Author : Kabir Taneja

Expert Speak Raisina Debates
Published on Feb 13, 2024 Updated 2 Hours ago

वैश्विक व्यवस्था में नॉन स्टेट एक्टर्स के बढ़ते प्रभाव की पड़ताल करने की ज़रूरत है

'लाल सागर का संकट और सियासी दावेदारी बढ़ाते नॉन स्टेट एक्टर्स'

दो हफ़्ते पहले अमेरिका ने दुनिया को बताया कि सीरिया से लगने वाले जॉर्डन के सीमावर्ती इलाक़े में एक ड्रोन हमले में उसके तीन सैनिक मारे गए हैं. अक्टूबर 2023 में शुरू हुए संकट के बाद, अमेरिका को जान का ये पहला नुक़सान हुआ है. इस घोषणा के कुछ घंटों बाद, यमन स्थित हूती बाग़ियों (जिन्हें आधिकारिक रूप से अंसारल्लाह कहा जाता है) के प्रवक्ता यहिया सरी ने ऐलान किया कि उन्होंने अमेरिका के जंगी जहाज़ USS ल्यूइस बी पुलर पर मिसाइलों से हमला किया है. इसके साथ साथ, यहिया ने फिलिस्तीनियों के समर्थन में न सिर्फ़ लाल सागर के विवादित इलाक़ों बल्कि व्यापक अरब सागर में कारोबारी जहाज़ों को निशाना बनाने की अपनी प्रतिबद्धता को भी दोहराया.

USS ल्यूइस बी पुलर पर हमला अचानक नहीं हुआ. क्योंकि, अमेरिका के जंगी जहाज़ को उस वक़्त निशाना बनाया गया था, जब इस इलाक़े में सक्रिय कई उग्रवादी हथियारबंद संगठन, जिनमें से कइयों के हौसले ईरान, फिलिस्तीन का समर्थन करने की नीति के लिए बनाई गई ‘प्रतिरोध की धुरी’ के तहत बढ़ा रहा है, क्योंकि इज़राइल लगातार गाज़ा में अपना सैन्य अभियान जारी रखे हुए है. ल्यूइस बी पुलर पहले भी अमेरिकी नेवी सील्स कमांडो द्वारा, ईरान में बनी बैलिस्टिक मिसाइलों के कल-पुर्ज़ों की खेप का पता लगाने के अभियान का हिस्सा रहा था. ख़बरों के मुताबिक़ हाल ही में, सोमालिया के तट के पास एक जहाज़ पर क़ब्ज़ा करने के अभियान के दौरान, अमेरिका के दो नेवी सील्स कमांडो लापता हो गए थे और बाद में उनकी मौत की पुष्टि की गई. ईरान से जुड़े उग्रवादी संगठन जैसे की हूती, हिज़्बुल्लाह और पूरे सीरिया और इराक़ में सक्रिय ऐसे कई संगठनों को ईरान द्वारा बैलिस्टिक मिसाइल की तकनीक देने में उदारीकरण की नीति अपनाने का फ़ायदा हुआ है. इसके साथ साथ इन संगठनों को ड्रोन और ऐसे ही असंतुलित युद्ध में काम आने वाले दूसरे हथियार भी मिल रहे हैं.

तेज़ी से बिगड़ रही विश्व व्यवस्था में नॉन स्टेट हथियारबंद (उग्रवादी) संगठनों ने अपनी ताक़त और वैधता इस हद तक बढ़ा ली है कि अब वो देशों की बराबरी पर खड़े होने लगे हैं.

