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अमेरिका का ब्रांडेड और पेटेंट दवाओं पर 100% टैरिफ़ लगाने का फ़ैसला उसकी व्यापार नीति में बड़ा बदलाव है. इससे दवाओं की क़ीमतें बढ़ने, नवाचार कमज़ोर पड़ने और वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में बाधा आने का ख़तरा है.
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ब्रांडेड और पेटेंट दवाओं पर 1 अक्टूबर से 100 प्रतिशत टैरिफ़ (सीमा शुल्क) लगाने की घोषणा की है. सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘ट्रूथ’ पर 26 सितंबर को किए गए इस ऐलान के साथ एक शर्त भी बताई गई है- कि जो कंपनियां अमेरिकी ज़मीन पर निर्माण-कार्य शुरू करने की कोशिश कर रही हैं या जो अपने मैन्युफैक्चरिंग प्लांट यहां बना रही हैं, उनको टैरिफ़ से छूट दी जाएगी. फिलहाल, जेनेरिक दवाएं इस टैरिफ़ प्लान में शामिल नहीं हैं, जिस कारण भारत को राहत मिली है, क्योंकि अमेरिका में जितनी जेनेरिक दवाओं की खपत होती है, उसका 47 प्रतिशत हिस्सा भारत ही आपूर्ति करता है. मगर डर इस बात का है कि क्या आने वाले दिनों में जेनेरिक दवाओं पर भी यह व्यवस्था लागू कर दी जाएगी? यह वैश्विक स्वास्थ्य और दवाओं तक एकसमान पहुंच को सुनिश्चित करने के लिए बनाए गए अंतरराष्ट्रीय व्यापार तंत्र से बाहर निकलने का संकेत है, जिसका दूरगामी असर वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा, दवा आपूर्ति श्रृंखला और भारत जैसे प्रमुख दवा निर्यातकों पर पड़ेगा.
यह वैश्विक स्वास्थ्य और दवाओं तक एकसमान पहुंच को सुनिश्चित करने के लिए बनाए गए अंतरराष्ट्रीय व्यापार तंत्र से बाहर निकलने का संकेत है, जिसका दूरगामी असर वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा, दवा आपूर्ति श्रृंखला और भारत जैसे प्रमुख दवा निर्यातकों पर पड़ेगा.
इस घोषणा के कयास लगाए भी जा रहे थे, क्योंकि राष्ट्रपति ट्रंप ने इस साल के अगस्त में एक साक्षात्कार के दौरान फार्मा-टैरिफ़ को सिलसिलेवार लागू करने की अपनी योजना बताई थी और चेतावनी दी थी कि अगले 18 महीनों में 250 प्रतिशत तक सीमा शुल्क बढ़ाया जा सकता है. नई शुल्क-योजना दवाओं का उत्पादन अमेरिकी ज़मीन पर करने और व्यापार घाटा कम करने संबंधी ट्रंप प्रशासन के लक्ष्यों का एक हिस्सा है. उल्लेखनीय है कि 2024 में अमेरिका को कुल 1.2 ट्रिलियन डॉलर का व्यापार घाटा हुआ था, जिसमें फार्मास्युटिकल्स का योगदान 139 अरब डॉलर का था. दवाओं पर 25 प्रतिशत टैरिफ़ से अमेरिका में दवाओं की लागत सालाना 51 अरब डॉलर तक बढ़ सकती है, जिससे उनकी क़ीमतों में 13 प्रतिशत तक की वृद्धि की आशंका है.
नए टैरिफ़ से उन दवा कंपनियों के अमेरिकी निर्यात (ब्रांडेड और पेटेंट दवाएं) प्रभावित होंगे, जिन्होंने अभी तक अमेरिका में अपना उत्पादन शुरू नहीं किया है. यह काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि अमेरिका दवा पर जितना ख़र्च करता है, उसमें बड़ा हिस्सा पेटेंट वाली दवाओं का होता है. हालांकि, अमेरिका में कुल दवा खपत का करीब 90 प्रतिशत हिस्सा जेनेरिक दवाओं का है, लेकिन वे कुल ख़र्च का आठवां हिस्सा ही हैं, जो बताते हैं कि लागत बढ़ाने में ब्रांडेड दवाओं का भारी योगदान है.
