इस शोध पत्र में निरंतर जारी कर्ज़ की उस क़िल्लत का व्यापक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है जिस वजह से भारत के केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता पर हालिया बहस और तेज हो गई है. इसमें नक़दी लिक्विडिटी) की क़िल्लत के पूरे दौर पर नज़रें दौड़ाई गई हैं जिसकी शुरुआत बढ़ते डूबते ऋणों या फंसे कर्जों (एनपीए) के मद्देनज़र सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा उच्च जोख़िम वाले क्षेत्रों को ऋण देने में बड़ी सावधानी बरतने से हुई थी. फिर भी ये बैंक एनबीएफसी (गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां) को ऋण प्रदान करना जारी रखे हुए थे, जो दूसरी ओर उच्च जोख़िम वाले उन सेक्टरों (जैसे कि बुनियादी ढांचागत एवं आवास क्षेत्र) को पहले से ही ऋण प्रदान कर रही थीं, जिनसे बैंक परहेज कर रहे थे. ऋण मुहैया कराने में इस स्पष्ट मतभेद के नकारात्मक नतीजे अंततः अवश्य ही सामने आएंगे. इस बीच, सरकार ने भारतीय रिजर्व बैंक को उधार या कर्ज़ मानदंडों में ढील देने के लिए राजी कर लिया, ताकि ऋण प्रवाह को बाक़ायदा पुन: शुरू किया जा सके. इस पेपर में यह दलील देते हुए इस तरह के ऋण पथ पर चलने के खिलाफ आगाह किया गया है कि यह सिलसिला लंबे समय तक जारी नहीं रखा जा सकता है और आगे चलकर यह आर्थिक संकट का कारण बन सकता है.
Attribution: Abhijit Mukhopadhyay, “The Central Bank Autonomy Debate and India’s Knife-Edge Credit Crisis”, ORF Occasional Paper No. 190, April 2019, Observer Research Foundation.
परिचय
भारत के मौद्रिक नीति निर्माताओं को संयुक्त राज्य अमेरिका के फ़ेडरल रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर बेन बर्नानके की इस सलाह पर अवश्य ही ध्यान देना चाहिए: ‘नक़दी (लिक्विडिटी) संबंधी दिशा-निर्देशों में अन्य उद्देश्यों के साथ-साथ उन जोखिमों को भी अवश्य ध्यान में रखना चाहिए जो प्रमुख वित्तीय कंपनियों की अपर्याप्त नक़दी वाली योजना के कारण व्यापक वित्तीय प्रणाली के लिए उत्पन्न होते हैं और इसके साथ ही इन दिशा-निर्देशों के तहत यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि ये कंपनियां केंद्रीय बैंक से मिलने वाली नक़दी संबंधी सहायता पर अत्यधिक निर्भर न हो जाएं.’ भारत में ऋणों की आपूर्ति और नक़दी की स्थिति वर्तमान में अत्यंत निराशाजनक है. फिर भी, भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की स्वायत्तता पर हालिया बहस से व्यापक मीडिया कवरेज के लिए तो खूब मसाला मिल गया, लेकिन इसने देश की ऋण आपूर्ति प्रणाली में नक़दघट जाने को लेकर सरकार के भीतर बढ़ते तनाव पर पर्दा डाल दिया. इस टकराव, जिस वजह से उर्जित पटेल को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा और फिर शक्तिकांत दास की नियुक्ति आरबीआई गवर्नर के रूप में हुई, का वास्ता दरअसल केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता की तुलना में ऋणों की आपूर्ति और नक़दी से कहीं अधिक है.
मौजूदा कार्यप्रणाली के अनुसार, किसी भी देश के केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता को बनाए रखने से महंगाई दर का लक्ष्य तय करने की व्यवस्थाओं का प्रभावशाली संचालन सुनिश्चित होता है. हालांकि, भारत के मामले में, यदि घटती हुई महंगाई दर कोई संकेत है, तो ऐसा प्रतीत होता है कि देश में महंगाई दर का लक्ष्य तय करने की व्यवस्था को इसके केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता में कमी से कोई ख़तरा नहीं है. तो फिर वित्त मंत्रालय और आरबीआई के बीच सार्वजनिक तौर पर टकराव के पीछे आखिरकार क्या कारण है? क्या टकराव की असली वजह ब्याज़ दरों में धीरे-धीरे कमी किया जाना है, जो सरकार की ओर से एक उचित मांग प्रतीत होती है? यदि ब्याज़ दर में कमी को लेकर ही टकराव की नौबत आई है, तो क्या इसे वित्त मंत्रालय और आरबीआई के बीच चर्चाओं के जरिए सुलझाया नहीं जा सकता था? मुख्य रूप से यह तनातनी निर्बाध ऋण सुनिश्चित करने को लेकर है जिसके परिणामस्वरूप हाल के वर्षों में विभिन्न गैर-बैंक वित्तीय मध्यस्थों में धन का प्रवाह संभव हो पाया. इन धनराशियों ने इस तरह के गैर-बैंक निकायों के बाजार मूल्यांकन या भाव को काफी बढ़ा दिया और यह अंतत: शेयर बाजारों के सूचकांकों के निरंतर अच्छे प्रदर्शन के रूप में सामने आया.
सरकार विमुद्रीकरण और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू करने से लगे झटकों के कारण लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकने के लिए कुछ खास नहीं कर सकती है. इसका नतीजा यह हुआ है कि विभिन्न वृहद आर्थिक बुनियादी तत्वों (जीडीपी के आंकड़ों को छोड़कर, जिन पर कुछ विश्लेषकों ने ‘संशय’ जताया है) [i] में सही अर्थों में बेहतरी होने का कोई संकेत नहीं मिल रहा है. वर्ष 2017-18 को छोड़कर जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) वृद्धि दर निरंतर सात प्रतिशत से अधिक आंकी गई है. अग्रिम अनुमानों के अनुसार, वर्ष 2018-19 में जीडीपी वृद्धि दर 7.2 प्रतिशत होने का अनुमान लगाया गया है, जबकि वर्ष 2017-18 में यह 6.7 प्रतिशत आंकी गई थी.[ii]
जीडीपी के आंकड़ों के अलावा भी अर्थव्यवस्था को मापने के लिए कई अन्य पैमाने या मानदंड (पैरामीटर) हैं और इस तरह के नौ अलग-अलग मापदंडों (कुल 12 में से) की वृद्धि दरों के मामले में वर्तमान राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए-II) सरकार दरअसल संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए-II) सरकार के दूसरे कार्यकाल के अनुरूप प्रदर्शन करने में विफल रही है (तालिका 1 देखें). दरअसल, इस तथ्य को ध्यान में रखना जरूरी है कि इन संकेतकों के मामले में यूपीए-II का प्रदर्शन यूपीए-I के प्रदर्शन की तुलना में कमतर रहा है. विभिन्न सेक्टरों में हालात सही अर्थों में बेहतर न होने पर शेयर बाजार का प्रदर्शन अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है. अत: ऐसी स्थिति में ऋणों का निर्बाध प्रवाह विशेष मायने रखता है.हालांकि, क्या यहां तक कि बैंकिंग प्रणाली की मौजूदा त्वरित सुधारात्मक कार्रवाई (पीसीए) व्यवस्था[1] को कमजोर करने की कीमत पर भी ऋण प्रवाह सुनिश्चित करना समझदारी है? क्या बैंक, जो पहले डूबते ऋणों के बोझ तले दबे हुए थे, अब पूरी तरह इससे उबर गए हैं? यदि ऐसा नहीं है, तो ऋण मुहैया कराने के वर्तमान पथ पर ही निरंतर चलते रहने के प्रतिकूल नतीजे क्या हो सकते हैं?
इस बीच, आईएलएंडएफएस (इन्फ्रास्ट्रक्चर लीजिंग एंड फ़ाइनेंशियल सर्विसेज) और डीएचएफएल (दीवान हाउसिंग फ़ाइनेंस कॉरपोरेशन लिमिटेड) में गहराए संकट ने कुछ एनबीएफसी के कवच में पड़ी दरार को उजागर कर दिया है.[2] आरबीआई द्वारा यहां तक कि एनबीएफसी में भी गैर-निष्पादित परिपरिसंपत्तियों (एनपीए) या फंसे कर्जों से निपटने के लिए कड़े कदम उठाने शुरू कर दिए जाने के बाद इनमें से कुछ कंपनियों को डूबते ऋणों के लिए प्रावधान करने पड़े, जिससे ऋण देने संबंधी उनकी क्षमता सीमित हो गई. एनबीएफसी के लिए उधारी लागत निकट भविष्य में और ज़्यादा बढ़ जाने की आशंका है. ये सभी इन एनबीएफसी के पहले से ही जोखिम भरे लाभ मार्जिन के लिए ख़तरा हो सकते हैं.
इस पेपर के पहले खंड में आरबीआई और वित्त मंत्रालय के बीच हालिया टकराव का घटनाक्रम दिया गया है. दूसरे खंड में केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता एवं स्वतंत्रता पर एक सैद्धांतिक पृष्ठभूमि का उल्लेख किया गया है और इसके साथ ही संबंधित सूचनाओं या तथ्यों को भारत के अनुभव से जोड़ा गया है. तीसरे खंड में बैंक ऋणों की संरचना, इनके प्रवाह और जोखिमों का विश्लेषण किया गया है अंतिम से पहले वाले खंड में एनबीएफसी द्वारा दिए जाने वाले कर्ज़ो के स्वरूप के बारे में बारीकी से बताया गया है और इस पेपर के आखिर में निष्कर्ष दिया गया है.
