रिया तंत्र द्वारा सुझाव देना.
इस दरम्यान, शहरी विकास परियोजनाओं एवं संबंधी निर्णयों की पारदर्शिता, जवाबदेही, और सार्वजनिक जांच को प्रोत्साहित करने के लिए, पीडीएल को प्रस्तुत किया गया है. जिसके द्वारा मुहैया कराये गये प्रावधान हैं:
-
नागरिकों को अपने विचार व्यक्त करने लायक योग्य बनाने, चिंताओं को उठाने, और परियोजनाओं के प्रस्ताव एवं नीतियों पर प्रतिक्रिया देने के लिये सार्वजनिक सुनवाई के तहत विचार-विमर्श का मंच मुहैया करना.
-
स्थानीय समुदायों पर विकास परियोजनाओं की वजह से पड़ने वाले प्रभावों को मापने हेतु, स्वतंत्र ऑडिटर की मदद से सामाजिक ऑडिट कराना और लोगों की ज़रूरतों को संबोधित करने के लिये उन्हें प्रभावी बनाना.
-
यूएलबी वेबसाइट एवं नियोजन परियोजनाओं, खर्च एवं निर्णय लेने की प्रक्रियाओं की जानकारी अथवा सूचना जनता से साझा करना.
सारांश
पिछले दो दशकों में, शहरी स्वः प्रशासन सुधार को जारी रखने की दिशा में भारत सरकार ने कई प्रयास किए हैं. इनमें मॉडल म्युनिसिपल कानून, मॉडल टेनेंसी अधिनियम, और मॉडल बिल्डिंग बाई-लॉ; JNNURM, AMRUT, एवं स्मार्ट सिटी मिशन; MyGov, स्वच्छता, और राष्ट्रीय ई-गवर्नेंस प्लान (NeGP); और ‘ईज़ ऑफ लिविंग इंडेक्स’ और ‘म्युनिसिपल परफॉरमेंस इंडेक्स’ आदि को भी शामिल किया गया है.
केंद्र एवं राज्य सरकारों, दोनों को ही, प्रभावकारी शहरी स्वः प्रशासन की राह को सरल बनाने के प्रयास को और भी प्रशस्त करना चाहिए. राज्य सरकारों को, केंद्र सरकार द्वारा घोषित किए गए प्रावधानों एवं संस्थागत सुधार प्रक्रियाओं को अनिवार्य तौर पर अमल में लाना चाहिए. उसी तरह से, भारत सरकार को भी समर्पित निगरानी तंत्र, सतत पारदर्शी ऑडिट, एवं प्रदर्शन समीक्षाओं को लागू करने की निश्चित आवश्यकता है. इनको लागू करने के अंतराल को दूर करने और भारतीय शहरों में सतत् एवं समावेशी शहरी विकास को प्रोत्साहन दिए जाने के लिए केंद्र-राज्य साझेदारी बेहद ज़रूरी है. सभी स्टेकहोल्डर्स के बीच सहयोग, समन्वय, एवं गठबंधन का होना काफी आवश्यक है ताकि हर प्रकार की चुनौतियों को पार कर, इच्छित परिणाम प्राप्त किया जा सके, और दक्षता एवं प्रभावशीलता एवं लचीलेपन की मदद से शहरी क्षेत्रों को प्रबंधित किया जा सके.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.