Author : Vivek Mishra

Published on May 08, 2024 Updated 0 Hours ago
अमेरिका में विभाजन की विशाल दरार

अमेरिका के तमाम विश्वविद्यालयों में विरोध प्रदर्शनों की आग भड़की हुई है. ये विरोध वियतनाम युद्ध के दौरान उसके ख़िलाफ़ किए गए प्रदर्शनों की याद दिला रहे हैं. अमेरिका के बड़े बड़े और अब देश भर में छोटे छोटे शिक्षण संस्थानों से उभर रहे दृश्य उस विशाल वैचारिक और राजनीतिक खाई को दिखा रहे हैं, जो अमेरिकी समाज के शिक्षण संस्थानों, कारोबारों, व्यापार, राजनीति और यहां तक कि मनोरंजन के क्षेत्र में फैल चुकी है. हालांकि, मौजूदा गाज़ा के संघर्ष को लेकर विरोध प्रदर्शनों और वियतनाम युद्ध के दौरान किए गए प्रदर्शनों में एक उल्लेखनीय अंतर दिखाई दे रहा है. वियतनाम युद्ध के दौरान प्रदर्शन करने वाले चाहते थे कि अमेरिका वियतनाम में युद्ध से पीछे हट जाए. वहीं, मौजूदा प्रदर्शनकारी चाहते हैं कि अमेरिका, मध्य पूर्व में चल रहे संघर्ष को लेकर अपने रवैये में बदलाव करें और अपनी वित्तीय और सियासी ताक़त का इस्तेमाल करके युद्ध को बंद कराए.

 

ज़ाहिर है कि सबसे अहम अंतर तो पुराने दौर के अमेरिकी नागरिकों, विशेष रूप से 1960 के दशक में पैदा हुए लोगों और उनके तुलनात्मक रूप से नौजवान साथियों, विशेष रूप से मिलेनियल्स और जेनज़ेड (GenZ) के बीच पीढ़ियों का फ़ासला है. आज की युवा आबादी ख़ुद को मध्य पूर्व की उन जटिल चुनौतियों से दूर खड़ा पाता है, जिनका सामना इज़राइल को इस इलाक़े में करना पड़ता है. नई पीढ़ी, इज़राइल को अक्सर फ़िलिस्तीनी सरज़मीं पर क़ब्ज़ा करने वाली ताक़त के तौर पर देखता है. इसके उलट, अमेरिका की पिछली पीढ़ी, जिसमें ख़ुद अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के साथी भी शामिल हैं, वो इजराइल को लेकर बिल्कुल अलग नज़रिया रखते हैं. इस दृष्टिकोण के पीछे ज़ुल्म--सितम के शिकार यहूदियों के अपने देश की हिफ़ाज़त करने की अमेरिका की ऐतिहासिक प्रतिबद्धता है. पुरानी पीढ़ी इज़राइल की स्थापना के वक़्त अमेरिका द्वारा किए गए उस वादे से बड़ी गहराई से प्रभावित है, जिसमें उसने इज़राइल से वादा किया था कि वो यहूदी समुदायों के साथ हुई ऐतिहासिक नाइंसाफियों को दोहराने नहीं देगा. ये विरोधाभास उस बुनियादी अंतर को दिखाता है कि इज़राइल से जुड़े मौजूदा संघर्ष को अलग अलग पीढ़ियां अपने अलग अलग नज़रियों से देखती हैं. इससे, अमेरिकी समाज में आए बदलाव और ऐतिहासिक संदर्भ नुमायां होते हैं.

विश्वविद्यालयों समेत पूरे अमेरिका को अपनी चपेट में लेने वाला ये वैचारिक और राजनीतिक प्रवाह, देश के सामाजिक सांस्कृतिक परिदृश्य में आए उल्लेखनीय बदलाव का परिचायक है. 

विश्वविद्यालयों समेत पूरे अमेरिका को अपनी चपेट में लेने वाला ये वैचारिक और राजनीतिक प्रवाह, देश के सामाजिक सांस्कृतिक परिदृश्य में आए उल्लेखनीय बदलाव का परिचायक है. अमेरिका में एक नए वामपंथ का उभार हो रहा है, जिसे नए युद्धों और देश की आबादी की बनावट में आए बदलावों से ताक़त मिल रही है. अमेरिका में ये क्रांतिकारी परिवर्तन, वहां, इस सदी की शुरुआत से दुनिया भर से जाकर लोगों के बसने लगभग लगातार चल रहे सिलसिले का नतीजा है, जिसमें पिछले एक दशक के दौरान कुछ ज़्यादा ही बढ़ोतरी देखने को मिल रही है. वैसे तो अमेरिका में बाहर से जाकर बसने वालों का लंबा इतिहास रहा है. लेकिन, पिछले एक दशक के दौरान, युद्धों, जलवायु परिवर्तन और आर्थिक और लोकतांत्रिक आकांक्षाओं के चलते अवैध अप्रवासियों की आमद में अभूतपूर्व ढंग से इज़ाफ़ा हुआ है.

