दो दशक पहले छेड़ा गया “आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध” एकध्रुवीय दुनिया में अमेरिका का सबसे ऊंचाइयों वाला लम्हा था. वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की जुड़वां इमारतों से विमानों के टकराने को ज़्यादातर लोगों ने वैश्वीकरण की आत्मा पर चोट के रूप में देखा. वैश्वीकरण की इस परियोजना को अमेरिका और उसके यूरोपीय साथियों ने तैयार किया और आगे बढ़ाया था. आतंक के ख़िलाफ़ इस जंग को लेकर पी-5 के अंदर और बाहर मोटे तौर पर एक-राय थी. उस समय के ये हालात अमेरिका की असली ताक़त का प्रदर्शन कर रहे थे. बहरहाल वो एक अलग वक़्त था, और वो एक अलग ही दुनिया थी.
उसके बाद अमेरिका ने कई दौर देखे. वो तमाम तरह की समस्याओं में उलझा रहा. इनमें 2008 का वैश्विक वित्तीय संकट शामिल है. 2016 के बाद से अमेरिका के घरेलू परिदृश्यों की जटिलता और वहां की लोकतांत्रिक व्यवस्था की फूट दुनियाभर के सामने तमाशा बन गई. इसमें पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के शपथ से लेकर मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडेन के शपथ ग्रहण तक का मौका शामिल है. दरअसल, दोनों ही नेता हक़ीक़त में देश की सिर्फ़ आधी आबादी का ही प्रतिनिधित्व करते हैं. कोविड-19 से निपटने को लेकर अमेरिका के ढीले-ढाले और स्वार्थी रवैए ने विश्व मंच पर उसके नैतिक और ज़ेहनी ताक़त को कमज़ोर किया है. सबसे अहम बात ये कि अभी इन मामलों की आंच ठंडी भी नहीं पड़ी थी कि अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका की वापसी के हड़बड़ी और गड़बड़ियों से भरे फ़ैसले ने विश्व शांति के तथाकथित अमेरिकी प्रयासों यानी पैक्स अमेरिकाना की परतें उधेड़कर रख दी हैं. हालांकि, ये मुद्दा सिर्फ़ राजनीतिक नहीं है बल्कि निरंतर चली आ रही अमेरिकी नीतियों का नतीजा है.
2016 के बाद से अमेरिका के घरेलू परिदृश्यों की जटिलता और वहां की लोकतांत्रिक व्यवस्था की फूट दुनियाभर के सामने तमाशा बन गई. इसमें पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के शपथ से लेकर मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडेन के शपथ ग्रहण तक का मौका शामिल है.
ऐसा नहीं है कि इन तमाम क़वायदों से सिर्फ़ अमेरिका की माली ताक़त पर ही बुरा असर पड़ा है. उदारवादी व्यवस्था को टिकाए रखने वाली संस्थाओं के नीचे की ज़मीन भी हिल रही है. अमेरिकी मीडिया और शिक्षा जगत का पक्षपातपूर्ण रवैया जगज़ाहिर हो चुका है. आज का अमेरिका एक ऐसा देश बन गया है जहां व्यापक राष्ट्रीय विमर्श के बजाये ट्रोलिंग ही आम जनजीवन का हिस्सा बन गया है. बात चाहे कोरोना वैक्सीन की बाट जोह रहे विकासशील देशों के अरबों लोगों की हो या अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी जंगों में जान जोख़िम में डालने वाले हज़ारों अफ़ग़ान अनुवादकों की, पश्चिमी दुनिया ने इन सबके प्रति बेहद उदासीनता वाला रुख़ दिखाया है. ऐसे माहौल में अंतरराष्ट्रीय उदारवादी व्यवस्था को लेकर नैतिकता भरी दलीलों का शायद अब किसी पर कोई ख़ास प्रभाव नहीं पड़ने वाला.
पहले से ही ये तमाम देश हिंद-प्रशांत क्षेत्र में संघर्ष और प्रतिस्पर्धा का एक नया दौर झेलने की तैयारी कर रहे हैं. एशियाई देशों की राजधानियों से इन मसलों पर नज़र बनाए रखने वाले लोग अब आगे और भी ज़्यादा चौकन्ने और शक़्की हो जाएंगे. इनमें से कुछ देश आतंकी संगठनों को पनाह देने और पालने-पोसने की तालिबानी हसरतों का सबसे पहला शिकार होने वाले हैं. इससे भी अहम बात ये कि काबुल का पतन इन देशों को ये याद दिलाता रहेगा कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर बड़ी शक्तियों की रस्साकशी के बीच फंसने का उनके लिए अंजाम क्या हो सकता है.
