Published on Nov 08, 2021 Updated 0 Hours ago

वहीं पार्टी की एकता के लिये सामंजस्य स्थापित करने के बीच राज्य स्तरीय नेताओं को स्वायत्ता देने की क़वायद, काफी कठिन दिख रही है.

बढ़ती हुई आलाकमान संस्कृति: भारत मे अंतर-पार्टी प्रजातंत्र के लिए एक चुनौती!

हाल के दिनों में, विभिन्न राज्यों में हुए श्रृंखलाबद्ध तरीके से शीर्ष नेतृत्व में हुए बदलाव में, देश के दो प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों — भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आइएनसी) शामिल रहीं हैं — राष्ट्रीय स्तर पर ये ख़बर लगातार सुर्खियों में रहा है. पिछले कुछ महीनों के अंतराल में सिर्फ़ बीजेपी ने ही उत्तराखंड, गुजरात और कर्नाटक में अपने पदासीन मुख्यमंत्रियों को उनके कार्यकाल के ख़त्म होने से पहले ही बदला है. हाल के दिनों मे काँग्रेस भी ख़बरों में छायी रही है और उसने पंजाब के अपने लोकप्रिय नेता अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटाते हुए चरणजीत सिंह चन्नी को पहला दलित सिख मुख्यमंत्री नियुक्त किया. कांग्रेस को, नेतृत्व परिवर्तन की ऐसी ही चुनौतियों का सामना राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी करना पड़ रहा है, जहां ये मुद्दा धीरे-धीरे एक बड़े संकट मे बदलता जा रहा है. पार्टी के भीतर तेज़ी से उपजती ‘हाई कमांड संस्कृति’, इस समस्या की मूल वजह है, जहां राष्ट्रीय पार्टियां और उनका राष्ट्रीय नेतृत्व, इन राज्यस्तरीय नेतृत्व की स्वायत्ता का हनन करते हुए, अपने से निचले तबके पर सख़्तीपूर्ण तरीके से अपना कंट्रोल रखते हैं.

पार्टी के भीतर तेज़ी से उपजती ‘हाई कमांड संस्कृति’, इस समस्या की मूल वजह है, जहां राष्ट्रीय पार्टियां और उनका राष्ट्रीय नेतृत्व, इन राज्यस्तरीय नेतृत्व की स्वायत्ता का हनन करते हुए, अपने से निचले तबके पर सख़्तीपूर्ण तरीके से अपना कंट्रोल रखते हैं.

क्या है हाई कमांड संस्कृति?

1969 में कांग्रेस मे हुए विभाजन और उसके बाद, 1970 के उत्तरार्ध मे इस हाई-कमांड संस्कृति की शुरूआत के साक्ष्य मिलते हैं, और उसके बाद, 1971 के आम चुनाव में श्रीमती इंदिरा गांधी को प्राप्त बहुमत के बाद, कांग्रेस गांधी परिवार के सख्त़ नियंत्रण में आ गई और वो नियंत्रण तब से लेकर अब तक जारी है. इस प्रक्रिया के अनुसार, हाई कमांड खुद से अकेले ही कांग्रेस शासित प्रदेशों और उसके समस्त प्रदेश इकाइयों से संबंधित निर्णय और सभी प्रमुख पदों पर नियुक्तियां ख़ुद से ही लेते हैं. लेफ्ट पार्टियों के साथ-साथ भाजपा, जो कि पहले अंतर-पार्टी प्रजातांत्रिक व्यवस्था का अनुसरण करती थी, अब अपने चमत्कारिक व्यक्तित्व वाले नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके राजनीतिक सलाहकार अमित शाह के पूर्ण नियंत्रण में है. वर्ष 2014 में हुए राष्ट्रीय राजनीतिक सुदृढ़ीकरण के बाद से, उन्होंने भी पार्टी के भीतर हाई-कमांड संस्कृति का अनुसरण करते हुए, बीजेपी शासित प्रदेशों में, अपनी मर्ज़ी के मुताबिक मुख्यमंत्रियों को पदस्थापित करने अथवा पद से मुक्त करने की परंपरा शुरू कर दी है. इन शीर्ष नेतृत्व द्वारा पार्टी के भीतर के अपने अधीन काम करने वाले कार्यकर्ताओं के ऊपर ऐसे सीधे-सीधे अपना प्रभुत्व बनाने की परंपरा देश के अन्य प्रमुख प्रांतीय दलों में भी शुरू हो चुकी है.

