Author : Vardan Kabra

Published on Nov 08, 2021 Updated 0 Hours ago

भारत का विकास प्रक्षेपवक्र सामाजिक ढांचे मे निवेश से काफी गंभीर रूप से जुड़ा हुआ है, इसलिए, निजी शिक्षा के क्षेत्र मे उदारीकरण, मानव पूंजी और समावेशी विकास में और निवेश की अनुमति देगा.

भारत के सभी बच्चों को शिक्षा मुहैया कराने की बड़ी महत्वकांक्षा; निजी स्कूल अपनाये उदारता!

30 वर्ष पहले, सन 1991 में आये प्रमुख वित्तीय संकट की वजह से शुरू हुई सुधार ने भारतीय अर्थव्यवस्था मे उदारीकरण की शुरुआत की और उसके बाद ही विश्व के सामने भारत के पूर्णउत्थान की छवि पेश हो पायी. महामारी की वजह से, आज भारतीय शिक्षा व्यवस्था पहले ही अभूतपूर्व परिमाण का संकट झेल रही है, लेकिन इस संकट की ही वजह से इस सेक्टर में सुधार और उदारीकरण की संभावनाएं प्रकट हुई हैं, जिसके परिणाम स्वरूप सभी भारतीय छात्रों को उच्च कोटी की शिक्षा दिया जाना संभव हो सका है.

25 करोड़ में से लगभग 12 करोड़ भारतीय बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ते हैं. इन 12 करोड़ बच्चों में से, कुल 70 प्रतिशत छात्र उन निजी स्कूलों में पढ़ते हैं जिनकी फीस 1,000 रुपए प्रति माह से कम है. फिर भी, ये कहानी, बजाय कम बजट स्कूलों के, चंद एलिट स्कूलों तक ही केंद्रित है जहां, ज्य़ादातर स्कूली छात्र दरअसल पढ़ते हैं.

21वी सदी में नौकरी और उससे संबंधित चुनौतियों से निपटने के लिए, सभी भारतीय बच्चों को सही तरह से शिक्षित करने के लिए, ना सिर्फ़ बच्चों को और भी बेहतर बुनियादी/आधारभूत लर्निंग की ज़रूरत है बल्कि उन्हे कौशल सीखने की भी ज़रूरत है, जो उन्हें सफल होने मे मदद कर सके. हालांकि, सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों की तुलना में, वे बच्चे जो बजट आधारित प्राइवेट स्कूलों में पढ़ रहे हैं, उनमें सीखने की प्रक्रिया औसत रही है.

ये पॉलिसी सिफारिश करती है कि प्राइवेट स्कूलों को संचालित करने वाली शर्तों को इनपुट आधारित से आउट्कम आधारित में बदली जानी चाहिए. हालांकि, ये नीति पहचान पाने में असफल रही कि ये सब काफी नहीं होगा जो कुल 8.4 करोड़ बच्चों को कम-लागत स्कूलों द्वारा 21वीं सदी की शिक्षा प्रदान कर सके.

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ने, संज्ञानात्मक कौशल की उच्च आदेश के साथ-साथ सामाजिक और भावनात्मक कौशल, उच्च विद्यालयों मे धारा का लचीलापन के साथ ही पेशेवर पाठ्यक्रम के समावेश की ज़रूरत पर बल देते हुए, बचपन की शिक्षा (ईसीई) और आधारभूत शिक्षा की महत्ता की पहचान करके, शिक्षा सुधार के क्षेत्र मे उल्लेखनीय कार्य किये हैं. एक तरफ इन नीतियों ने भी चंद नियामक सिफ़ारिशें रखी हैं, फिर भी ये कमज़ोर दशा क्षमता वाले सरकारी स्कूलों में, अच्छी गुणवत्तापरक शिक्षा प्रदान करने को लेकर कम गंभीर है और ये निजी स्कूलों को परोपकारी जनादेश देने की दिशा में किसी प्रकार की स्वतंत्रता प्रदान नहीं करते हैं. ये पॉलिसी सरकारी स्कूलों मे, “सीखने के गंभीर अभाव” को पहचान पाने में सफल रही है, लेकिन इसकी ज़िम्मेदारी के मुद्दे को संबोधित कर पाने मे असफ़ल रही है जो की सरकारी स्कूलों में सीख पाने के संकट के केन्द्रबिन्दु में है.