आरबीआई-वित्त मंत्रालय टकराव: घटनाक्रम
यद्यपि इस बात का अक्सर उल्लेख नहीं किया जाता है, लेकिन केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता पर छिड़ी वर्तमान बहस में आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन की छाया या छाप स्पष्ट नज़र आती है. डूबतेऋण जारी करने को नियंत्रण में रखने के साथ-साथ जानबूझकर डिफॉल्ट करने वालों पर नकेल कसने के लिए राजन द्वारा किए गए प्रयासों के परिणामस्वरूप अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों (एससीबी) के लिए त्वरित सुधारात्मक कार्रवाई (पीसीए) व्यवस्था शुरू की गई जिसके तहत हाल ही में सार्वजनिक क्षेत्र के 11 बैंकों को ऋण देने से रोक दिया गया था.[iii] जैसा कि अपेक्षित था, दिसंबर में नई पूंजी डालने के बाद तीन पीएसयू बैंकों यथा बैंक ऑफ इंडिया, बैंक ऑफ महाराष्ट्र और ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स को फरवरी 2019 में आरबीआई ने ‘पीसीए’ के दायरे से बाहर कर दिया है.[iv] निकट भविष्य में कुछ और बैंकों को पीसीए के दायरे से बाहर कर दिए जाने की उम्मीद है. राजन ने डूबतेएवं जोख़िम भरे ऋणों की पहचान करने और इन्हें नियंत्रण में रखने के लिए परिसंपत्ति गुणवत्ता की समीक्षा (एक्यूआर) और बड़े ऋणों पर सूचनाओं का केंद्रीय भंडार (सीआरआईएलसी) जैसी विभिन्न पूरक व्यवस्थाएं करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. बहस के दौरान इस तथ्य को अवश्य ही ध्यान में रखा जाना चाहिए कि केंद्र सरकार से बाकायदा परामर्श करने के बाद ही इन व्यवस्थाओं को अंतिम रूप दिया गया था, न कि गलत ढंग से यह मान कर चलना कि आरबीआई ने इस दिशा में एकतरफ़ा तौर ही कार्य शुरू कर दिया था.
सरकार और आरबीआई के बीच हालिया टकराव का माहौल पिछले कुछ समय से लगातार बनता जा रहा था. दरअसल, सरकार ऋण प्रवाह सुनिश्चित नहीं करने को लेकर आरबीआई की निरंतर आलोचना कर रही थी. उधर, आरबीआई ने अपनी राय व्यक्त करते हुए यह साफ जता दिया था कि वह बैंक ऑफ बड़ौदा, विजया बैंक और देना बैंक के विलय के निर्णय से सहमत नहीं है. दो और बिंदुओं पर मतभेद उभरने से इनके बीच दरार और ज़्यादा चौड़ी हो गई. इनमें से एक था पंजाब नेशनल बैंक(पीएनबी) से जुड़ा 126 अरब रुपये का घोटाला. जैसे ही इस घोटाले का पर्दाफ़ाश हुआ, केंद्र सरकार ने धोखाधड़ी वाले लेन-देन को रोकने में नाकाम रहने के कारण नियामक के रूप में आरबीआई की विफलता की ओर इशारा किया.[v] आरबीआई ने हितों के टकराव से बचने के लिए पीएसयू बैंकों के बोर्डों, जो ऋण संबंधी निर्णय लेते हैं, से अपने नामित निदेशकों को वापस लेने का प्रस्ताव रखा. वित्त मंत्रालय ने इस अनुरोध को ठुकरा दिया.[vi] दूसरी घटना सितंबर 2018 में भारतीय रिजर्व बैंक के केंद्रीय बोर्ड से एक भारतीय बैंकर और बिल एंड मेलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन (बीएमजीएफ) के राष्ट्रीय निदेशक नचिकेत मोर की बेदखली से संबंधित है.[vii] राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़े संगठन स्वदेशी जागरण मंच (एसजेएम) ने इससे पहले हितों के टकराव का आरोप लगाते हुए नचिकेत मोर को हटाने के लिए प्रधानमंत्री को पत्र लिखा था. (भारतीय रिजर्व बैंक बीएमजीएफ जैसे गैर-सरकारी संगठनों को विदेशी फंड के प्रवाह पर भी क़रीबी नज़र रखता है.[viii] वैसे तो इन दोनों के बीच संबंध की कोई आधिकारिक पुष्टि उपलब्ध नहीं है, लेकिन अगस्त 2018 में सरकार ने एसजेएम के संयोजक एस. गुरुमूर्ति को आरबीआई के बोर्ड के निदेशक के रूप में शामिल कर लिया.[ix]
इनके बीच तनाव उस समय चरम बिंदु पर पहुंच गया जब सरकार ने आरबीआई अधिनियम, 1934 की धारा 7 का उपयोग करने की इच्छा व्यक्त की,[x] जिसके तहत केंद्र सरकार ‘जन हित में’ आरबीआई को ‘निर्देश’ दे सकती है। प्रावधान में यह भी कहा गया है, ‘इस तरह का कोई भी निर्देश मिलने पर बैंक के कामकाज की सामान्य देख-रेख एवं निर्देशन की ज़िम्मेदारी एक केंद्रीय निदेशक मंडल को सौंप दी जाएगी जो सभी अधिकारों का इस्तेमाल कर सकता है और ऐसे सभी कार्य कर सकता है जो बैंक द्वारा किए जा सकते हैं[xi] वैसे तो देश की आज़ादी के बाद अब तक इस धारा का उपयोग नहीं किया गया है, लेकिन इसका जिक्र करने भर से ही केंद्रीय बैंक में खलबली मच गई, जिसका नतीजा यह हुआ कि भारतीय रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने सार्वजनिक रूप से नाराज़गी जता दी.[xii] आचार्य ने साफ-साफ शब्दों में वित्तीय बाजारों के संचालन के लिए केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता को अत्यंत जरूरी बताया और इसके साथ ही उन्होंने सार्वजनिक बैंकों के विनियमन और आरबीआई की बैलेंस शीट से रिजर्व राशि के हस्तांतरण जैसे मुद्दों पर प्रकाश डाला.[xiii] उन्होंने अर्जेंटीना के वित्तीय संकट और उसके केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता से इसकी तुलना भी कर डाली. इसका जवाब देते हुए वित्त मंत्री ने पीएसयू बैंकों द्वारा अंधाधुंध ऋण देने के दौरान केंद्रीय बैंक पर ‘अनदेखी करने’ का आरोप लगाया.[xiv] उन्होंने आरबीआई को इस बात के लिए दोषी ठहराया कि पूर्ववर्ती यूपीए सरकार ने बैंकों को अंधाधुंध उधार देने की अनुमति देकर अर्थव्यवस्था को ‘कृत्रिम रूप से’ आगे बढ़ाया था (वर्ष 2008 और वर्ष 2014 के बीच) जिसके परिणामस्वरूप 10 लाख करोड़ (ट्रिलियन) रुपये तक के एनपीए का संचय हो गया.[xv] इसके ठीक एक दिन बाद ही घबराए बाजारों को शांत करने के उद्देश्य से केंद्र सरकार ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर यह कहा: ‘सरकार एवं आरबीआई दोनों को ही अपने कामकाज में जन हित और भारतीय अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं के अनुसार निर्देशित होना चाहिए.’[xvi] उस समय ऐसा प्रतीत हुआ था कि भारतीय रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय दोनों ने ही आपसी मतभेद सुलझा लिए हैं.
दिसंबर 2018 के आरंभ में अप्रत्याशित कदम उठाते हुए आरबीआई के गवर्नर उर्जित पटेल ने ‘व्यक्तिगत कारणों’ का हवाला देकर अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया.[xvii] तब सरकार ने आरबीआई के 25वें गवर्नर के रूप में शक्तिकांत दास को नियुक्त किया.[xviii] (दास ने आर्थिक मामलों के विभाग में सचिव के रूप में विमुद्रीकरण पर अमल की देखरेख की थी और वह वर्तमान सरकार के एक भरोसेमंद नौकरशाह हैं). इस नियुक्ति को देखते हुए यह उम्मीद जताई जा रही है कि अर्थव्यवस्था में ऋण प्रवाह को सुचारू बनाने के लिए पीसीए व्यवस्था में ढील दी जाएग. क्रेडिट पॉलिसी या मौद्रिक नीति में की गई हालिया घोषणाएं इन उम्मीदों को सही साबित कर रही हैं.
इस प्रकार सरकार और केंद्रीय बैंक के बीच हुई तगड़ी सार्वजनिक लड़ाई में सरकार का ही पलड़ा भारी रहा है. दरअसल, आरबीआई के नए गवर्नर और इसके बोर्ड में नए सदस्यों को शामिल करने के साथ ही सरकार ने संवैधानिक और कानूनी रूप से इसे थोपे बिना ही आरबीआई अधिनियम की धारा 7 को एक तरह से लागू कर दिया है. अंत में, वैसे तो इस टकराव को व्यापक रूप से केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता से जुड़े होने के रूप में देखा जाता है, लेकिन विवाद का असली कारण अर्थव्यवस्था में नक़दी या ऋण प्रवाह रहा है।
मौद्रिक नीति, महंगाई दर का लक्ष्य तय करना और केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता
केंद्रीय बैंक की जवाबदेही से जुड़ी बहस कोई नई बात नहीं है. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद साठ के दशक तक कीनेसियन अर्थशास्त्र ही ज्यादातर देशों में आर्थिक नीति के निर्माण पर हावी रहा. एक ठेठ कीनेसियन संरचना में मौद्रिक नीति की भूमिका और इस तरह से केंद्रीय बैंक की भूमिका सीमित होती है क्योंकि आर्थिक प्रणाली दरअसल सरकार द्वारा प्रत्यक्ष रूप से उठाए जाने वाले विभिन्न कदमों के साथ-साथ आर्थिक गतिविधियों, खासकर निवेश और पूंजी निर्माण में उसकी भागीदारी के आसपास घूमती है. केंद्रीय बैंक का प्रमुख काम सरकार द्वारा निर्दिष्ट किए गए प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को ऋण उपलब्ध कराना और वित्तीय प्रणाली, विशेषकर बैंकिंग सेक्टर की स्थिरता सुनिश्चित करना है.[xix]
मौद्रिक नीति को इस तरह की सीमित भूमिका देने के बारे में सबसे पहले जानकारी तीस के दशक में गहराई ‘महामंदी’ के दौरान मिलती है, जब केंद्रीय बैंकों पर मंदी की नौबत लाने तथा उसे और ज़्यादा भयावह करने का आरोप लगाया गया था. ज़्यादातर देशों में मौद्रिक नीति को ट्रेजरी के नियंत्रण में रखा गया था और कीनेसियन सिद्धांत पर विशेष जोर देने के मद्देनज़र राजकोषीय नीति ही नीति निर्माण के हलकों में हावी हो गई थी. केंद्रीय बैंक ब्याज़ दर को कम-से-कम रखने पर अपना ध्यान केंद्रित करते थे, ताकि अर्थव्यवस्था में आवश्यक उछाल सुनिश्चित की जा सके और इसके साथ ही ट्रेजरी की डेट संबंधी आवश्यकताओं को जुटाने में उसकी सहायता की जा सके. पचास के दशक में जब महंगाई पूरी दुनिया में अपना सिर फिर से उठाने लगी थी और अर्थव्यवस्थाएं कीनेसियन सिद्धांत से दूर हो गई थीं, तब मौद्रिक नीति बनाने की जिम्मेदारी फिर से केंद्रीय बैंकों को दे दी गई. उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका में फ़ेडरल रिजर्व को वर्ष 1951 में हुए ट्रेजरी-फ़ेडरल रिजर्व समझौते के बाद अपनी तथाकथित ‘स्वतंत्रता’ वापस मिल गई.
