ये लेख 75 साल बाद भारत: भारतीय लोकतंत्र के प्रमुख संस्थानों की समीक्षा श्रृंखला का हिस्सा है.
भूमिका
भारत में लोकतंत्र और उदारवादी मूल्यों को मज़बूत करने में न्यायपालिका ने बेहद महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है: संविधान का रखवाला, ग़रीबों के अधिकार एवं सरकार की ज़्यादतियों के ख़िलाफ़ कमज़ोर समूहों का योग्य संरक्षक और करोड़ों नागरिकों के लिए आख़िरी उम्मीद वाला संस्थान. कुछ अपवादों को छोड़कर पिछले 75 वर्षों में ज़्यादातर समय भारतीय न्यायपालिका संविधान की रक्षा और क़ानून के शासन को बनाए रखने में सफल रही है. अनगिनत उतार-चढ़ाव देखने के बावजूद न्यायपालिका को शासन व्यवस्था में बहुसंख्यकवाद विरोधी संस्थान के रूप में अभी भी देखा जाता है. न्यायाधीशों की नियुक्ति, बढ़ते केस की संख्या, जवाबदेही, भ्रष्टाचार, न्याय को लेकर अदालतों तक आम नागरिकों की पहुंच एवं खर्च के मुद्दों और इसी तरह की दूसरी चीज़ों के मामले में सुधार के बारे में न्यायपालिका की अपनी महत्वपूर्ण चिंताएं हैं. इस लेख में भारत की स्वतंत्रता के बाद न्यायिक क्रमिक विकास की प्रक्रिया में प्रमुख घटनाओं और लोकतंत्र को मज़बूत करने एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता में न्यायालयों की भूमिका का पता लगाने की कोशिश की गई है.
क्रमिक विकास:
पहला चरण
घटनाओं से परिपूर्ण 75 साल की यात्रा में भारतीय न्यायपालिका के कई रूप सामने आए हैं. स्वतंत्रता के बाद शुरुआती वर्षों में उच्चतर न्यायालयों ने न्यायिक चुनौतियों की प्रतिबंधित हदों का उपयोग विधायी अध्यादेशों की जांच-पड़ताल करने में किया जिसका प्रयोग काफ़ी हद तक न्यायिक समीक्षा की शक्ति के ज़रिए किया जाता था. न्यायपालिका के शुरुआती वर्षों में तीन प्रमुख पहलू ध्यान आकर्षित करते है: पहला, न्यायपालिका ने संवैधानिक शब्दों का पालन किया; दूसरा, सरकार की विचारधाराओं (समाजवाद, सकारात्मक कार्यवाही/आरक्षण नीति) से प्रभावित होने से न्यायपालिका ने इनकार कर दिया; तीसरा, संविधान में संशोधन करने के लिए विधायी विवेक की पूर्ण शक्ति को सही तरीक़ा बताया गया. इस तरह भले ही न्यायपालिका ने कामेश्वर प्रसाद केस में ज़मींदारी प्रथा के उन्मूलन को अवैध और संपत्ति के अधिकार का उल्लंघन घोषित किया लेकिन जब संसद ने तुरंत ही इस प्रावधान को न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर रखने के लिए संविधान में पहले संशोधन को पारित किया तो न्यायपालिका ने न्यायिक समीक्षा के प्रावधान का इस्तेमाल करने से परहेज किया. इसी तरह चंपकम दोराइराजन केस में अदालत ने शैक्षणिक संस्थानों में जाति के आधार पर आरक्षण लागू करने के केंद्र सरकार के फ़ैसले को ये कहते हुए रद्द कर दिया कि ये समानता के अधिकार (अनुच्छेद 14 के तहत) का उल्लंघन है लेकिन संसद के साथ संस्थागत मुक़ाबले से परहेज किया. इन सभी मामलों में न्यायपालिका ने संविधान की सकारात्मक विवेचना का पालन किया.
