Author : Soumya Bhowmick

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Published on Sep 08, 2025 Updated 0 Hours ago

बढ़ते अमेरिकी टैरिफ़ और वैश्विक व्यापार की बदलती दिशा के बीच, भारत और अफ़्रीका अपनी साझेदारी को बेहतर बनाने में जुटे हैं. अब यह रिश्ता सहायता और प्राकृतिक संसाधनों के निष्कर्षण तक सिमटा नहीं रह गया है, बल्कि औद्योगिक सहयोग, संतुलित आपूर्ति शृंखला और भू-आर्थिक प्रभाव की दिशा में बढ़ रहा है.

टैरिफ़, व्यापार और बदलाव: वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला को नया आकार देते भारत-अफ़्रीका संबंध

Image Source: गेटी

इन दिनों वैश्विक व्यापार व्यवस्था में उथल-पुथल मची हुई है. बढ़ते संरक्षणवाद, तेज़ होती अमेरिका-चीन प्रतिस्पर्धा और क्षेत्रीय व्यापार व निवेश समूहों के उभार का इस पर खूब असर पड़ रहा है. भारत के लिए यह नई परिस्थिति दक्षिण-दक्षिण सहयोग बढ़ाने, आपूर्ति-श्रृंखला में बदलाव लाने और भू-आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करने का अवसर बन सकती है. अफ़्रीका इसका नया केंद्र बन गया है. वह न सिर्फ़ हमारे लिए उपभोक्ता बाज़ार बढ़ा रहा है, बल्कि व्यापार व निवेश संबंधों को और गहरा भी बना रहा है.

भारत और अफ़्रीका के बीच 2011–12 में भारत और अफ़्रीका के बीच व्यापार 68.5 अरब डॉलर का था, जो 2023-24 में बढ़कर 83.34 अरब डॉलर का हो चुका है. इस तरह से यूरोपीय संघ और चीन के बाद अफ़्रीका हमारा तीसरा सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार बन गया है. व्यापार के अलावा, अफ़्रीका को कर्ज़ देने वाले देशों में भारत का स्थान दूसरा है, और अफ़्रीकी विकास बैंक (AfDB) के माध्यम से नई दिल्ली की अधिकांश सहायता वहां पहुंच रही है. अप्रैल 2010 से लेकर मार्च 2023 तक अफ़्रीका में भारत का कुल निवेश 65.8 अरब डॉलर का रहा, और मिस्र, नाइजीरिया, इथियोपिया व घाना जैसे देशों में भारत ने पर्याप्त निवेश किया. भारत का लक्ष्य साल 2030 तक अफ़्रीका में अपने निवेश को 150 अरब डॉलर तक पहुंचाने का है, जो आपसी साझेदारी में रणनीति व विकास को दिए जा रहे महत्व का संकेत है.

तालिका 1- अफ़्रीका में क्षेत्रवार भारतीय निवेश

Tariffs Trade And Transformation India Africa Rewiring Global Supply Chains

अफ़्रीका में भारत की आर्थिक उपस्थिति जिस तेज़ी से बढ़ती जा रही है, उससे अफ़्रीका विकास और अवसर अधिनियम (AGOA) के माध्यम से अमेरिकी बाज़ारों तक पहुंचने की अफ़्रीका की आकांक्षा और अफ़्रीकी महाद्वीपीय मुक्त व्यापार क्षेत्र (AfCFTA) के मक़सद को पूरा करने का एक विकल्प भारत बन गया है. इस रिश्ते में अच्छी बात यह भी है कि अफ़्रीका को केवल सहायता पाने वाला या कच्चे माल का आपूर्तिकर्ता नहीं माना जाता है, बल्कि उसे औद्योगिक व आर्थिक बदलाव में रणनीतिक साझेदार का दर्जा दिया गया है. इसी पृष्ठभूमि में, और वाशिंगटन के संरक्षणवादी रुख़ (ख़ास तौर से टैरिफ़ वृद्धि) के कारण भारत-अफ़्रीका संबंध अब औद्योगिक व भू-रणनीतिक साझेदारी की ओर तेज़ी से बढ़ चला है, जिसका विश्व व्यवस्था पर लंबे समय तक असर पड़ सकता है.