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान फ़ेडरल रिजर्व ने ब्याज़ दर को न्यूनतम संभव स्तर पर रखने का वादा किया और यहां तक कि युद्ध समाप्त हो जाने के बाद भी वह सरकार की उधारी का समर्थन करता रहा. हालांकि, सरकारी घाटे के निरंतर मुद्रीकरण के खिलाफ फ़ेडरल रिजर्व के भीतर विरोध के स्वर उठने लगे थे. इसके बाद मूल्यों में स्थिरता का एक संक्षिप्त दौर आया जो साठ के दशक के मध्य तक जारी रहा. हालांकि, उस दौर के बाद पूरी दुनिया में महंगाई ने कहर ढाना शुरू कर दिया. अस्सी के दशक के आरंभ में महंगाई को संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य देशों की अत्यंत कठोर मौद्रिक नीतियों के जरिए काबू में किया गया. मौद्रिक नीति के निर्माण में मुख्य विचारधारा के रूप में ‘मुद्रावाद या मौद्रिकता’ के प्रभुत्व का युग[xx] सत्तर के दशक के दौरान शुरू हुआ और नए मानदंड के तहत ‘विश्वसनीय’ मौद्रिक नीतियों के आधार पर महंगाई दर को कम या निम्न स्तर पर बनाए रखने के महत्व पर विशेष जोर दिया गया. दरअसल, तभी से मौद्रिक नीति के निर्माण का महत्व कमोबेश समान ही रहा है.[xxi]
महंगाई को काबू में रखने पर निरंतर विशेष जोर देने का ही यह नतीजा है कि ‘महंगाई दर का लक्ष्य तय करने’ की रूपरेखा तैयार की गई जिसके तहत केंद्रीय बैंक ‘मौद्रिक नीति नियम’ के रूप में अगले एक साल के लिए मूल्यवृद्धि की एक रेंज या सीमा तय करता है और फिर उस दायरे में ही महंगाई दर को बनाए रखने की कोशिश करता है. यदि महंगाई बढ़ जाती है और लक्षित दायरे को पार कर जाती है, तो केंद्रीय बैंक ब्याज़ दरों में वृद्धि करके तब तक मुद्रा आपूर्ति में कमी लाता है जब तक कि महंगाई दर उसी दायरे में वापस नहीं आ जाती है. जैसा कि बर्नानके और अन्य विशेषज्ञों ने यह बात रेखांकित की है, ‘महंगाई दर का लक्ष्य तय करना मौद्रिक नीति के लिए एक विशिष्ट रूपरेखा है जिसके तहत एक या उससे अधिक समयावधि के लिए मुद्रास्फ़ीति या महंगाई दर के आधिकारिक मात्रात्मक लक्ष्यों (या लक्ष्य की रेंज) की सार्वजनिक घोषणा की जाती है और स्पष्ट रूप से यह स्वीकार किया जाता है कि कम एवं स्थिर महंगाई दर मौद्रिक नीति का प्राथमिक दीर्घकालिक लक्ष्य है. महंगाई दर का लक्ष्य तय करने की अन्य महत्वपूर्ण विशेषताओं में मौद्रिक अधिकारियों की योजनाओं एवं उद्देश्यों के बारे में जनता के साथ संवाद करने के लिए जोर-शोर से प्रयास करना और कई मामलों में ऐसी व्यवस्थाएं करना शामिल हैं जो इन उद्देश्यों को प्राप्त करने से जुड़ी केंद्रीय बैंक की जवाबदेही को मजबूत करता है… व्यावहारिक दृष्टि से यदि देखा जाए तो महंगाई दर का लक्ष्य तय करना मौद्रिक नीति के लिए एक नियम के बजाय मौद्रिक नीति के लिए एक रूपरेखा के रूप में कार्य करता है.’ [xxii]
केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता का महंगाई लक्ष्य तय करने की इस व्यवस्था से क्या लेना-देना है? मुद्रावादियों का मानना है कि यहां तक कि ‘महंगाई लक्ष्य तय करने का नियम’ लागू कर देने पर भी अल्पावधि में उत्पादन बढ़ाने और सरकारी ऋण देनदारी कम करने के लिए सरकार या वित्त विभाग (ट्रेजरी) को प्रत्येक अवधि में महंगाई के ‘झटकों’ का उपयोग करने के लिए लुभाया जाता है जो आगे चलकर ‘समय की दृष्टि से असंगत समस्या’ को उत्पन्न कर सकता है. [xxiii] हम यह मान लेते हैं कि इस व्यवस्था में महंगाई दर को अगले एक वर्ष तक चार से पांच प्रतिशत के बीच रखने का लक्ष्य तय किया जाता है और केंद्रीय बैंक इस बारे में सार्वजनिक घोषणा करता है. वैसी स्थिति में विक्रेता और ख़रीदार उन मूल्य स्तरों के अनुसार ही निर्णय लेंगे, जिससे अर्थव्यवस्था में अपेक्षित संतुलन बन जाएगा. केंद्रीय बैंक महंगाई दर को इस लक्षित दायरे में ही रखने के लिए प्रयास करेगा; यदि वह विफल रहता है, तो ख़रीदार और विक्रेता भविष्य में उसके महंगाई लक्ष्य के आधार पर अपनी आर्थिक अपेक्षाएं तय नहीं करेंगे. अत: महंगाई के लक्ष्य का पालन करना केंद्रीय बैंक के लिए विश्वसनीयता का सवाल है. वहीं, दूसरी ओर यदि मूल्य स्तरों को नियंत्रित करने का निर्णय सरकार पर छोड़ दिया जाता है, तो वह लक्ष्य से मुकर जाने और इससे परे चले जाने का निर्णय ले सकती है. ऐसा इसलिए है क्योंकि महंगाई में थोड़ी-सी वृद्धि (या ‘मुद्रास्फीति का झटका’) उत्पादकों को अपना मुनाफ़ा बढ़ाने की खातिर अधिक उत्पादन करने के लिए प्रेरित कर सकती है, जिससे कम से कम कुछ समय के लिए उत्पादन और अर्थव्यवस्था के विकास को नई गति मिल सकती है. इसके अलावा, चूंकि सरकार भी आम तौर पर कर्ज़दार होती है, इसलिए थोड़ी-सी अतिरिक्त महंगाई ऋण के बोझ को कम कर सकती है. [3] अत: महंगाई के तय लक्ष्य के मामले में ‘धोखा देने’ के लिए सरकार के पास हमेशा कुछ-न-कुछ वृहद प्रोत्साहन होंगे. इससे पहले तो सरकार और फिर उसके बाद केंद्रीय बैंक की प्रतिष्ठा पर आंच आएगी. उधर, ख़रीदार और विक्रेता दोनों ही ‘महंगाई के लक्ष्य’ पर भरोसा करना बंद कर देंगे, जिससे वे पूरी तरह से बेअसर हो जाएंगे.
मुद्रावादियों के अनुसार, ‘धोखा’ देने की यह प्रवृत्ति नियम संतुलन की व्यवहार्यता को खतरे में डाल सकती है और विवेकाधीन नीति निर्माण के तहत अर्थव्यवस्था को एक ‘कमजोर संतुलन’ की ओर ले जा सकती है. [xxiv] केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता के लिए यह दलील दी जाती है कि वैसे तो विश्वसनीयता का संभावित नुकसान नीति निर्माता (यानी केंद्रीय बैंक) को नियमों का पालन करने के लिए प्रेरित करता है, लेकिन सरकार, जिसके पास उत्पादन बढ़ाने का प्रलोभन है, के लिए ऐसी कोई बाध्यता नहीं है. इसलिए, ‘… नीति निर्माता दीर्घावधि में कम औसत महंगाई से अपेक्षित लाभ प्राप्त करने के लिए मुद्रास्फ़ीति के झटकों से होने वाले अल्पकालिक लाभ को त्याग देता है. [xxv] केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता या स्वतंत्रता की जोरदार वकालत महंगाई को नियंत्रित करने के लिए केंद्रीय बैंक की प्रतिबद्धता की विश्वसनीयता बढ़ाने के उद्देश्य से की जाती है.
हाल के वर्षों में भारत में महंगाई दर और ऋण आपूर्ति
ग्राफ़ 1 यह दर्शाता है कि हाल के वर्षों में थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) दोनों पर ही आधारित महंगाई दर किस तरह से एकदम नीचे आ गई है. वैसे तो वर्ष 2015-16 से ही डब्ल्यूपीआई आधारित महंगाई दर में वृद्धि का रुख देखा गया है, लेकिन यह वर्ष 2017-18 में अब भी 2.9 प्रतिशत के निम्न स्तर पर है. यहां तक कि वर्ष 2018-19 में भी यह निम्न स्तर पर टिकी रही. ईंधन और कुछ खाद्य पदार्थों की कीमतों में गिरावट की बदौलत दिसंबर 2018 में डब्ल्यूपीआई आधारित महंगाई दर गिरकर आठ माह के निचले स्तर 3.8 प्रतिशत पर आ गई. [xxvi] उसी महीने सीपीआई आधारित महंगाई दर भी गिरकर अठारह महीने के निचले स्तर 2.19 प्रतिशत पर आ गई. [xxvii]
फरवरी 2019 में आरबीआई की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) द्वारा जारी छठे द्विमासिक मौद्रिक नीति वक्तव्य में इस तथ्य को संज्ञान में लिया गया है और मौद्रिक नीति के रुख को ‘सोच-समझ कर कठोर रखने’ के बजाय ‘तटस्थ’ रखने का निर्णय लिया गया है. इतना ही नहीं, यह ‘विकास का समर्थन करते हुए +/-2 प्रतिशत के बैंड के भीतर चार प्रतिशत की सीपीआई आधारित महंगाई के मध्यमकालिक लक्ष्य को प्राप्त करने के उद्देश्य के अनुरूप’ भी है. [xxviii] जैसा कि देखा जा सकता है, महंगाई दर इसी लक्ष्य सीमा के भीतर है. ऐसा प्रतीत होता है कि केंद्रीय बैंक को ‘महंगाई का लक्ष्य तय करने की व्यवस्था’ में सफलता मिल रही है, और ब्याज़ दर में धीरे-धीरे कटौती की जा सकती है. ऐसे में यह सवाल पैदा होता है कि क्या ब्याज़ दर में कटौती के मसले को सुलझाने के लिए केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता को लेकर इस तरह की तनातनी की वाकई जरूरत थी.