ये पॉलिसी सिफारिश करती है कि प्राइवेट स्कूलों को संचालित करने वाली शर्तों को इनपुट आधारित से आउट्कम आधारित में बदली जानी चाहिए. हालांकि, ये नीति पहचान पाने में असफल रही कि ये सब काफी नहीं होगा जो कुल 8.4 करोड़ बच्चों को कम-लागत स्कूलों द्वारा 21वीं सदी की शिक्षा प्रदान कर सके. चूंकि सरकारी स्कूलें अभिभावकों की आकांक्षाओं पर खरा उतार पाने मे असफल रही है इसलिए कम लागत स्कूलें भी अस्तित्व में है, क्यूंकि वे अभिभावकों के प्रति बहुत ज्य़ादा जवाबदेह है. हालांकि, अनुचित नियमों की अधिकता होने की वजह से, और जर्जर एवं खराब बुनियादी ढांचा, कम बजट और रचनात्मकता के लिए बहुत ही कम जगह बची है, वे उच्च क्वालिटी शिक्षा दे पाने की स्थिति में नहीं है. कोविड जनित महामारी की वजह से स्कूलों को किसी भी तरह से उनके राजस्व मे 20 से 50 प्रतिशत के बीच का नुकसान हुआ है, और कई वास्तविक रिपोर्ट के अनुसार नुकसान और भी काफ़ी ज्य़ादा अनुमानित है. कई राज्यों ने सरकारी स्कूलों में, बजट आधारित प्राइवेट स्कूलों की तुलना में, काफी ज्य़ादा नामांकन दर्ज होने की सूचना ज़ाहिर की है. इस ट्रेंड मे बढ़ोत्तरी, लोगों की प्रति व्यक्ति आय में आई गिरावट की वजह से भी हुई है.

21वी सदी में नौकरी और उससे संबंधित

ये पॉलिसी सिफारिश करती है कि प्राइवेट स्कूलों को संचालित करने वाली शर्तों को इनपुट आधारित से आउट्कम आधारित में बदली जानी चाहिए. हालांकि, ये नीति पहचान पाने में असफल रही कि ये सब काफी नहीं होगा जो कुल 8.4 करोड़ बच्चों को कम-लागत स्कूलों द्वारा 21वीं सदी की शिक्षा प्रदान कर सके.

हालांकि, इसके बावजूद ये छात्र कहाँ पढ़ रहे हैं, सीखने के परिणाम जो शुरुआत मे काफ़ी खराब थे, महामारी की वजह से और भी बदतर हो गए. इस बात के काफी कम प्रमाण है कि वर्तमान नियामक सेटअप के अंतर्गत, या तो पब्लिक स्कूल या फिर लो बजट आधारित निजी स्कूल आदि किसी के भी पास उच्च क्वालिटी शिक्षा प्रदान कर सकने जैसी ऐसी कोई क्षमता नहीं है जिसकी भारत को आवश्यकता है. भारतीय अर्थव्यवस्था के अन्य सेक्टर जिनमें टेलीकॉम, उड्डयन, रीटेल आदि से प्राप्त अनुभव के आधार पर उदारीकरण, कीमतों को कंट्रोल करते हुए भी अपनी गुणवत्ता मे सुधार कर सकती है. स्कूलों में भी ऐसा ही कुछ करने के लिए, निजी स्कूलों को भी उच्च कौशलयुक्त लोगों और विशाल और धैर्यशील कैपिटल अथवा पूंजी की जरूरत है. निजी स्कूलों के लिए बनाए गए इस परोपकारी जनादेश की वजह से ये मुमकिन नहीं है.