अप्रैल 2010 से लेकर मार्च 2023 तक अफ़्रीका में भारत का कुल निवेश 65.8 अरब डॉलर का रहा, और मिस्र, नाइजीरिया, इथियोपिया व घाना जैसे देशों में भारत ने पर्याप्त निवेश किया. भारत का लक्ष्य साल 2030 तक अफ़्रीका में अपने निवेश को 150 अरब डॉलर तक पहुंचाने का है, जो आपसी साझेदारी में रणनीति व विकास को दिए जा रहे महत्व का संकेत है.

जेनेरिक से गीगाबाइट तक: अफ़्रीका में भारत के लिए नए अवसर

अमेरिका की टैरिफ़ मार ने भारतीय कंपनियों के लिए अफ़्रीका में कई क्षेत्रों में नए अवसर पैदा किए हैं. वे यहां अपने विनिर्माण और परिचालन आधार का विस्तार कर सकते हैं. इनमें सबसे प्रमुख है- फार्मास्युटिकल क्षेत्र, क्योंकि अफ़्रीका सस्ती और विश्वसनीय दवा उत्पादन की कमी से लगातार जूझ रहा है. जेनेरिक दवा के निर्माण में भारत की कंपनियां पहले से ही विश्व में सबसे आगे हैं. वे अफ़्रीका की स्वास्थ्य सेवा से जुड़ी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पूरी तरह तैयार हैं, साथ ही उनको ऐसे नियामक ढांचों से भी फ़ायदा मिल रहा है, जो दक्षिण-दक्षिण साझेदारी को बढ़ावा दे रहे हैं. यह कारोबारी और विकास-संबंधी, दोनों ही ज़रूरतों से मेल खाता है, जिससे फार्मास्युटिकल्स भारत की अफ़्रीका रणनीति का महत्वपूर्ण आधार बनता दिख रहा है.

इसी तरह, कपड़ा और ऑटोमोबाइल क्षेत्र में भी बड़े अवसर दिख रहे हैं, विशेष रूप से AGOA द्वारा अमेरिकी बाज़ारों में कुछ अफ़्रीकी देशों की पहुंच को देखते हुए. अफ़्रीका में विनिर्माण केंद्र बनाकर, भारतीय कंपनियां अपनी तकनीकी विशेषज्ञता और स्थानीय स्तर पर उपलब्ध सस्ती लागत का लाभ उठा सकती हैं, साथ ही, अमेरिका को सीधे निर्यात करने पर जो टैरिफ़ बाधाएं आने वाली हैं, उनको नाकाम कर सकती हैं. सूचना प्रौद्योगिकी और दूरसंचार क्षेत्र भी अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्र हो सकते हैं, जिनको अफ़्रीका में तेज़ी से हो रहे डिजिटल बदलाव से जोड़ा जा सकता है. भारतीय कंपनियां डेटा सेंटर, सॉफ़्टवेयर विकास केंद्र और दूरसंचार से जुड़े बुनियादी ढांचों को बनाने में अहम भागीदारी निभा सकती हैं, जिससे अफ़्रीका के विकास और कंपनियों के वैश्विक संचालन, दोनों में मदद मिल सकती है.

रुकावटों को प्रवेश द्वार बनाना- भारत का रणनीतिक सेतु बनता अफ़्रीका

अमेरिकी टैरिफ़ के बढ़ने (चीन और भारत, दोनों पर सबसे ज़्यादा) से बाज़ारों के विस्तार का एक ख़ास त्रिकोणीय अवसर पैदा होता है, जिसका भारतीय कंपनियां फ़ायदा उठाने के लिए तैयार हैं. चीनी आयातों पर सीमा शुल्क, जो 2025 की शुरुआत में 145 प्रतिशत तक बढ़ गया था, मई की शुरुआत में हुई वार्ता के बाद करीब 30 प्रतिशत तक कम हो गया, लेकिन जिस सीमा तक यह चला गया था, वह बताता है कि सभी क्षेत्रों पर संरक्षणवाद का ख़तरा मौजूद है. 

