Author : Nilanjan Ghosh

Published on Nov 16, 2021 Updated 0 Hours ago

अब तक जिन वित्तीय उत्पादों की परिकल्पना की गई है, वो जलवायु परिवर्तन से प्रभावित ग़रीबों की ज़रूरतों को पूरा नहीं कर पा रहे हैं. ख़ास तौर से इकोसिस्टम सेवाओं के साथ जुड़ी उनकी रोज़ी-रोटी से जुड़े मसलों पर.

हरित पूंजी जुटाने की कभी न ख़त्म होने वाली चुनौतियां

इस बात को दोहराने की ज़रूरत नहीं है कि हमारी धरती और जीवन आज भयंकर संकट के मुहाने पर खड़े हैं. ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन की ताक़त इसके दरवाज़े पर दस्तक दे रहे हैं. ऐसी ताक़तों का मुक़ाबला करने की जो अहम चुनौतियां अब तक उभरकर सामने आई हैं, उनमें पूंजी जुटाना अहम है. इस लेख में हम उसे ‘ग्रीन मनी’ या ‘जलवायु नक़दी’ (या जैसा कि कुछ अन्य विश्लेषक ‘ग्रीन फाइनेंस’ कहते हैं) कहेंगे. जलवायु नक़दी जुटाने में आने वाली ये चुनौतियां ज़्यादातर विकासशील और अविकसित देशों में खड़ी होती हैं. अभी तो ये देश विकास की बुनियादी ज़रूरतों के लिए ही पूंजी जुटाने की जद्दोजहद कर रहे हैं.

जलवायु नक़दी जुटाने में आने वाली ये चुनौतियां ज़्यादातर विकासशील और अविकसित देशों में खड़ी होती हैं. अभी तो ये देश विकास की बुनियादी ज़रूरतों के लिए ही पूंजी जुटाने की जद्दोजहद कर रहे हैं.

इस मामले में अवसरों के दरवाज़े कांफ्रेंस ऑफ़ पार्टीज़ के 21वें सत्र (COP21) में खुले थे. जो 2015 में पेरिस में संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (UNFCCC) के रूप में हुआ था. पेरिस समझौते ने जलवायु वित्त और बाज़ारों के क्षेत्र में एक नए दौर की शुरुआत की थी. धरती के तापमान को औद्योगीकरण के पहले के तापमान से 2 डिग्री सेल्सियस नीचे लाने के रास्ते पर चलने के लिए इन संस्थाओं और व्यवस्थाओं को बुनियादी ज़रूरत माना गया था. जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से निपटने और नई तकनीकें अपनाने के लिए पूंजी उपलब्ध कराने का रास्ता बहुस्तरीय राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के ज़रिए निकालना तय किया गया था. इस व्यवस्था में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए, कार्बन उत्सर्जन कम करने और नई तकनीक अपनाने के लिए वित्तीय मदद का प्रावधान था, जिससे सभी देश कम कार्बन उत्सर्जन वाली राह पर चल सकें.

पूंजी के मौजूदा स्रोत और संस्थाएं

जलवायु परिवर्तन से जुड़ी फंडिंग के स्रोतों को मोटे तौर पर चार वर्गों में बांटा जा सकता है: (i) बहुपक्षीय विकास बैंक और ऐसे ही अन्य अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थान, (ii) संयुक्त राष्ट्र की संस्थाएं/एजेंसियां, (iii) सरकारों द्वारा द्विपक्षीय और बहुपक्षीय फंडिंग, और (iv) निजी क्षेत्र (नागरिकों, कंपनियों और दान देने वाली संस्थाओं की मदद. पर चूंकि, वित्तीय मदद देने का ये तरीक़ा अक्सर एक दूसरे से मिल जाता है, तो पूंजी की मदद के स्रोत का पता लगाना अक्सर बेहद पेचीदा मसला हो जाता है. उदाहरण के लिए बहुपक्षीय विकास बैंक (MDBs) अपनी क्लाइमेट फाइनेंसिंग के लिए दानदाताओं द्वारा स्थापित विशेष ट्रस्ट फंड, या संसाधनों का इस्तेमाल करते हैं. हालांकि, उनके संसाधनों में उनकी अपनी कमाई, अपने बोर्ड के सदस्य देशों का योगदान भी हो सकता है; इसमें निजी क्षेत्र का सहयोग भी शामिल हो सकता है. ऐसे में ये पता लगाना बहुत मुश्किल होता है कि इस फंड का स्रोत बहुपक्षीय विकास बैंकों को माना जाए, या फिर निजी क्षेत्र को.

जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में निजी क्षेत्र ही नहीं, सरकारी निवेशक संस्थान भी ‘जनहित’ के मामलों में निवेश को उपयोगी नहीं मानते हैं. इसकी तुलना में निजी क्षेत्र द्वारा स्वच्छ ईंधन की तकनीक में निवेश लगातार बढ़ रहा है. 

मौजूदा मॉडल में आम तौर पर ‘जलवायु नक़दी’ को अक्सर क़र्ज़ पर आधारित उत्पादों (ग्रीन बॉन्ड, जलवायु परिवर्तन की उपलब्धियों पर आधारित बॉन्ड, जलवायु परिवर्तन से जुड़े लेन-देन के लिए क़र्ज़) के रूप में जुटाया जाता है. वहीं, इस पूंजी का इस्तेमाल भी मदद और क़र्ज़ के साथ-साथ- क़र्ज़ या शेयरों पर, या फिर कई बार बीमा पर आधारित होता है. पूंजीगत संस्थाएं अक्सर सीधे किसी प्रोजेक्ट को फंड देती हैं और इनके साथ a) सीनियर डेट किसी परियोजना की लागत कम रखने के लिए दिए जाने वाले क़र्ज़ शामिल होते हैं. इनमें ऐसे रियायती क़र्ज़ भी हो सकते हैं, जो बाज़ार दर से कम पर दिए जाएं; b) सब-ऑर्डिनेटेड डेट (जो आधे शेयर और आधे क़र्ज़ की शक्ल में हों, जो क़र्ज़ और शेयर पर आधारित व्यवस्थाओं द्वारा दिए जाते हैं और जिनमें किसी क़र्ज़ देने वाली संस्था को क़र्ज़ न लौटा पाने की सूरत में ब्याज को शेयर में तब्दील करने का अधिकार होता है; और c) इक्विटी फाइनेंसिंग (जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने से जुड़े प्रोजेक्ट में क़र्ज़ देने वाला हिस्सेदार बन जाता है, और उसे पूंजी लौटाने की कोई गारंटी नहीं दी जाती है, तो वो प्रोजेक्ट का मालिकाना हक़ भी ले सकता है. यानी अभी जलवायु परिवर्तन की फंडिंग से जुड़ी जो भी व्यवस्थाएं हैं, वो निवेशक के जोखिम लेने की क्षमता पर निर्भर हैं. इनमें जोखिम भरी हिस्सेदारी वाले पूंजी निवेश से लेकर तय आमदनी वाले क़र्ज़ की व्यवस्थाएं शामिल हैं. इसके अलावा बीमा पर आधारित जोखिम प्रबंधन के तरीक़े भी हैं. जिनमें क़र्ज़ लौटाने की गारंटी शामिल होती है. ये क़र्ज़ वापसी न हो पाने की सूरत में क़र्ज़ देने वाले को बीमा सुरक्षा देते हैं; आंशिक क़र्ज़ गारंटी का विकल्प भी होता है, जिसमें क़र्ज़ न लौटाने के जोखिम के एवज में परियोजना के एक हिस्से पर मालिकाना हक़ की गारंटी दी जाती है; प्रदर्शन के जोखिम की गारंटी; राजस्व की गारंटी और संरचनात्मक पूंजी, जिसमें रियायती शर्तों पर सरकार की तरफ़ से कुछ गारंटी दी जाती है.

फंडिंग के पूर्वाग्रह

हालांकि, समस्या कहीं और ही है. वित्त जुटाने के तमाम स्रोत होने के बावजूद, फंडिंग में जलवायु परिवर्तन का असर कम करने वाले उपायों को लेकर एक तरह का पक्षपात (80 फ़ीसद से अधिक) दिखता है. पत्रिका सस्टेनेबिलिटी में हाल ही में प्रकाशित एक लेख के मुताबिक़, जलवायु परिवर्तन का असर कम करने वाले उपायों के प्रति पक्षपात और नई तकनीकें अपनाने से जुड़े पूर्वाग्रह को मोटे तौर पर दो हिस्सों में बांटा जा सकता है. पहला तो ये है कि जलवायु परिवर्तन का असर कम करने वाले उपायों में निवेश का फ़ौरी असर दिखता है. मतलब ये कि बिजली बचाने वाले या नवीनीकरण योग्य ऊर्जा में निवेश को वित्तीय बचत के तौर पर समझा जा सकता है. इसके अलावा निवेश और लाभ की बराबरी के स्तर का अनुमान भी लगाया जा सकता है. लेकिन, नई तकनीकें अपनाने से जुड़ी परियोजनाओं के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है. मिसाल के तौर पर चक्रवात निरोधक संरचनाओं में निवेश से होने वाले फ़ायदे तब तक नज़र नहीं आएंगे, जब तक समुद्री तूफ़ान आते नहीं हैं.

