Published on Feb 09, 2021 Updated 0 Hours ago

प्रदर्शनों की राजनीति से सबक: सिद्धांत से प्रयोग और प्रयोग से सिद्धांत तक

21वीं सदी में हो रहे प्रदर्शनों के ‘प्लेबुक’ में दरकार है नई सदी के अनुसार सुधारों की!

सवाल: नीचे दिए गए इन प्रदर्शनों के बीच क्या समानता है?

  • नई दिल्ली में किसानों के प्रदर्शन में हिंसा
  • वाशिंगटन डीसी में हुई बग़ावत और हिंसा
  • दुनियाभर में फैला ‘कैंसिल कल्चर’
  • माध्यम तक विरोधियों की पहुंच को सीमित करना (De-platforming Adversaries)
  • अमेरिका में ब्लैक लाइव्स मैटर
  • दुनियाभर में मी-टू (MeToo)
  • अमेरिका में ऑक्यूपाई मूवमेंट (Occupy Movement)
  • उत्तरी अफ्रीका अरब क्रांति (Arab Spring)

जवाब: दुनिया भर में कार्यकर्ताओं ने किस तरह से एक परिष्कृत प्लेबुक का उपयोग किया है और उसे अपनाया है, और किस तरह सरकारों के लिए उसे पढ़ना और समझना ज़रूरी है.

विरोध प्रदर्शन, लोकतंत्रों का एक अभिन्न हिस्सा रहे हैं. पिछले कई दशकों में, समाज ने लोकतंत्र के तीन स्तंभों- कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका से विरोध का अधिकार छीन लिया है. दुनिया भर में, कार्यकारिणी ने उनके लिए जगह बनाई है, विधानसभाओं ने क़ानून बनाए हैं, और न्यायपालिकाओं ने उन पर शासन किया है. दुनिया भर के लोकतंत्र आज विरोध और असहमति के लिए जगह बनाने और उसे बढ़ावा देने की बुनियाद पर खड़े हैं. यही वजह है कि मज़बूती से किए जाने वाले समर्थन के ज़रिए आने वाले समय में भी यह विरोध प्रदर्शन न केवल अपनी जगह बनाए रखेंगे, बल्कि वह लोकतांत्रिक देशों की आकांक्षाओं का फ़लक समझने में भी मदद करेंगे. वह उन अनसुनी आवाज़ों को इस तरह व्यक्त करते हैं कि कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका उन्हें नोट कर सकें, ताकि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की आड़ में बड़े पैमाने पर उन्हें दबा न दिया जाए.

21वीं सदी में, विरोध की प्रकृति एक ट्वीट की गति से बदलती है. अनसुने और अदृश्य लोगों की दबाई जा रही आवाज़ों से लेकर आंदोलन, अब करियर के रूप में एक विकल्प बन रहे हैं. ये बेहतर ढंग से वित्त-पोषित संगठन बना रहे हैं, और विरोध उद्यमियों के नेतृत्व में एक नए उद्योग को जन्म दे रहे हैं. प्रौद्योगिकियों द्वारा सक्षम, वे क़ानून बनाने, उनका निष्पादित करने और उनकी व्याख्या करने में मौजूद दरारों को बढ़ाने का काम करते हैं. विचारधाराओं से प्रेरित, वे राजनीति के लिए चारा बन गए हैं और राजनीति अब इन्हीं के सहारे आगे बढ़ती है, जिस के तहत लोगों को ज़मीनी स्तर पर समेकित किया जाता है. जो राज्य को बेदख़ल करने की दिशा में पहला कदम साबित होता है.

एक विचार के रूप में तर्क अब एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहा है. उदाहरण के लिए, यदि तीन कृषि कानूनों का विरोध करने वाले इन क़ानूनों को पढ़ें तो वे अपने रुख़ पर फिर से विचार करने के लिए मजबूर हो जाएंगे. इन तीनों फार्म बिल में, एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य (minimum support prices, MSP) प्रणाली और मौजूदा एपीएमसी यानी कृषि उपज बाजार समितियों (agricultural produce market committees, APMCs) की संरचनाओं को किसी भी स्तर पर नहीं छुआ गया है. कृषि क़ानूनों को लेकर सही और तार्किक बातों पर शोर हावी है. जितनी ज़ोर से कोई चिल्लाए, उतने ही अधिक विश्वास के साथ उसकी बात सुनी जाती हैं. यह लगभग उसी तरह है जैसे कि टीआरपी का पीछा करते टीवी चैनल वास्तविक जीवन में विरोध स्थलों पर मौजूद हों और अपना खेल दिखा रहे हों. हिंसा अब असंख्य़ शस्त्रों के साथ अपने आप में दंडपालिका बन गई है. किसानों के ट्रैक्टर, जो निर्माण का एक उपकरण है, उन्हें हथियार बना दिया गया है; यह न केवल इंसानों को आहत कर रहा है, बल्कि तर्क की हत्या भी कर रहा है और शोर को बढ़ावा दे रहा है.

अधिकतर रूप से शांतिपूर्ण रही 21 वीं सदी में असंतोष के अपने अलग कारण और प्रारूप रहे हैं. उन्हें व्यक्त करने के लिए जिन नई प्रौद्योगिकियों और नए विचारों को सामने रखा गया है, वह इस प्लेबुक के अंतर्गत आवश्यक रूप से समान हैं.