 भारतीय कंपनियां डेटा सेंटर, सॉफ़्टवेयर विकास केंद्र और दूरसंचार से जुड़े बुनियादी ढांचों को बनाने में अहम भागीदारी निभा सकती हैं, जिससे अफ़्रीका के विकास और कंपनियों के वैश्विक संचालन, दोनों में मदद मिल सकती है.

इसी तरह, भारतीय वस्तुओं पर भी अमेरिकी टैरिफ़ तेज़ी से बढ़ाए गए हैं- साल 2025 की शुरुआत में 25 प्रतिशत का ‘पारस्परिक’ शुल्क लगाया गया था, जिसके बाद रूस से तेल ख़रीदने के कारण 25 प्रतिशत का अतिरिक्त जुर्माना लगाया गया, जिससे अगस्त के अंत तक कुल टैरिफ़ 50 प्रतिशत का हो गया है. ऐसे में, AGOA जैसी व्यवस्थाओं के कारण अमेरिकी बाज़ारों तक अफ़्रीका की पहुंच को देखते हुए, और उसके खुद के बढ़ते उपभोक्ता बाज़ार का ख़ास रणनीतिक महत्व हो जाता है. भारतीय कंपनियों को इस महाद्वीप पर विनिर्माण केंद्र बनाने से दोहरा लाभ मिल सकता है- पहला, अधिक अनुकूल टैरिफ़ के तहत वे अमेरिकी बाज़ारों तक पहुंच सकती हैं, और दूसरा, अफ़्रीका की बढ़ती घरेलू मांग का लाभ उठा सकती हैं.

अमेरिकी ‘फ्रेंड-शोरिंग’ नीति भी इसमें मददगार बन सकती है. इस नीति में कथित दुश्मन देशों (जैसे चीन) से आपूर्ति श्रृंखला हटाकर उन देशों में विकसित की जाती है, जो राजनीतिक रूप से अमेरिका से जुड़े हुए हैं. अफ़्रीकी देश, जिनमें से कई भारत और अमेरिका, दोनों के साथ मज़बूत संबंध रखते हैं, तटस्थ और विश्वसनीय विनिर्माण केंद्र के रूप में काम करते हैं. वहां भारतीय निवेश व तकनीकी क्षमता का लाभ उठाया जा सकता है और आपूर्ति श्रृंखला से जुड़ी अमेरिकी चिंताओं का समाधान निकाला जा सकता है. AfCFTA से हमारा फ़ायदा और बढ़ सकता है, क्योंकि इससे अफ़्रीका के 1.4 अरब से ज़्यादा लोगों का बाज़ार आपस में जुड़ जाता है, और भारतीय कंपनियां किसी एक देश में निवेश करने जैसी समस्याओं में न उलझते हुए पूरे अफ़्रीका महाद्वीप में अपना विस्तार कर सकती हैं. इस तरह से यह पूरी परिस्थिति भू-आर्थिक बदलाव का भी संकेत है, और इसमें आपसी रिश्ता भारत-अफ़्रीका व्यापार के पारंपरिक ‘निष्कर्षण’ मॉडल से कहीं ऊपर उठकर वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला के साथ तालमेल बिठाते हुए एक समृद्ध सहयोग में बदलता दिखता है.

कर छूट, ब्रिक्स और उससे भी आगे- भारत व अफ़्रीका संबंधों के विस्तार को गति देने वाले ढांचे   

अफ़्रीका के नीतिगत ढांचे और बहुपक्षीय तालमेल भारतीय कंपनियों को अपना दायरा बढ़ाने के लिए और अधिक प्रोत्साहित कर रहे हैं. बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाने के प्रयासों से भारतीय कंपनियां वहां जा सकती हैं. पूरे महाद्वीप की सरकारें विनिर्माण और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण में विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए कर में छूट, भूमि में रियायत, और नियामक प्रोत्साहन देने का प्रयास कर रही हैं. नाइजीरिया इसका बड़ा उदाहरण है, जो शासन और बुनियादी ढांचे की चुनौतियों के बावजूद कम श्रम लागत व अनुकूल कर ढांचा उपलब्ध कराकर खुद को एक क्षेत्रीय प्रवेश-द्वार के रूप में पेश कर रहा है.