इसके अलावा, आबादी को जोखिम वाली जगहों से सुरक्षित ठिकाने पर ले जाने के रणनीतिक क़दम के लिए फंड जुटाना मुश्किल होता है. क्योंकि ऐसे निवेश पर फ़ायदे नज़र आने में काफ़ी समय लगता है, और कई बार इंसान की ज़िंदगी और रोज़ी-रोटी पर ऐसे उपायों के असर का अनुमान लगाना मुश्किल होता है. दूसरा कारण ये है कि फंडिंग करने वाली एजेंसियों के बीच नई परिस्थितियों के हिसाब से ख़ुद को ढालने वाली परियोजनाओं में दिलचस्पी कम होती है. क्योंकि ऐसे प्रोजेक्ट को अक्सर ‘जनहित’ का कहकर इसका ज़िम्मा सरकारों पर डाल दिया जाता है. जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में निजी क्षेत्र ही नहीं, सरकारी निवेशक संस्थान भी ‘जनहित’ के मामलों में निवेश को उपयोगी नहीं मानते हैं. इसकी तुलना में निजी क्षेत्र द्वारा स्वच्छ ईंधन की तकनीक में निवेश लगातार बढ़ रहा है. क्योंकि, स्वच्छ ईंधन की तकनीक अपनाने को अक्सर निवेश और उससे होने वाले फ़ायदों में मापा जा सकता है.

ऐसे हालात में, पेरिस जलवायु समझौते के बाद ग्रीन क्लाइमेट फंड (GCF) उम्मीद की एक बड़ी किरण बनकर उभरा है. जलवायु परिवर्तन का असर कम करने वाली परियोजनाओं को बड़े स्तर पर बढ़ावा देने के उलट, GCF एक अपवाद बना हुआ है और इसका मक़सद, संयुक्त राष्ट्र के FCCCs सिद्धांतों और प्रावधानों के मुताबिक़, हालात के हिसाब से ख़ुद को ढालने की परियोजनाओं में बराबर का निवेश जुटाना है. जीसीएफ के ज़रिए मदद (अब तक आवंटित कुल पूंजी का 45 प्रतिशत) के तौर पर सहयोग दिया जाता है. इसकी फंडिंग में कर्ज़ (42 फ़ीसद), हिस्सेदारी (9 प्रतिशत) और गारंटी (2 प्रतिशत) और नतीजों पर आधारित भुगतान हैं. हालांकि हम ग्रीन क्लाइमेट फंड के आवंटन में भी फंडिंग के पलड़े को, असर को कम करने वाले उपायों की तरफ़ थोड़ा सा झुका हुआ ही पाते हैं. 7 अक्टूबर 2021 तक उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक़, जिन 190 प्रोजेक्ट को मंज़ूरी दी गई है, उनमें से 43 फ़ीसद परिस्थिति के हिसाब से ढालने वाली परियोजनाएं हैं. 32 प्रतिशत असर कम करने वाले प्रोजेक्ट हैं और बाक़ी के 25 फ़ीसद अन्य अलग वर्गों से हैं. हालांकि, असर कम करने वाली परियोजनाओं को दिया गया कुल फंड 62 प्रतिशत है, जिससे पता चलता है कि ग्रीन क्लाइमेट फंड से भी ज़्यादा पूंजी असर कम करने वाली परियोजनाओं की तरफ़ ही जा रही है.

जलवायु परिवर्तन के हिसाब से ढालने वाली परियोजनाओं में कम पूंजी निवेश की एक वजह ये भी हो सकती है कि ये एक नई गतिविधि है. इससे जुड़ा पहले का कोई तजुर्बा उपलब्ध नहीं है. एक कारण ये सोच भी है कि एडैप्टेशन की परियोजनाएं स्थानीय स्तर पर ही फ़ायदे देती हैं. परिस्थिति के हिसाब से ढालने वाली परियोजनाओं से इस पक्षपात की एडैप्टेशन एक्सपर्ट, और ख़ास तौर से सबसे कम विकसित देशों (LDC) और छोटे द्वीपीय विकासशील देशों (SIDs) ने आलोचना की है. उनका आरोप है कि GFC सबसे ज़्यादा ख़तरे के शिकार देशों के सबसे कमज़ोर तबक़ों को वित्तीय मदद देने में नाकाम रहा है. इन देशों का कहना है कि इसके पीछ GCF की ये सोच है कि वो एक ‘बैंक’ है जो क़र्ज़ के भुगतान की शक्ल में अपने निवेश पर रिटर्न की बाट जोहता है. इसके अलावा ग्रीन क्लाइमेट फंड द्वारा पूंजी निवेश हासिल करने वाले देश और सरकार के साथ साथ परियोजना लागू करने वाली संस्थाओं से पूंजी के प्रबंधन पर गारंटी मांगी जाती है. इससे बड़े स्तर पर पूंजी हासिल कर पाना मुश्किल हो गया है. GCF एडैप्टेशन का जामा पहनकर किए जाने वाले विकास के कार्यों के बजाय, वास्तविक एडेप्टेशन प्रोजेक्ट पर भी ज़ोर देता है.