दूसरा चरण
उथल-पुथल और राजनीति से भरे दूसरे चरण की शुरुआत गोलक नाथ फ़ैसले से हुई. इस मामले में न्यायपालिका ने मौलिक अधिकारों को लेकर अपनी विस्तृत व्याख्या के साथ राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश किया. सर्वोच्च न्यायालय ने 17वें संशोधन की वैधानिकता पर फिर से विचार किया और अपने फ़ैसले में उस संशोधन को ग़ैर-क़ानूनी ठहराया. इस तरह न्यायपालिका ने शंकरी प्रसाद और सज्जन सिंह मामलों के निर्णय को पलट दिया जहां उसने संसद के साथ संघर्ष से परहेज किया था. न्यायालय ने फ़ैसला दिया कि संशोधन करने की संसद की शक्ति मौलिक अधिकारों की जांच-पड़ताल के अधीन थी. संक्षेप में कहें तो सर्वोच्च न्यायालय ने संसद की विधायी संप्रभुता से इनकार किया और संपत्ति के अधिकार जैसे मामलों में भी अपनी न्यायिक समीक्षा की शक्ति को बहाल कर दिया. इसने न्यायपालिका और संसद के आमने-सामने होने का मंच तैयार किया. अपनी सर्वोच्चता फिर से स्थापित करने के लिए संसद ने 24वां संशोधन पारित किया जिसके ज़रिए गोलक नाथ केस का फ़ैसला पलट दिया गया.
राष्ट्रीय आपातकाल और न्यायाधीशों की वरिष्ठता को दरकिनार करने, जिसके बारे में माना जाता है कि न्यायपालिका के राजनीतिकरण में तेज़ी आई, के फ़ैसले ने विवादित एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला केस, जिसमें मौलिक अधिकारों के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार को निलंबित करने के सरकार के फ़ैसले का समर्थन किया गया था, में न्यायपालिका के चुपचाप समर्पण में बहुत बड़ा योगदान दिया.
संसद के द्वारा इस संशोधन के कारण न्यायालय ने ऐतिहासिक केशवानंद भारती फ़ैसला दिया जिसके तहत संविधान में फेरबदल की संसद की संप्रभु शक्ति पर पाबंदी लगाई गई. सर्वोच्च न्यायालय के 13 न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने बहुमत निर्णय में (7 न्यायाधीशों ने समर्थन किया) कहा कि संविधान में संशोधन करने के मामले में जहां संसद सर्वोच्च है वहीं अनुच्छेद 368 के तहत संसद संविधान के ‘आधारभूत ढांचे’ में बदलाव नहीं कर सकती. ये सबको अच्छी तरह मालूम है कि इस फ़ैसले के बाद न्यायमूर्ति ए एन राय को भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने के लिए तीन सबसे वरिष्ठ न्यायाधीशों को अभूतपूर्व रूप से दरकिनार किया गया. इसके बाद संसद और न्यायपालिका के बीच संघर्ष राज नारायण केस में चरम पर पहुंच गया जो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव की वैधानिकता को लेकर था. इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने श्रीमती गांधी के चुनाव को रद्द कर दिया और उसके बाद जून 1975 में आपातकाल की घोषणा ने न्यायपालिका के बेहद हाशिये पर जाने का रास्ता तैयार कर दिया. राष्ट्रीय आपातकाल और न्यायाधीशों की वरिष्ठता को दरकिनार करने, जिसके बारे में माना जाता है कि न्यायपालिका के राजनीतिकरण में तेज़ी आई, के फ़ैसले ने विवादित एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला केस, जिसमें मौलिक अधिकारों के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार को निलंबित करने के सरकार के फ़ैसले का समर्थन किया गया था, में न्यायपालिका के चुपचाप समर्पण में बहुत बड़ा योगदान दिया. इस फ़ैसले ने उच्चतर न्यायपालिका की संस्थागत कमज़ोरी को उजागर करने के अलावा देश के संवैधानिक लोकतंत्र में एक नया निचला स्तर बनाया
तीसरा चरण
एडीएम जबलपुर केस के बाद न्यायालयों के संस्थागत मंथन का दौर शुरू हुआ और संवैधानिक अदालतों ने विशेष रूप से जल्दी-से-जल्दी संभव अवसर पर ख़ुद को ठीक करने में कोई समय नहीं गंवाया. वैसे तो एडीएम जबलपुर केस में फ़ैसला क़ानूनी रिपोर्ट में बना रहा, काफ़ी समय बाद जिसे स्पष्ट रूप से बदला गया, लेकिन एक संस्थान के रूप में न्यायपालिका इसे ठीक करने के लिए उत्सुक थी. राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान जो नुक़सान हुआ उसे ठीक करने के लिए न्यायालय ने मेनका गांधी बनाम भारत संघ और उसके बाद के फ़ैसलों में “जीवन के अधिकार” के मतलब को व्यापक रूप देने के लिए अनुच्छेद 21 के दायरे को विस्तृत कर दिया. मेनका गांधी केस में न्यायपालिका ने उस वक़्त जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के एक नये आयाम को खोला जब उसने ये निर्धारित किया कि अनुच्छेद 21 अपने भीतर ऐसी सभी कार्यवाही को शामिल करता है जो जीवन को सार्थक बनाते हैं और निष्पक्षता, समानता एवं ग़ैर-मनमानापन को शामिल करने के लिए क़ानून के द्वारा स्थापित प्रक्रिया को नया अर्थ प्रदान किया.