ग्राफ़ 2 इससे जुड़े जवाब को इंगित करता है. पिछले तीन वर्षों के दौरान ऋण में अपर्याप्त वृद्धि, जैसा कि वृद्धिशील ऋण-जमा अनुपात के रुझानों में देखा जा सकता है, आरबीआई से सरकार की वास्तविक नाराज़गी के पीछे के असली कारण की ओर इशारा करती है.
ग्राफ़ 2 में लाल रेखाएं उन आंकड़ों को दर्शाती हैं, जहां अंश-गणक और विभाजक दोनों ही ऋणात्मक हैं (यानी वृद्धिशील ऋण और वृद्धिशील जमाराशि दोनों ही ऋणात्मक थीं). वृद्धिशील ऋण और वृद्धिशील जमा दोनों में ही गिरावट होने के बावजूद इन लाल क्षेत्रों में अनुपात धनात्मक हैं. यही कारण है कि इन अनुपातों को समय-श्रृंखला (टाइम-सीरिज़सीरीज) से बाहर रखा जाता है. दिसंबर 2016 और सितंबर 2017 के बीच की अवधि के दौरान इसके निम्न स्तर वाला दौर दरअसल विमुद्रीकरण और जीएसटी के कार्यान्वयन का द्योतक है, जिसके बाद वृद्धिशील ऋण के मोर्चे पर वास्तव में अत्यंत निराशाजनक स्थिति देखने को मिली. इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि हाल ही में यही रुझान फिर से विशेषकर अप्रैल 2018 के बाद जून 2018 तक देखने को मिला है. आम तौर पर, सितंबर से शुरू होने वाले त्योहारी सीजन से लेकर कैलेंडर वर्ष के आखिर तक ऋणों की समग्र मांग अच्छी-खासी रहती है, जैसा कि वर्ष 2017 में देखने को मिला था. इसके बजाय इस बार वृद्धिशील ऋण-जमा अनुपात में व्यापक उतार-चढ़ाव देखने को मिले. यही नहीं, ज़्यादातर समय यह कम या ऋणात्मक ही रहा.
ग़ौरतलबहै कि आरबीआई गवर्नर के रूप में उर्जित पटेल के इस्तीफ़े से पहले और इसके तुरंत बाद की अवधि के दौरान वृद्धिशील ऋण छिटपुट या अप्रत्याशित रूप से ऊपर चला गया था. हालांकि, इसके बाद की अवधियों के दौरान यह एक बार फिर अपने वापस स्तर पर आ गया था. इसका मतलब यही है कि ऋण चैनल को पूरी तरह से मुक्त बनाने के लिए हताशापूर्ण प्रयास (आरबीआई को ‘वश में करने’ की प्रक्रिया भी इनमें शामिल है) किए गए हैं, लेकिन इन प्रयासों के बावजूद ऋणों का प्रवाह अब भी अटके रहने के लक्षण अब भी साफ नज़र आ रहे हैं और ऋणों का उठाव पर्याप्त रूप से नहीं बढ़ रहा है.
जीडीपी के हालिया आंकड़ों में ठीक-ठाक वृद्धि देखी गई है, और यहां तक कि वित्त वर्ष 2018-19 में भी सीएसओ (केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय) जीडीपी वृद्धि दर 7.2 प्रतिशत रहने की उम्मीद कर रहा है. [xxix] हालांकि, बैंकिंग प्रणाली में वृद्धिशील ऋण की वृद्धि दर पिछले तीन वर्षों से जीडीपी में निरंतर हो रही अच्छी बढ़ोतरी के अनुरूप नहीं पाई गई है. शीर्ष बैंक के खिलाफ सरकार की नाराज़गी इसी वजह से उत्पन्न होती है, जबकि केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता से इसका कोई खास लेना-देना नहीं होता है.
बैंकिंग प्रणाली की ऋण वृद्धि में स्थिरता के रुख को ग्राफ़ 3 में ज़्यादा स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. इस एक वर्ष में ऋण वृद्धि के रुझानों पर गौर करने पर यह पता चलता है कि छह से नौ प्रतिशत तक के ब्याज़ वाले ऋणों और अग्रिमों को छोड़कर नौ प्रतिशत से लेकर 20 प्रतिशत से अधिक की ब्याज़ दरों वाले अन्य सभी ऋणों के उठाव में इस वर्ष स्थिरता देखी गई है. यही नहीं, इनमें से कुछ ब्याज़ दरों वाले ऋणों की कुल मात्रा में भी गिरावट दर्ज की गई है.
अन्य सार्वजनिक और निजी बैंकों की दरों के साथ भारतीय स्टेट बैंक की वेबसाइट [xxx] में दर्ज ब्याज़ दरों की तुलना करने पर यह पता चलता है कि छह और नौ प्रतिशत के बीच की रेंज वाले ऋण मुख्य रूप से रिेटेल लोन या खुदरा ऋण श्रेणी (जैसे कि पर्सनल लोन और शिक्षा ऋण) के अंतर्गत आते हैं. बिज़नेस लोन पर 11 प्रतिशत और उससे अधिक ब्याज़ लिया जाता है. ऐसे में कोई भी यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि वित्त वर्ष 2017 के दौरान बिज़नेस लोन में स्थिरता का रुख था, जो यहां तक कि वित्त वर्ष 2018 में भी बरकरार रहा था. इसे देखते हुए सरकार के नज़रिए (यानी, आरबीआई मौद्रिक नीति निर्माता के रूप में अर्थव्यवस्था में ऋण के प्रवाह को सुनिश्चित करने में संभवत: विफल रहा है) को कुछ बल मिल सकता है. हालांकि, इस ठहराव या स्थिरता को सुनिश्चित करने में संभवत: ऋणों की मांग ने भी अपनी भूमिका निभाई होगी.
ग्राफ़ 4 वर्ष 2014-15 से ही अर्थव्यवस्था में मांग में सामान्य कमी को दर्शाता है. पूंजी निर्माण की वृद्धि दर या रियल एस्टेट सेक्टर में निवेश वृद्धि दर उस वर्ष के बाद से ही निरंतर गिरती रही है. इस गिरती निवेश वृद्धि दर के मद्देनज़र यह स्पष्ट है कि नए निवेश के लिए ऋण मांग भी स्वतः ही घट जाएगी. अत: कम या स्थिर ऋण वृद्धि दर की जिम्मेदारी केवल भारतीय रिजर्व बैंक पर ही नहीं मढ़ी जा सकती है. यदि अर्थव्यवस्था में कोई निवेश नहीं किया जाता है, तो इस तरह के निवेश के वित्त पोषण के लिए ऋण मांग भी अवश्य घट जाएगी. अत: यदि ऋण आपूर्ति को कुछ तरीकों से और ज़्यादा बढ़ा भी दिया जाता है तो भी कुल मिलाकर ऋणों का कोई उठाव संभवत: नहीं होगा.
सरकार स्पष्ट रूप से भारतीय रिजर्व बैंक से यही अपेक्षा रखती थी कि वह बैंकों (अर्थात, पीएसयू बैंक) को अर्थव्यवस्था (एनबीएफसी सहित) को पुन: ऋण देना शुरू करने की अनुमति दे, भले ही इसके लिए पीसीए रूपरेखा या व्यवस्था के नियामकीय मानदंडों को कमजोर करना ही क्यों न पड़े. उर्जित पटेल के अधीन आरबीआई संभवत: ऐसा करने को तैयार नहीं था. अन्यथा, ऐसा कोई भी ठोस कारण नहीं है जिसे उनके इस्तीफे के लिए उद्धृत किया जा सकता है.
केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता पर ज़्यादातर चर्चाएं स्वायत्तता या स्वतंत्रता के दो प्रमुख आयामों पर होती हैं. पहला आयाम उन संस्थागत विशेषताओं से संबंधित है जो केंद्रीय बैंक को उसके नीतिगत उद्देश्यों को परिभाषित करने में राजनीतिक दख़लअंदाज़ी से बचाती हैं. दूसरा आयाम उन पहलुओं को रेखांकित करता है जो केंद्रीय बैंकों को मौद्रिक नीति के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए नीति को स्वतंत्र रूप से लागू करने का मौका देते हैं. [xxxi] आरबीआई और वित्त मंत्रालय के बीच सार्वजनिक रूप से हुई तनातनी यह साबित करती है कि मौजूदा मामले में पहले सिद्धांत का उल्लंघन किया गया है. इसी तरह दूसरे सिद्धांत का भी उल्लंघन किया गया है क्योंकि केंद्रीय बैंक पर मौद्रिक नीति के अपने एक प्रमुख लक्ष्य के रूप में बैंकिंग प्रणाली की वित्तीय स्थिरता की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी है. खासकर भारी-भरकम एनपीए के मद्देनज़र ‘पीसीए’ व्यवस्था को कमजोर करना संपूर्ण बैंकिंग प्रणाली के लिए अत्यंत नुक़सानदेह साबित हो सकता है. दरअसल, बैंकिंग प्रणाली और संपूर्ण वित्तीय प्रणाली को असुरक्षित या कमजोर बनाने की कीमत पर प्रणाली में ऋण प्रवाह नहीं बढ़ाया जाना चाहिए.
ऋण प्रवाह की समस्या
संकटग्रस्त इन्फ्रास्ट्रक्चर लीजिंग एंड फ़ाइनेंशियल सर्विसेज (आईएल एंड एफएस) के सितंबर 2018 में अपनी ऋण अदायगी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में विफल रहने के तुरंत बाद ही ऋण वृद्धि में चिंताजनक कमी अखबारों की सुर्खियां बनी थीं. कंपनी के अप्रत्याशित डिफॉल्ट के बाद सरकार द्वारा इसका अधिग्रहण किया गया था. [xxxii] वैसे तो इस वजह से पूंजी और मुद्रा बाजारों में फैली घबराहट का अर्थव्यवस्था के समग्र ऋण चैनल पर प्रतिकूल असर पड़ा था, लेकिन ऋण चैनल में समस्या पहले से ही कुछ समय से गंभीर होती जा रही थी (ग्राफ़ 2 देखें).