अमेरिका ने 2024 में लगभग 200 अरब डॉलर मूल्य के दवा उत्पादों का आयात किया और उसके प्रमुख निर्यातक थे- आयरलैंड, जर्मनी और स्विट्ज़रलैंड. यूरोपीय संघ (EU) के साथ हाल ही में किए गए व्यापार समझौते में, वाशिंगटन ने दवा उत्पादों पर 15 प्रतिशत टैरिफ़ लगाया है. हालांकि, जेनेरिक दवाओं, अवयवों और इसके अन्य रासायनिक उत्पादों को इसमें छूट दी गई है, लेकिन यह समझौता उन पुराने सिद्धांतों से हटने का संकेत था, जिसमें व्यापार बाधाओं से दवाओं को दूर रखने की नीति तय की गई थी, ताकि सार्वजनिक स्वास्थ्य के साथ कोई समझौता न हो सके.
मार्च 2025 में, अमेरिका ने अपने व्यापार विस्तार अधिनियम, 1962 की दवा आयात से जुड़ी धारा 232 की समीक्षा शुरू कर दी, जो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा माने जाने वाले आयातों पर टैरिफ़ लगाने का अधिकार देती है.
इसके अलावा, मार्च 2025 में, अमेरिका ने अपने व्यापार विस्तार अधिनियम, 1962 की दवा आयात से जुड़ी धारा 232 की समीक्षा शुरू कर दी, जो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा माने जाने वाले आयातों पर टैरिफ़ लगाने का अधिकार देती है. इसके नतीजे मार्च 2026 में जारी किए जाएंगे, इसलिए अभी यह नहीं कहा जा सकता कि हालिया घोषित 100 प्रतिशत टैरिफ़ इसी जांच से जुड़े हैं या नहीं, और क्या बाद में कुछ अतिरिक्त शुल्क भी लगाए जाएंगे? फिलहाल, यूरोपीय संघ को नए घोषित 100 प्रतिशत टैरिफ़ के साथ-साथ धारा 232 की समीक्षा के बाद लगने वाले किसी भी अन्य टैरिफ़ से राहत दी गई है, हालांकि इस समीक्षा के नतीजों के आधार पर जापान को सीमा शुल्कों का सामना करना पड़ सकता है. इस बीच, ब्रिटेन (UK) अपने दवा क्षेत्र के लिए टैरिफ़ छूट हासिल करने के लिए वाशिंगटन के साथ लगातार वार्ताएं कर रहा है.
अमेरिका की मंशा दवाओं की लागत कम करने और अमेरिकी ज़मीन पर उत्पादन शुरू करने की है, लेकिन इस लक्ष्य को पाने का सबसे प्रभावी तरीका टैरिफ़ नहीं हो सकता. उसकी मौजूदा नीति इस सोच पर आधारित है कि टैरिफ़ बढ़ाने से आयात होने वाली दवाओं की लागत बढ़ जाएगी, जिससे अमेरिकी उन दवाओं का उपयोग शुरू करेंगे, जो स्थानीय स्तर पर बनती हैं. इससे अमेरिकी दवा निर्माण और रोज़गार सृजन, दोनों को बढ़ावा मिलेगा. मगर इसमें घरेलू दवा निर्माण के विस्तार से जुड़ी जटिलताओं को ध्यान में नहीं रखा गया है. अनुमान बताते हैं कि स्थानीय स्तर पर दवा उद्योग के ठीक-ठाक विस्तार में पांच से दस साल का वक़्त लग सकता है. फिर, टैरिफ़ से ज़्यादा मार्ज़िन वाले ब्रांडेड और पेटेंट दवा-निर्माता निश्चय ही अमेरिका में अपने निकाय स्थापित करने को उत्सुक होंगे, जिसके लिए वे नई कंपनियां खोलेंगे या अधिग्रहण करेंगे. मगर इन कामों में उन्हें कुछ चुनौतियों का भी सामना करना पड़ सकता है, जैसे उनको बड़ी पूंजी की आवश्यकता होगी. समय पर निवेश, स्टील व एल्युमिनियम पर धारा 232 की समीक्षा के बाद लगाए गए टैरिफ़ की वज़ह से निर्माण-लागत में वृद्धि, सख़्त कानूनी बाधाएं और अत्यधिक कुशल कार्यबल की ज़रूरत भी उनको होगी.
