Author : Ayjaz Wani

Published on Jul 07, 2021 Updated 0 Hours ago

इस पहल के तहत केंद्र सरकार ने 24 जून को घाटी के बड़े नेताओं- जिनमें पीडीपी और एनसी अध्यक्ष शामिल थे उनको बुलाकर एक सर्वदलीय बैठक की 

कश्मीर के लोगों को अच्छा प्रशासन चाहिए, पूर्ण राज्य का दर्जा या चुनाव नहीं

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने कश्मीर घाटी में 5 अगस्त 2019, जब जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को ख़त्म कर दिया गया था और उसे दो केंद्रशासित प्रदेशों जम्मू-कश्मीर और लद्दाख़ में बांटकर उसका भूगोल बदल दिया गया था, उसके बाद केंद्र सरकार ने अपनी पहली बड़ी राजनीतिक पहल की है. इस पहल के तहत केंद्र सरकार ने 24 जून को घाटी के बड़े नेताओं- जिनमें पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) और नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) के अध्यक्ष शामिल हैं- को बुलाकर एक सर्वदलीय बैठक की जो कि एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है. बैठक के बाद केंद्र सरकार ने कहा कि परिसीमन की प्रक्रिया और शांतिपूर्ण चुनाव पूर्ण राज्य की बहाली की दिशा में महत्वपूर्ण सूचक थे. ये राजनीतिक पहल केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के साथ लंबी बैठक के बाद हुई जिसमें राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और केंद्रीय गृह सचिव अजय भल्ला भी मौजूद थे. 

पिछले दो वर्षों में घाटी ने एक अजीब सी शांति देखी है और पूर्ण राज्य की बहाली, परिसीमन, चुनाव और उससे भी आगे बढ़कर बंटवारे के मुद्दों पर अटकलबाज़ी होती रही है. लेकिन कश्मीर के आम लोगों का भरोसा और उम्मीदें इस केंद्र शासित प्रदेश के राजनीतिक रूप से संभ्रांत लोगों के साथ बातचीत से ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं. 

ये राजनीतिक पहल केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की उप-राज्यपाल मनोज सिन्हा के साथ लंबी बैठक के बाद हुई जिसमें राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और केंद्रीय गृह सचिव अजय भल्ला भी मौजूद थे. 

बंटवारा और उसके पीछे की वजहें

अनुच्छेद 370 को हटाना केंद्र सरकार के द्वारा राज्य, जो कि पिछले 30 वर्षों से अलगाव की तरफ़ झुकाव और हिंसक चरमपंथ से प्रभावित है, को राजनीतिक रूप से बदलने के लिए तकनीकी रूप से ज़रूरी समझा गया. 370 को ख़त्म करने और उसके बाद राज्य के बंटवारे की घटना का केंद्र सरकार ने बचाव किया. केंद्र ने दावा किया कि इन फ़ैसलों से बेहतर प्रशासन और अच्छी शासन व्यवस्था मिलने के साथ तेज़ आर्थिक विकास होगा. केंद्र ने ये दलील भी दी कि अनुच्छेद 370 कट्टरता, भ्रष्टाचार और आतंकवाद की “मूल वजह” है. इन दलीलों ने निश्चित रूप से कश्मीर में संघर्ष की हदें तय की और सुझाव दिया कि कभी ख़त्म न होने वाली हिंसा आम लोगों की उम्मीदों की पूरक है.

लेकिन केंद्र सरकार के द्वारा दी गई ये दलीलें स्थानीय लोगों की उम्मीदों के साथ ज़्यादा मेल नहीं खाती हैं. उदाहरण के लिए, जब इस लेखक ने घाटी में 2017-18 में एक व्यापक सर्वे किया तो सर्वे में जवाब देने वाले 2,300 लोगों में से 64.4 प्रतिशत ने भ्रष्टाचार को अशांति का एक बड़ा कारण बताया था. दूसरी तरफ़ कश्मीर के क़रीब 50 प्रतिशत लोगों ने केंद्र सरकार पर आरोप लगाया कि वो राज्य प्रशासन पर जवाबदेही लागू नहीं करती है. लोगों ने सत्ताधारी नेताओं पर इस गड़बड़ी में योगदान देने का आरोप भी लगाया. केंद्र सरकार के द्वारा 1953 से कश्मीर घाटी में राजनीतिक तुष्टिकरण के लिए रणनीतिक हथियार के तौर पर भ्रष्टाचार का इस्तेमाल किया जा रहा है. इसकी वजह से इस क्षेत्र का आर्थिक विकास थम गया है.

केंद्र का प्रत्यक्ष शासन लागू होने के बाद कश्मीर के आम लोगों ने सोचा कि भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगी और भ्रष्ट अधिकारियों को बाहर कर दिया जाएगा.