भारत में स्कूलों को गैर-लाभ युक्त माना गया है. हालांकि, स्कूल संचालन एक फुल टाइम/पूर्णकालिक व्यवसाय है और मात्र कुछ ही ऐसे स्कूल संचालक हैं, जो अपने द्वारा किये गए निवेश अथवा मुनाफ़े के बग़ैर स्कूल चलाने का जोख़िम पालते हैं. इस वजह से ही पूंजी और ह्यूमन रिसोर्स दोनों ही का निवेश स्कूल सेक्टर में कम होता है. इस नेक काम के पीछे भले ही वैचारिक अनिवार्यता रही हो, शिक्षा को सदैव ही गैर मुनाफ़ा देने वाला परोपकारी कार्य माना गया है, लेकिन सदाबहार कोचिंग उद्योग और अन्य एडटेक सेक्टर की तुलना में, ये काफी अचंभित कर देने वाला है, इन दोनों ही उद्योगों में भारी मात्रा में, लोगों का जुड़ना और पूंजी का नियोजन होना, साफ़तौर पर स्कूलों में, गुणवत्तायुक्त एजुकेशन की मांग को दर्शाता है.

उदारीकरण में और क्या शामिल है?

भारत के निजी स्कूलों में उदारीकरण में दो चीज़ें शामिल किया जाना चाहिये. पहला इसमें जो व्यर्थ की पाबंदियां हैं उसे हटाया जाना चाहिये, दूसरा उसपर परोपकार करने का जो जनादेश थोपा गया है उसे भी तार्किक किया जाना चाहिये. केंद्र एवं राज्यों द्वारा थोपा गया नियामकों की अधिकता को, उचित नियमों द्वारा और भी युक्तिसंगत बनाए जाने की आवश्यकता है जो ज़्यादातर शिक्षा के फलस्वरूप प्राप्त फल और ज़रूरी सुरक्षा मानदंड पर ही केंद्रित रहता है बजाय ऐसे इनपुट्स पर जैसे की संसाधन संबंधी ज़रूरतें, शिक्षकों की योग्यता, फीस स्ट्रक्चर आदि. इसके साथ ही, स्कूलों को अन्य आवश्यक मुद्दों से संबंधी सूचना, जिनमें एड्मिशन प्रोसेस, फीस स्ट्रक्चर, फीस कैप आदि का उल्लेख, शिक्षकों की योग्यता आदि होता — जो कोई अतिरिक्त आर्थिक दबाव दिए बगैर, स्कूल मालिकों को संचालन में मदद करे उसे सार्वजनिक करना चाहिये. ये सुनिश्चित करने के लिए कि अभिभावकगण स्कूल के परफॉरमेंस के बारे में भली भांति अवगत हो, निजी और सरकारी, सभी स्कूलों में, जरूरी सीखने के परिणामों का मानकीकृत जनगणना आकलन प्रकाशित किया जाना चाहिए. जैसा की एनईपी अनुमोदित करती है, राज्य संस्थाओं से अलग, एक स्वतंत्र नियामक व्यवस्था होनी चाहिए, जो सरकारी स्कूलों को निर्देशित करे ताकि वे ये सुनिश्चित कर सकें कि राज्य स्तर पर इन नियामकों का सफल मानकीकृत जनगणना आकलन सीखने के परिणामों का सीमित विनयमन के साथ लोकपाल के तौर पर समग्र अनुपालन सुनिश्चित की जा सके.