नए टैरिफ़ का एलान ट्रंप की उस समय-सीमा के अनुरूप है, जो उन्होंने दवा निर्माताओं को नई दवा मूल्य निर्धारण नीति अपनाने के लिए दी थी. दरअसल, 17 दवा कंपनियों को अगस्त 2025 में ट्रंप से पत्र प्राप्त हुए थे, जिनमें अमेरिकी मरीजों के लिए दवा की क़ीमतें कम करने के लिए उठाए जाने वाले सिलसिलेवार कदमों का उल्लेख किया गया था. कंपनियों को जवाब देने के लिए 60 दिनों का समय दिया गया था. पिछले दिनों में एक कार्यकारी आदेश (अमेरिकी मरीज़ों के लिए सर्वाधिक पसंदीदा राष्ट्र (MFN) की तरह कम क़ीमतों में दवा उपलब्ध कराना) भी जारी किया गया था, जो कुछ नई दवाओं की क़ीमतों को अन्य विकसित देशों की तुलना में स्थिर बनाती हैं. कुछ दवा निर्माताओं ने निस्संदेह अमेरिकी उपभोक्ताओं के लिए कम क़ीमतों पर दवाइयां उपलब्ध कराने वाली योजनाएं लागू की हैं, जिनसे मरीजों को थोड़े समय के लिए राहत मिल सकती है, लेकिन लंबी अवधि में, इस मूल्य नियंत्रण से कंपनियों का लाभ प्रभावित हो सकता है, जिससे अनुसंधान और विकास (R&D) में निवेश घटने, दवाओं में किए जाने वाले नवाचार के धीमा होने और अमेरिका में दवा-निर्माण की कंपनियों की योजनाएं प्रभावित होने का ख़तरा है.
पिछले दिनों में एक कार्यकारी आदेश (अमेरिकी मरीज़ों के लिए सर्वाधिक पसंदीदा राष्ट्र (MFN) की तरह कम क़ीमतों में दवा उपलब्ध कराना) भी जारी किया गया था, जो कुछ नई दवाओं की क़ीमतों को अन्य विकसित देशों की तुलना में स्थिर बनाती हैं.
ट्रंप प्रशासन द्वारा फार्मा टैरिफ़ और MFN मूल्य निर्धारण की घोषणा करने के बाद से इस क्षेत्र के कई प्रमुख खिलाड़ियों ने अपनी अमेरिकी इकाइयों के विस्तार के लिए भारी निवेश करना शुरू कर दिया है. वैश्विक दवा उद्योगपतियों ने अमेरिका में अपनी औद्योगिक क्षमता को मज़बूत करने के लिए अगले पांच वर्षों में लगभग 320 अरब डॉलर के निवेश की योजना बनाई है. एली लिली इस साल की शुरुआत में ही पूरे अमेरिका में दवा-निर्माण को बढ़ावा देने के लिए 27 अरब डॉलर के निवेश और टेक्सास में ओरल दवाओं के लिए 6.5 अरब डॉलर मूल्य की एक एक्टिव फार्मास्युटिकल इंग्रीडिएंट (API) कंपनी स्थापित करने का एलान कर चुकी है. छोटे अणुओं और जैविक पदार्थों जैसी अगली पीढ़ी की चिकित्सा के विकास को आगे बढ़ाने के अलावा, उसका यह कदम वैज्ञानिकों, इंजीनियरों, शोध करने वाले तकनीशियनों और कामगार श्रमिकों सहित उच्च कुशल कामगारों के लिए नए रोज़गार पैदा करेगा. कंपनी की वजन घटाने वाली दवा- ऑर्फोर्ग्लिप्रोन- ने तीसरे चरण की क्लिनिकल ट्रायल को सफलतापूर्वक पूरा कर लिया है और FDA की मंजूरी मिलने पर संभवतः नए प्लांट में इसका निर्माण शुरू भी कर दिया जाएगा. इसके अलावा, एस्ट्राजेनेका और रोश ने 50-50 अरब डॉलर निवेश का वायदा किया है, जॉनसन ऐंड जॉनसन ने 5 अरब डॉलर की घोषणा की है, और सनोफी व नोवार्टिस ने अपनी अमेरिकी इकाइयों में 20-20 अबर डॉलर निवेश की बातें कही हैं.
