Author : Sameer Patil

Published on Sep 01, 2022 Updated 25 Days ago

अमेरिकी फ़ौज और CIA बार-बार आतंकी आकाओं को निशाना बना रहे हैं. ऐसे में एक बुनियादी सवाल खड़ा होता है कि क्या OTH के ज़रिए आतंकनिरोधी गतिविधियों को अंजाम देने की क़ाबिलियत से आतंकी गतिविधियों का सचमुच ख़ात्मा हो सकता है.

अयमान अल-ज़वाहिरी के अंत से सुर्ख़ियों में आयी अमेरिका की ‘ओवर द होराइज़न’ आतंक-निरोधी रणनीति!

1 अगस्त 2022 को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (CIA) द्वारा काबुल में अंजाम दिए गए ड्रोन हमले में अल-क़ायदा प्रमुख अयमान अल-ज़वाहिरी के मारे जाने का ऐलान  किया. इस वाक़ये से अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा प्रतिष्ठान की ‘ओवर द हॉराइज़न’ (OTH) क्षमता का इज़हार हुआ. 2021 में अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सुरक्षा बलों की वापसी के बाद इस तरह की क्षमता के दावे किए जा रहे थे. इस लेख में OTH क्षमता के क्रियाकलापों का ब्योरा दिया गया है. इसके अलावा आतंकनिरोधी उपायों के रूप में इस व्यवस्था के अमल के रास्ते की भारी-भरकम चुनौतियों की भी पड़ताल की गई है. 

इस लेख में OTH क्षमता के क्रियाकलापों का ब्योरा दिया गया है. इसके अलावा आतंकनिरोधी उपायों के रूप में इस व्यवस्था के अमल के रास्ते की भारी-भरकम चुनौतियों की भी पड़ताल की गई है. 

अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी बलों की वापसी के बाद अल-क़ायदा समेत तमाम आतंकी संगठनों को रोक पाने में अमेरिकी क्षमताओं को लेकर चिंता जताई जाने लगी थी. 8 जुलाई 2021 को राष्ट्रपति बाइडेन ने कहा था– “हमलोग क्षितिज के ऊपर से आतंकनिरोधी क्षमता तैयार कर रहे हैं, जिससे इस इलाक़े से अमेरिका के लिए सीधे तौर पर पैदा होने वाले ख़तरों पर हमारी बारीक़ निग़ाह बनी रहेगी. इस तरह हम ज़रूरत पड़ने पर तेज़ी के साथ और निर्णायक रूप से क़दम उठा सकेंगे.” शुरुआत में ऐसी अटकलें लगाई जा रही थीं कि इस नई प्रणाली के तहत अफ़ग़ान सुरक्षा बलों को तालिबानी आक्रामकता को कुचलने में मदद के तौर पर हवाई मदद दी जाएगी. साथ ही इसी व्यवस्था से अल-क़ायदा समेत तमाम आतंकी संगठनों के लड़ाकों से निपटा जाएगा. 

बहरहाल काबुल की ओर बढ़ते तालिबानियों के सामने अफ़ग़ानी प्रतिरोध पस्त पड़ गया. इसके बाद अमेरिकी अधिकारियों ने OTH से जुड़े रुख़ को नया रूप दे दिया. अब OTH को ज़मीनी तौर पर मदद पहुंचाए बिना एकाकी रूप से अंजाम दिए जाने वाले ड्रोन हमलों के तौर पर परिभाषित किया गया. काबुल पर तालिबानी क़ब्ज़े के चंद हफ़्तों बाद राष्ट्रपति बाइडेन ने OTH क्षमता का मतलब समझाया– “ज़मीन पर अमेरिकी सैनिकों की तैनाती के बिना (या ज़रूरत पड़ने पर बेहद कम तादाद में) आतंकियों और आतंकी अड्डों को निशाना बनाना.”

अमेरिका वर्षों तक सोमालिया, सीरिया, लीबिया, इराक़ और यमन जैसे ठिकानों में अल-क़ायदा लड़ाकों को निशाना बनाने के लिए OTH क्षमता का उपयोग करता रहा है. मिसाल के तौर पर मार्च 2017 में CIA ने सीरिया के इदलीब प्रांत में एक हवाई हमले के ज़रिए अल-क़ायदा के उप नेता अबु अल-ख़ैर अल-मसरी को मार गिराया था. 