इज़राइल के ऊपर हमास के 7 अक्टूबर के हमले के बाद से क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए किए गए कई बड़े बड़े ऐलान अब हाशिए पर जा चुके हैं. अब्राहम समझौते, IMEEC, I2U2 और सऊदी अरब एवं इज़राइल के बीच रिश्ते सामान्य करने जैसी घोषणाएं अब टकराव के प्रमुख मुद्दे यानी फिलिस्तीन पर फिर से केंद्रित हो गई हैं. हालांकि, इस पूरे इलाक़े में अपने समर्थक और हमले झेलने की क्षमता रखने वाले समूहों का निर्माण और उनको समर्थन की रणनीति पर चलते हुए ईरान ने अपनी सुरक्षा और रणनीतिक लाभ के लिए एक विशाल बफ़र ज़ोन स्थापित कर ली है. इसकी वजह से इस इलाक़े के देशों और अमेरिका, दोनों के लिए न सिर्फ़ एक नई चुनौती खड़ी हो गई है. बल्कि, तेज़ी से बिगड़ रही विश्व व्यवस्था में नॉन स्टेट हथियारबंद (उग्रवादी) संगठनों ने अपनी ताक़त और वैधता इस हद तक बढ़ा ली है कि अब वो देशों की बराबरी पर खड़े होने लगे हैं. आज जब सामरिक और रणनीतिक ख़ालीपन आम बात होती जा रही है और इनसे निपटने की सुपरपावर वाली क्षमता घटती जा रही है, तो इन हथियारबंद संगठनों द्वारा हासिल की जा रही भू-राजनीतिक बराबरी को समझना और इससे निपटना बहुत महत्वपूर्ण होता जा रहा है.

एक अव्यवस्था का दौर

हथियारबंद उग्रवादी संगठनों को ईरान द्वारा दिए जा रहे समर्थन ने निश्चित रूप से ऐसे संगठनों के लिए एक नए युग की शुरुआत कर दी है. वैश्विक भू-राजनीति में उनकी जगह उनके बीच आपसी रिश्तों में भी नए दौर की शुरुआत हुई है. उग्रवादी संगठनों को लेकर आज जो समझ है, इसका एक बड़ा हिस्सा 9/11 के आतंकवादी हमले के बाद अमेरिका द्वारा छेड़े गए, ‘आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध’ के दौर से शुरू हुआ था. इसका मतलब, अल क़ायदा और उससे जुड़े संगठनों और बाद में इस्लामिक स्टेट (अरबी में ISIS या दाएश) और उसके दुनिया भर में फैले तमाम स्वरूपों का अध्ययन हुआ करता था. इन आतंकवादी संगठनों से निपटने के लिए चलाए जाने वाले सैन्य अभियान उसी तरह की रणनीति हुआ करते थे, जैसे लक्ष्य के लिए आज इज़राइल गाज़ा में अभियान चला रहा है. वैसे तो अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ दोनों जगहों पर आतंकवादियों के ख़िलाफ़ अभियान छेड़ा ताकि अलक़ायदा जैसे उग्रवादी इस्लामी संगठनों का खात्मा कर सके. उसी तरह, इज़राइल भी हमास को ख़त्म करने में जुटा हुआ है.

अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ दोनों जगहों पर आतंकवादियों के ख़िलाफ़ अभियान छेड़ा ताकि अलक़ायदा जैसे उग्रवादी इस्लामी संगठनों का खात्मा कर सके. उसी तरह, इज़राइल भी हमास को ख़त्म करने में जुटा हुआ है.