अमेरिका की हालिया व्यापार शर्तों के बाद भारत का दवा क्षेत्र गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहा है. सन फार्मा पेटेंट दवाओं से अच्छी-ख़ासी बिक्री करती है और वित्त वर्ष 2025 में इसके 1.2 अरब डॉलर की बिक्री का अनुमान है. इनमें करीब 90 प्रतिशत का योगदान अमेरिकी बाज़ारों का है. हालांकि, जेनेरिक दवाओं पर 100 प्रतिशत टैरिफ़ लागू नहीं है, लेकिन भविष्य में यदि जेनेरिक और बायोसिमिलर दवाओं पर भी टैरिफ़ लगाया जाता है, तो भारत पर उसका बुरा प्रभाव पड़ सकता है, क्योंकि भारतीय कंपनियां अमेरिका में करीब 40 प्रतिशत जेनेरिक दवाओं की आपूर्ति करती हैं. इसके अलावा, चिकित्सा उपकरणों को भी अब धारा 232 की जांच में शामिल कर लिया गया है, जिस कारण पहले से ही 50 प्रतिशत शुल्क की मार झेल रहे चिकित्सा उपकरण के भारतीय निर्यातक (वित्त वर्ष 2024 में उन्होंने करीब 30 करोड़ डॉलर का निर्यात अमेरिका में किया था) आने वाले दिनों में अतिरिक्त शुल्क देने को मजबूर किए जा सकते हैं.
हालांकि, भारतीय कंपनियों ने अमेरिका में अपनी मौजूदगी बढ़ाकर टैरिफ़ जोखिमों से बचने का प्रयास शुरू कर दिया है. उदाहरण के लिए, ज़ाइडस लाइफसाइंसेज ने हाल ही में एजेनस इंक. के मैन्युफैक्चरिंग प्लांट का अधिग्रहण किया है, जिससे यह बायोलॉजिक्स CDMO कारोबार करने वाली एक वैश्विक कंपनी बन गई है. इसी तरह, सिंजिन इंटरनेशनल ने मोनोक्लोनल एंटीबॉडी उत्पादन के लिए अपना पहला अमेरिकी बायोलॉजिक्स प्लांट खरीदा है, जबकि सन फार्मा ने चेकप्वाइंट थेरेप्यूटिक्स का अधिग्रहण किया है, जिससे उसे FDA से अनुमति प्राप्त कैंसर दवा भी मिल गई है. हालांकि, चिंता की बात यह है कि टैरिफ़ के कारण कंपनियां मूल्य श्रृंखला से जुड़ी गतिविधियों में कदम आगे बढ़ाने से पीछे हट सकती हैं, क्योंकि इससे नवाचार की आवश्यकता वाले क्षेत्रों में अनुसंधान और विकास का काम बाधित हो सकता है, जिससे मूल्य-वर्धित उत्पादन प्रभावित होगा और औद्योगिक विकास व रोज़गार में कमी आ सकती है.