जैसे जैसे किसानों का विरोध प्रदर्शन भारत पर हावी होता जा रहा है, वैसे-वैसे इन विरोध प्रदर्शनों को ले कर एक प्रोटेस्ट प्लेबुक (protest playbook) अमल में आ रही है. इस प्लेबुक की जड़ें 20 वीं सदी की हिंसा में हैं. अधिकतर रूप से शांतिपूर्ण रही 21 वीं सदी में असंतोष के अपने अलग कारण और प्रारूप रहे हैं. उन्हें व्यक्त करने के लिए जिन नई प्रौद्योगिकियों और नए विचारों को सामने रखा गया है, वह इस प्लेबुक के अंतर्गत आवश्यक रूप से समान हैं. यह लेख तीन अलग-अलग महाद्वीपों से, तीन अलग- अलग अभिव्यक्तियों को एक साथ लाता है, जिन में से कुछ अंश दुनिया भर के लोकतंत्रों में नए रूप से प्रतिध्वनित हो रहे हैं. अमेरिका में (ब्लैक लाइव्स मैटर) भारत के लिए (नागरिकता संशोधन अधिनियम व किसान क़ानूनों के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन) और उत्तरी अफ्रीका में (अरब क्रांति) के रूप में. ये ब्राज़ील के कार्लोस मारिघेला, घाना में क्वामे एन्क्रूमाह और आयरलैंड में आयरिश रिपब्लिकन आर्मी के रूप में सामने आते हैं. अंत में यह लेख व्यावहारिक रूप से इस प्लेबुक का खाक़ा तैयार करता है, और इस के लिए जीन शार्प के विरोध के सिद्धांत को समाने रखता है. अनिवार्य रूप से, यह प्रदर्शनकारियों और सरकारों दोनों के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण पठनीय सामग्री है.

प्लेबुक-1: ब्राज़ील में कार्लोस मारिघेला

साल 2021 में हम जो देख रहे हैं, उसकी जड़ें 1969 में ब्राज़ील में मौजूद हैं. अपने 61 पन्नों के पर्चे- मिनी मैनुअल ऑफ  अर्बन गुरिल्ला में कार्लोस मारिघेला “सर्वहारा” को एक राजनीतिक लक्ष्य प्रदान करने वाली एक गाइडबुक सौंपते हैं, जिस के तहत, लक्ष्य केवल “सरकार, बड़े व्यवसायों और विदेशी साम्राज्यवादियों, विशेष रूप से उत्तर अमेरिका के लोगों पर हमला करने से जुड़ा है.” क्या यह चिर परिचित लग रहा है? यह है. मारिघेला के मार्क्सवादी-लेनिनवादी दार्शनिक झुकाव का एक लक्ष्य था- स्थापित किए गए नियमों और तंत्र को उखाड़ फेंकना. अब मारिघेला की इस प्लेबुक के कुछ हिस्सों को नई दिल्ली में दोहराया जा रहा है. यहां, ‘द वार ऑफ नर्व्स’ (The War of Nerves) नाम के एक अध्याय के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे हैं. यह सरकारों और प्रदर्शनकारियों दोनों पर लागू होते हैं:

मनोवैज्ञानिक युद्ध यानी एक ऐसी लड़ाई जिस में शस्त्रों या तर्कों से नहीं बल्कि सभी पक्षों के मन-मस्तिष्क और उनकी सोच पर नियंत्रण कर लड़ाई जीतने की कोशिश की जाती है, में सरकार हमेशा नुकसान में रहती है, क्योंकि मनोवैज्ञानिक युद्ध का प्रसार होने पर वह मीडिया पर सेंसरशिप लगाती है और रक्षात्मक स्थिति में अपने ख़िलाफ़ कोई भी बात सामने आने नहीं देना चाहती. इस बिंदु पर यह हताशा की स्थिति हो जाती है, क्योंकि सरकार अपने कामों को लेकर अधिक से अधिक विरोधाभासों में उलझ जाती है, उस की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचता है. वह नियंत्रण को लेकर एक ऐसे थकाऊ प्रयास में समय और ऊर्जा खर्च करती है जो किसी भी समय धराशायी हो सकता है.

जहां तक प्रदर्शनकारियों की बात है तो उनका मकसद और विचार सरकार को बेदख़ल करना और उसकी सत्ता को झकझोरना है. अफ़वाह फैलाना या झूठ फैलाना, इस दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले कई साधनों में से एक है. एक किसान जो अपने ट्रैक्टर के साथ तबाही मचाते हुए, बैरिकेड तोड़ कर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा है, लेकिन इस कोशिश में उस का ट्रैक्टर पलट जाना ऐसी ही एक घटना व उदाहरण है. इस घटना के तुरंत बाद जाने-माने सेलिब्रिटी पत्रकारों की तत्काल प्रतिक्रिया यह थी कि इस किसान की मौत, पुलिस की गोली लगने से हो गई. जबकि यह वीडियो स्पष्ट रूप से दिखाता है कि मामला इसके विपरीत है. यदि विचार पुलिस को बदनाम करना था और इस के ज़रिए सरकार को, तो शुरुआती कुछ घंटों में यह कारगर साबित हुआ. इसके बाद ही सच्चाई सामने आई. तनाव के क्षणों में इस तरह के झूठे आख्यान, जिन की पुष्टि किए बिना उन्हें आगे बढ़ाया जाता है, यह बताते हैं कि ‘तंत्रिकाओं के युद्ध’ (war of nerves) को छेड़ने के प्रयास, कितनी दूर तक पहुंच चुके हैं, और इन की प्रतिध्वनि कितनी गहरी है. मारिघेला के अंश:

‘तंत्रिकाओं के युद्ध’ (war of nerves) का उद्देश्य अधिकारियों के बीच झूठ फैलाना है, जिस में हर कोई भाग ले सकता है. इस के चलते सरकार के लिए घबराहट, बदनामी, असुरक्षा, अनिश्चितता और चिंता का माहौल बनता है. ‘तंत्रिकाओं के युद्ध’ (war of nerves) में शहरी गुरिल्ला कार्यकर्ताओं द्वारा उपयोग किए जाने वाले सबसे अच्छे तरीक़े निम्नलिखित हैं:

  1. पुलिस और सरकार को झूठे सुराग़ देने के लिए टेलीफोन और मेल का उपयोग करना, जिसमें बमों के रोपण और सार्वजनिक कार्यालयों और अन्य स्थानों पर आतंकवादी घटना से जुड़ी कार्रवाई की जानकारी शामिल है. इसमें अपहरण और हत्या की योजनाओं से संबंधित जानकारी भी शामिल है, ताकि अधिकारी उन्हें उपलब्ध काराई जा रही झूठी सूचनाओं का पालन करते हुए हांफ जाएं और असमंजस की स्थिति में रहें;
  2. झूठी योजनाओं को सरकार और पुलिस के हाथ में सौंप देना ताकि सरकार का ध्यान असल घटनाओं से बंट जाए;
  3. सरकार को असहज करने के लिए अफ़वाहें फैलाना;
  4. भ्रष्टाचार, गलतियों और सरकार और उसके प्रतिनिधियों की नाकामियों को हर तरह से उजागर करना, उन्हें संचार माध्यमों के ज़रिए स्पष्टीकरण जारी करने और औचित्य को ध्वस्त करने के लिए मजबूर करना, उन्हीं माध्यमों के ज़रिए जिन पर सेंसरशिप का आरोप लगाया जा रहा हो;
  5. विदेशी दूतावासों, संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय आयोगों और मानव अधिकारों या प्रेस की स्वतंत्रता का बचाव करने वाले अंतरराष्ट्रीय संगठनों के समक्ष सैन्य तानाशाही द्वारा किए जाने वाले प्रत्येक ठोस उल्लंघन और हिंसा की प्रत्येक घटना को उजागर करना और इस बात को खुल कर जताना कि क्रांतिकारी युद्ध जारी रहेगा, जिससे आबादी के दुश्मनों के लिए गंभीर ख़तरे पैदा हो सकते हैं.

शहरी गुरिल्ला कार्यकर्ताओं (urban guerrilla) द्वारा प्रोपगेंडा या नकारात्मक प्रचार को हथियार के रूप में इस्तेमाल करना एक सोची समझी व जानी पहचानी रणनीति है. 20 वीं शताब्दी में इस के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले उपकरण प्रेस, मीमोग्राफ्ड प्रतियां, लाउडस्पीकर, भित्तिचित्र और इस तरह के अन्य उपकरण थे. 21 वीं सदी में, प्रौद्योगिकी ने उनकी जगह ले ली है. नई दिल्ली में बनाई जा रही गहरी योजनाओं में, एक कार्यकर्ता द्वारा हटाए गए ट्वीट के रूप में यह सामने आई हैं जैसे, “ट्विटरस्टॉर्म” (Twitterstorm) यानी किसी एक मुद्दे को लेकर ट्विटर पर बड़ी संख्य़ा में ट्वीट करना, “निकटतम भारतीय दूतावास के पास ज़मीनी कार्रवाई”, “हैशटैग का इस्तेमाल”, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी, अलग अलग राज्यों प्रमुखों और बहुपक्षीय संस्थानों जैसे आईएमएफ, विश्व व्यापार संगठन, एफएओ और विश्व बैंक के अधिकारियों को लगातार टैग करने जैसी कार्रवाई, “ज़ूम सेशन आयोजित करने की योजना”, वीडियो बनाना और साझा करना “अधिकतर लैंडस्केप मोड में”, और “भीड़ को पोस्टर थमाने” जैसी गतिविधियां. इसके पीछे का विचार सभी लोगों की सोच में एक साथ बदलाव लाना नहीं, बल्कि कुछ प्रभुत्वशाली लोगों के सेलेब्रिटी हैंडल का इस्तेमाल कर प्रभाव पैदा करना है जो बहुत हद तक काफ़ी है. यह सूची इतनी विस्तृत है कि इससे मारिघेला भी गौरवान्वित हो जाएंगे:

प्रत्येक सशस्त्र कार्रवाई सहित शहरी गुरिल्ला कार्यकर्ताओं की गतिविधियों का समन्वय, सशस्त्र प्रचार को लागू करने का मुख्य तरीका है. यह कार्य जो विशिष्ट उद्देश्यों और लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए किए जाते हैं, अनिवार्य रूप से बड़े पैमाने पर संचार प्रणाली के लिए प्रोपगंडा की सामग्री बन जाते हैं.

