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सिंधु जल संधि का निलंबन यह जताता है कि सीमा पार सहयोग के समझौते, चाहे वे कितने भी लंबे समय से क्यों ना चल रहे हों, राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों के सामने कमजोर पड़ जाते हैं.
Image Source: Getty
भारत और पाकिस्तान ने बढ़ते हुए सैन्य संघर्षों को खत्म करने के लिए 10 मई 2025 को संघर्ष विराम पर सहमति जताई, लेकिन भारत ने इसके बावजूद सिंधु जल संधि (इंडस वाटर ट्रीटी, या IWT) को निलंबित करने के अपने फ़ैसले को बरकरार रखा. इस फैसले की घोषणा के एक महीने बाद देखें तो पाएंगे कि ये निलंबन भारत की काफ़ी लंबे समय से चली आ रही ऐसी नीति में अहम बदलाव का प्रतीक है जिसमें पानी को सुरक्षा के मुद्दों से अलग रखने की बात की गई थी. इससे पहले सिंधु जल संधि को सीमा पार समझौते का एक सफ़ल उदाहरण माना जाता था जिसने दोनों देशों के बीच कुछ बड़ी संघर्षों के बावजूद अपने अस्तित्व को बनाए रखा.
लेकिन द्विपक्षीय समझौते बड़ी हद तक आपसी सद्भाव पर टिके रहते हैं. दोनों पक्षों के पास डर पैदा करने या किसी खास दिखावे के लिए समझौतों पर ‘रणनीतिक विराम’ लगाने का भी विकल्प होता है. भारत के द्वारा सिंधु जल संधि का निलंबन यही दर्शाता है कि किसी संधि का पालन भू-राजनीतिक हालातों पर आश्रित रहता है और इसका अंतरराष्ट्रीय शासन की संरचनाओं पर बड़ा असर पड़ता है.
पहलगाम पर हुए आतंकवादी हमले के बाद भारत ने कई कदम उठाए जिसमें सिंधु जल संधि को तुरंत प्रभाव से निलंबित करना एक अहम फैसला था. वर्ष 1960 में सिंधु जल संधि की मध्यस्थता विश्व बैंक ने की थी और समय की कसौटी पर खरा उतरते हुए इसने एक सफल कूटनीति का प्रमाण दिया. पहलगाम के जवाब के तौर पर संधि को निलंबित करना एक अहम बदलाव को दर्शाता है. भारत जानता है कि पाकिस्तान के लिए ये समझौता कितना ज़रूरी है और उसने इस समझौते के भविष्य को आतंकवाद के खिलाफ ज़ीरो टॉलरेंस या शून्य सहिष्णुता से जोड़ दिया है. हालांकि इस निलंबन का असर तुरंत देखने को नहीं मिल सकेगा लेकिन फिर भी सिंधु जल संधि पाकिस्तान के लिए बेहद अहम है.
भारत जानता है कि पाकिस्तान के लिए ये समझौता कितना ज़रूरी है और उसने इस समझौते के भविष्य को आतंकवाद के खिलाफ ज़ीरो टॉलरेंस या शून्य सहिष्णुता से जोड़ दिया है.
भारतीय उपमहाद्वीप का भौगोलिक विभाजन एक असमान जल-विभाजन के रूप में सामने आया. ऊपरी नदी क्षेत्र वाला देश भारत नदी के जल स्रोतों तक पहुंच को नियंत्रित करता है. दूसरी ओर पाकिस्तान, जो निचला नदी क्षेत्र है, सिंधु जल प्रणाली पर बेहद निर्भर है. पाकिस्तान में की जाने वाली खेती का लगभग 80 प्रतिशत और कुल पानी की खपत का 93 फीसदी हिस्सा इस पर निर्भर है. वर्तमान में भारत के पास नदी की जलधारा को मोड़ने के लिए ज़रूरी बुनियादी ढांचा नहीं है – सिंधु जल संधि ने भारत किसी तरह का जलाशय या बांध बनाने से रोक रखा था. लेकिन इन सबके बावजूद भी अगर भारत पश्चिमी नदियों पर पानी से बिजली बनाने की क्षमता को बढ़ाना चाहता है तो पाकिस्तान पर अत्यधिक बाढ़ और पानी की कमी का जोखिम बन सकता है. पाकिस्तान के विदेश मंत्री इशाक डार ने हाल ही में एक इंटरव्यू कहा कि अगर ‘जल विवाद’ का हल नहीं हुआ तो संघर्ष-विराम खतरे में पड़ सकता है.
द्विपक्षीय संधियों का एक सिद्धांत 'पैक्टा संट सर्वांडा' है जिसका मतलब होता है कि संधि के कर्तव्यों को पूरी ईमानदारी से निभाया जाए. लेकिन यह सिद्धांत पूरी तरह से लागू नहीं होता है. कई बार जब भू-राजनीतिक वास्तविकताओं पर ध्यान देना ज़रूरी हो जाता है तब राष्ट्रीय हित का पालन अक्सर इन संधियों के कर्तव्यों से ऊपर हो जाती है, विशेषकर जब किसी राज्य की सुरक्षा का उल्लंघन होता है. भारत का संधि को निलंबित करने का फैसला एक सामरिक कदम है जो किसी तरह की अंतरराष्ट्रीय नियमों की अनदेखी नहीं करता है. भारत ने इस संधि को ना तो निरस्त किया है या फिर ऐसा कोई कदम उठाया है जो इसके अनुच्छेदों का उल्लंघन करता हो. इस फैसले का उद्देश्य है पाकिस्तान के द्वारा आतंकवाद को समर्थन देने के जवाब में आपसी सहयोग को रोकना. ये कदम भारत को वार्ता की मेज़ पर एक मज़बूती देता है.
