तीन दिन की अमेरिका यात्रा के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वापस भारत आ चुके हैं. यात्रा के दौरान क्वॉड की मीटिंग में जो तीन-चार बातें हुईं, उनमें सबसे महत्वपूर्ण वैक्सीन सप्लाई है. ऑकस के नाम से जो अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन में रक्षा समझौता हुआ है, उससे भी क्वॉड ने ख़ुद को यह कहते हुए अलग करने की कोशिश की कि यह कोई सिक्यॉरिटी प्लैटफॉर्म नहीं है.
वैक्सीन सप्लाई की जहां तक बात है तो एक अहम तथ्य यह है कि चीन की वैक्सीन दुनिया भर से वापस की जा रही हैं, यहां तक कि उत्तर कोरिया ने भी उन्हें वापस कर दिया है. इससे एक ऐसी खाई बन रही है जिसे क्वॉड पाट सकता है. लेकिन जब तक क्वॉड की बातें जमीन पर नहीं दिखेंगी, बाकी के देश उससे बहुत उम्मीद नहीं रखेंगे.
भारत को समर्थन
भारत ने साफ कहा है कि वह क्वॉड को सिक्योरिटी पार्टनरशिप नहीं मानता और मिलजुल कर काम करना चाहता है. क्वॉड के संयुक्त बयान में भी कहा गया है कि कैसे वह यूरोपियन यूनियन, कोरिया और आसियान के साथ काम कर सकता है. अगर चीन के प्रॉपेगैंडा को बाकी देश या यूरोपियन यूनियन मानने लगे, तो दिक्कत होगी. ऐसे में सवाल है कि क्या क्वॉड इसे काउंटर कर पाएगा? इसे काउंटर करने के लिहाज से क्वॉड में वैक्सीन सप्लाई, इन्फ्रास्ट्रक्चर पर तो बात हुई ही, तकनीक पर भी बात हुई, जिसमें दक्षिण कोरिया के साथ मिलकर सेमी कंडक्टर का उत्पादन बढ़ाने का प्रस्ताव है.
भारत ने अपने तीनों क्वॉड साझेदारों से यह बात की कि अगर आप चाहते हैं कि हम इंडो पैसिफिक (हिंद प्रशांत) में आपका साथ दें, तो आपको पश्चिमी मोर्चे पर हमारा साथ देना पड़ेगा.
भारत की तरफ से आतंकवाद को लेकर काफी महत्वपूर्ण बात की गई. दोनों देशों के संयुक्त बयान में पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के बारे में पहले के मुकाबले बहुत मज़बूत बात रखी गई है और यह भारत की पहल पर हुई है. भारत ने अपने तीनों क्वॉड साझेदारों से यह बात की कि अगर आप चाहते हैं कि हम इंडो पैसिफिक (हिंद प्रशांत) में आपका साथ दें, तो आपको पश्चिमी मोर्चे पर हमारा साथ देना पड़ेगा. इस बात को क्वॉड में समर्थन मिला है. लेकिन इस बारे में भी कुछ ठोस तभी दिखेगा, जब चीजें जमीन पर सामने आएंगी. क्वॉड की तरफ से कोई ऑपरेशनल एक्शन तो नहीं हो सकता. ऑपरेशनली जो होना है, वह द्विपक्षीय स्तर पर होना है. हालांकि मोदी और बाइडन के संयुक्त बयान में इस बात का जिक्र था और कमला हैरिस ने भी आतंकवाद का जिक्र किया.
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जब अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका की वापसी हुई थी, तब भारत में चिंता थी कि अब हम अकेले पड़ गए हैं. अमेरिका कह रहा है कि आप अकेले नहीं पड़े हैं, हम नजर और पाकिस्तान पर दबाव बनाए हुए हैं. यूएन असेंबली में प्रधानमंत्री ने भी साफ किया कि अफ़ग़ानिस्तान को मान्यता देने की कोई जल्दबाजी नहीं होनी चाहिए, वहां की सरकार समावेशी नहीं है. उनकी इन सारी बातों को माना गया है जिसका नतीजा यह है कि भारत के मित्र देश अभी तक तालिबान के साथ संबंध बनाने की जल्दबाजी में नहीं हैं. यह भारत के लिए अच्छा है, क्योंकि उसकी अभी तक कोशिश रही है कि तालिबानी सरकार को मान्यता ना मिले. ऐसे में भारत की पॉलिसी कई देशों की पॉलिसी बन चुकी है.