लेकिन शहरी गुरिल्ला कार्यकर्ताओं (urban guerrilla) को कभी भी एक छिपे हुए प्रेस को स्थापित करने में विफल नहीं होना चाहिए, और उन्हें शराब या बिजली की प्लेटों और अन्य डुप्लिकेटिंग उपकरणों का उपयोग करके मीमोग्राफ्ड प्रतियों को जारी करने में सक्षम बने रहना चाहिए. जिन उपकरणों को को वे ख़रीद नहीं सकते उन्हें हथिया लेना चाहिए ताकि वह छोटे अखबार, पैम्फलेट, फ्लायर्स और स्टैम्प आदि का उत्पादन कर सकें जिन्हें तानाशाही के ख़िलाफ़ प्रचार और आंदोलन के लिए इस्तेमाल किया जा सके.

गुप्त रूप से सामग्री छापने की प्रक्रिया में लगे शहरी गुरिल्ला कार्यकर्ता (urban guerrilla) प्रचार और प्रसार के माध्यम से बड़ी संख्या में लोगों के लिए संघर्ष का मोर्चा खोल देते हैं. यह उन लोगों के लिए बड़ी संख्या में काम काज का रास्ता खोलता है जो इस तरह के प्रचार में शामिल होना चाहते हैं, तब भी जब ऐसा करने का मतलब अकेले काम करना और अपने जीवन को जोखिम में डालना हो.

टेप रिकॉर्डिंग, रेडियो स्टेशनों पर कब्ज़ा, लाउडस्पीकरों का उपयोग, दीवारों पर भित्तिचित्र बनाना और दुर्गम स्थानों के ज़रिए प्रचार, प्रोपगंडा के अन्य तरीके हैं. सुसंगत प्रचार के रूप में, विशिष्ट पतों पर भेजे गए पत्र जिनमें शहरी गुरिल्ला कार्यकर्ताओं (urban guerrilla) के सशस्त्र कार्यों का अर्थ समझाया गया हो, प्रभावशाली परिणाम उत्पन्न करता है, और यह आबादी के कुछ क्षेत्रों को प्रभावित करने का एक तरीका है.

यहां तक कि यह प्रभाव, जो हर संभव प्रचार उपकरण के इस्तेमाल के ज़रिए लोगों के दिलों पर किया जाता है और शहरी गुरिल्ला कार्यकर्ताओं (urban guerrilla) की गतिविधियों पर आधारित होता है, यह संकेत नहीं करता कि हमारे बल के पास सभी का समर्थन है. यह आबादी के एक हिस्से के समर्थन को जीतने के लिए पर्याप्त है, और यह अपने सूक्ति-वाक्य (motto) को लोकप्रिय बनाने के द्वारा किया जा सकता है, “वह जो गुरिल्लाओं के लिए कुछ भी करने की इच्छा नहीं रखता है, वह गुरिल्लाओं के ख़िलाफ़ कुछ न करे.”

प्लेबुक-2: घाना में क्वामे एन्क्रूमाह

अफ्रीकी महाद्वीप में स्थानांतरित होते हुए भी यह अंतर्निहित प्रचार रणनीति एक जैसी ही है यानी हिंसा, लेकिन इस बार इसकी बौद्धिकता, सच्चाई के प्रति झुकी हिई है. उदाहरण के लिए, घाना के पहले प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति, समाजवादी-राष्ट्रवादी क्वामे एन्क्रूमाह ने स्वतंत्रता हासिल करने के लिए इसी तरह के हिंसक तरीकों की वकालत की. जहां तक उनकी प्रचार रणनीति का प्रसार हुआ, वह ईमानदारी पर आधारित थी, जिस का पता उनकी 1968 की किताब, हैंडबुक ऑफ़ रिवोल्यूशनरी वारफेयर:  गाइड टू  आर्म्ड फेज़ ऑफ़  अफ्रीकन रिवोल्यूशन (Handbook of Revolutionary Warfare: A Guide to the Armed Phase of the African Revolution) से चलता है. इस किताब के मुताबिक:

हमारे प्रचारकों को किसी भी समस्या को नहीं छोड़ना चाहिए, उनकी किसी भी ग़लती को बिना सामने लाए पीछे नहीं हटना चाहिए. सच को हमेशा सामने लाना होगा और उसे सब के सामने ज़ाहिर करना होगा. यह ताक़त का प्रमाण है, और सबसे कठिन सत्य का भी एक सकारात्मक पहलू है, जिसका उपयोग किया जा सकता है.