पार्टियों के भीतर अस्पष्ट संघवाद की डिकोडिंग

भारत जैसे देश में राज्यों की राजनीति, विभिन्न धड़ों के आंतरिक संघर्ष से पीड़ित है, जो कि स्थानीय राजनीतिक बुद्धिजीवियों के बीच हितों के टकराव के साथ-साथ पीढ़ीगत दरार और शक्ति की खींचतान प्रस्तुत करते हैं, ऐसे में राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए ये ज़रूरी हो जाता है कि वो राज्य-स्तर पर पार्टियों मज़बूत बनाये रखने के लिये एक हद तक उसका नियंत्रण अपनी हाथों में रखे.

हालांकि, ये हाई कमांड संस्कृति, जो की भारतीय राजनीति में एक अनिवार्य शर्त बन चुकी है, अक्सरहां राष्ट्रीय दलों के राज्य-स्तरीय घटकों की स्वायत्ता को गंभीर तरीके से दबा देती है, जो ज्य़ादातर मौकों पर राष्ट्रीय नेतृत्व के इशारे पर ही चलती रहती है. एक बार कोई भी राष्ट्रीय पार्टी, राज्य में सत्ता हासिल करने में सफ़ल होती है तो फिर ऐसी स्थिती में राज्य का नेता चुनने में पार्टी हाई कमांड का बड़ा रोल होता है, और पार्टी की राज्य इकाइयों का इसपर ज़्यादा कुछ कह या कर पाना मुश्किल होता है. ऐसी स्थिति में राज्य विधायिका या विधानमंडल के सदस्य असहाय महसूस करते हैं और उनके लिये कुछ भी कह पाना मुश्किल होता है. इस स्थापित तौर-तरीकों के कारण होता ये है कि वो संवैधानिक जनादेश की अवमानना करती है जिसके अनुसार पार्टी विधायकों को राज्य का मुख्यमंत्री चुनने का अधिकार हासिल है.

हाल के कुछ उदाहरण के तौर पर, कर्नाटक के विधानसभा सदस्य और पंजाब में कांग्रेस विधानसभा सदस्यों ने एक प्रस्ताव पारित कर सर्वसम्मत से, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को राज्यों में, अगले मुख्यमंत्री को चुनने का अधिकार दिया है.

ऐसा माना जाता है कि दोनों ही राष्ट्रीय पार्टियां, हाई-कमांड प्रतिनिधि के तौर पर ज़रूरी राज्यों में, अपने केंद्रीय पर्यवेक्षक नियुक्त करते हैं, जहां वे राज्य के नेता और विधायकों की ‘सलाह’ लेते हैं, लेकिन अंततः मुख्यमंत्री बनाने का अंतिम निर्णय राष्ट्रीय नेतृत्व के पास ही होता है. हाल के कुछ उदाहरण के तौर पर, कर्नाटक के विधानसभा सदस्य और पंजाब में कांग्रेस विधानसभा सदस्यों ने एक प्रस्ताव पारित कर सर्वसम्मत से, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को राज्यों में, अगले मुख्यमंत्री को चुनने का अधिकार दिया है. इसी तरह से, हाई कमांड सीधे तौर पर राष्ट्रीय स्तर पर राज्य के मंत्रिमंडल के गठन और राज्य नेतृत्व के एकाधिकार से संबंधित निर्णयों को प्रभावित करते हैं, यहां तक कि पार्टी के राज्य प्रमुख और अन्य अधिकारीगण, हाई-कमांड द्वारा पार्टी के अंदरूनी चुनाव के बजाय, सीधे तौर पर केंद्रीय नेतृत्व के द्वारा नामांकित किये जाते हैं.