एनबीएफसी, विशेषकर आवास वित्त कंपनियां (एचएफसी) पिछले चार वर्षों में कुछ असामान्य कारकों के दम पर तेजी से फलती-फूलती रहीं. [xxxiii] ज़्यादातर सार्वजनिक बैंकों ने बढ़ते एनपीए दबाव [xxxiv] के मद्देनज़र कोई जोख़िम मोल न लेने का रवैया अपनाते हुए एसएमई सहित ज़्यादा जोख़िमपूर्ण नज़र आने वाले उधारकर्ताओं के साथ-साथ आवास ऋण लेने के इच्छुक कम आय वाले कर्ज़दारों या उधारकर्ताओं को भी ऋण नहीं दिया. बैंक, हालांकि, एनबीएफसी को पैसा उधार देने के लिए तैयार थे क्योंकि उनके पूंजी आधार से डिफॉल्ट होने की स्थिति में सुरक्षा का अहसास हुआ, जो बाद में गलत साबित होगी.
इस बीच वृहद अर्थव्यवस्था में घरेलू और कॉरपोरेट बचत को अन्य वित्तीय परिसंपत्तियों में निवेश करने के लिए विवश होना पड़ा था क्योंकि बचत दरों (अल्प बचत दरों सहित) और दीर्घकालिक बांड यील्ड में लगातार कमी की गई थी. घरेलू और कॉरपोरेट दोनों ही बचतें विभिन्न वित्तीय परिसंपत्तियों, मुख्य रूप से म्यूचुअल फंडों (एमएफ) में लगाई गईं. इन एमएफ का एक बड़ा हिस्सा व्यवस्थित निवेश योजनाओं (सिप) की एक स्थिर धारा के माध्यम से आता है.
जैसा कि ग्राफ़ 5 में साफ नज़र आ रहा है, शेयर बाजार के रिकॉर्ड तोड़ छलांग लगाने पर एमएफ की शुद्ध ख़रीद भी नए शिखर पर पहुंच गई. ऐसा प्रतीत होता है कि भारत के एमएफ निवेशक केवल तभी निवेश करते हैं जब शेयर बाजार में रिटर्न नए शिखर पर पहुंच जाता है. इस तरह के रवैये के साथ समस्या यह है कि जब यह रिटर्न निराशाजनक नज़र आने लगता है तो एमएफ के जरिए होने वाले निवेश का प्रवाह भी सुखने लगता है (ग्राफ़ 5 देखें). वहीं, दूसरी ओर, जैसा कि ग्राफ़ 5 में स्पष्ट नज़र आता है, एफआईआई (विदेशी संस्थागत निवेशक) की बाजार संबंधी अवधारणा कहीं अधिक मजबूत होती है और वे अपनी बाजार परिसंपत्तियां विशेषकर तब बेचते हैं जब बाजार नए शिखर पर होता है. घरेलू और विदेशी निवेशकों के शेयर ख़रीद-फरोख्त नज़रिए में विरोधाभास भी एक जोख़िम भरी स्थिति की ओर इशारा करता है जिसमें घरेलू निवेशक शेयर बाजार के धराशायी होने की स्थिति में एमएफ चैनल के जरिए अपना पैसा गंवा सकते हैं. हालांकि, इस पेपर में इस बारे में चर्चा नहीं की गई है। यहां जो बात प्रासंगिक है वह यह है कि रुझानों से यही प्रतीत होता है कि प्रणाली में म्यूचुअल फंडों की ओर से प्रवाह निकट भविष्य में घट जाने की संभावना है (या, कम से कम इसमें बढ़ोतरी तो नहीं ही होगी). अत: एनबीएफसी के फंड या धन का एक स्थिर स्रोत निकट भविष्य में संभवत: उन्हें उपलब्ध नहीं होगा.
यह बात सही है कि आईएल एंड एफएस के डिफॉल्ट का झटका लगने से पहले इन एमएफ की ओर से धन का एक स्थिर प्रवाह आया था. नवंबर 2016 में विमुद्रीकरण के परिणामस्वरूप धन प्रवाह की प्रक्रिया में तेजी आई और इसके साथ ही बैंकिंग प्रणाली में अभूतपूर्व तरलता आई. घरेलू पूंजी का यह ज्वार, जो अन्यथा अनुपलब्ध होता, एमएफ सहित सभी प्रकार के वित्तीय चैनलों के जरिए डेट (बांड वगैरह) और इक्विटी बाजारों में प्रवाहित हो गया जिससे शेयर भावों में ज़ोरदार उछाल देखने को मिली, जबकि ब्याज़ दरें एवं दीर्घकालिक यील्ड और नीचे आ गईं.
यह डेटा इस बात की पुष्टि करता है कि एनबीएफसी को वित्तीय संसाधनों के मुख्य प्रदाता बैंक और म्यूचुअल फंड थे. एनबीएफसी इस दौरान अभूतपूर्व गति से फली-फूलीं और इसके साथ ही उन्होंने ठीक वैसे ढेर सारे ऋण संबंधी जोख़िम मोल लिए जिनसे बैंक परहेज कर रहे थे. एचएफसी की संख्या में तेजी से वृद्धि होना इसका एक प्रमाण है: इनकी संख्या वर्ष 2013 के लगभग 50 से दोगुनी होकर वर्तमान में तकरीबन 100 हो गई है. [xxxvi] इन नई एनबीएफसी और एचएफसी में से ज़्यादातर की रेटिंग कम (बीबीबी या उससे नीचे) थी, इसलिए उनके लिए म्यूचुअल फंडों या बीमा कंपनियों तक पहुंचना संभव नहीं था.
इतना ही नहीं, इसके परिणामस्वरूप रेटिंग में अंतर से लाभ उठाने का खेल भी शुरू हुआ. बेहतर रेटिंग वाली एनबीएफसी ने बैंकों और म्यूचुअल फंडों से हासिल अपने पैसे का लाभ उठाया और फिर उस धनराशि को कम रेटिंग वाली एनबीएफसी को बेहद अधिक ब्याज़ दर पर उधार दे दिया. कम रेटिंग वाली एनबीएफसी का जोखिम (बैंक जिनसे परहेज कर रहे थे) इस प्रकार पूरे क्षेत्र में फैल गया. [xxxvii] इसके साथ ही ज़्यादा जोख़िम वाली एनबीएफसी को इस तरह से ऋण मिलने की बदौलत शेयर बाजार में इन कंपनियों के मूल्यांकन या शेयर भाव बड़ी तेजी से चढ़ गए. इस बीच, विभिन्न वैश्विक कारकों जैसे कि कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों और बढ़ते व्यापार तनाव के कारण महंगाई को लेकर अटकलें फिर से तेज हो गईं जिससे भारत में ब्याज़ दरें बढ़ने लगीं. बेंचमार्क 10 वर्षीय सरकारी बांड पर यील्ड महज तीन माह की अल्पावधि में तकरीबन 6.8 प्रतिशत से बढ़कर 8.0 प्रतिशत से भी ऊपर चली गई. [xxxviii]
तभी से म्यूचुअल फंडों विशेषकर डेट फंडों में धनराशि का नया प्रवाह धीमा पड़ गया और डेट फंडों के प्रबंधक ‘इंतजार करो और देखो’ की अवधारणा पर अमल करने लगे. इस वजह से तरलता सूखने लगी, ऋण चैनल अटकने लगा, और उधारी लागत बढ़ने लगी. ठीक ऐसे ही हालात में आईएल एंड एफएस ने डिफॉल्ट किया और म्युचुअल फंडों के बड़े पैमाने पर मोचन की आशंका से बाजार में घबराहट बढ़ गई। इस स्थिति में घबराहट पूर्ण बिकवाली होने लगी जिसके परिणामस्वरूप डेट प्रतिभूतियों की रेटिंग घटा दी गई. डिफॉल्ट से ठीक दो हफ्ते पहले आईएल एंड एफएस के डेट या बांड को ‘एएए’ रेटिंग दी गई थी जो डिफॉल्ट के बाद लुढ़क कर सबसे निचली रेटिंग ‘डी’ रह गई. [xxxix] कॉरपोरेट बांडों पर यील्ड बढ़ जाने के चलते डेट बाजार लगभग ठप पड़ गया. इन हालातों में भारतीय रिजर्व बैंक ने हस्तक्षेप किया और बैंकिंग प्रणाली में तरलता सुनिश्चित की, जिससे बाजारों में फैली घबराहट शांत हो गई.
लिहाज़ा, वित्तीय प्रणाली में गैर-बैंक ऋण प्रवाह पर्याप्त रूप से थम गया, लेकिन यह गैर-बैंक ऋण प्रवाह दरअसल बैंक ऋण प्रवाह पर बहुत ज़्यादा निर्भर था. आईएल एंड एफएस प्रकरण के बाद बैंकों ने इन गैर-बैंक ऋण प्रवाह में और ज़्यादा योगदान करने के जोखिमों की पहचान कर ली. क्रेडिट सुइस द्वारा सितंबर 2018 में जारी किए गए नोट में यह बात रेखांकित की गई कि स्थिति बिगड़ सकती है क्योंकि अगले छह महीनों में एनबीएफसी के कुल उधार के 41 प्रतिशत का मोचन होना है. [xl] यही नहीं, इससे एनबीएफसी के संभावित ऋणदाताओं के बीच भी घबराहट बढ़ने की नौबत आ गई. फिर भी, केंद्र सरकार संभवत: यह नहीं चाहती थी कि अगले संसदीय चुनाव से पहले किसी भी सूरत में शेयर बाजार में ज़ोरदारतेजी पर विराम लग जाए, जो पीएसयू बैंकों से आने वाले इस तरह के ऋण प्रवाह के दम पर संभव हुई थी. इस प्रकार केंद्रीय बैंक को ‘वश में’ करने की तत्काल आवश्यकता थी, ताकि वित्तीय बाजारों के ज़्यादा जोख़िम वाले हिस्सों या खंडों में ऋण प्रवाह निरंतर बना रहे.