निष्कर्ष के तौर पर प्रोपगंडा के तहत निम्न बातें की जानी चाहिए:

a. लोकप्रिय रूप से बग़ावत की संगठनात्म तैयारी करना

b. शत्रु के रैंकों के बीच असंतोष और तोड़फोड़ फैलाना, और उनके मनोबल को कम करना

c. दुश्मन के प्रचार को बेनक़ाब करना, और गलत जानकारी और गुमराह करने का प्रयास करना

d. सूचनाएं, ख़ुफ़िया जानकारी आदि का प्रसार

इन बुनियादी कामों में कार्रवाई की आवश्यक प्रस्तावना शामिल है, जो हमारे संघर्ष की निर्विघ्नता के लिए ज़रूरी शर्त है, और इसकी सफलता की अंतिम गारंटी है यानी, अफ्रीका की संघीय सरकार की एक उपलब्धि.

महिलाओं से संबंधित उपखंड “राजनीतिक निर्देश” के तहत, क्वामे एन्क्रूमाह अनिवार्य रूप से हिंसक कार्रवाई की पृष्ठभूमि का इस्तेमाल करते हैं ताकि अपनी हिंसक कार्रवाई के लिए ज़मीन तैयार कर सकें. किसानों के विरोध प्रदर्शनों में, जिस छवि का लगातार इस्तेमाल किया गया है वह “ग़रीब” किसानों की छवि. ऐसा तब भी किया जा रहा है, जब धनी और स्पष्ट रूप से अति धनी किसानों/ बिचौलियों द्वारा लक्ज़री एसयूवी का कारवां दिखाया जा रहा है. एन्क्रूमाह के मुताबिक:

प्रचार की तकनीकें. महिलाओं द्वारा उपयोगी रूप से निम्नलिखित काम किए जा सकते हैं:

  1. पोस्टर और लीफ़लेट का उत्पादन
  2. समाचार पत्रों, न्यूज़-शीट, नारों और स्थानीय आबादी के लिए निर्देशों का उत्पादन, वितरण और उनकी व्याख्या व उनके बारे में स्पष्टीकरण
  3. दमनकारी घटनाओं को नाटकीय रूप में दोहराना; राजनीतिक आयामों के साथ पीड़ित का अंतिम संस्कार करना; प्रतिरोध का प्रदर्शन; प्लैकार्ड, बैनर और अन्य प्रतीक चिन्हों का उत्पादन

प्लेबुक-3: आयरलैंड की आयरिश रिपब्लिकन आर्मी

उत्तर की ओर बढ़ते हुए, आयरलैंड एक और मॉडल पेश करता है. साल 1956 में जनरल हेडक्वार्टर द्वारा जारी,  हैंडबुक फॉर  वॉलियंटर्स ऑफ  आयरिश रिपब्लिकन आर्मी: नोट्स ऑन गुरिल्ला वारफेयर (A Handbook for Volunteers of the Irish Republican Army: Notes on Guerrilla Warfare) में इस बात को रेखांकित किया गया है कि आंदोलन के प्रचार को “बेहतर शिक्षा” के रूप में लोकप्रिय बनाया जाना चाहिए, जिस का एक महत्वपूर्ण भाग, “दुश्मन के प्रचार (यूनाइटेड किंगडम) का मुक़ाबला करना” है. भारत में आंसू बहाने वाला किसान नेता, जो चुनाव नहीं जीत सका अब खड़े होने की ताक़त दिखा रहा था और जिस के माध्यम से वह उत्तर प्रदेश के किसानों को “संघर्ष” में शामिल करने में क़ामयाब रहा. वह जनता की राय को बदलने में भी सक्षम रहा. इस मायने में यह हैंडबुक भविष्यदर्शी और सटीक साबित होती है:

  1. लोगों को यह दिखाने के लिए कि वे सार्थक और आवश्यक हैं, उन्हें दुश्मन के सामने खड़े होने की ताक़त दें. उन्हें इस बात की जानकारी दी जानी चाहिए कि राष्ट्रीय संघर्ष का अंत विजय के साथ होगा- लेकिन यह अंत उनपर निर्भर करता है.
  2. लोगों की इस लड़ाई के लिए विश्व स्तर पर जनमत प्राप्त करें.
  3. दुश्मन के मनोबल को लगातार गिराने की कोशिश करें और उसके प्रोपगंडा पर निशाना साधें, उसकी रणनीति को उजागर कर और उसके अन्यायपूर्ण तरीक़ों के बारे में जानकारी साझा कर.
  4. राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय रूप से लगे लोगों को आध्यात्मिक संबल प्रदान करें ताकि वे दुश्मन और उसकी शक्ति को हमेशा के लिए नष्ट करने की आवश्यकता को समझें और डटें रहे.

जहां तक इन प्रणालियों और तौर तरीक़ों को लागू करने की बात है, मारिघेला जिसे ‘तंत्रिकाओं के युद्ध’ (war of nerves) कहते हैं, वह मनोवैज्ञानिक युद्ध कुछ साल पहले क्वामे एन्क्रूमाह ने इजाद किया था. मीडिया को यह दिखाने के लिए उपयोग करना कि क़ानूनों को निरस्त करने से कम कुछ भी स्वीकार्य नहीं होगा और इस दौरान नई दिल्ली में दो महीने के लिए घेराबंदी करना और भारत के गणतंत्र दिवस पर हिंसा करना, इस सबके ज़रिए यह धारणा बनाई जा रही थी कि किसानों की जीत होगी और सरकार हार जाएगी. हैंडबुक:

गुरिल्ला कार्यकर्ताओं के लिए उपलब्ध सूचनाओं के मुख्य़ चैनल हैं, समाचार पत्र, लीफ़लेट, रेडियो, आपसी बातचीत और संवाद. इस के अलावा अन्य तरीक़ों पर भी काम किया जा सकता है, और नए तरीक़ों को इजाद भी किया जा सकता है. उदाहरण के लिए: नारों, उद्घोषणाओं और घोषणापत्रों को चित्रों के माध्यम से अधिक प्रभाव पैदा करने के लिए पेंट करना इत्यादि.