इस बीच अमेरिकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस के मानवाधिकार और लोकतंत्र से जुड़ी चिंताओं की भारत में काफी चर्चा हुई. लेकिन भारत और अमेरिका अब मच्योरिटी के उस लेवल पर पहुंच चुके हैं जहां आमने-सामने बैठकर अपनी-अपनी चुनौतियों के बारे में बात कर सकते हैं. पहले अक्सर कश्मीर का मुद्दा उठता था, मगर अब अमेरिका में यह मुद्दा उठता ही नहीं.
भारत के मित्र देश अभी तक तालिबान के साथ संबंध बनाने की जल्दबाजी में नहीं हैं. यह भारत के लिए अच्छा है, क्योंकि उसकी अभी तक कोशिश रही है कि तालिबानी सरकार को मान्यता ना मिले. ऐसे में भारत की पॉलिसी कई देशों की पॉलिसी बन चुकी है.
प्रधानमंत्री ने यूएन असेंबली में लोकतंत्र को बहुत बड़ी जरूरत बताया. अमेरिका ने यह मुद्दा इसलिए भी उठाया कि उसे अपने उन लोगों को जवाब देना होता है, जो इस तरह के वैचारिक मुद्दों को उठाने की बात करते रहे हैं. कमला हैरिस ने इन मुद्दों को उठाकर अपने देश के लोगों को संतुष्ट किया और प्रधानमंत्री मोदी ने यूएन में भारत को लोकतंत्र की जननी कहकर ज़वाब भी दे दिया.
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अब बात करते हैं कि इस यात्रा से अमेरिका को क्या मिला और भारत को क्या मिला? इंडो पैसिफिक में समान सोच वाले देशों को साथ लाने की चुनौती अमेरिका के सामने है. अब अमेरिका दिखा रहा है कि वह इंडो पैसिफिक में लगा हुआ है. अफ़ग़ानिस्तान के बाद अमेरिका पर सवाल उठ रहे हैं कि उसके वादे पर भरोसा कैसे किया जाए? अमेरिका ने क्वॉड मीटिंग करके दिखा दिया कि वह गंभीर है और ऑकस डील करके यह दिखाया कि वह इस इलाके से पीछे नहीं हट रहा है. अमेरिका के सामने फिलहाल जो विश्वसनीयता की समस्या है, उसमें उसे थोड़ा बहुत संदेह का लाभ मिल सकता है.
भारत की दो मुख्य चिंताएं रही हैं. पहली यह कि अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान वाले मसले पर उसके साझेदार देश संवेदनशील है या नहीं? इसमें मुझे लगता है कि भारत अपनी बात रखने में सफल रहा. उसने साफ कर दिया है कि वह जल्दबाजी नहीं चाहता और यह भी कि अफ़ग़ानिस्तान की ओर से उसे टारगेट किया जाए तो मित्र देश उसके साथ खड़े रहें. वह अपने मित्र देशों को लामबंद करने में कामयाब रहा है.
ऑकस से अलग क्वॉड
दूसरी चिंता भारत के लिए ऑकस डील से क्वॉड को अलग करने की थी. भारत जानना चाह रहा था कि क्वॉड और ऑकस के कामकाज कैसे जमीन पर आकार लेंगे. उस बारे में क्वॉड ने कहा है कि उसे सदस्य देशों को इंडो पैसेफिक में एक विकल्प देना है. चीन के विजन के खिलाफ एक और विकल्प खड़ा करना है.
अमेरिका ने क्वॉड मीटिंग करके दिखा दिया कि वह गंभीर है और ऑकस डील करके यह दिखाया कि वह इस इलाके से पीछे नहीं हट रहा है. अमेरिका के सामने फिलहाल जो विश्वसनीयता की समस्या है, उसमें उसे थोड़ा बहुत संदेह का लाभ मिल सकता है.
ऐसे में अगर क्वॉड वैक्सीन, टेक्नलॉजी, क्लाइमेट चेंज और आतंकवाद के मुद्दे पर विकल्प देने में सफल हो जाता है तो चीन कमजोर पड़ जाएगा. कूटनीतिक स्तर पर इस यात्रा के बाद भारत अब इंडो पैसिफिक का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है, और साथ ही पश्चिमी हिस्से और समान सोच वाले देशों की प्रतिक्रिया का प्रतिनिधित्व कर रहा है.
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