परोपकारी जनादेश को हटाने का मतलब स्कूलों को मुनाफा कमाने हेतु पूर्ण आजादी के साथ कार्य करते रहने देना होगा. वर्तमान में, राज्य और केंद्र शिक्षा बोर्ड चाहती है कि स्कूल एक गैर मुनाफा कमाने वाली एन्टिटी जैसे ट्रस्ट, सोसाइटी या फिर सेक्शन 25 के अंतर्गत कंपनी का निबंधन होना आवश्यक है. उसी तरह से, ज्य़ादातर राज्य — सभी नहीं — उन सब में भी इन्हीं सब की प्राथमिकता है. इन ज़रूरतों को हटाया जाना ज़रूरी है — ताकि स्कूलों को भी अपनी प्राथमिकता तय करने की आज़ादी मिल सके. हितकारी जनादेश के उद्देश्य से चलने वाले स्कूल वर्तमान न्यायिक स्टेट्स के साथ काम करते रह सकते हैं. हालांकि, जो स्कूल इस मुनाफा कमाने के उद्देश्य से काम करने को इच्छुक है, वे बेशक ऐसा कर सकते हैं लेकिन उसके लिए उन्हें अपना उद्देश्य घोषित करना होगा.

एक प्रमुख आपत्ति इसके खिलाफ़ इस बात की होगी कि इस व्यवस्था के बाद स्कूलों को अपनी फीस बेतहाशा अंधा-धुंध बढ़ाने की छूट दे देगी. एक तरफ इस लंबी रेस में, प्रतिस्पर्धा ही इकलौती वो ताकत है जो कीमतों को (बगैर गुणवत्ता को प्रभावित किये), वाकई कम रख पाएगी, कम समय मे स्कूल 10-12 प्रतिशत से ज्य़ादा की बढ़ोत्तरी — मौजूदा अभिभावक पर — चार्ज नहीं कर सकती है — जिसकी कोई भी शुल्क अधिनियम धारा, वैसे भी अनुमति देती ही है. स्कूल — हालांकि, इस घोषणा के साथ वे अपने नए अभिभावकों से, अगर चाहे तो अपना मनचाहा शुल्क भी चार्ज कर सकते हैं कि इस आश्वासन के साथ की ये तब तक प्रभावी रहेंगे जब तक उनके बच्चे (अगले 12-15 वर्ष तक) इस स्कूल मे पढ़ेंगे.

हितकारी जनादेश के उद्देश्य से चलने वाले स्कूल वर्तमान न्यायिक स्टेट्स के साथ काम करते रह सकते हैं. हालांकि, जो स्कूल इस मुनाफा कमाने के उद्देश्य से काम करने को इच्छुक है, वे बेशक ऐसा कर सकते हैं लेकिन उसके लिए उन्हें अपना उद्देश्य घोषित करना होगा.

क्या भारत के निजी स्कूल, उदारीकरण के बाद बेहतर प्रदर्शन कर सकेंगे?

हर प्रकार के नियामक और हितकारी जनादेश के बावजूद, निजी स्कूल का आकार लगभग अमेरिकी डॉलर 100 बिलियन के समतुल्य है, जिसमें पिछली दशक के दरम्यान 15 प्रतिशत चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (सीएजीआर) से वृद्धि हुई है. इस बाज़ार के आकार के आधार पर, नियमों को युक्तिसंगत बनाने और इस परोपकारी जनादेश के मैंडेट को हटाने से सीएजीआर विकास दर में 25 प्रतिशत तक की वृद्धि संभव है, जिसके होने पर 2025 तक इस सेक्टर को, अमेरिकी डॉलर 200 बिलियन मूल्य तक पहुंचाया जा सकता है. कोचिंग और एडटेक सेक्टर/क्षेत्र में उपलब्ध व्यापार संभावना को देखते हुए, एक बार उदारीकरण लाए जाने के बाद, प्राइवेट स्कूलों मे विशाल पूंजी निवेश की शुरुआत अवश्य होगी.