केंद्र सरकार ऐतिहासिक रूप से कश्मीर के लोगों को अच्छी शासन व्यवस्था देने में भी नाकाम रही है. यहां तक कि राज्यपाल और उपराज्यपाल, पिछले तीन वर्षों से, भी नौकरशाही के चंगुल में बंध गए हैं. इसकी वजह से आम लोगों के बीच केंद्र की विश्वसनीयता को नुक़सान पहुंचा है. निवर्तमान मुख्य सचिव बीवीआर सुब्रमण्यम और नवनियुक्त मुख्य सचिव अरुण कुमार मेहता के बीच पिछले दिनों की लड़ाई से पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को केंद्र सरकार के द्वारा अच्छी शासन व्यवस्था और जवाबदेही के खोखले वादों का मज़ाक़ उड़ाने का मौक़ा मिल गया. 

अनुच्छेद 370 हटाने के बाद पत्थरबाज़ी की घटनाएं और हिंसक प्रदर्शन, यहां तक कि मुठभेड़ की जगहों पर भी, कम हो गए हैं. आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक़ 2020 में कश्मीर में पत्थरबाज़ी की 255 घटनाएं हुईं जबकि 2019 में ये आंकड़ा 1,999, 2018 में 1,458 और 2017 में 1,412 था. लेकिन इस सकारात्मक बदलाव को किसी भी तरह से 5 अगस्त 2019 के नाटकीय फ़ैसले से नहीं जोड़ा जा सकता. घाटी में सरकार विरोधी गतिविधियों में कमी का श्रेय सुरक्षा बलों, ख़ासतौर पर सेना को जाता है. सेना के अधिकारी लोगों की शिकायतों के समाधान की कोशिश के तहत उनके पास पहुंच रहे हैं और अलग-अलग गतिविधियों के ज़रिए लोगों को शांत कर रहे हैं. हालांकि ये काम प्राथमिक तौर पर स्थानीय नागरिक प्रशासन का है. लेकिन कश्मीर के प्रशासन में नौकरशाहों, डॉक्टरों और दूसरे सरकारी अधिकारियों की वफ़ादारी कभी भी समाज या देश के साथ नहीं रही है बल्कि संपत्ति जमा करने, विशेषाधिकार और अपनी शक्तियों के दुरुपयोग में रही है. इसका एक उदाहरण पिछले साल महामारी के दौरान शिक्षा विभाग के द्वारा छात्रों को ऑफलाइन फॉर्म भरने के लिए कहने पर अड़ना है, जबकि उस वक़्त देश के बाक़ी हिस्सों ने ऑनलाइन शिक्षा की प्रणाली को अपना लिया था. 

भ्रष्टाचार की पुरानी बीमारी

जब संसद ने जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को ख़त्म कर दिया तो लगा कि केंद्र सरकार ने कश्मीर में बढ़ते संघर्ष और अलगाववादी रुझान की समस्या की पहचान कर ली है. केंद्र का प्रत्यक्ष शासन लागू होने के बाद कश्मीर के आम लोगों ने सोचा कि भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगी और भ्रष्ट अधिकारियों को बाहर कर दिया जाएगा. लेकिन नये सामाजिक-प्रशासनिक और आर्थिक संरचना में एक बार फिर सत्ता के भूखे अधिकारियों के द्वारा लोगों की उम्मीदों को नज़रअंदाज़ कर दिया गया है. उदाहरण के लिए, महामारी की दूसरी लहर के दौरान भी सरकारी मेडिकल कॉलेज (जीएमसी), अनंतनाग में बड़े पैमाने पर डॉक्टरों की ग़ैर-मौजूदगी की शिकायतों को उपायुक्त (डीसी) पीयूष सिंगला की अगुवाई में सुलझाना पड़ा. जीएमसी ग़लत वजहों से समाचारों में रहा है जैसे कि ऑक्सीजन की कमी, मरीज़ों की ज़्यादा मृत्यु दर, डॉक्टरों की लापरवाही और यहां तक कि उप राज्यपाल मनोज सिन्हा से झूठ बोलना. ज़िला प्रशासन की टीम ने 22 डॉक्टरों को अस्पताल में अनुपस्थित पाया और कॉलेज के प्रिंसिपल को निर्देश देना पड़ा कि हाज़िरी के रजिस्टर को रोज़ाना डीसी के दफ़्तर भेजा जाए. लेकिन प्रिंसिपल ने ग़लती मानने के बदले जीएमसी के मेडिकल फैकल्टी फोरम (एमएफएफ) के साथ अपने संबंधों का इस्तेमाल किया और ज़िला प्रशासन पर निशाना साधा. प्रिंसिपल ने डीसी पर एक “छोटी” शिकायत को लेकर “जल्दबाज़ी और ग़ैर-ज़िम्मेदाराना” और “बचकाने ढंग से” कार्रवाई करने का आरोप लगाया लेकिन अस्पताल से डॉक्टरों की ग़ैर-मौजूदगी पर चुप्पी साधे रहे. 