एनबीएफसी से जुड़ा ऋण परिदृश्य
यहां तक कि हाल ही में एक साल पहले तक स्थिति यह थी कि बैंकों की तुलना में अधिक कुशल होने और ‘अर्थव्यवस्था के नए ऋण आपूर्तिकर्ता’ के रूप में सेवा करने के लिए एनबीएफसी की अक्सर सराहना की जाती थी. चूंकि एनबीएफसी की परिचालन लागत अपेक्षाकृत कम होती है, इसलिए उनके लाभ मार्जिन भी अधिक थे. ग्राफ़ 7 इन एनबीएफसी द्वारा दिए गए अग्रिमों में वर्ष-दर-वर्ष हुई वृद्धि के संदर्भ में पूरी गाथा को दर्शाता है. वैसे तो अग्रिमों में हो रही वृद्धि को वित्त वर्ष 2017 में झटका लगा (संभवत: विमुद्रीकरण के कारण),[4] लेकिन इस सेक्टर ने वित्त वर्ष 2018 में वापसी की. गौरतलब है कि क्रिसिल की रिपोर्ट (डेटा स्रोत) में वित्त वर्ष 2018 में ली गई फर्मों की संख्या (नमूने का आकार) एनबीएफसी के भीतर सभी क्षेत्रों (सेक्टर) में पहले के वर्षों की तुलना में बहुत कम है.
यह आरेख (डायग्राम) कुछ चिंताजनक रुझानों की ओर भी इशारा करता है। उदाहरण के लिए, बुनियादी ढांचागत वित्त, माइक्रोफ़ाइनेंस और थोक फ़ाइनेंस से संबंधित एनबीएफसी दरअसल आवास वित्त, वाहन (ऑटो) वित्त और विविध वित्त से जुड़ी एनबीएफसी की तरह मजबूत वापसी करने में विफल रहीं. (ध्यान दें कि डेटा केवल मार्च 2018 तक के लिए ही उपलब्ध है और उस दौरान इन समस्याओं का पूर्ण असर नहीं दिखता था.) ऑटो एवं आवास वित्त के लिए अधिक ऋण प्रवाह के प्रमाण की पुष्टि आरबीआई द्वारा प्रस्तुत किए गए और ज़्यादा नवीनतम आंकड़ों से भी होती है
थोक वित्त खंड को छोड़कर सभी सेक्टरों में एनबीएफसी की परिसंपत्तियों की गुणवत्ता में कुल मिलाकर गिरावट दर्ज की गई है (ग्राफ़ 8 देखें). जैसा कि अपेक्षित था, बड़ी सकल गैर-निष्पादित परिसंपत्तियां (जीएनपीए) मुख्य रूप से बुनियादी ढांचागत वित्त और माइक्रोफ़ाइनेंस सेगमेंट में हैं. इन दोनों सेगमेंटों में खराब प्रदर्शन निरंतर जारी रहने से समग्र वृहद अर्थव्यवस्था में और भी अधिक नकारात्मक असर होगा.
बुनियादी ढांचागत क्षेत्र में समस्याएं पिछले कुछ वर्षों से निरंतर बनी हुई हैं। नियामक के रूप में आरबीआई को इन सेक्टरों में पर्याप्त फंसे कर्ज़ और जोख़िम नज़र आते हैं। बुनियादी ढांचागत क्षेत्र, विशेषकर बिजली, परिवहन और दूरसंचार को मिली कुल कर्ज़राशि से उत्पन्न होने वाले ऋण जोख़िम से पूरी बैंकिंग प्रणाली के जीएनपीए पर बेहद प्रतिकूल असर पड़ने की आशंका है. कपड़ा और इंजीनियरिंग क्षेत्रों में भी संभावित जोख़िम काफी अधिक है। हालांकि, इन बुनियादी ढांचागत क्षेत्रों जितना बेहद ज़्यादा जोख़िम इन दोनों सेक्टरों में नहीं है. मानक क्षेत्रवार ऋण जोख़िम के नतीजों, जैसा कि आरबीआई की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट (जून 2018) में दिया गया है, को ग्राफ़ 9 में दर्शाया गया है.
फंसे कर्जों का परीक्षण (स्ट्रेस टेस्ट) एक विशिष्ट सेक्टर के जीएनपीए में एक निश्चित प्रतिशत बिंदु की वृद्धि मानकर किया जाता है और फिर संपूर्ण बैंकिंग प्रणाली के जीएनपीए पर इसके असर का आकलन किया जाता है. ग्राफ़ 7 का सबसे विचलित करने वाला पहलू यह है कि इनमें से किसी भी सेक्टर में मानक अग्रिमों पर यहां तक कि दो प्रतिशत का शॉक या झटका भी संपूर्ण बैंकिंग प्रणाली के जीएनपीए को और ज़्यादा बढ़ाकर 10 प्रतिशत के स्तर से काफी ऊपर ले जा सकता है. इस तथ्य को विभिन्न सेक्टरों में एनबीएफसी के जीएनपीए के आंकड़ों के साथ मिलाएं (ग्राफ़ 8 देखें) और ऐसा करने पर देश में ऋण संबंधी स्थिति और भी ज़्यादा चिंताजनक हो जाती है.
पिछले कुछ वर्षों में एनबीएफसी के लिए उधारी लागत घट गई है (ग्राफ़ 10 देखें). हालांकि, आईएल एंड एफएस प्रकरण के बाद यह लागत निश्चित रूप से बढ़ जाने की संभावना है. एनबीएफसी पर क्रिसिल की रिपोर्ट में ये आशंकाएं जताई गई हैं कि नक़दी की किल्लत से इस सेक्टर का विकास प्रभावित होगा एवं वित्त वर्ष 2019 के दौरान वृद्धि में छह प्रतिशत की कमी आएगी और उधारी लागत में वित्त वर्ष 2019 में 0.30-0.40 प्रतिशत की वृद्धि होगी तथा वित्त वर्ष 2020 में 0.70 प्रतिशत की और वृद्धि होगी. इससे एनबीएफसी की परिचालन लागत काफी बढ़ जाएगी. [xli] बहुत बड़ी एनबीएफसी को छोड़कर ज़्यादातर अन्य एनबीएफसी के लाभ मार्जिन में इसके परिणामस्वरूप काफी कमी होना तय है.
एनबीएफसी का लाभ घट जाने की इस आशंका से अर्थव्यवस्था में सभी हितधारकों के बीच, विशेषकर सरकार के भीतर घबराहट पैदा हो रही है. तालिका 5 में एनबीएफसी-एनडी-एसआई (रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण गैर-जमा जुटाने वाली एनबीएफसी) के कुछ प्रमुख वित्तीय अनुपातों के रुझानों को दर्शाया गया है, जो एनबीएफसी सेक्टर की कुल परिसंपत्तियों का 84.8 प्रतिशत है. [xlii] वर्ष 2016-17 में एनबीएफसी-एनडी-एसआई की आय और व्यय दोनों ही कुल परिसंपत्तियों के 11.2 प्रतिशत और 8.8 प्रतिशत के उच्च स्तर पर विराजमान थे. अगले वर्ष आय में कमी आई और इसके साथ ही व्यय भी घट गया जिससे कुल परिसंपत्तियों के 1.6 प्रतिशत का बढ़ा हुआ शुद्ध लाभ मार्जिन हासिल हुआ.
ऋण चैनल में यथास्थिति बनाए रखने की मजबूरी
बैंकिंग प्रणाली से उत्पन्न ऋणों में सुस्ती (और कभी-कभी इनका अटक जाना) हाल के दिनों में भारतीय अर्थव्यवस्था के शैलीगत या अस्वाभाविक तथ्यों में से एक है, जिसकी पड़ताल सार्वजनिक रूप से उपलब्ध आंकड़ों से अत्यंत आसानी से की जा सकती है. बैंकिंग प्रणाली, विशेषकर पीएसयू बैंकों में एनपीए का संचय एक अन्य शैलीगत तथ्य है. हालांकि, इन पर सटीक डेटा खोजना अपेक्षाकृत कठिन है.
पिछले कैलेंडर वर्ष के आखिर में केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता पर तनातनी एक तरह से इन दो समस्याओं से उत्पन्न हुई. बैंकिंग प्रणाली के नियामक के रूप में आरबीआई को सिस्टम में मौजूद डूबते ऋणों से निजात पाना था. त्वरित सुधारात्मक कार्रवाई (पीसीए) व्यवस्था के तहत बैंकों की शुद्ध ब्याज़ आय (एनआईआई) में साल-दर-साल हो रहे प्रतिशत में बदलाव को देखते हुए नियामक के रूप में आरबीआई के प्रयासों ने डूबते ऋणों के बोझ से दबे इन बैंकों के बारे में मिश्रित नतीजे दिखाए. जहां एक ओर इनमें से कुछ बैंकों ने अपनी एनआईआई में उल्लेखनीय वृद्धि दर्शाई, वहीं कुछ ऐसे बैंक हैं जिन्होंने पर्याप्त बेहतरी के लक्षण नहीं दिखाए हैं (ग्राफ़ग्राफ 11).. कुल मिलाकर, कोई भी यह कह सकता है कि पीसीए व्यवस्था ने वास्तव में पीएसयू बैंकों के डूबते ऋणों से निपटने में कुछ नया करके दिखाया है.
हालांकि, आरबीआई ने इन ग्यारह बैंकों में से बैंक ऑफ इंडिया, बैंक ऑफ महाराष्ट्र और ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स को पीसीए व्यवस्था से बाहर कर दिया है. शुद्ध ब्याज़ आय में प्रतिशत वृद्धि के मानदंड (पैरामीटर) के अनुसार, ये वे बैंक नहीं हैं जिन्होंने अब तक इस मोर्चे पर सबसे अच्छी प्रगति की है. ग्राफ़ 11 के परिणामों के साथ इस कदम की तुलना करने पर पता चलता है कि यह पीसीए व्यवस्था को कमजोर करने का एक स्पष्ट संकेत है. समस्या दरअसल यहीं है.