इन उग्रवादी संगठनों ने धीरे धीरे सियासी कामयाबी के ज़रिए जिस तरह देशों के साथ बराबरी करनी शुरू कर दी है, वो न तो कोई नई बात है और न ही उन्हें राजनीतिक के हाशिए से मुख्यधारा में लाकर बात करना ही कोई नया मसला है. विद्वान कॉलिन क्लार्क ने हाल ही में ऐसे कई उदाहरण पेश किए थे, जब विद्रोही संगठनों से बातचीत का रास्ता अपनाकर उनका ख़ात्मा कराया गया. इनमें अस्थायी आइरिश रिपब्लिकन आर्मी द्वारा 1998 में ब्रिटेन के साथ गुड फ्राइडे के शांति समझौते पर सहमत होकर उत्तरी आयरलैंड में 30 साल से चला आ रहा संघर्ष ख़त्म करने से लेकर हिज़्बुल्लाह द्वारा 1992 से लेबनान में होने वाले चुनावों में शामिल होने तक, हर उग्रवादी संकट के विचारधारा की चुनौती बनने का राजनीतिक इतिहास रहा है. दूसरे विद्वान जैसे कि सारा हरमौच और नकिसा जहानबानी ने किसी आरोपी प्रायोजक देश और ग़ैर सरकारी उग्रवादी संगठनों के रिश्तों को ये कहते हुए समझाया है कि ऐसे संबंध कभी भी सिर्फ़ लेन-देन पर निर्भर नहीं होते. जॉर्डन में हुए ड्रोन हमले के बाद से अमेरिका और ईरान के पास उपलब्ध विकल्प, दोनों देशों के सामने खड़ी दुविधाओं को भी रेखांकित करते हैं और ये इशारा भी करते हैं कि हूती और इस जैसे दूसरे संगठन, राजनीतिक अनिर्णयों का लाभ उठाते हुए अपनी हैसियत में इज़ाफ़ा करते जा रहे हैं.

राष्ट्रपति बाइडेन के प्रशासन के लिए तीन अमेरिकी सैनिकों के मारे जाने से घरेलू स्तर पर इस बात का दबाव बढ़ गया है कि वो ईरान के मोहरों पर निशाना साधने पर अमल के साथ साथ उनके ख़िलाफ़ सीधी कार्रवाई करें. वैकल्पिक तौर पर ईरान की किसी बड़ी हस्ती को ईरान के बाहर और इन छद्म मोहरों के प्रभाव वाले इलाक़ों में उसी तरह निशाना बनाया जा सकता है जिस तरह, जनवरी 2020 में ईरान की क़ुद्स फ़ोर्स के बड़े कमांडर क़ासिम सुलेमानी की हत्या की गई थी. लेकिन, इस वक़्त के हालात बिल्कुल अलग हैं, क्योंकि अमेरिका में ये चुनाव का साल है और वो पहले से ही यूक्रेन के मोर्चे पर रूस की चुनौती से निपटने में उलझा हुआई है. जॉर्डन पर ड्रोन हमले के कुछ घंटों के बाद ही अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के प्रवक्ता, जॉन किर्बी ने कहा कि ‘हम ईरान के साथ युद्ध करने नहीं जा रहे हैं.’ बाइडेन द्वारा इज़राइल को पूरी तरह से समर्थन के दो प्रमुख मोर्चे हैं. पहला तो घरेलू है क्योंकि अमेरिका की यहूदी आबादी, सियासी और कारोबारी दोनों क्षेत्रों में काफ़ी ताक़तवर है. दूसरा, अमेरिका द्वारा अपने सहयोगियों के साथ पूरी मज़बूती से खड़े होने का प्रचार करना भी है. क्योंकि दुनिया भर में ये माहौल बन रहा है कि एक सुपरपावर के तौर पर वो कमज़ोर होता जा रहा है और चीन से पिछड़ता जा रहा है. इसको डोनाल्ड ट्रंप के दौर के बाद में ग़लती सुधारने वाले क़दम के तौर पर भी देखा जा रहा है. क्योंकि ट्रंप एक बार फिर से रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी के तौर पर बाइडेन को चुनौती देने की तैयारी कर रहे हैं, जिस वजह से पूरे यूरोप और एशिया में अमेरिका के बहुत से साथी देशों की पेशानी पर बल पड़ रहे हैं.

मौजूदा हालात में ईरान, क़तर और तुर्की जैसे कई देशों से आगे बढ़ते हुए फिलिस्तीनियों के समर्थन की अगुवाई भी कर रहा है. ईरान के बरअक्स, ये दोनों ही सुन्नी बहुल इलाक़े हैं, जबकि ईरान तो शिया इस्लाम का गढ़ होने की वजह से विपरीत धुरी पर खड़ा है.