लोगों का विश्वास जीतने के सभी साधनों का उपयोग किया जाना चाहिए. आंदोलन के विचारों को इतना लोकप्रिय होना चाहिए कि किसी को उन पर संदेह न हो, कम से कम दुश्मनों को किसी भी रूप में नहीं.

सूचनाओं से संबंधित यह रणनीति, अधिकतम परिणाम प्राप्त करने के लिए लगातार काम में लाई जानी चाहिए. जिन चीज़ों को लगातार किया जा सकता है वह हैं:

  1. दुश्मन की स्थिति की कमज़ोरी और उस स्थिति को फैलाने के लिए प्रचार-प्रसार का उपयोग करें
  2. दिखाएं कि राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था में क्या ग़लत है?
  3. उपाय बताएं और यह बताएं कि उन्हें कैसे लागू किया जा सकता है
  4. लोगों की सोच के साथ हर समय संपर्क में रहें

प्लेबुक-4: अमेरिका में जीन शार्प

उस समय के आसपास जब कार्लोस मारिघेला ब्राज़ील में सैन्य रणनीति को लागू कर रहे थे, क्वामे एन्क्रूमाह घाना में लड़ रहे थे और आयरलैंड में आयरिश रिपब्लिकन आर्मी अपने लक्ष्य पर अडिग थी, एक अमेरिकी राजनीतिक वैज्ञानिक ने विरोध के सिद्धांत की व्याख्या की और उसे समझने व समझाने का प्रयास किया. एक अंतर जो उन्हें बाकि तीनों किरदारों से दूर रखता है, वह है “अहिंसक कार्रवाई” पर उन का ध्यान और उनका केंद्रित होना. जिसके लिए उन्होंने 1983 में अल्बर्ट आइंस्टीन इंस्टीट्यूट (Albert Einstein Institute) की स्थापना की. विरोध के सिद्धांत में शार्प के योगदान और विरोध में हिस्सा ले रहे लोगों से उनकी असहमति और मतभेद दो मायनों में अद्वितीय और अलग हैं- एक यह कि वह ग़ैर-वाम, ग़ैर-मार्क्सवादी बौद्धिक चिंतन से आती है; और यह विरोध की राजनीति की अहिंसक समीक्षा है. दूसरा कि दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र के केंद्र से, उन्होंने अहिंसक कार्रवाई के 198 तरीक़े निकाले. इन्हें छह प्रमुख वर्गों में बांटा गया है, जिनमें से प्रत्येक में उप-खंड और अंत में विधियां हैं:

  1. अहिंसक विरोध और अनुनय के तरीक़े (Nonviolent Protest and Persuasion)
  2. सामाजिक असहयोग (Social Non-cooperation) के तरीक़े
  3. आर्थिक असहयोग के तरीक़े: आर्थिक बहिष्कार (Economic Boycott)
  4. आर्थिक असहयोग के तरीक़े: हड़ताल (The Strike)
  5. राजनीतिक असहयोग के तरीक़े (Political Non-cooperation)
  6. अहिंसक हस्तक्षेप के तरीक़े (Nonviolent Intervention)

व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से इन विचारों ने अमेरिका में ब्लैक लाइव्स मैटर और भारत में किसानों के विरोध प्रदर्शनों में अपने लिए रास्ता खोज लिया है. उदाहरण के लिए, सामाजिक असहयोग के तहत, तीन उपखंडों में से एक है, “व्यक्तियों का बहिष्कार” (Ostracism of Persons). इसमें सामाजिक बहिष्कार (social boycott), चयनात्मक सामाजिक बहिष्कार (selective social boycott), लाइसिसस्ट्रैटा से उपजा असहयोग (Lysistrata nonaction) यानी ऐथेंस की महिलाओं द्वारा समाज में पुरुषों को सेक्स से वंचित रखने की एक रणनीति जिसके ज़रिए उन्होंने पुरुषों को युद्ध का अंत करने और शांति का रास्ता चुनने के लिए मजबूर किया, धर्म से बहिष्कार करना (excommunication) और प्रतिबंध लगाना (interdict) शामिल हैं. आज के विरोध पारिस्थितिकी तंत्र में इन में से कई तकनीकों का बेहद प्रभावी ढंग से उपयोग किया जाता है. संस्थानों पर वैचारिक कब्ज़ा और डी-प्लेटफॉर्मिंग (de-platforming) यानी विरोधियों को विचार व्यक्त करने के व्यापक माध्यमों को दूर करना, जिसे ‘कैंसल कल्चर’ यानी वैचारिक मतभेद या असहमति के चलते किसी व्यक्ति का सामाजिक या पेशेवर रूप से बहिष्कार करने के रूप में जाना जाता है. यह सभी इस पद्धति के अलग अलग संप्रेषण हैं.

