Expert Speak Raisina Debates
Published on Jan 13, 2025 Updated 2 Days ago

दुनिया की महाशक्तियां यानी बड़े देश अपनी-अपनी चुनौतियों से निपटने में उलझे हुए हैं, ऐसे में वैश्विक भविष्य क्या होगा, इसके बारे में किसी को कुछ भी अंदाज़ा नहीं है. हालांकि, अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में ट्रंप के नए कार्यकाल में उम्मीद है कि तमाम वैश्विक विवादों व मुद्दों का सुखद परिणाम हासिल हो सकता है.

अलग-अलग गुटों में बंटी दुनिया में मज़बूत और निर्णायक नेतृत्व की ज़रूरत!

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ये लेख निबंध श्रृंखला “बुडापेस्ट एडिट” का हिस्सा है. 


वैश्विक स्तर पर आज मानवता के सामने तमाम बड़ी चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हैं और इन चुनौतियों से दुनिया के ज़्यादातर देश जूझ रहे हैं. लेकिन जब तक दुनिया के ताक़तवर देश अपनी सुरक्षा से जुड़े मसलों में ही फंसे हुए हैं, तब तक इन चुनौतियों का मुक़ाबला नहीं किया जा सकता है. ऐसे हालातों में वैश्विक स्तर पर एक मज़बूत नेतृत्व की ज़रूरत है, जिसकी अगुवाई में सभी देश लामबंद होकर इन चुनौतियों से निपटें. अमेरिका की बात की जाए तो, बीते चार वर्षों के दरम्यान राष्ट्रपति जो बाइडेन के नेतृत्व में अमेरिका कई मुश्किल चुनौतियों से घिरा रहा है, जिनमें सबसे बड़ी चुनौती सुरक्षा की है और देखा जाए तो इस दौरान अमेरिका कहीं न कहीं अपने यूरोपीय साझीदार देशों के साथ संभावित विश्व युद्ध के भंवर में भी फंसता नज़र आया है. बाइडेन के राष्ट्रपति कार्यकाल के दौरान एक हिसाब से अमेरिका की नीतियां और रणनीतियां हिचकोले खाते हुए दिखाई दीं, वो अपनी प्राथमिकताओं को लेकर तक निश्चिंत नहीं दिखा. इसके साथ ही वॉशिंगटन की हर जगह पर यही रणनीति रही कि हालात काबू में रहें यानी स्थितियां जस की तस बनी रहें और उसके नियंत्रण में रहें और इसको लेकर वह बहुत आश्वस्त भी रहा. इस दौरान अमेरिका खुद को ताक़त और सामर्थ्य के मामले में सबसे मज़बूत राष्ट्र समझता रहा, लेकिन बाइडेन शासन के चार सालों के दौरान ही पिछले सात दशकों में यूरोप में सबसे बड़ा युद्ध छिड़ा, जिसमें कहीं न कहीं अमेरिका भी पूरी तरह से शामिल रहा. इन्हीं चार वर्षों में हालात ऐसे बने कि अमेरिका ईरान और मिडिल ईस्ट में उसके सहयोगी समूहों के साथ ज़मीन और समुद्र पर एक अघोषित जंग में फंसा रहा. इसके अलावा, इस दौरान एशिया में चीन के साथ अमेरिका रिश्तों में खटास बड़ी है और कई बार वॉशिंगटन को चीन के साथ वास्तिविक युद्ध छेड़ने के बारे में भी विचार के लिए मज़बूर होना पड़ा. अमेरिका द्वारा यूक्रेन और यमन को लेकर दावे तो बहुत किए गए, लेकिन यहां देखा जाए तो वह नाक़ाम साबित हुआ है और उसके आर्थिक व सैन्य हथकंडे कोई ख़ास काम नहीं कर पाए. इन चार वर्षों के दौरान चीन, रूस और ईरान के बारे में अमेरिका की ओर से बहुत कहा गया, लेकिन ज़मीन पर नीतिगत लिहाज़ से कुछ ख़ास नहीं किया गया, जिसके चलते ये देश नज़दीक आए और उनके बीच कई मोर्चों पर सहयोग स्थापित हुआ. अमेरिका की ओर से रूस के ख़िलाफ़ आर्थिक प्रतिबंध लगाए गए हैं और यह कारगर भी सिद्ध हुए हैं, लेकिन उतने नहीं जितना दावा किया गया. अमेरिका के इन क़दमों ने जर्मनी की इकोनॉमी और दूसरे यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित किया है. अमेरिका के इन फैसलों से जहां एक तरफ चीन को सख्त संदेश मिला है, वहीं भविष्य में ऐसे किसी हालात का सामना करने के लिए तैयार रहने की की प्रेरणा भी मिली है.