 

प्रदर्शन के कारण

 

अमेरिका के सियासी मंज़र में रहे इन बदलावों के कम से कम दो बड़े अहम प्रभाव दिख रहे हैं. पहला तो राजनीतिक विभाजन है. बाइडेन प्रशासन और उनकी डेमोक्रेटिक पार्टी, अप्रवास को एक मौक़े और चुनौती, दोनों के तौर पर देखती है. हालांकि, हाल के वर्षों में चुनौतियों पर तुलनात्मक रूप से कहीं ज़्यादा ज़ोर दिया जा रहा है. इसकी वजह ये है कि बाइडेन प्रशासन के लगभग साढ़े तीन साल के कार्यकाल के दौरान, अमेरिका में लगभग 72 लाख अवैध अप्रवासी दाख़िल हुए हैं. इससे रिपब्लिकन पार्टी के नेताओं को मौक़ा मिल गया है कि वो अप्रवासियों की समस्या को लेकर डेमोक्रेटिक पार्टी पर दबाव बनाएं, और इस बात की काफ़ी संभावना है कि नवंबर 2024 में होने वाले राष्ट्रपति चुनावों में ये बहुत बड़ा मुद्दा होगा. राजनीतिक अखाड़े के रूढ़िवादी मोर्चे पर अप्रवास के मुद्दे ने पूरी दुनिया मेंदक्षिणपंथ के उभारको जन्म दिया है, अमेरिका भी इसका कोई अपवाद नहीं है. बल्कि, अमेरिका तो इस राजनीतिक बदलाव का सबसे बड़ा उदाहरण है. निश्चित रूप से पहले तो अप्रवासियों के ख़िलाफ़ ग़ुस्से और फिर कोविड-19 महामारी के दौरान आर्थिक सुस्ती ने ही अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी और डोनाल्ड ट्रंप की लोकप्रियता को लगातार बनाए रखा है.

 

दूसरा मुद्दा भू-राजनीति से जुड़ा है और इस सवाल के इर्द गिर्द घूमता है कि गाज़ा में बेंजामिन नेतन्याहू की सरकार जो पलटवार का अभियान चला रही है, उसे अमेरिका को किस हद तक समर्थन देना चाहिए. बाइडेन प्रशासन पर कई तरफ़ से दबाव पड़ रहा है: इज़राइ को सैन्य और वित्तीय सहायता देना, गाज़ा पट्टी को मानवीय मदद देना, इज़राइल को रफा में सैन्य अभियान छेड़ने से रोकना, अपने देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी को सुनिश्चित करना और शायद सबसे अहम चुनौती गाज़ा में युद्ध विराम का लक्ष्य हासिल कराना. अगर इनमें से कोई भी बात अमेरिका के क़ाबू से बाहर जाती है, तो इसके नतीजे, बाइडेन प्रशासन की सियासी क़िस्मत पर गहरा असर डालने वाले होंगे. पिछले सात महीने से गाज़ा पट्टी में सुरंगों के विशाल जाल में फंसा इज़राइल, आम लोगों की मौत की बढ़ती तादाद के बावजूद, इस युद्ध के ख़ात्मे की कोई मंज़िल नहीं तलाश सका है. अपनी गाज़ा नीति और इज़राइल के समर्थन को लेकर बाइडेन को उनकी अपनी पार्टी के प्रगतिशील तबक़े के सदस्यों के विरोध का सामना करना पड़ रहा है.

अमेरिका ऐसे हालात का सामना कर रहा है, जहां उसके उदारवादी सिद्धांत उस रूढ़िवादी गठबंधन से टकरा रहे हैं, जो दुनिया भर के कई देशों और विशेष रूप से ग्लोबल साउथ को एक सूत्र में बांधता है.