इसी तरह, इस टैरिफ़ तनाव ने भारत की कारोबार नीति में हलचल मचा दी है. पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र महासभा के दौरान BRICS के विदेश मंत्रियों की हुई बैठक में, भारत सहित कई नेताओं ने बहुपक्षीय व्यापार करने वाले निकायों में तत्काल सुधार का आह्वान किया था और इस बात पर ज़ोर दिया था कि कैसे टैरिफ़ से पैदा होने वाली रुकावटें दवाओं की एकसमान पहुंच को रोकती हैं व उभरती अर्थव्यवस्थाओं पर ढांचागत दबाव पैदा करती हैं. वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल के नेतृत्व में वाशिंगटन के साथ हुई नई दिल्ली की हालिया व्यापार वार्ता में भारत द्वारा रूसी तेल ख़रीदने पर अमेरिकी आपत्ति के बाद भारतीय पक्षकारों ने भारतीय उत्पादों पर टैरिफ़ को 25 प्रतिशत से नीचे लाने पर ज़ोर दिया. इस साल के अंत में यह वार्ता फिर से शुरू होगी, जिसमें दवा टैरिफ़ और एच-1बी वीजा प्रमुख चिंताओं के रूप में वार्ता-मेज पर रखे जाएंगे. यूरोपीय संघ-अमेरिका संधि की तरह ही भारत कोई समझौता करना चाहेगा, जिसमें दवा उत्पादों के लिए टैरिफ़ सीमा तय हो या उसे छूट मिले. जैसे-जैसे भारत व्यापार की जटिलताओं और भू-राजनीतिक हलचलों से सफलतापूर्वक निपट रहा है, जिसमें अमेरिका के साथ उसके रणनीतिक जुड़ाव का मसला भी शामिल है, उसे अपने बाज़ार-पहुंच की रक्षा करने, आपूर्ति श्रृंखला को अनुकूल बनाने और सस्ती दवाओं में अपनी वैश्विक भूमिका को मज़बूत बनाने के लिए व्यापार वार्ताओं का लाभ उठाना चाहिए. अमेरिका ही नहीं, अफ्रीका, एशिया व लैटिन अमेरिका की उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए जेनेरिक दवाओं और बायोसिमिलर का निरंतर उत्पादन सुनिश्चित करना वैश्विक स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण है. यह नवाचार को बनाए रखने और अंतरराष्ट्रीय दवा व्यापार में एक भरोसेमंद भागीदार के रूप में भारत की स्थिति को भी मज़बूत बनाने में भी मददगार होगा.
भारत के लिए यह मौका है कि वह अमेरिकी बाज़ार के साथ जुड़ाव को गहरा बनाने और बहुपक्षीय व्यापार निकायों में सुधार की वकालत के बीच एक संतुलन बनाए. यहां भारत की दोहरी भूमिका है- वह उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के लिए महत्वपूर्ण आपूर्तिकर्ता भी है और उभरते बाज़ार के लिए एकसमान पहुंच का समर्थक भी
ब्रांडेड और पेटेंट दवाओं पर 100 प्रतिशत टैरिफ़ लगाने की अमेरिका की घोषणा उसकी व्यापार नीति में एक महत्वपूर्ण बदलाव का प्रतीक है, जिसका वैश्विक स्वास्थ्य, नवाचार और आपूर्ति शृंखला पर प्रभाव पड़ेगा. हालांकि, इस नीति का उद्देश्य स्थानीय स्तर पर उत्पादन को बढ़ावा देना और अमेरिकी दवाओं की लागत को कम करना है, लेकिन इन प्रस्तावित उपायों से दवाओं की क़ीमतों के बढ़ने, नवाचार में कमी आने और वैश्विक दवा व्यापार में रुकावट पैदा होने का ख़तरा है. ऐसे में, भारत के लिए यह मौका है कि वह अमेरिकी बाज़ार के साथ जुड़ाव को गहरा बनाने और बहुपक्षीय व्यापार निकायों में सुधार की वकालत के बीच एक संतुलन बनाए. यहां भारत की दोहरी भूमिका है- वह उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के लिए महत्वपूर्ण आपूर्तिकर्ता भी है और उभरते बाज़ार के लिए एकसमान पहुंच का समर्थक भी. इसलिए, अपनी इस दोहरी भूमिका को वह कितनी कुशलता से निभाता है, वह न केवल उसके दवा क्षेत्र को, बल्कि उसके व्यापक भू-राजनीतिक प्रभाव को भी आकार देगा.
(लक्ष्मी रामकृष्णन आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में हेल्थ इनिशिएटिव की एसोसिएट फेलो हैं)
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Lakshmy is an Associate Fellow with ORF’s Centre for New Economic Diplomacy. Her work focuses on the intersection of biotechnology, health, and international relations, with a ...
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