क्या बाज़ार आधारित व्यवस्थाएं ढालने वाले उपायों में कोई भूमिका अदा कर सकते हैं?

समय के साथ साथ, वित्तीय मुआवज़े के ज़रिए जलवायु परिवर्तन के जोखिम से लड़ने में मदद करने वाले कई वित्तीय माध्यम उभरे हैं, जो प्रभावित देशों और समुदायों की सहायता कर सकते हैं. ये मदद मौसम के बदलाव, मौसम के बदलाव के असर से बीमा, भविष्य में पानी की गारंटी और जलवायु परिवर्तन से जुड़े अन्य वित्तीय उत्पादों की शक्ल में दी जाती है, जो जलवायु परिवर्तन के चलते होने वाले नुक़सान की भरपाई करते हैं. ये उपाय एडैप्टेशन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में तो मददगार हो सकते हैं. लेकिन ऐसे वित्तीय उत्पाद विकासशील या अविकसित देशों की तुलना में विकसित देशों में ज़्यादा लोकप्रिय हैं. क्योंकि, विकासशील और अविकसित देशों के पास ऐसी क्षमता नहीं है कि वो इस मिज़ाज के उत्पाद तैयार करके, ख़ास देशों के हिसाब से ढालकर उनकी मार्केटिंग कर सकें, जो इन देशों की विशिष्ट ज़रूरतें पूरी कर सकते हैं.

इकोसिस्टम से जुड़ी सेवाओं पर जलवायु परिवर्तन के बेहद बुरे असर को, न तो अब तक वार्ता की मेज़ों पर ठीक से स्वीकार किया गया है और न ही सरकार की वित्तीय योजनाओं में ही उनका ज़िक्र देखने को मिलता है. 

यहां एक बात और समझनी होगी कि अभी जलवायु परिवर्तन से जुड़े जो भी वित्तीय उत्पाद तैयार किए गए हैं, वो ग़रीब तबक़े और ख़ास तौर से इकोसिस्टम की सेवा से जुड़ी उनकी रोज़ी-रोटी के मसले हल नहीं कर पाते हैं (ऐसी सेवाएं जो इंसान को क़ुदरती व्यवस्था से मुफ़्त में हासिल होती हैं) 2009 में पत्रिकार नेचर में प्रकाशित अपने लेख में पवन सुखदेव ने इकोसिस्टम की सेवाओं का मोल पैसे में लगाने को, ‘ग़रीबों की GDP’ कहा था और ये तर्क दिया था कि भारत में ग़रीबों की 57 प्रतिशत आमदनी क़ुदरत से आती है.

इकोसिस्टम से जुड़ी सेवाओं पर जलवायु परिवर्तन के बेहद बुरे असर को, न तो अब तक वार्ता की मेज़ों पर ठीक से स्वीकार किया गया है और न ही सरकार की वित्तीय योजनाओं में ही उनका ज़िक्र देखने को मिलता है. इसी वजह से बज़ार आधारित व्यवस्थाओं के नाकाम होने की आशंका से, कोई भी वित्तीय संस्थान ऐसे उत्पाद तैयार करने को राज़ी नहीं है, जो सीधे तौर पर या अप्रत्यक्ष रूप से ग़रीबों की ज़रूरतें पूरी कर सके. क्योंकि ये उम्मीद ही नहीं की जाती कि ग़रीब तबक़ा ऐसे बाज़ारों में शामिल होगा. ऐसे में जलवायु परिवर्तन के संकट को देखते हुए, ऐसे उत्पाद तैयार  करने की भारी कमी दिखती है. जब ऐसे उत्पादों की कल्पना की भी जाती है, तो उन्हें इकट्ठा करने और समुदायों द्वारा उनका लाभ हासिल करने में मदद के लिए नए तरह के संस्थानों की ज़रूरत होगी. अब जिस सवाल का जवाब तलाशा जाना चाहिए, वो इस प्रकार से है: क्या सरकारें और निजी क्षेत्र एक साथ आकर हरित पूंजी उपलब्ध करा सकते हैं?

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