OTH क्षमता के मुख्य घटक हैं:

  • ड्रोन या मानवरहित हवाई यान: आमतौर पर अमेरिका हमलों को अंजाम देने के लिए MQ-1 प्रीडेटर (मारक क्षमता: 770 मील) और उसके और ज़्यादा ताक़तवर संस्करण MQ-9 रीपर (मारक क्षमता: 1150 मील) जैसे हथियारबंद ड्रोन्स की तैनाती करता रहा है. इन्हें सैन्य अड्डों या समुद्री जहाज़ों से लॉन्च किया जा सकता है. 
  • मिसाइल: अमेरिकी फ़ौज हमलों के लिए AGM-114 हेलफ़ायर मिसाइलों का प्रयोग करती रही है. इसमें बारीक़ी से निशाना बनाने वाली, सेमी-एक्टिव लेज़र संचालित मिसाइल हेलफ़ायर II शामिल हैं. मीडिया रिपोर्ट्स में हेलफ़ायर मिसाइलों के नए संस्करण के विकास की बात भी सामने आई है. R9X नाम की इस मिसाइल में कोई विस्फोटक नहीं होता. दरअसल ये लक्ष्य के क़रीब पहुंचकर हमले के तौर पर छह बड़े ब्लेड्स बाहर फेंकते हैं. ख़बरों के मुताबिक ज़वाहिरी को निशाना बनाने में इसी मिसाइल का इस्तेमाल किया गया. इससे पहले 2017 में अल-मसरी को भी इसी मिसाइल से ढेर किया गया था. 
  • सेंसर्स, रेडार्स और ट्रैकिंग डिवाइस: अमेरिका भूतल पर स्थित (जहाज़ या ज़मीन पर या जुड़े हुए एयरोस्टैट्स में), हवाई (इंसान की मौजूदगी वाले या मानवरहित फ़िक्स्ड-विंग विमान) और स्पेस सैटेलाइट्स का इस्तेमाल करता है. 
  • ख़ुफ़िया जानकारियां जुटाना: तकनीकी, इलेक्ट्रॉनिक, ओपन सोर्स या इंसानी स्रोतों के ज़रिए इस काम को अंजाम दिया जाता है.

अफ़ग़ानिस्तान में OTH क्षमता के प्रयोग में अमेरिका के सामने 2 ख़ास चुनौतियां हैं: हवाई क्षेत्र में पहुंच और ज़मीन पर ख़ुफ़िया जानकारियों का संग्रह.

हवाई क्षेत्र में पहुंच  

अफ़ग़ानिस्तान के किसी भी पड़ोसी मुल्क में अमेरिका का सैन्य अड्डा नहीं है. ऐसे में अफ़ग़ानिस्तान के लक्ष्यों को निशाना बनाने से जुड़ी OTH क्षमता के सामने अफ़ग़ान वायुक्षेत्र में पहुंच से जुड़ी दिक़्क़त सबसे बड़ी रुकावट है. 

ख़ैबर पख़्तूनख़्वा प्रांत में छिपे अल-क़ायदा और तालिबानी कमांडरों को निशाना बनाने के लिए अमेरिका सालों तक पाकिस्तानी हवाई ठिकानों से ड्रोन का संचालन करता रहा. बहरहाल पाकिस्तान के साथ द्विपक्षीय रिश्तों में गिरावट के साथ-साथ अमेरिका-पाकिस्तान के बीच आतंक-निरोधी सहयोग का स्तर भी गिर गया. पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान की अगुवाई वाली पाकिस्तानी सरकार ने साफ़ कर दिया था कि वो अमेरिका को कभी भी पाकिस्तानी अड्डे इस्तेमाल करने की इजाज़त नहीं देंगे. अफ़ग़ानिस्तान के दो और पड़ोसियों- चीन और ईरान- से मदद मिलने के बारे में अमेरिका सोच भी नहीं सकता. 

पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान की अगुवाई वाली पाकिस्तानी सरकार ने साफ़ कर दिया था कि वो अमेरिका को कभी भी पाकिस्तानी अड्डे इस्तेमाल करने की इजाज़त नहीं देंगे. अफ़ग़ानिस्तान के दो और पड़ोसियों- चीन और ईरान- से मदद मिलने के बारे में अमेरिका सोच भी नहीं सकता.