सिंधु जल संधि एक द्विपक्षीय व्यवस्था है जो साझा संसाधन के प्रबंधन के लिए राजनीतिक समझौते पर आधारित है. वैसे तो इस मध्यस्थता एक तीसरे पक्ष वर्ल्ड बैंक के द्वारा की गई थी, ये किसी अंतरराष्ट्रीय समुद्री कानून द्वारा शासित नहीं है. इस संधि के 9वें अनुच्छेद में किसी विवाद के समाधान के लिए निकायों की स्थापना करने की बात की गई है जिनमें स्थायी सिंधु आयोग, एक तटस्थ विशेषज्ञ, और एक मध्यस्थता अदालत शामिल हैं. इस तरह की संधियों का ध्यान आपसी सहयोग और सूचना के आदान-प्रदान पर केंद्रित रहा है, ना कि लागू करने के लिए ज़रूरी तंत्र बनाने पर.
हाल ही में वर्ल्ड बैंक के अध्यक्ष अजय बंगा ने यह साफ़ किया कि बैंक की भूमिका “एक मध्यस्थ के रूप में सीमित है और वह मौजूदा विवाद को सुलझाने के लिए हस्तक्षेप नहीं करेगा.”
सीमा पार विवादों को सुलझाने में अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता अधिक असरदार नहीं हो सकती है और इनसे अक्सर द्विपक्षीय दायित्व के तौर पर निपटा जाता है. उदाहरण के तौर पर, किशनगंगा और रातले जलविद्युत परियोजनाओं के मामले में दोनों देशों के बीच विवाद है कि क्या इन पावर प्लांट की तकनीकी डिज़ाइन संधि का उल्लंघन करती है. साथ ही विवाद के समाधान के लिए कौन सी मध्यस्थता प्रक्रिया अपनाई जाए इसे लेकर भी दोनों देश असहमत हैं. हाल ही में वर्ल्ड बैंक के अध्यक्ष अजय बंगा ने यह साफ़ किया कि बैंक की भूमिका “एक मध्यस्थ के रूप में सीमित है और वह मौजूदा विवाद को सुलझाने के लिए हस्तक्षेप नहीं करेगा.”
बिना अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन किए सिंधु जल संधि को निलंबित करने का विकल्प भारत के पास पहले से मौजूद था. भारत ने सीमा पार आतंकवाद के खिलाफ एक रणनीतिक जवाब के रूप में इस पर विराम लगाने के संकेत भी समय-समय पर दिए.
हालांकि संधि को स्थगित करने का फैसला भारत और पाकिस्तान के द्विपक्षीय संबंधों को सीधे तौर पर प्रभावित करता है, ये अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साझा संसाधनों के शासन पर भी बड़ा प्रभाव डाल सकता है. वैसे तो अंतरराष्ट्रीय जल कानून पूरी तरह से विधिबद्ध नहीं है, फिर भी यह कुछ ऐसे आधार-भूत सिद्धांतों और मानदंडों पर आधारित है जो देशों को साझा जल स्रोतों के उपयोग के लिए आपसी सहमति कायम करने में मार्गदर्शन देते हैं. जल को ‘हथियार’ की तरह उपयोग किए जाने का डर और सीमा-पार सहयोग की ज़रूरत ने दुनिया की कुछ बेहद विवादित नदी घाटियों — जैसे मेकोंग और नील — में भी समझौते करवाए हैं.
संधि में ये अस्थायी विराम भारत के एक कड़े रुख को दर्शाता है, लेकिन साथ ही एक परिपक्व संयम का संकेत भी देता है जिसमें द्विपक्षीय संवाद के ज़रिए दोबारा यथास्थिति बहाल की जा सकती है.
सिंधु जल संधि को निलंबित करके भारत ने एक कड़ा रुख अपनाया है, लेकिन वह इस समझौते के पूरे तरह से टूट जाने या पानी जैसे संसाधन को सुरक्षा पर केंद्रित करने से जुड़े जोखिमों के प्रति भी भी सजग है. वैसे तो भारत ने इस निलंबन को एक कूटनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया है, लेकिन भारत किसी संधि को रोकने या अंतरराष्ट्रीय मानकों की अनदेखी करने की मंशा नहीं रखता है—खासकर तब जब उसके दूसरे पड़ोसी देशों के साथ भी जल-संसाधन साझा है. संधि में ये अस्थायी विराम भारत के एक कड़े रुख को दर्शाता है, लेकिन साथ ही एक परिपक्व संयम का संकेत भी देता है जिसमें द्विपक्षीय संवाद के ज़रिए दोबारा यथास्थिति बहाल की जा सकती है. लेकिन निकट भविष्य में कोई भी सार्थक संवाद पाकिस्तान की इस क्षमता पर निर्भर करेगा कि वह सीमा-पार आतंकवाद को समर्थन देने में पूरी तरह से विमुख हो जाए.
हिना माखिजा ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के इकॉनमी एंड ग्रोथ प्रोग्राम में एसोसिएट फेलो हैं.
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Dr. Makhija is an Associate Fellow with ORF’s Economy and Growth Programme. She specializes in the study of International Organizations, Multilateralism, Global Norms, India at ...
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