पीसीए व्यवस्था की प्रथम जोख़िम सीमा को 7.75 प्रतिशत के सीआरएआर (पूंजी और जोख़िम भारित परिसंपत्ति का अनुपात) के उल्लंघन (मतलब यह कि इससे ज़्यादा होने) या 5.125 प्रतिशत के सीईटी 1 (कॉमन इक्विटी टियर 1) अनुपात के उल्लंघन के रूपमें परिभाषित किया जाता है. लेकिन जोख़िम सीमा 1 को भी लगातार दो वर्षों तक 6 प्रतिशत के एनएनपीए (शुद्ध गैर-निष्पादित परिसंपत्तियां) अनुपात, और / या ऋणात्मक आरओए (परिसंपत्तियों पर रिटर्न) के उल्लंघन, और / या 3.5 प्रतिशत के टियर 1 लीवरेज रेशियो के उल्लंघन पर शुरू किया जा सकता है.[xliv]
सरकार द्वारा पीएसयू बैंकों में पूंजी डालने के बाद, [xlv] पूंजी पर्याप्तता अनुपात में अवश्य ही सुधार हुआ होगा. हालांकि, इन बैंकों का सतत प्रदर्शन एवं लाभप्रदता सुनिश्चित करने के लिए इन बैंकों के कम से कम कुछ और तिमाहियों के वित्तीय परिणामों पर गौर करने के साथ-साथ उन पर करीबी नज़र भी रखी जानी चाहिए थी. पीसीए व्यवस्था के अनुसार, कोई भी बैंक ‘अंकेक्षित वार्षिक वित्तीय परिणामों और आरबीआई द्वारा किए गए पर्यवेक्षी आकलन के आधार पर’ इसके अंतर्गत आ सकता है. [xlvi] यदि पीसीए व्यवस्था में प्रवेश अंकेक्षित वार्षिक वित्तीय परिणामों पर आधारित है, तो आदर्श रूप से, इससे बाहर निकलना भी ठीक उसी पर आधारित होना चाहिए. हालांकि, इन बैंकों को पीसीए से बाहर निकालने का निर्णय ‘अंकेक्षित तिमाही परिणामों’ के आधार पर लिया गया है. [xlvii] अत: इन बैंकों की दीर्घकालिक लाभप्रदता पर सवाल अब भी बरकरार हैं.
उद्योग (विशेषकर लघु उद्योग), सेवाओं और वित्तीय क्षेत्र को नि:संदेह ऋण के एक स्थिर प्रवाह की आवश्यकता होती है. लेकिन अगर यह सुधारात्मक रूपरेखा को कमजोर करके किया जाता है, जिससे प्रभावित बैंकों के प्रदर्शन को बेहतर बनाने में मदद मिल रही है, तो इससे बैंकिंग प्रणाली और उसके बाद संपूर्ण वित्तीय प्रणाली का भावी जोखिमों की चपेट में आना तय है. ऐसे में इस सेक्टर के भीतर संकट जैसी स्थिति पैदा हो सकती है.
बढ़ते एनपीए के बोझ तले दबे बैंकों ने वित्तीय क्षेत्र के ज़्यादा जोख़िमपूर्ण और असुरक्षित खंडों को ऋण देने से परहेज किया. इसके बजाय बैंकिंग प्रणाली एनबीएफसी को पर्याप्त मात्रा में ऋण की आपूर्ति करती रही. बैंकों और एमएफ दोनों से ही मिले फंड से लबरेज एनबीएफसी ने उन विभिन्न सेक्टरों में परिसंपत्तियां सृजित कीं जिन्हें रेटिंग एजेंसियों द्वारा काफी ऊंची रेटिंग दी गई थी. हालांकि, आईएल एंड एफएस और डीएचएफएल में संकट गहराने के बाद अब यह स्पष्ट हो गया है कि एनबीएफसी सेक्टर में सब कुछ ठीक नहीं है. इसके विपरीत, कुछ एनबीएफसी के लिए संशयपूर्ण परिसंपत्तियां और डूबते ऋण अत्यंत प्रबल हो सकते हैं. नवंबर 2014 से ही एनबीएफसी के परिसंपत्ति वर्गीकरण मानदंडों को बैंकों के इन मानदंडों के साथ और भी अधिक जोड़ दिया गया है, जिससे ज़्यादा एनपीए की पहचान करना अब संभव हो पा रहा है. [xlviii]
क्रिसिल की एनबीएफसी रिपोर्ट में आईएल एंड एफएस की बैलेंस शीट पर एक नज़र डालने से यह पता चलता है कि आईएल एंड एफएस के लिए जीएनपीए डेटा पिछले चार वर्षों से उपलब्ध नहीं हैं. यह आईएल एंड एफएस के वित्तीय प्रदर्शन डेटा में अस्पष्टता या अपारदर्शिता को दर्शाता है. आरबीआई द्वारा एनबीएफसी के लिए परिसंपत्ति वर्गीकरण मानदंडों को और ज़्यादा कठोर बनाने पर भविष्य में अन्य एनबीएफसी के संचालन में अपारदर्शिता के ऐसे और भी अधिक मामले सामने आ सकते हैं.
इस तरह के परिदृश्य में यदि सरकार के निर्देश पर आरबीआई पहले की ही तरह एनबीएफसी को ऋण की आपूर्ति जारी रखने के लिए बैंकिंग प्रणाली पर दबाव बढ़ाता रहा तो कोई भी व्यक्ति पहले बैंकिंग प्रणाली और फिर पूरे वित्तीय सेक्टर में व्यापक संकट गहराने की संभावना से इनकार नहीं कर सकता है. बढ़ती बेरोज़गारी वाली अर्थव्यवस्था में इस तरह का वित्तीय संकट यदि गहराता है तो यह महज कुछ ही समय में आर्थिक संकट में बदल जाएगा. हालांकि, एनबीएफसी के ऊंचे शेयर भावों को बनाए रखने के लिए निर्बाध ऋण प्रवाह भी आवश्यक है. अन्य कारकों के बीच इस विशेष फैक्टर ने अर्थव्यवस्था के ऋण चैनल की कमान अपने हाथों में लेने के लिए सरकार की जिद में अपनी भूमिका निभाई.
यदि कोई भी व्यक्ति बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) में बाजार पूंजीकरण की दृष्टि से शीर्ष 100 कंपनियों पर अपनी नजरें दौड़ाता है, तो उस सूची में छह बड़ी एनबीएफसी नज़र आती हैं. [xlix] वे हैं — (1) आवास विकास वित्त निगम लिमिटेड (एचडीएफसी), (2) बजाज़ फ़ाइनेंस लिमिटेड, (3) बजाज़ फिनसर्व लिमिटेड, (4) इंडियाबुल्स हाउसिंग फ़ाइनेंस लिमिटेड, (5) पावर फ़ाइनेंस कॉरपोरेशन लिमिटेड (पीएफसी), और (6) एलएंडटी फ़ाइनेंस होल्डिंग्स लिमिटेड. जनवरी 2018 से ही इन छह एनबीएफसी के महीने-वार शेयर भावों को इकट्ठा करने और फिर इन शेयर भावों में उतार-चढ़ाव के रुझान पर गौर करने पर शेयर बाजारों के सूचकांकों और इन कंपनियों के प्रदर्शन के बीच संबंध को अवश्य ही विशेष बल मिलता है. सितंबर 2018 में जब आईएल एंड एफएस में गहराए संकट ने वित्तीय बाजारों पर असर डाला तो इन सभी के शेयर भाव गिरकर काफी नीचे आ गए.रियल एस्टेट कंपनियों द्वारा डिफॉल्ट किए जाने की आशंका से अक्टूबर में भी सेंसेक्स में भारी गिरावट देखने को मिली. [l] फिर आगे चलकर नवंबर के महीने में बेंचमार्क सेंसेक्स के साथ-साथ इन एनबीएफसी के शेयर भावों में भी फिर से लगातार ऊपर की ओर रुझान दिखाई देने लगा.
कोई भी व्यक्ति हमेशा यह दलील दे सकता है कि शीर्ष छह एनबीएफसी पूरे एनबीएफसी सेक्टर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती हैं, लेकिन इनके शेयर भावों के रुझान सांकेतिक हैं. यदि शीर्ष छह एनबीएफसी में से दो एनबीएफसी (एचडीएफसी और इंडियाबुल्स हाउसिंग) लाइव शेयर भावों के लिहाज से आईएल एंड एफएस के झटके से पूरी तरह से नहीं उबर सकीं, तो निश्चित रूप से इस तरह की कई और कंपनियां होंगी. इसके ठीक विपरीत, यदि चार शीर्ष एनबीएफसी के शेयर भाव सरकार की ओर से एनबीएफसी सेक्टर में ऋण प्रवाह बाधित न होने के बारे में सुनिश्चित संकेत मिलने की बदौलत काफी ऊपर चढ़ गए (सितंबर में धराशायी होने की तुलना में), तो निश्चित रूप से कई अन्य एनबीएफसी में भी समान नतीजे देखे जा सकते हैं. यहां पर यह नहीं कहा जा रहा है कि आईएल एंड एफएस में संकट गहराने के बाद सभी एनबीएफसी गंभीर वित्तीय समस्याओं से जूझ रही हैं. निश्चित रूप से, ऐसी कई एनबीएफसी हैं जिनके बुनियादी आर्थिक तत्व अत्यंत सुरक्षित और मजबूत हैं. हालांकि, बैंकों से एनबीएफसी में ऋण प्रवाह पहले उनके शेयर भावों और फिर बाद में बेंचमार्क सेंसेक्स को भी उच्च स्तर पर बनाए रखने के लिए अत्यंत आवश्यक है. यहां पर यही विचार-विमर्श का विषय है. एनबीएफसी के लिए एक विशेष उधार खिड़की या प्रकोष्ठ खोलने के लिए सरकार द्वारा केंद्रीय बैंक से की जा रही मांग इस बात का प्रमाण है.
निष्कर्ष
अर्थव्यवस्था वर्तमान में एक अस्थिर ऋण पथ पर है। बैंक एनबीएफसी को धन की आपूर्ति करते हैं; एनबीएफसी उन धनराशियों को कुछ ऐसे सेक्टरों में लगाती हैं जिनसे बैंकों ने शुरू में परहेज करने की कोशिश की थी; बैंकों की ओर से ऋण प्रवाह न बढ़ाने पर अर्थव्यवस्था के कुछ हिस्से एनबीएफसी पर अत्यधिक निर्भर हो जाते हैं; कुछ प्रमुख एनबीएफसी से छिपी हुई वित्तीय अनियमितताएं बाहर आती हैं; वित्तीय क्षेत्र में अनियमितताओं के कारण आर्थिक स्थिरता के पटरी से उतरने का ख़तरा पैदा होता है, लेकिन सरकार आरबीआई के माध्यम से बैंकों को निर्देश देती है कि वे ठीक उसी दिशा में पैसा मुहैया कराना जारी रखें. वास्तव में, इस तरह का ऋण पथ ‘चाकू की धार’ पर चलने जैसा है (यह वाक्यांश 20वीं सदी के विकास अर्थशास्त्री रॉय एफ. हेरॉड का है). इस रास्ते से भटकने से वास्तविक अर्थव्यवस्था में ठहराव एवं सुस्ती आ सकती है, लेकिन इसी रास्ते पर निरंतर चलते रहने से बैंकिंग और वित्तीय संकट गहराने की नौबत आ सकती है.