न्यायपालिका की पकड़ को महत्वपूर्ण रूप से मज़बूत करने वाले पीआईएल के अलावा न्यायिक सक्रियता के इस दौर में अदालत ने ख़ुद को न्यायाधीशों को नियुक्त करने की शक्ति प्रदान की. न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका के हस्तक्षेप से दूर रखकर स्वायत्तता बरकरार रखने की कोशिश के अलावा इस फ़ैसले का मतलब कमज़ोर गठबंधन सरकारों के समय में न्यायिक वर्चस्व को और मज़बूत करना था.
इस तरह धीरे-धीरे न्यायपालिका ने जनहित याचिका (पीआईएल) के रचनात्मक इस्तेमाल के द्वारा मौलिक अधिकारों की विस्तृत व्याख्या के ज़रिए न्यायिक सक्रियता के एक युग की शुरुआत की. पीआईएल क्रांति की शुरुआत महत्वपूर्ण एस पी गुप्ता बनाम भारत के राष्ट्रपति एवं अन्य फ़ैसले से शुरू हुई थी. निर्णय देते हुए न्यायमूर्ति पी. एन. भगवती ने कहा कि “प्रामाणिक काम करते हुए और सार्वजनिक रूप से ग़लत किसी चीज़ या सार्वजनिक नुक़सान को ठीक करने के लिए किसी कार्रवाई की मांग में पर्याप्त हित वाला कोई भी व्यक्ति अदालत में याचिका दे सकता है”. इस तरह न्यायालय ने कामगारों, निवासियों और आम लोगों को उनके सामूहिक अधिकारों के उल्लंघन के ख़िलाफ़ अदालत में अपील करने का अधिकार दे दिया. इसी तरह न्यायपालिका ने ख़ुद को लिखे जाने वाले पत्र को रिट याचिका मानना शुरू कर दिया क्योंकि ऐसा करने से ‘न्याय तक पहुंच’ का विस्तार होगा. कोर्ट के द्वारा सक्रियता के साथ पीआईएल को बढ़ावा देने से आम लोगों के लिए सोचने वाले लोगों, वक़ीलों और ग़ैर-सरकारी संगठनों को हर तरह के मामलों में मुक़दमा दायर करने का प्रोत्साहन मिला. ये मामले मानवाधिकार उल्लंघन, महिलाओं के अधिकार, बाल अधिकार, बंधुआ मज़दूरी, पर्यावरण प्रदूषण और यहां तक कि संवैधानिक एवं शासन व्यवस्था के मुद्दों पर भी आधारित थे. इस प्रकार हर तरह से पीआईएल ने भारत में न्यायिक सक्रियता के युग की शुरुआत की. पीआईएल के माध्यम से अदालत ने रचनात्मक ढंग से महत्वपूर्ण अधिकारों (यानी मौलिक अधिकारों, विशेष रूप से अनुच्छेद 21) का विस्तार किया ताकि अंतर्निहित अधिकारों जैसे कि मानव गरिमा के साथ रहने के अधिकार, आजीविका के अधिकार और एक स्वस्थ पर्यावरण के अधिकार को शामिल किया जा सके.