2000 के दशक की शुरुआत में उज़्बेकिस्तान और किर्गिस्तान के अड्डों तक अमेरिका की पहुंच थी. बहरहाल मध्य एशिया में अमेरिका का प्रभाव बढ़ने की आशंका से रूस और चीन ने दोनों ही देशों पर अमेरिका को दी गई पहुंच ख़त्म करने का दबाव डाला. अफ़ग़ानिस्तान से वापसी के वक़्त अमेरिका ने अफ़ग़ान सरज़मी से अपनी सैन्य परिसंपत्तियों के एक हिस्से को उज़्बेकिस्तान और किर्गिस्तान में दोबारा तैनात करने की जुगत लगाई थी. हालांकि ये क़वायद कामयाब सिरे नहीं चढ़ पाई. 

अफ़ग़ानिस्तान से सटे इलाक़ों को छोड़ दें तो खाड़ी में अमेरिका के कई सैन्य अड्डे हैं. क़तर का अल उदीद एयरबेस इनमें सबसे बड़ा है. यहां अमेरिकी वायु सेना की परिसंपत्तियां बड़ी तादाद में मौजूद हैं. इनमें हथियारबंद ड्रोन भी शामिल हैं. अटकलें हैं कि ज़वाहिरी को निशाना बनाकर किए गए हमले में अमेरिका ने या तो पाकिस्तान के भीतर के किसी अड्डे या खाड़ी में मौजूद अमेरिकी सैन्य अड्डे का इस्तेमाल किया है. साथ ही काबुल तक पहुंचने के लिए पाकिस्तानी हवाई सीमा का उपयोग किया गया. 

रीपर जैसे ड्रोन लंबी दूरी तय कर ऐसे हमलों को अंजाम दे सकते हैं. इस तरह वो अपने मिशन का दो-तिहाई हिस्सा अफ़ग़ानिस्तान तक की उड़ान भरने और वहां से बाहर निकलने में बिता सकते हैं. ऑपरेशन की कामयाबी के लिए ख़तरे की पहचान और लक्ष्य का जुड़ाव ज़रूरी होता है. ऐसे में कुछ विशेषज्ञों की दलील है कि इतनी लंबी दूरी तय करने से मिशन के कारगर होने के रास्ते में बाधाएं खड़ी हो सकती हैं. अफ़ग़ानिस्तान में ड्रोन हमलों को अंजाम देने में ‘दूरी के चलते पैदा समस्याओं’ से निपटने के लिए हिंद महासागर में तैनात अमेरिकी नौसेना के विमानवाहक पोतों का उपयोग करने के सुझाव भी दिए गए हैं. 

ख़ुफ़िया जानकारियों का जुगाड़

अमेरिका ने बारीक़ी से लक्ष्य साधकर किए जाने वाले हमलों की अपनी क्षमताओं को उन्नत बनाया है. नागरिक आबादी को हताहत होने से बचाने के लिए ख़ासतौर से R9X मिसाइलों का विकास किया गया है. बहरहाल ड्रोन हमले की कामयाबी सही लक्ष्य के पहचान पर निर्भर करती है, जो ख़ुफ़िया जानकारियों के इकट्ठा होने से हासिल होती है. ऐसी सूचनाएं प्राथमिक रूप से इंसानी स्रोतों से जुटाई जाती हैं और बाद में इनका बारीक़ विश्लेषण किया जाता है. इंसानी ज़रियों से हासिल ख़ुफ़िया जानकारियां या HUMINT, ड्रोन्स और दूसरे हवाई माध्यमों के लिए बेहद अहम होती हैं. दरअसल इंसानी जानकारियों की मदद के बूते ही तकनीकी और इलेक्ट्रॉनिक स्रोतों से और ज़्यादा ख़ुफ़िया जानकारियां जुटाई जाती हैं. ज़वाहिरी जैसे बेशक़ीमती लक्ष्यों की तस्दीक़ के लिए “ज़िंदगी की बानगियों” की जानकारी ज़रूरी होती है. इस तरह की पहचान क़ायम करने के लिए ख़ुफ़िया तंत्र ऐसी सूचनाएं इकट्ठा करता है. 

अटकलें हैं कि ज़वाहिरी को निशाना बनाकर किए गए हमले में अमेरिका ने या तो पाकिस्तान के भीतर के किसी अड्डे या खाड़ी में मौजूद अमेरिकी सैन्य अड्डे का इस्तेमाल किया है. साथ ही काबुल तक पहुंचने के लिए पाकिस्तानी हवाई सीमा का उपयोग किया गया.