पीएसयू बैंकों में एनपीए का संचय वर्तमान भारतीय अर्थव्यवस्था में एक शैलीगत तथ्य है जिसे चाहकर भी टाला नहीं जा सकता है. पीएसयू बैंकों की अनिच्छा के कारण ऋण चैनल में रुकावट एक वास्तविक समस्या है. हालांकि, एनबीएफसी के जरिए बिजली, दूरसंचार और आवास जैसे जोख़िम भरे क्षेत्रों की ओर ऋण प्रवाह जारी रखने के लिए एक बार फिर इन पीएसयू बैंकों पर दबाव डालकर इस समस्या को सुलझाना एक ऐसा उपाय है जिसे लंबे समय तक जारी नहीं रखा जा सकता है.
ऐसे समय में जब ऋण मिलना मुश्किल है और अर्थव्यवस्था ठप हो रही है, आरबीआई और पीएसयू बैंकों को ‘रक्षक’ मानने के बजाय नीति निर्धारण में नई सोच अपनाने की जरूरत है. ऐसे हालात में राजकोषीय प्रोत्साहन का ‘कीनेसियन मार्ग या उपाय’ कुल मिलाकर बुरा आइडिया नहीं हो सकता है. हालांकि, चुनावी वर्ष में कुछ गंभीर आर्थिक समस्याओं को हल करने के लिए नई सोच अपनाना संभवत: सरकार के एजेंडे में पहली बात या प्राथमिकता नहीं हो सकती है.
[1] Prompt Corrective Action (PCA) is a framework, under which the banks with weak financial parameters (primarily on three counts — capital ratios, asset quality and profitability) are put under observation by the RBI. The banks are also subjected to certain restrictions like stopping of lending under this framework.
[2] IL&FS defaulted in payment obligations of bank loans (including interest) and also term loans, and failed to meet the commercial paper redemption obligations — which were due on 14 September 2018. As a result, rating agencies started downgrading the entity’s assets and practically flow of funds from market sources stopped. Subsequently, the government superseded its board through legal recourses and restructured the board. Post-IL&FS crisis DHFL was hit by a liquidity crunch like a few other housing finance companies. In early 2019, allegations of financial irregularities cropped up against the promoters and DHFL plunged into second phase of the crisis. In both the cases, the process of repayment of loans is under risk.
[3] For example, if INR 100 is borrowed at a 10 percent rate of interest and corresponding inflation rate in the year is at 8 percent then in real terms the borrower would be paying a rate of interest of (10-8=) 2 percent.
[4] Housing, infrastructure and microfinance were expected to be hit by demonetisation as these sectors are dependent on cash transactions. Temporary stalling of economic activities post-demonetisation was bound to affect credit demand in the short run and the data also suggest so as sectors like auto and diversified finance were impacted negatively. Only wholesale finance remained relatively unaffected — probably because bigger players are involved in the process and demonetisation’s effect was the largest among medium and small business entities.
[i] Abhijit Mukhopadhyay, “New GDP Series: More questions than answers”, ORF Online, 12 September 2018.
According to the CSO, the new (GDP) series captures value addition in manufacturing better as it uses the MCA (Ministry of Corporate Affairs) database — which includes activities of industries (like sales, marketing and R&D undertaken at locations other than the headquarters of the industries) that were hitherto not considered by ASI (Annual Survey of Industries). Older series was heavily dependent upon the ASI data to make the final estimates of GDP for industries, particularly manufacturing. However, the EPW article by Dholakia et al (Ravindra H. Dholakia, R. Nagaraj and Manish Pandya) states — “… the article has sought to examine if the CSO’s claims about the shortcomings of ASI are in fact true. A careful perusal of the ASI’s Instructions Manual provided to field investigators amply demonstrates that the official contention is largely incorrect… We have then sought to corroborate these findings with the ASI filled-in questionnaires for select enterprises… Information gathered from the field supports our contention: the ASI, in fact, includes value addition in activities outside of factories such as company headquarters and sales force.”
[ii] Central Statistics Office (CSO), “Press Note on First Advance Estimates of National Income 2018-19”, 7 January 2019.
[iii] RBI, “Chapter II, Financial Stability Report”, June 2018
[iv] The Indian Express, “RBI takes three banks out of the PCA framework”, 1 February 2019.
[v] The Economic Times, “After Rs 12,600 crore bank fraud, should Reserve Bank stop policing the banks?”, 12 March 2018.
[vi] The Indian Express, “RBI wanted to pull out nominees from public sector bank boards, Govt says no”, 17 October 2018.
[vii] The Economic Times, “Nachiket Mor’s 2nd tenure on RBI board cut short”, 1 October 2018.
[viii] Financial Express, “RSS-affiliate SJM welcomes Nachiket Mor’s sacking from RBI board”, 1 October 2018.
[ix] Bloomberg Quint, “S Gurumurthy and Satish Marathe appointed to RBI Board”, 7 August 2018.
[x] The Economic Times, “Govt may invoke Section 7 of RBI Act for Governor to follow board’s majority view”, 1 November 2018.
[xi] The Reserve Bank of India Act, 1934.
[xii] Business Line, “Viral Acharya: Govts that don’t respect central bank independence, invite wrath of markets”, 27 October 2018.
[xiii] Ibid
[xiv] Livemint, “The gloves are off in the RBI-Government fight”, 31 October 2018.
[xv] Ibid
[xvi] Ministry of Finance, PIB Release, “Autonomy of RBI”, 14 December 2018.
[xvii] The Economic Times, “Urjit Patel resigns as RBI Governor”, 11 December 2018.
[xviii] The Hindu, “Shaktikanta Das appointed as RBI Governor”, 11 December 2018.
[xix] Samuelson (1985).
[xx] Monetarism revolves around the theory or practice of controlling money supply as the principal method to stabilise the economy. This school of economic thought was initiated by Milton Friedman in the late 1960s.
[xxi] For more details see Bordo (2008).
[xxii] Bernanke et al (2001).
[xxiii] Kydland and Prescott (1977) first formulated this ‘time inconsistency’ problem, while Barro and Gordon (1983a) asserted that any policy rule which can be reneged upon is not ‘credible’ and therefore would fail to solve time inconsistency. Finally, Rogoff (1985) argued that a ‘conservative’ independent central bank is the solution to this problem.
[xxiv] In other words, instead of using an “inflation targeting rule” (where rate of interest is automatically adjusted when there is inflation) if a “discretionary” approach is taken (where rate of interest is changed at the discretion of the government), then the efficacy of interest rate as the policy instrument will be compromised. In the next period, expectations about targeted inflation range will be compromised which will result in distortions in supply and demand, and finally in an “inferior equilibrium”.
[xxv] Barro and Gordon (1983b)
[xxvi] The Economic Times, “WPI inflation falls to an eight-month low of 3.8 per cent in December”, 14 January 2019.
[xxvii] Financial Express, “CPI inflation falls to 18-month low; declines to 2.19% in December”, 14 January 2019.
[xxviii] RBI, “Sixth Bi-monthly Monetary Policy Statement, 2018-19 Resolution of the Monetary Policy Committee (MPC) Reserve Bank of India”, 7 February, 2019.
[xxix] Livemint, “What India GDP growth rate forecast for 2018-19 means”, 16 January 2019.
[xxx] State Bank of India website
[xxxi] Grilli et al (1991), Debelle and Fischer (1994)
[xxxii] Livemint, “IL&FS takeover done, government focus now on financials”, 1 October 2018.
[xxxiii] Harsh Vardhan, “A Moment of Truth for NBFCs…And for the System”, 2 October 2018, Bloomberg Quint.
[xxxiv] According to the RBI database, in 2016-17 the amount of NPAs in scheduled commercial banks has been at a whopping INR 7902.68 billion or 9.3 percent of gross advances, out of which INR 6847.33 billion (86.6 percent of total NPAs) — 11.7 percent of the gross advances — were with the PSU banks.
[xxxv] Mobis Philipose, “The dangers of high mutual fund inflows”, 19 January 2019, Livemint.
[xxxvi] Harsh Vardhan, op. cit.
[xxxvii] Ibid
[xxxviii] Ibid
[xxxix] The Economic Times, “IL&FS fiasco: Why rating agencies need a reform”, 26 October 2018.
[xl] The Economic Times, “India’s shadow banking scare could derail its robust growth story”, 27 September 2018.
[xli] CRISIL, “NBFC Report”, 2018
[xlii] RBI, Chapter VI: Non-Nanking Financial Institutions, “Report on Trend and Progress of Banking in India”, 28 December 2018. Among NBFCs-ND (Non-deposit taking NBFCs), those with an asset size of INR 5 billion or more are classified as NBFCs-ND-SI. At the end of September 2018, there were 276 NBFCs-ND-SI. The number may look small compared to the total number of NBFCs at 10,190 but as mentioned in the text these NBFCs-ND-SI constitute 84 percent of the total assets of the NBFC sector.
[xliii] Shayan Ghosh, “Banks under RBI PCA show mixed results”, Livemint, 31 October 2018.
[xliv] RBI, “Revised Prompt Corrective Action (PCA) Framework for Banks”, 13 April, 2017.
[xlv] Livemint, “Government infuses Rs. 10,882 crore capital in four PSU banks”, 31 December 2018.
[xlvi] RBI, “Revised Prompt Corrective Action (PCA) Framework for Banks”, op. cit.
[xlvii] RBI, “Edited Transcript of Reserve Bank of India’s Sixth Bi-Monthly Monetary Policy Tele-Conference with Researchers and Analysts”, 9 February 2019.
“The banks which were taken out of the PCA, they were not in breach of the parameters of PCA framework except Return on Assets, which is reflected in the capital adequacy. So that is very important and we have seen the quarterly audited numbers as well and we have seen the qualitative improvement in these banks and that is the reason we have taken these banks out of PCA.”
[xlviii] Chapter VI, “Report on Trend and Progress of Banking in India”, op. cit.
[xlix] Bombay Stock Exchange, “Top 100 Companies by Market Capitalisation”, As on 1 April 2019.
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