अमेरिकी मीडिया और शिक्षा जगत का पक्षपातपूर्ण रवैया जगज़ाहिर हो चुका है. आज का अमेरिका एक ऐसा देश बन गया है जहां व्यापक राष्ट्रीय विमर्श के बजाये ट्रोलिंग ही आम जनजीवन का हिस्सा बन गया है
अमेरिकी नादानी से होता नुकसान
मिसाल के तौर पर, अगर कोई जापान में रहता है तो उसके लिए परमाणु क्षमता की ओर क़दम बढ़ाना समझदारी भरा फ़ैसला हो सकता है. अगर आप दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के संगठन (आसियान) से जुड़े देशों के निवासी हैं तो आपके लिए एक दबंग पड़ोसी आसानी से समझी जाने वाली और स्वीकार्य सच्चाई होगी. किसी भी तरह की पैंतरेबाज़ी इन हक़ीक़तों को बदल नहीं सकती. आज का अमेरिका कइयों के लिए पहले जैसा आकर्षक नहीं रह गया है. अफ़ग़ानिस्तान की साझेदारी से बाहर निकलने का अमेरिकी फ़ैसला बहुत सोच-विचार के बाद सामने आया है और इससे हुआ नुक़सान अमेरिका की दूसरी नादानियों से हुए नुकसान के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा बड़ा है.
यहां कुछ लोग ये तर्क भी दे सकते हैं कि अमेरिका की हिंद-प्रशांत परियोजना को पहले ही एक बड़ा झटका लग चुका है. ये विचार कि अमेरिका अब चीन पर और ज़्यादा गहनता से ध्यान देगा, नादानी भरा और बचकाना है. इससे राजनीति की कच्ची और अपरिपक्व समझ की झलक मिलती है. ज़मीनी सरहदों की अब भी काफ़ी अहमियत है. अमेरिका ने दक्षिण और दक्षिण पश्चिम एशिया को चीन के लिए खुला छोड़ दिया है. चीन का सरकारी मीडिया अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका की वापसी की लगातार खिल्ली उड़ा रहा है, उसका मज़ाक बना रहा है.
अमेरिका ने दक्षिण और दक्षिण पश्चिम एशिया को चीन के लिए खुला छोड़ दिया है. चीन का सरकारी मीडिया अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका की वापसी की लगातार खिल्ली उड़ा रहा है, उसका मज़ाक बना रहा है.
अफ़ग़ानिस्तान में आख़िरकार चीन की भूमिका क्या होगी ये फ़िलहाल अनिश्चित है. हालांकि अमेरिका के निकल जाने से पैदा हुए खालीपन को भरने के लिए चीन के पास कोई न कोई योजना ज़रूर है. हालांकि, चीन का मॉडल बिल्कुल जुदा है. वो मेज़बान मुल्क के संसाधनों के दोहन पर आधारित है. इतना ही नहीं चीन का ये सिस्टम उसकी करतूतों में मदद पहुंचाने वाले हुक्मरानों के लिए कई तरह के लुभावने फ़ायदे पहुंचाने की व्यवस्था पर भी टिका है. कबीलाई और सामंती समाजों में चीन का ये मॉडल बेहतर तरीके से काम करता है. चीनी सिस्टम के विकल्प के तौर पर जो मॉडल है वो इन समाजों को उदारवादी राष्ट्र और मुक्त बाज़ारों में बदलने की क़वायद करता दिखता है. कम से कम अल्पकाल में चीन के अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान (Af-Pak) और पश्चिम एशिया की आर्थिक और सैन्य व्यवस्थाओं को आकार देने वाले शक्तिशाली किरदार के तौर पर उभरने के पूरे-पूरे आसार हैं.
क्वॉड पर असर, हिंद-प्रशांत की चुनौती
इस पूरे प्रकरण का क्वॉड पर असर पड़ना तय है. ज़ाहिर तौर पर क्वॉड हिंद-प्रशांत क्षेत्र में “चीन की काट करने वाला” गठजोड़ है. बहरहाल कुछ बुनियादी हक़ीक़तों से दो-चार होने का यही सही वक़्त है.