न्यायपालिका की पकड़ को महत्वपूर्ण रूप से मज़बूत करने वाले पीआईएल के अलावा न्यायिक सक्रियता के इस दौर में अदालत ने ख़ुद को न्यायाधीशों को नियुक्त करने की शक्ति प्रदान की. न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका के हस्तक्षेप से दूर रखकर स्वायत्तता बरकरार रखने की कोशिश के अलावा इस फ़ैसले का मतलब कमज़ोर गठबंधन सरकारों के समय में न्यायिक वर्चस्व को और मज़बूत करना था. न्यायपालिका ने ये कई निर्णयों की श्रृंखला के दौरान किया जिसे तीन न्यायाधीशों के मामले से जाना जाता है. सर्वोच्च न्यायालय ने 1998 में तीसरे न्यायाधीश के मामले में एक कॉलेजियम सिस्टम बनाने की बात कही जहां दूसरे न्यायाधीशों से भी नियुक्ति के लिए सक्रिय रूप से सलाह ली जाती है.
कॉलेजियम सिस्टम (जहां न्यायाधीश ख़ुद की नियुक्ति करते हैं) की जगह 2015 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (नेशनल ज्यूडिशियल अप्वाइंटमेंट्स कमीशन) को लेना था. सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) की स्थापना के लिए विधेयक पारित किया ताकि न्यायिक नियुक्ति कार्यपालिका के कम-से-कम हस्तक्षेप के साथ पूरी तरह न्यायिक प्रक्रिया नहीं बनी रहे. लेकिन इस अधिनियम में कुछ ऐसे प्रावधान थे जो चिंतित करने वाले थे. इस विधेयक को कार्यपालिका के द्वारा नियुक्ति की शक्ति न्यायपालिका के हाथों से लेने की कोशिश के रूप में देखते हुए पांच सदस्यों की सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने नये क़ानून को असंवैधानिक घोषित कर दिया. इस तरह न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामलों को लेकर न्यायपालिका मज़बूती से कार्यपालिका के किसी संभावित हस्तक्षेप के ख़िलाफ़ उठ खड़ी हुई.
चौथा चरण
चौथा चरण 2014 में शुरू होता है जब तीन दशक के बाद एक दल ने ज़बरदस्त बहुमत हासिल किया. कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका की संस्थागत स्थिति एक बार फिर जांच के दायरे में थी. वैसे तो इस बात के लिए न्यायपालिका की आलोचना होती है कि वो कार्यपालिका के पक्ष में निर्णय देती है और लोगों का जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करने में उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाई है लेकिन मानवीय संकट के कई उदाहरण हैं जहां न्यायालयों, विशेष रूप से उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय ने जीवन, स्वास्थ्य, गरिमा जैसे बुनियादी मौलिक अधिकार की रक्षा सुनिश्चित की है. पिछले दो वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने कई बार ख़ुद संज्ञान लेकर न्यायिक प्रक्रिया शुरू की है. ये इस बात का सबूत है कि न्यायालयों की सक्रियता अभी भी मज़बूती से बनी हुई है.
निष्कर्ष
देश के इतिहास में अलग-अलग समय पर न्यायपालिका की अलग-अलग प्रतिक्रिया के बावजूद ये पूरी तरह स्पष्ट है कि उसने भारत में स्वतंत्रता और लोकतंत्र की मज़बूती एवं रक्षा करने में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है. न्यायपालिका ने अपने क्रमिक विकास के एक लंबे समय के दौरान कार्यपालिका और विधायिका के ख़िलाफ़ आख़िरी उम्मीद वाले संस्थान की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. केंद्रीकृत प्रवृत्तियों वाली कार्यपालिका की अभूतपूर्व रूप से मज़बूती के साथ न्यायपालिका को कई बार पीछे हटना पड़ा है लेकिन इसके बावजूद न्यायपालिका ने ख़ुद को एक ज़िम्मेदार संस्थान के रूप में पुनर्जीवित किया है और इस तरह क़ानून के शासन की असली सफलता को दिखाया है. संस्थागत बातचीत की जहां अभी चर्चा होनी है और उसे समझा जाना है लेकिन वो समय आ गया है जब हर संस्थान के सामने आने वाली चुनौतियों को लेकर आत्मनिरीक्षण हो और उसका एक समाधान तलाशने की ज़रूरत है. इस तरह जब देश स्वतंत्रता के 75 साल का जश्न मना रहा है, तो न्यायिक आत्मनिरीक्षण और कार्रवाई के लिए समय बिल्कुल सही है ताकि न्याय को सबके लिए एक वास्तविकता में बदला जा सके.
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