उनकी संभावनाओं और इस क्षेत्र मे बड़े खिलाड़ियों की कमी की वजह से, इस पिरामिड के जड़ मे इन कम बजट स्कूलों के लिए काफी संभावनाएं है. कई अन्य मॉडल ऐसा बताते हैं कि कम बजट के स्कूल में किये गए निवेश के सामने, पहले से उपलब्ध लाभप्रद पैमाने की अर्थव्यवस्थाएं, तकनीकी, और सबसे महत्वपूर्ण बेहतर इरादे के साथ सुविधापूर्ण गुणवत्तापरक शिक्षा प्रदान की जा सकती है. हालांकि, 21वीं सदी में एक उच्च गुणवत्तायुक्त शिक्षा प्रदान करने हेतु, एक औसत से स्कूल को भी अनुमानित 700 प्रतिमाह शुल्क चार्ज करने की ज़रूरत है, जो की एक कम बजट के स्कूल वर्तमान समय मे चार्ज कर रहे हैं.

सुधार को तेज़ करने के लिए छात्रों को फंड दी जाए

भारत पहले से ही, सरकारी स्कूलों में 30,000 रुपये प्रति वर्ष हर छात्र पर खर्च करती है, जहां आम तौर पर उनकी गुणवत्ता काफी दयनीय है. अगर खर्च किये जाने वाले इन रुपयों को अथवा उसके एक अंश को, अभिभावकों को सीधे तौर पर शिक्षा वाउचर या फिर सीधा लाभ ट्रांसफर के ज़रिए मुहैया कराए गए होते तो, ये हर प्रकार के स्कूलों में एक विशाल निवेश को प्रेरित करती हुई, एक विशाल आपूर्ति पक्ष प्रतिक्रिया का सृजन करती. अभिभावकों को एक बार अपने बच्चों के परीक्षा परिणाम सीधे-सीधे प्राप्त होते तो, निजी और सरकारी स्कूल दोनों ही अपनी गुणवत्ता और बेहतर शिक्षा सुधार के लिए और भी ज्य़ादा ध्यान केंद्रित कर पाएंगे.

केवल एक ही वास्तविक तरीका है जिससे सभी भारतीय छात्रों को शिक्षित किया जा सकता है ताकि उनको 21वी सदी के अनुरूप तैयार किया जा सके, और वो ये है कि भारतीय प्राइवेट स्कूलों का उदारीकरण किया जाए और छात्रों के लिए रिलीज फंड सीधे उन तक पहुंचे.

ये बहस कि केवल सरकारी या पब्लिक स्कूल ही सभी भारतीय बच्चों को बेहतर और गुणवत्तापरक शिक्षा प्रदान कर सकते हैं, सत्यता पर आधारित नहीं है. खासकर इस वक्त, ज्य़ादा संख्या में हमारे बच्चे, स्कूलों में किसी प्रकार की सामाजिक अथवा आर्थिक तौर पर कोई उद्देश्यपरक चीजें नहीं सीख रहे हैं. कोविड 19 महामारी ने ख़ासतौर पर सीखने की प्रक्रिया में एक काफी बड़ी खाई तैयार कर दी है. और 21वीं सदी में, ना सिर्फ साक्षरता बल्कि उच्च क्वालिटी की शिक्षा और पढ़ पाने, लिख पाने या कुछ और भी, के बजाय उच्च स्तरीय कौशल की ज़रूरत है. फिर भी, इन मूल बिंदुओं को हमारी व्यवस्था के प्रति एक गम्भीरता-पूर्वक और जटिल समस्या के तौर पर पेश कर पाने मे हम असफल रहे हैं. भारत किसी भी तरह से एक वृद्धिशील सुरक्षित परिवर्तन करने का जोख़िम नहीं उठा सकता और मौलिक रूप से भिन्न परिणाम की अपेक्षा की जाती है. केवल एक ही वास्तविक तरीका है जिससे सभी भारतीय छात्रों को शिक्षित किया जा सकता है ताकि उनको 21वी सदी के अनुरूप तैयार किया जा सके, और वो ये है कि भारतीय प्राइवेट स्कूलों का उदारीकरण किया जाए और छात्रों के लिए रिलीज फंड सीधे उन तक पहुंचे.

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