पहला, एक लंबे समय से वॉशिंगटन डीसी के नीति निर्माता उन नक्शों के आधार पर अपनी नीतियां बनाते रहे हैं जिनमें पूर्वी हिंद महासागर को हिंद-प्रशांत क्षेत्र की सरहद माना गया है. इस संदर्भ में अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और पश्चिमी एशिया पर भारत के नज़रिए को बार-बार ख़ारिज किया जाता रहा है. ये व्यवस्था निश्चित तौर पर बदलनी चाहिए. या फिर चारों ओर फैले ख़तरों से निपटने के लिए भारत को दूसरी व्यवस्थाओं के साथ काम करना होगा. निश्चित तौर पर अमेरिका को ये समझना होगा कि अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान में चीन के प्रभावों से निपटना हिंद-प्रशांत की प्रमुख चुनौतियों में से एक है. चीन के लिए यहां के मैदानों को खुला छोड़ देना पश्चिमी प्रशांत से जुड़े प्रोजेक्ट के लिए भी बेहद नुकसानदेह है.
दूसरा, अगर अमेरिका हिंद-प्रशांत क्षेत्र के फैलाव को नए नज़रिए से देखना शुरू कर दे तब भी उसे ये बात अच्छे से गांठ बांध लेनी चाहिए कि चीन के प्रयासों के चलते यूरोप और एशिया का मिलन हो रहा है. जैसे-जैसे इन भौगोलिक इलाक़ों का नए सिरे से घालमेल हो रहा है, दोनों के बीच की तमाम बातें साझा समस्याओं का शक्ल अख़्तियार करती जा रही हैं. इनमें गृह युद्ध के शिकार देशों से आती शरणार्थियों की बढ़ती तादाद, जलवायु संकट, वित्त का प्रवाह और बुनियादी ढांचे और तकनीक से जुड़े तमाम मुद्दे शामिल हैं. अगर अमेरिका 2020 के दशक की समाप्ति तक प्रासंगिक बने रहना चाहता है तो वो इस इलाक़े की अनदेखी नहीं कर सकता.
दुनिया भर के देशों ने कथनी की बजाए करनी के चश्मे से अमेरिका का आकलन करना सीख लिया है. ऐसे में किसी ख़ास क्षेत्र को अपने संकीर्ण निजी स्वार्थों के हिसाब से आकार देने और उनकी संरचना करने के प्रयासों का प्रतिरोध होने के पूरे आसार हैं.
तीसरा, भारत आगे भी अपने आकलनों में अमेरिका को अपने सबसे बड़े भागीदार के तौर पर देखता रहेगा. ढलती ताक़त वाली महाशक्ति से कारोबार करना अपेक्षाकृत ज़्यादा आसान होगा. पाबंदी क़ानूनों के ज़रिए अमेरिका के प्रतिपक्षियों से निपटने से जुड़ी व्यवस्था (CATSAA) के तहत “मूल्यों” को लेकर भविष्य में अमेरिका की ओर से लगाई जाने वाली पाबंदियों और प्रवचनों को जल्दी से ठेंगा दिखाना अब और आसान हो जाएगा. दुनिया भर के देशों ने कथनी की बजाए करनी के चश्मे से अमेरिका का आकलन करना सीख लिया है. ऐसे में किसी ख़ास क्षेत्र को अपने संकीर्ण निजी स्वार्थों के हिसाब से आकार देने और उनकी संरचना करने के प्रयासों का प्रतिरोध होने के पूरे आसार हैं. अमेरिका की विश्वसनीयता और भरोसेमंदी चीन के उभार को रोक पाने की उसकी काबिलियत के हिसाब से मापी जाएगी. हालांकि इस पूरी क़वायद में अमेरिका को ये ध्यान रखना होगा कि इस इलाक़े के राष्ट्रों द्वारा अपनी शर्तों पर आर्थिक प्रगति और विकास करने के संकल्पों के रास्ते में किसी भी तरह की रुकावट न खड़ी हो. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लेन-देन का रिश्ता गांठने में माहिर अमेरिका को अब आगे लेन-देन को ही अहमियत देने वाले दोस्तों से दो-चार होना पड़ेगा.
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