वहीं, दूसरी तरफ़ ईरान के लिए भी तस्वीर पूरी तरह से साफ़ नहीं है. ईरान के लिए सबसे अच्छा विकल्प बस यही है कि ग़ज़ा में इज़राइल पीछे हट जाए. हूती, हमास, हिज़्बुल्लाह और कातिब हिज़्बुल्लाह जैसे तमाम संगठनों ने जो वैचारिक निवेश किए हैं, उससे जहां तक ईरान की बात है, तो उसके लिए खरी राजनीति के लिए गुंजाइश कम हो जाती है. संस्थागत समर्थन से पीछे हटने या फिर, ईरान के पश्चिम से बातचीत का रास्ता खोलने के लिए ऐसे तमाम संगठनों पर क़दम पीछे खींचने का दबाव बनाने से उसकी ‘प्रतिरोध’ वाली वो छवि धूमिल होगी, जो उसने ख़ुद निर्मित की है. इस वक़्त तेहरान मज़बूत स्थिति में है और वो ये कह सकता है कि ये संगठन स्वतंत्र रूप से काम करते हैं और उसका इन पर कोई नियंत्रण नहीं है. मौजूदा हालात में ईरान, क़तर और तुर्की जैसे कई देशों से आगे बढ़ते हुए फिलिस्तीनियों के समर्थन की अगुवाई भी कर रहा है. ईरान के बरअक्स, ये दोनों ही सुन्नी बहुल इलाक़े हैं, जबकि ईरान तो शिया इस्लाम का गढ़ होने की वजह से विपरीत धुरी पर खड़ा है.

आगे की राह

2021 में तालिबान के अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर क़ाबिज़ होने से लेकर यमन में हूतियों की जीत तक, पिछले पांच वर्षों में ऐसे उग्रवादी संगठनों ने वैश्विक व्यवस्था में, और विशेष रूप से पश्चिमी और दक्षिणी एशिया में कहीं अधिक सियासी और भू-राजनीतिक ताक़त अख़्तियार कर ली है. हो सकता है कि पश्चिमी शक्तियों के लिए दूर रहकर इन तल्ख़ सच्चाइयों को स्वीकार करना और उनसे निपटना अधिक आसान हो गया है. लेकिन, इलाक़े के देशों के लिए ये एक ऐसा चलन है, जो काफ़ी मुश्किलें पैदा कर सकता है. पश्चिमी जगत और चीन (जिसमें यूक्रेन युद्ध के बाद से रूस भी शामिल हो गया है) के बीच व्यापक भू-राजनीतिक संघर्ष और बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था पर ज़ोर देने की वजह से इन नॉन स्टेट उग्रवादी संगठनों के पास कई विकल्प हैं कि वो इन सामरिक दरारों के बीच अपने हितों के हिसाब से पक्ष का चुनाव करें. ये बात हमास के नेताओं द्वारा हाल ही में रूस का दौरा करने और हूती बाग़ियों द्वारा लाल सागर में रूस और चीन के झंडे वाले जहाज़ों को निशाना न बनाने की ख़बरों से और ज़ाहिर हो जाती है.

 

इन उग्रवादी नॉन स्टेट संगठनों में से कई को संयुक्त राष्ट्र और दूसरे बहुपक्षीय संगठनों द्वारा आतंकवाद के प्रायोजक के तौर पर नामित किया गया है. लेकिन, इनके बर्ताव और क्षमताओं में आए हालिया बदलाव की वजह से सुरक्षा की अस्थायी और फौरी नीतियां इकतरफ़ा तौर पर लागू करने को मजबूर होना पड़ा है. इसके बजाय, मौजूदा चलन से निपटने के लिए पहले इन साफ़ दिख रहे बदलावों की दूरगामी समीक्षा करनी चाहिए, ताकि फिर से विकसित हो रही विश्व व्यवस्था में इन संगठनों के बढ़ते प्रभाव का बेहतर ढंग से जवाब दिया जा सके.

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