आम तौर पर यह माना जाता है कि राज्य की ओर से की गई हिंसक कार्रवाई, असहाय अहिंसक प्रदर्शनकारियों पर की जाती है- समय के साथ और भौगोलिक क्षेत्रों में हिंसा के प्रमुख मामलों पर राज्य के हस्ताक्षर हैं. लेकिन नई दिल्ली में जारी किसानों के विरोध प्रदर्शन के मामले में, हिंसा एक उपकरण के रूप में विषमता के साथ खड़ी है, जिसमें किसान हिंसा में लिप्त हैं, और पुलिस असहाय व पीड़ित है. हालांकि किसानों की अगुवाई वाली इस हिंसा ने उनके आंदोलन को कमज़ोर बनाया है. इस मामले में शार्प का स्पष्टीकरण है कि यह रणनीति प्रदर्शनकारियों के लिए बनाई गई थी, लेकिन इस मामले में यह सरकार के पक्ष में है:

अहिंसक कार्रवाई को विरोधियों के ख़िलाफ़ काम करने के लिए डिज़ाइन किया जाता है, जो हिंसक प्रतिबंधों का उपयोग करने में सक्षम और इच्छुक हों. हालांकि, अहिंसक कार्रवाई के माध्यम से राजनीतिक संघर्ष जिसका मकसद हिंसक दमन के ख़िलाफ़ कार्रवाई भी है, एक विशेष और विषम संघर्ष की स्थिति पैदा करता है. इसमें, अहिंसक प्रतिरोध करने वाले विरोधी, जापानी मार्शल आर्ट जिउ-जित्सु (jiu-jitsu) जैसी तकनीक लागू कर हिंसक गतिविधियों के समक्ष बेतरतीब अहिंसक तौर तरीक़े इस्तेमाल कर सकते हैं. यह विरोधियों को राजनीतिक रूप से असंतुलित कर देता है, जिससे प्रतिरोधियों के दमन की उनकी कार्रवाई, विरोधियों के हक़ में साबित होती है और उनकी ताक़त को कमज़ोर बनाती है. संघर्ष जारी रखते हुए अहिंसक रहकर, प्रतिरोध करने वाली ताक़तें अपनी शक्ति की स्थिति को और बेहतर बना सकती हैं.

किसानों द्वारा सरकार, जो कार्यकारी के रूप में लोकतंत्र के एक मज़बूत स्तंभ का प्रतिनिधित्व करती है, के साथ बातचीत के लिए किसी भी आह्वान को अस्वीकार करते हुए क़ानूनों को वापस लिए जाने की मांग पर अड़े रहना एक अलग बात है. उनके द्वारा सुप्रीम कोर्ट की एक समिति जो, न्यायपालिका का हिस्सा है, को ख़ारिज करना एक और बात है. इन बातों को एक चश्मे से देखने से यह लग सकता है यह लग सकता है कि एक साथ मिल कर यह राजनीतिक असहयोग के रूप में जाने जाते हैं, जिस के एक हिस्से के तौर पर, “सरकारी सहायता, सामान्य प्रशासनिक असहयोग और न्यायिक असहयोग जैसी चयनित गतिविधियां” शामिल हैं. यह अचेतन रूप से हो सकता है, इसलिए मुमकिन है कि यह शार्प के सिद्धांत का हिस्सा है; या यह सचेत हो सकता है और इसलिए उनके सिद्धांत के परिणामस्वरूप होने वाली कार्रवाई.

प्लेबुक्स का अध्ययन

21 वीं सदी के भारत पर 20 वीं सदी के विरोध की रणनीतियों को हस्तांतरित करते हुए, नई दिल्ली में चल रहे किसानों के विरोध प्रदर्शनों से कई तरह के सबक सीखना ज़रूरी है.

किसानों के पक्ष में फ़ायदे:

  1. किसानों द्वारा पीड़ित बनने की लालसा (victimhood) को सफलतापूर्वक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया है. “ग़रीब” किसान की छवि मज़बूत है, और अब दुनिया भर में यह किसानों के पक्ष में संवेदनाएं जुटा रही है.
  2. वैश्विक रूप से और भारत में प्रभुत्व रखने वाली मशहूर हस्तियों ने अपने कारणों और अपने पक्ष के लिए किसानों का सफलतापूर्वक उपयोग किया है.
  1. यह बात कि इन हस्तियों ने बिना क़ानूनों को पढ़े, ऐसा करने की दिशा में क़दम बढ़ाया यह दिखाता है कि यह पारिस्थितिकी तंत्र वैश्विक रूप से कितना मज़बूत है.
  1. किसानों ने जिस तरह सफलतापूर्वक ढंग से कल्पना, यानी कि यह तीन क़ानून एमएसपी और एपीएमसी को समाप्त कर देंगे, और जिस से गरीब किसानों को नुकसान होगा, को सच में बदलने का काम किया है, वह वास्तव में किसानों के लिए एक बड़ी जीत है. सरकार पूरे भारत के किसान समूहों तक पहुंचने में सक्षम नहीं है (वर्तमान आंदोलन पंजाब और हरियाणा के धनी किसान और बिचौलियों के नेतृत्व में किया जा रहा है, जिसमें उत्तर प्रदेश के कुछ किसान भी शामिल हैं) और इस बात का फ़ायदा प्रदर्शनकारियों को मिल रहा है.
  2. जबकि किसानों ने सरकार के साथ किसी भी तरह की बातचीत से इनकार कर दिया है, लेकिन फिर भी यह कथन निर्धारित किया गया है कि सरकार बात नहीं कर रही है.
  1. उन्होंने मामले को देखने के लिए सुप्रीम कोर्ट की समिति को खारिज कर दिया है. इसने ‘ग़रीब’ किसान की अवधारणा को मज़बूत बनाते हुए उन के बीच प्रतिध्वनि पाई है.