राज्यों के ऊपर इन पार्टियों की राष्ट्रीय नेतृत्व की मज़बूत पकड़ मूलतः दो कारकों पर आधारित है; पहला- इतिहास गवाह है की किस तरह से राष्ट्रीय नेतृत्व, राज्य स्तरीय मुखर नेता और उनके मज़बूत ज़मीनी पकड़ के प्रति सजग रहते हैं. वर्ष 1970 और 1980 के दशक में, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने कई राज्यों में अपने अड़ियल और महत्वाकांक्षी मुख्यमंत्रियों को कमोबेश उनसे कमतर और राजनैतिक रूप से हल्के लेकिन अपने आलाकमान/हाई कमांड के प्रति वफ़ादार नेतृत्व से निरंतर प्रतिस्थापित की है. वर्तमान में बीजेपी ने भी, अपने शक्तिशाली नेता पीएम मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के नेतृत्व में, बिल्कुल उसी पद्धति का अनुसरण करते हुए, ज्य़ादातर बीजेपी शासित राज्यों में, उन मुख्यमंत्रीयों को नामित किया जिन्हें राष्ट्रीय नेतृत्व का विश्वास प्राप्त था. मध्यप्रदेश मे शिवराज सिंह चौहान, उत्तरप्रदेश मे योगी आदित्यनाथ और असम मे हेमंत बिसवा शर्मा जैसे चंद अपवाद भी हैं — जो अब भी किसी हद तक अपना दबदबा कायम रख पाने में सफल हैं.

दोनों ही राजनीतिक दलों में पनपती इस प्रकार की प्रवृत्ति, राजनीतिक नेतृत्व के लिए असुरक्षा का विषय है जहां उनकी पार्टी के स्थानीय प्रांतीय नेताओं की प्रसिद्धि उनके लिए एक अहम मुद्दा बनता जा रहा है. इसलिए, राज्यों में कमोबेश कम प्रसिद्ध लीडर का निर्वाचन और नेतृत्व में लगातार बदलाव की वजह से राज्यों की महत्वाकांक्षी नेताओं के ‘पर’ कतरने में सहायक सिद्ध हो रहा है. राज्यों में, इस प्रकार से पलड़ा बराबर रखना या फिर प्रहरी बदलते रहना, कुछ ऐसी चीज़ें हैं जो युवा खून के ऊपर अनुभव को ज्य़ादा महत्व देने वाली बात है जैसा कि राजस्थान में, कांग्रेस हाई कमांड ने सचिन पायलट के ऊपर अशोक गहलोत को तरजीह़ देकर या फिर ये कि ‘नये और युवा चेहरों’ को वरीयता देने के नाम पर भाजपा ने गुजरात और कर्नाटक में नेतृत्व परिवर्तन करके किया.

राज्य से अर्जित होने वाली सारे संसाधन एवं आय को हाई-कमांड खुद ही नियंत्रित करती है ताकि राष्ट्रीय नेतृत्व इन सीमित संसाधनों को अपनी विवेकानुसार बांट सके और उस पर अपना वर्चस्व कायम रख सके.

दूसरा, और बहुत ही संवेदनशील फैक्टर है पार्टी फंड का केंद्रीयकरण, जो इस हाई कमांड संस्कृति का पोषण कर रहा है. राज्य से अर्जित होने वाली सारे संसाधन एवं आय को हाई-कमांड खुद ही नियंत्रित करती है ताकि राष्ट्रीय नेतृत्व इन सीमित संसाधनों को अपनी विवेकानुसार बांट सके और उस पर अपना वर्चस्व कायम रख सके. ये जानते हुए कि चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवारों को अथाह फंड की ज़रूरत पड़ती है, और इससे भी ज्य़ादा ये कि पहले की तुलना में आज-कल भारतीय चुनाव काफी महंगा होता जा रहा है, और इस वजह से आलाकमान के प्रभुत्व को और मज़बूती प्रदान करता है.

आलाकमान संस्कृति की सीमाएं

हालांकि, राज्य नेतृत्व के ऊपर आलाकमान का नियंत्रण पूरी तरह से केंद्रीय नेताओं की लोकप्रियता और राज्य के नेताओं के फायदे पर निर्भर करता है. ऐसा देखा गया है कि जब राष्ट्रीय पार्टियों को आने वाले चुनावों में केंद्रीय नेताओं की लोकप्रियता की बदौलत ज्य़ादा फायदा होता दिखता है, तब राज्यस्तरीय नेताओं को आलाकमान के सामने हथियार डालकर उनकी मर्ज़ी को मानना ज़रूरी हो जाता है. फिर, जब राष्ट्रीय नेतृत्व चुनाव के दौरान या चुनाव नतीजों के बाद और भी ज्य़ादा शक्तिशाली हो जाता है, तब वो राज्यस्तरीय नाखुश या नाराज़ धड़ों को कुछ सौगात देकर उन्हें खुश करने की कोशिश करता है. इसमें उन्हें कई तरह के पद भी दिये जाते हैं, जो एक तरह से उन नेताओं को राजनीति संरक्षण देने जैसा होता है. जैसा कांग्रेस मौजूदा समय में बीजेपी और अपने अच्छे दिनों में कांग्रेस किया करती थी और जिसके बलबूते वे पार्टी की राज्य इकाई पर अपना मज़बूत नियंत्रण रख पाते थे.