केंद्र सरकार को अपने उन कार्यकलापों पर ध्यान देना चाहिए जिनकी वजह से जम्मू-कश्मीर में व्यापक भ्रष्टाचार और प्रशासनिक उदासीनता है. उसे इस बात पर आत्ममंथन भी करना चाहिए कि संघर्ष के समाधान में उसकी कार्रवाई कितनी सफल रही है. 

अनुच्छेद 370 हटाने के बाद भी इस तरह का लापरवाही भरा रवैया कश्मीर के हर प्रशासनिक संस्थान, जहां पेशेवर संबंधों के आगे भी संबंध हैं, में दिख जाएगा. नौकरशाही में ज़्यादातर अधिकारी राजनीतिक दलों जैसे बीजेपी, पीडीपी, एनसी के अलावा अलगाववादियों से जुड़े हुए हैं. राजनीतिक संबंधों के खुल्लम-खुल्ला दुरुपयोग ने स्थानीय प्रशासन पर लोगों के भरोसे को और भी कम किया है.

दूसरी तरफ़ केंद्र ने ‘पारदर्शिता के साथ विकास’ के अपने लक्ष्य के तहत आर्थिक विकास के वादों के साथ लोगों तक पहुंचने की कोशिश की है और 2021-22 के लिए 12,600 करोड़ रुपये का ज़िला पूंजीगत व्यय बजट निर्धारित किया है. ये आवंटन पिछले साल के 5,134 करोड़ रुपये के बजट से दोगुने से भी ज़्यादा है. लेकिन ये उपाय किसी सक्रिय और सार्थक भागीदारी की अनुपस्थिति में कोई बदलाव लाने में नाकाम रहे हैं. 

बैठक ने जगाई उम्मीदें

इसलिए 24 जून को बुलाई गई सर्वदलीय बैठक एक महत्वपूर्ण क़दम है जो देश के राजनीतिक नेतृत्व को ये एहसास होना बताती है कि इस क्षेत्र के लोगों के साथ भारत के संबंधों को फिर से जीवित किया जाए. लेकिन इस भागीदारी का विस्तार करने की ज़रूरत है जिससे कि लगातार और ईमानदार बातचीत के ज़रिए लोगों के साथ घनिष्ठता स्थापित की जाए. इस तरह की पहल अनुच्छेद 370 हटाने के बावजूद लोगों की असली शिकायतों का समाधान करने का इकलौता तरीक़ा है. ये एकमात्र रास्ता है जिसके ज़रिए बाक़ी भारत के साथ कश्मीर के लोगों के टूटे भरोसे को फिर से जोड़ा जा सकता है. इस तरह की बातचीत बेहद ईमानदार सेवानिवृत नौकरशाहों और नीति निर्माताओं को शामिल करके बनी केंद्रीय टीम के द्वारा ही की जानी चाहिए और उन्हें स्थानीय प्रशासन और यहां तक कि पुलिस के द्वारा किसी भी तरह के हस्तक्षेप के बिना काम करने देना चाहिए. 

इसके बाद केंद्र सरकार को अपने उन कार्यकलापों पर ध्यान देना चाहिए जिनकी वजह से जम्मू-कश्मीर में व्यापक भ्रष्टाचार और प्रशासनिक उदासीनता है. उसे इस बात पर आत्ममंथन भी करना चाहिए कि संघर्ष के समाधान में उसकी कार्रवाई कितनी सफल रही है. घाटी में ज़मीनी हालात नहीं बदले हैं. शासन व्यवस्था और प्रशासन के कई मुद्दों पर लोग अभी भी असंतुष्ट हैं. कई रणनीतिकार, अकादमिक जगत से जुड़े लोग, विश्लेषक और यहां तक कि आम आदमी भी मानते हैं कि जब तक नौकरशाही और प्रशासन में व्यापक रूप से बदलाव और भ्रष्टाचार की सफाई नहीं होती तब तक चुनाव कराना और यहां तक कि पूर्ण राज्य का दर्जा फिर से बहाल करना बेकार होगा. ये ज़्यादा-से-ज़्यादा आधे मन से की गई कोशिश है जो कि कश्मीर को फिर से आक्रामक अलगाववाद और हिंसा के ख़राब दौर की तरफ़ ले जाएगी. 

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