सरकार के पक्ष में फ़ायदे:

सरकार अब इस विरोध को संभालने के लिए बेहतर तरीके से तैयार हो रही है. किसानों को बार बार बातचीत के लिए आमंत्रित करने और उन पर क़ानून के बल का उपयोग न करने से- किसानों और उनकी समर्थन प्रणाली द्वारा सभी उकसावों के बावजूद- सरकार की ओर से एक अनोखा लचीलापन दिखाया गया है.

अपने लिए नकारात्मक साबित हुई इस विशाल लड़ाई के रूप में किसानों द्वारा की गई हिंसा जिस ने लगभग 500 पुलिस कर्मियों को अस्पताल पहुंचा दिया  ने सरकार के पक्ष में धारणाओं को बदला है और इस लड़ाई का रुख बदल दिया है.

यह बात कि सरकार ने 18 महीने के लिए क़ानूनों को ठंडे बस्ते में रखने की पेशकश की, जिसके दौरान बातचीत हो सकती है, ने दोनों पक्षों को एक मौक़ा दिया, लेकिन किसानों द्वारा इसे अस्वीकार कर दिया गया था, जिस से उनकी किरकिरी हुई है और उन्होंने नैतिक समर्थन खो दिया है.

किसानों के विरोध का समर्थन करने वाले ओक मात्र सरकार प्रमुख कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो हैं. किसी भी अन्य नेता ने इस मुद्दे पर विचार नहीं किया है. दिलचस्प बात यह है कि वही एमएसपी (MSP) जिसे किसान अब वैधानिक रूप से क़ानूनी बनाने की मांग कर रहे हैं, उसका कनाडा द्वारा
विश्व व्यापार संगठन, डब्ल्यूटीओ (World Trade Centre, WTO) में विरोध किया जा रहा है.

प्रदर्शनकारी इस समय आगे बढ़ने के तरीक़ो को लेकर उलझन और परेशानी में हैं. सरकार भी इस मुद्दे को ले कर आगे नहीं बढ़ पा रही है, क्योंकि “समझौते” के सभी विकल्पों को बंद कर दिया गया है. किसानों की ओर से की जा रही बयानबाज़ी में क़ानूनों को वापस लेने का मुद्दा इस हद तक शामिल है कि कोई भी और बात फ़लक पर नहीं आ पा रही है और बातचीत के लिए सभी रास्ते बंद कर दिए गए हैं. इसके चलते हुआ सबसे बड़ा नुकसान है, 20 साल की चर्चाओं, बहस, समितियों, आयोग, ऐसी रिपोर्टें जिन्हें कोई भी पढ़ना नहीं चाहता, को एक झटके में नकार दिया जाना. इस समय, यह देखना दिलचस्प है कि क़ानूनों को पढ़े बिना टेलिविज़न बहसों में भाग ले रहे विशेषज्ञ व लोग बिना जानकारी की बहस कर रहे हैं. जबकि यह हमारे समय की एक सच्चाई है, एक सच यह भी है कि पोस्ट-ट्रुथ (post truth) की इस दुनिया में सुधार की आवश्यकता है. हिंसा की प्लेबुक पर पुनर्विचार की ज़रूरत है. 20 वीं सदी के विचार 21 वीं सदी में खुद को सार्थक बनाने और अपना अस्तित्व तलाशने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसे में संस्थानों को समय के साथ चलने की ज़रूरत है, और इस बदलाव का भार हम नागरिकों पर है.

तब तक, यह दोनों के लिए बेहतर होगा कि कार्यकारिणी के दो हिस्से- प्रदर्शनकारी और राज्य, विधानमंडल और न्यायपालिका- विरोध की इस प्लेबुक को पढ़ें. न विरोध प्रदर्शन खत्म होने चाहिए और न ही असंतोष खत्म हो सकता है क्योंकि वह भारत के समृद्ध और गहरे लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, लेकिन जब उनके चारों ओर रेखाएं खींची जा रही हों, जब राष्ट्रवाद के मुद्दे उन पर हावी हो रहे हों, जब उन्हें नियंत्रित करने के लिए राजद्रोह के मामलों को नियोजित किया जा रहा हो तो दोनों पक्षों के लिए इन्हें पढ़ना और समझना एक अच्छा विचार हो सकता है, ताकि हर पक्ष यह समझ सके कि इस प्लेबुक का कौन सा अध्याय इस समय काम कर रहा है.

विरोध प्रदर्शनों की 21 वीं सदी की प्लेबुक अभी भी लिखी जा रही है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.