जैसा कि इस समय कांग्रेस की वर्तमान स्थिति है और जैसा कि इसके हाल-फिलहाल के अतीत से भी पता चलता है, कि राजनीतिक रूप से एक कमज़ोर राष्ट्रीय नेतृत्व को अगर राज्य यूनिट के विभिन्न धड़ों को नियंत्रण में रख पाने में मुश्किल होती है तो परिणामस्वरूप जो अति महत्वाकांक्षी प्रांतीय नेतृत्व होते हैं जैसे — ममता बनर्जी, शरद पवार, जगन मोहन रेड्डी से लेकर हेमंत बिसवा शर्मा तक — वे लोग पार्टी छोड़ अलग हो जाते हैं. उन्हें ऐसा महसूस होता है कि उनका भविष्य आलाकमान अथवा हाई कमांड के चंगुल से बाहर जाकर ही बेहतर हो सकता है. असल में, अधिकांश प्रांतीय दलों की उत्पत्ति के पीछे कांग्रेस के ऐसे कई मजबूत जमीनी असंतुष्ट राज्यस्तरीय नेता प्रमुख रूप सें जिम्मेदार हैं, जिन्होंने आलाकमान से अपने मतभेद की वजह से खुद की नई पार्टी बना ली और बाद में अभूतपूर्व राजनीतिक सफ़लता का स्वाद भी चखा.

राजनीतिक रूप से एक कमज़ोर राष्ट्रीय नेतृत्व को अगर राज्य यूनिट के विभिन्न धड़ों को नियंत्रण में रख पाने में मुश्किल होती है तो परिणामस्वरूप जो अति महत्वाकांक्षी प्रांतीय नेतृत्व होते हैं जैसे — ममता बनर्जी, शरद पवार, जगन मोहन रेड्डी से लेकर हेमंत बिसवा शर्मा तक — वे लोग पार्टी छोड़ अलग हो जाते हैं.

भारत, जो की एक बहुस्तरीय विविधता के साथ ही संघीय राजनीति से युक्त देश है, उसके राज्यों में एक विकेंद्रीकृत राजनीतिक क्षेत्र की ज़रूरत है जो कि अपनी स्थानीय राजनीतिक प्रवृति के बीच ही अंतर-पार्टी संघवाद (federalism) की सच्ची भावना से प्रेरित हो, बजाय की दिल्ली स्थित राष्ट्रीय नेतृत्व के केंद्रीकृत नियंत्रण में हो. लेकिन राष्ट्रीय दलों में व्याप्त इस हाई कमांड अथवा आलाकमान संस्कृति से, राज्यों में उनके प्रतिभाशाली जनता का भारी समर्थन लिए नेताओं के पार्टी छोड़ने की वजह से, ना सिर्फं उनके खुद के राजनीतिक संभावनाओं का नुकसान हो रहा है, बल्कि साथ ही उनके भीतर राजनीतिक असुरक्षा और राजनीतिक असंतोष का बीजारोपण भी होता है, और पार्टी के भीतर के संघवाद की संभावनाओं को भी ख़त्म करता है. वो संघीय ढांचा जिसपर विविध बहुदलीय लोकतंत्र में राजनीतिक विकेंद्रीकरण या डी-सेंट्रलाइज़ेशन निर्भर करती है. पार्टी मे एकता बनाए रखना और राज्यस्तरीय नेताओं के स्वायत्ता का सम्मान करना, अपने आप में, राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए एक चुनौती है, जिसे राष्ट्रीय पार्टी सिर्फ़ अपने आंतरिक कामकाज का लोकतंत्रिकरण करके ही हल कर सकती है, जो निस्संदेह चुनौतीपूर्ण तो है लेकिन लंबे समय में उसके फल ज़रूर मिलेंगे.

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