भारत और अफ़्रीका के बीच व्यापारिक विकास वैश्विक आर्थिक भूगोल को नया आकार दे रहा है, जिसमें ‘ग्लोबल साउथ’ (वैश्विक दक्षिण) किसी सहायक की भूमिका में नहीं, बल्कि औद्योगिक सह-निर्माण और रणनीतिक संपर्क के एक प्रमुख क्षेत्र के रूप में स्थापित होता दिखता है.

इन अवसरों को बहुपक्षीय ढांचों से मज़बूती मिलती है. मिस्र और इथियोपिया को शामिल करके ब्रिक्स का विस्तार करने से संस्थागत सहयोग और गहरा हो जाता है. इससे भारतीय कंपनियों के लिए पूंजी जुटाना, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण समझौते करना और राजनयिक समर्थन हासिल करना आसान हो जाता है. ब्रिक्स के भीतर रूसी साझेदारी से संयुक्त उद्यमों को आगे बढ़ाने में मदद मिलती है, ख़ास तौर से फार्मास्यूटिकल्स, वैज्ञानिक उपकरणों और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में.

इसके साथ ही, अफ़्रीकी बाज़ारों में नियम संबंधी तालमेल से (जिनमें दवाइयां, दूरसंचार और आर्थिक सेवाएं शामिल हैं), कारोबारी लागत कम हो रही है और पूरे अफ़्रीका को लेकर रणनीतियां कहीं अधिक व्यावहारिक बन पा रही हैं. अफ़्रीकी विकास बैंक, ब्रिक्स न्यू डेवलपमेंट बैंक और भारत की विकास एजेंसियां सहित विकास से जुड़े सभी आर्थिक संस्थान भी स्थिरता और स्थानीय भागीदारी से जुड़ी पूंजीगत और तकनीकी मदद मुहैया करा रहे हैं. समग्रता में देखें, तो इन प्रयासों से भारतीय कंपनियों के लिए अफ़्रीका विनिर्माण केंद्र और उपभोक्ता बाज़ार, दोनों रूपों में उभर रहा है, और व्यापक भू-आर्थिक ढांचों में भीतर नई औद्योगिक साझेदारियां विकसित होने लगी हैं.

कुल मिलाकर, समृद्ध आपूर्ति श्रृंखला बनाने और निर्यात मार्गों में विविधता लाने की भारत की रणनीति का केंद्र अफ़्रीका बनता जा रहा है. अमेरिकी टैरिफ़ की राजनीति, महाद्वीपीय एकजुटता और बहुध्रुवीय संस्थागत ढांचों के हिसाब से अफ़्रीका ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां से भारत न केवल अपने भू-आर्थिक हितों की रक्षा कर सकता है, बल्कि अफ़्रीका के औद्योगिक बदलाव में अपना योगदान दे सकता है. इस प्रकार, भारत और अफ़्रीका के बीच व्यापारिक विकास वैश्विक आर्थिक भूगोल को नया आकार दे रहा है, जिसमें ‘ग्लोबल साउथ’ (वैश्विक दक्षिण) किसी सहायक की भूमिका में नहीं, बल्कि औद्योगिक सह-निर्माण और रणनीतिक संपर्क के एक प्रमुख क्षेत्र के रूप में स्थापित होता दिखता है.


(सौम्या भौमिक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक डिप्लोमेसी (CNED) में वर्ल्ड इकोनॉमीज ऐंड सस्टैनबिलिटी के प्रमुख और फेलो हैं)

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Soumya Bhowmick

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Soumya Bhowmick is a Fellow and Lead, World Economies and Sustainability at the Centre for New Economic Diplomacy (CNED) at Observer Research Foundation (ORF). He ...

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