 

बाइडेन के राष्ट्रपति कार्यकाल के दौरान एक हिसाब से अमेरिका की नीतियां और रणनीतियां हिचकोले खाते हुए दिखाई दीं, वो अपनी प्राथमिकताओं को लेकर तक निश्चिंत नहीं दिखा.

अमेरिका और यूरोप के रिश्तों की बात की जाए तो यूरोपीय देशों के बड़े राजनेता कहीं न कहीं वॉशिंगटन के निर्देशों पर चलने और उसकी रणनीतियों को मानने में अपनी शान समझते हैं और अमेरिकी शासन की यह एक तरह से सबसे बड़ी क़ामयाबी है. भले ही अमेरिका को यह सब अपनी जीत की तरह लगता हो, लेकिन इस बात की प्रबल संभावना है कि लंबी अवधि में यह न तो अमेरिका के हित में है और न ही यूरोपीय देशों के हित में. जहां तक यूरोप की ओर से वॉशिंगटन के निर्देशों को बगैर किसी सवाल-जवाब के मानने की बात है, तो यह महज दिखावा प्रतीत होता है. ऐसा इसलिए है कि अगर वास्तव में यूरोप द्वारा आंख मूंदकर अमेरिका के पदचिन्हों पर चलने की बात सच होती तो, उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (NATO) को लेकर यूरोप और अमेरिका की प्रतिबद्धताओं में कोई मतभेद नहीं होता. जिस प्रकार से नेटो को लेकर यूरोपीय देश अपनी प्रतिबद्धताओं और क्षमताओं में वृद्धि को लेकर संकल्पित नज़र आ रहे हैं, उससे ज़ाहिर है कि यूरोप इस मुद्दे पर अब अमेरिका का पिछलग्गू बनने को तैयार नहीं है. जिस प्रकार से जर्मनी और यूरोपीय देशों के उद्योगों को विपरीत हालातों का सामना करना पड़ रहा है और उससे यह तो स्पष्ट है कि यूरोपीय मतदातों के लिए अमेरिकी नेतृत्व के प्रति झुकाव या कहें कि अमेरिका की अगुवाई में आगे बढ़ने की सोच में बदलाव आएगा. कहने का मतलब है कि सात दशक पहले यूरोपीय नागरिकों के मन में अमेरिका के प्रति क्या भावनाएं थी, उन्हें तो छोड़ ही दीजिए, एक दशक पहले यूरोपीय लोग अमेरिका के बारे में जो विचार रखते थे, शायद अब उनके मन में वैसे विचार भी नहीं होंगे.

 कहने का मतलब है कि सात दशक पहले यूरोपीय नागरिकों के मन में अमेरिका के प्रति क्या भावनाएं थी, उन्हें तो छोड़ ही दीजिए, एक दशक पहले यूरोपीय लोग अमेरिका के बारे में जो विचार रखते थे, शायद अब उनके मन में वैसे विचार भी नहीं होंगे.

यह भी एक सच्चाई है कि अगर नेतृत्व मज़बूत होता है, तो नतीजे भी मन मुताबिक़ हो सकते हैं. अमेरिका में राष्ट्रपति के पद पर अब डोनाल्ड ट्रंप की ताजपोशी होने वाली है, जो कि अमेरिकी और यूरोपियन नेताओं को अपनी सुरक्षा चिंताओं, सुरक्षा प्रतिबद्धताओं और अपनी प्राथमिकताओं का ज़मीनी हालातों के मुताबिक़ नए सिरे से आकलन करने और अमेरिका व यूरोप के रिश्तों की नींव को मज़बूत करने का मौक़ा उपलब्ध कराता है. लेबनान और सीरिया में ईरान की करारी हार हुई है और इसके बाद उसकी ताक़त भी देखा जाए तो कम हुई है. इसके साथ ही बेहद मुश्किलों के दौर से गुजर रहा या कहें कि एक हद तक बुरी तरह से तबाह हो चुका रूस ट्रंप के साथ यूक्रेन के मसले पर समझौता करने को तैयार दिख रहा है. इन परिस्थितियों में डोनाल्ड ट्रंप के पास अमेरिका और उसके सहयोगी राष्ट्रों को विश्व युद्ध के मुहाने की तरफ बढ़ने से रोकने का बेहतरीन अवसर है.


माइकल ए. रेनॉल्ड्स प्रिंसटन विश्वविद्यालय में नियर ईस्टर्न स्टडीज़ के एसोसिएट प्रोफेसर हैं और हिस्ट्री एवं प्रैक्टिस ऑफ डिप्लोमेसी प्रोग्राम के सह-निदेशक हैं.

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