अफ़ग़ानिस्तान से वापसी के बाद वहां ज़मीनी स्तर पर अमेरिका की मौजूदगी ना के बराबर रह गई है. उसके पास भरोसेमंद स्थानीय साझीदार भी नहीं है. साथ ही सत्ता पर शत्रुतापूर्ण ताक़तों का क़ब्ज़ा है. ऐसे में संभावित आतंकी ख़तरों से जुड़ी ख़ुफ़िया जानकारियां इकट्ठा करना अमेरिका के लिए टेढ़ी खीर बन गया है. दरअसल फ़ौज की वापसी प्रक्रिया के दौरान अफ़ग़ानिस्तान में ड्रोन-आधारित ख़ुफ़िया जानकारियां इकट्ठा करने की अमेरिकी क्षमताओं के 90 फ़ीसदी हिस्से का नुक़सान हो गया था. वहां के सैन्य अधिकारी भी इस बात की तस्दीक़ करते हैं.

भरोसेमंद इंटेलिजेंस के अभाव में पहचान में ग़लतफ़हमियों की आशंकाएं बढ़ जाती हैं. निर्णय लेने वाले अधिकारी ख़तरे की विकटता और तात्कालिकता के साथ-साथ लक्ष्य की पहचान को लेकर अक्सर ग़लत नतीजों पर पहुंचने लगते हैं. खोटी ख़ुफ़िया जानकारियों के चलते पैदा जोख़िम 29 अगस्त 2021 को दिखाई दिए थे. उस दिन काबुल में एक अफ़ग़ान सहायताकर्मी अमेरिकी हमले का निशाना बन गया था. दरअसल अमेरिकी सैनिकों ने ग़लती से उसे इस्लामिक स्टेट का लड़ाका समझ लिया था. अमेरिकी हमले में 10 बेगुनाह नागरिकों की जान चली गई थी. ज़ाहिर है नामुनासिब ख़ुफ़िया जानकारियों के चलते पहचान में ग़लतफ़हमियों से जुड़ी समस्या को बारीक़ी से निशाना बनाने की क्षमता के ज़रिए भी दूर नहीं किया जा सकता.     

OTH पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता?

अमेरिकी फ़ौज और CIA बार-बार आतंकी आकाओं को निशाना बना रहे हैं. ऐसे में एक बुनियादी सवाल खड़ा होता है- क्या OTH के ज़रिए आतंकनिरोधी गतिविधियों को अंजाम देने की क़ाबिलियत से आतंकी गतिविधियों का सचमुच ख़ात्मा हो सकता है. कुछ लोगों का विचार है कि अमेरिका OTH क्षमता पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भर हो गया है. वो इसे आतंकनिरोधी रणनीति का प्रमुख औज़ार बनाने का विरोध करते हैं. उनकी दलील है कि बेशक़ीमती लक्ष्यों के ख़िलाफ़ महज़ ड्रोन हमलों से आख़िरी तौर पर मनचाहा नतीजा (अल-क़ायदा को निर्णायक रूप से कमज़ोर बनाने का) हासिल नहीं होगा. इसके लिए वो अतीत के रुझानों का हवाला देते हैं. अतीत में अमेरिकी फ़ौज नियमित रूप से अल-क़ायदा के आला नेताओं का ख़ात्मा कर संगठन की शिकस्त के दावे करती थी. इसके बावजूद अल-क़ायदा फलता-फूलता रहा. ये बात अलग है कि उसका भौगोलिक दायरा सीमित हो गया या उसकी हरकतें सिमट गईं!

भरोसेमंद इंटेलिजेंस के अभाव में पहचान में ग़लतफ़हमियों की आशंकाएं बढ़ जाती हैं. निर्णय लेने वाले अधिकारी ख़तरे की विकटता और तात्कालिकता के साथ-साथ लक्ष्य की पहचान को लेकर अक्सर ग़लत नतीजों पर पहुंचने लगते हैं.

ये एक जायज़ सवाल है. अफ़ग़ानिस्तान वो मुल्क है जहां अमेरिका सबसे लंबे वक़्त तक सैन्य कार्रवाइयों को अंजाम देता रहा. बहरहाल अमेरिकी नीति-निर्माता अब आतंकी संगठनों से जंग के लिए अपने सैनिकों की ज़मीनी तैनाती के विचार के ख़िलाफ़ हैं. वो अमेरिकी जानमाल के नुक़सान का जोख़िम नहीं उठाना चाहते. लिहाज़ा आतंक-निरोध की OTH क्षमता उनके लिए प्रासंगिक और पसंदीदा रणनीति बनी रहेगी. निश्चित रूप से स्वचालित प्रौद्योगिकी में विकास के साथ-साथ ड्रोन क्षमताएं आगे बढ़ती रहेंगी. इससे आने वाले दिनों में इनसे जुड़े जोख़िम घटते जाएंगे. 

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.