इज़राइल को लेकर बाइडेन की दुविधा को उनके अपने देश में शांति को लेकर छेड़े गए आंदोलनों और बढ़ते यहूदी विरोधी जज़्बात ने और पेचीदा बना दिया है. अमेरिका के संविधान नेअभिव्यक्ति की आज़ादीका जो अधिकार दिया है, वो कई बार मध्य पूर्व की जटिलताओं को पूरी तरह समझ पाने में नाकाम रहता है और ऐसा लगता है कि उसे इस क्षेत्र की ज़मीनी हक़ीक़त का ठीक से अंदाज़ा ही नहीं है, जहां सऊदी अरब और मिस्र जैसे देशों ने अपने यहां फिलिस्तीन के समर्थन में होने वाले प्रदर्शनों को दबाने का काम किया है.

 

तय है कि अमेरिका ऐसे हालात का सामना कर रहा है, जहां उसके उदारवादी सिद्धांत उस रूढ़िवादी गठबंधन से टकरा रहे हैं, जो दुनिया भर के कई देशों और विशेष रूप से ग्लोबल साउथ को एक सूत्र में बांधता है. अमेरिका के संविधान से जो लोकतांत्रिक अधिकार मिले हैं, उसका इस्तेमाल अब वो आबादी कर रही है, जो मध्य पूर्व की पहले से कहीं ज़्यादा नुमाइंदगी करती है. इसका नतीजा ये हुआ है कि मध्य पूर्व की जटिल क्षेत्रीय राजनीति अब अमेरिकी सियासत में अभिव्यक्त हो रही है.

 

आगे की राह

 

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ये तनाव जो बाइडेन की डेमोक्रेटिक पार्टी वाली सरकार द्वारा राजनीतिक रूप से रूढ़िवादी सरकारों पर क़ाबू पाने की कोशिशों पर असर डाल रहे हैं, जिनकी नीतियां अक्सर अमेरिका की नीति से अलग होती हैं. दुनिया भर में दक्षिणपंथी राजनीति का जो उभार, तमाम सरकारों और आबादी के बदलते स्वरूप के रूप में नज़र आता है, वो लगातार बाइडेन प्रशासन के सामने चुनौती पेश कर रहा है और बाइडेन प्रशासन आज ख़ुद को इस सियासी ध्रुव के ख़िलाफ़ खड़ा पाता है. नेतन्याहू जैसे धुर कट्टरपंथी नेता की अगुवाई वाली सरकार के इज़राइल के साथ संबंधों का प्रबंधन करना बाइडेन प्रशासन के घरेलू स्तर पर विरोधाभासी हितों के बीच तालमेल बनाने की क्षमता का सबसे बड़ा इम्तिहान है, क्योंकि इनमें से कई हितों का ताल्लुक़ मध्य पूर्व से है.

काफ़ी संभावना है कि आने वाले एक दशक में, अमेरिकी आबादी की बनावट में हो रहे बदलाव की वजह से न केवल वहां के मतदाताओं के बीच खाई गहरी होगी, बल्कि ये विभाजन वहां की संस्कृतियों, परंपराओं और नियमों के ज़रिए भी ज़ाहिर होता नज़र आएगा.

 

दुनिया भर में भले ही लोकतंत्र का दायरा बढ़ा हो; हालांकि, अमेरिका अपने लोकतांत्रिक आदर्शों का पालन करने और उन्हें लागू करने को लेकर मज़बूत इरादों के साथ अटल है. इससे अक्सर अन्य लोकतांत्रिक देशों से उसका टकराव हो जाता है. कनाडा, जो मूल रूप से अमेरिकी संविधान द्वारा स्थापित आदर्शों के आधार पर बना था, आज वहां इस चलन के उलट हवा बह रही है. वहीं, ख़ुद अमेरिका भी दुनिया भर की नाख़ुशी की अभिव्यक्ति का मंच बन चुके कनाडा की दिशा में बढ़ने के जोखिम का सामना कर रहा है. यही वजह है कि अमेरिका के मशहूर विश्वविद्यालय आज व्यापक अमेरिकी समाज का आईना बन गए हैं. इस बात की काफ़ी संभावना है कि आने वाले एक दशक में, अमेरिकी आबादी की बनावट में हो रहे बदलाव की वजह से केवल वहां के मतदाताओं के बीच खाई गहरी होगी, बल्कि ये विभाजन वहां की संस्कृतियों, परंपराओं और नियमों के ज़रिए भी ज़ाहिर होता नज़र आएगा.

 

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