Expert Speak Raisina Debates
Published on Dec 30, 2022 Updated 0 Hours ago

हाल ही में राष्ट्रपति शी के मध्य पूर्व दौरे से भले ही चीन-GCC सहयोग में नई रफ़्तार आ गई हो, लेकिन दोनों पक्षों को अब भी कई मतभेद दूर करने होंगे.

राष्ट्रपति शी का मध्य पूर्व दौरा: चीन में चर्चाओं और अटकलों का दौर

7-10 दिसंबर तक चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने सऊदी अरब के रियाद का दौरा किया. राष्ट्रपति शी यहां चीन और अरब देशों के पहले शिखर सम्मेलन (पहले चीन-GCC शिखर सम्मेलन) में शिरकत करने पहंचे थे. जिनपिंग के सऊदी अरब के राजकीय दौरे में दोनों पक्षों ने समग्र सामरिक भागीदारी समझौते पर हस्ताक्षर किए. चीन की सामरिक बिरादरी ने बड़े जोशोख़रोश से इस घटनाक्रम का स्वागत किया है. उनकी दलील है कि चीनी कूटनीति अपने "मध्य पूर्वी लम्हे" में दाख़िल हो चुकी है और अमेरिका का नुक़सान, चीन के फ़ायदे" में तब्दील हो चुका है. कई लोगों का विचार है कि चीन और मध्य पूर्व के रिश्ते अब "सुनहरे युग" में प्रवेश कर चुके हैं, जिसके तहत अमेरिका का गहरा दोस्त सऊदी अरब अब चीन की "मित्र मंडली" में शुमार हो चुका है. इसे चीन की मध्य पूर्व रणनीति की बड़ी कामयाबी बताया जा रहा है. बहरहाल, तमाम तामझाम और शोशेबाज़ियों से इतर इस दौरे ने चीनी सामरिक हलक़ों में कुछ दिलचस्प बहसों और परिचर्चाओं की शुरुआत कर दी है. ये घटनाक्रम ग़ौर करने लायक हैं और भारत के लिए भी इसके नीतिगत प्रभाव दिखाई पड़ सकते हैं.

चीनी कूटनीति अपने "मध्य पूर्वी लम्हे" में दाख़िल हो चुकी है और अमेरिका का नुक़सान, चीन के फ़ायदे" में तब्दील हो चुका है. कई लोगों का विचार है कि चीन और मध्य पूर्व के रिश्ते अब "सुनहरे युग" में प्रवेश कर चुके हैं, जिसके तहत अमेरिका का गहरा दोस्त सऊदी अरब अब चीन की "मित्र मंडली" में शुमार हो चुका है.

"पेट्रोडॉलर से पेट्रो-RMB, क्या इस प्रक्रिया में रफ़्तार आ रही है?"

जिनपिंग के दौरे से पहले और उसके बाद चीनी मीडिया में गरमागरम बहस का दौर रहा. चर्चा हुई कि क्या सऊदी अरब "पेट्रोडॉलर" से "पेट्रो-RMB" में बदल जाएगा और क्या तेल और गैस का व्यापार भविष्य में RMB के ज़रिए तय होने लगेगा. कुछ आशावादी विश्लेषणों में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि किस तरह हाल के महीनों में विनिर्माण क्षेत्रों में चीन के प्रतिस्पर्धी लाभ में उछाल आया है. इन उद्योगों में ऑटोमोबाइल्स, बिजली के ख़ास साज़ोसामान और रासायनिक सामग्रियां शामिल हैं. दरअसल रूस और यूक्रेन के बीच की जंग ने यूरोप, जापान और दक्षिण कोरिया की विनिर्माण लागतों को बढ़ा दिया है. इससे चीन को जापान, दक्षिण कोरिया और यूरोप के विनिर्माण बाज़ार हिस्से की बजाए धीरे-धीरे अपनी जगह बनाने में मदद मिली है. चीन का विनिर्माण उद्योग लगातार उन्नत होता जा रहा है. ऐसे में उसकी सामरिक बिरादरी के भीतर के कुछ तबक़ों में ये उम्मीद जग गई है कि बाक़ी दुनिया में चीन से होने वाले आयातों और RMB की मांग में आगे और बढ़ोतरी होगी. यही घटनाक्रम RMB के अंतर्राष्ट्रीयकरण और पेट्रो-RMB की बुनियाद बन जाएगा. चीनी सामरिक रणनीतिकारों की दलील है कि शी के सऊदी अरब दौरे से ऐसे ही बदलाव सामने आएंगे. हालांकि कुछ अन्य लोग आगाह कर रहे हैं कि चीन को निकट भविष्य में पेट्रो-RMB के उभार को लेकर ज़रूरत से ज़्यादा आशावादी नहीं होना चाहिए. भले ही “अमेरिकी डॉलर के दबदबे” में दिनोंदिन गिरावट आती जा रही हो और वैश्विक आर्थिक प्रणाली में चीन की अहमियत बढ़ती जा रही हो, लेकिन कुछ टीकाकार इस मसले पर सावधानी बरतने की सलाह दे रहे हैं. उनका विचार है कि विदेशी मुद्रा भंडार, विदेशी मुद्रा में लेन-देन, वैश्विक भुगतानों, व्यापार वित्त-पोषण और प्रतिभूतियों के मूल्यांकन के मामले में अब भी RMB और अमेरिकी डॉलर के बीच भारी अंतर मौजूद है. इसमें कोई शक़ नहीं है कि अमेरिका और OPEC+ देशों के बीच तेल उत्पादन को लेकर हाल ही में उभरे मतभेदों से पेट्रो-RMB की उम्मीदें और बढ़ गई हैं. हालांकि इस संदर्भ में इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए कि खाड़ी देशों की मौजूदा स्वायत्तता बेहद सीमित है. ये तमाम देश अब भी सुरक्षा और वित्त के मसलों पर अमेरिका पर ज़बरदस्त रूप से निर्भर हैं. इस कड़ी में अमेरिका के साथ टकराव के रास्ते पर चल रहे और कई सालों तक उसके प्रतिबंधों की मार झेलने वाले ईरान की मिसाल ली जा सकती है. ईरान के तेल निर्यातों का एक बड़ा हिस्सा अब भी अमेरिकी डॉलर में ही दर्शाया जाता है. दूसरी ओर ये दलील भी दी जाती है कि शायद चीन ख़ुद ही पेट्रो-RMB को टिकाए रखने और उसे आगे बढ़ाने के लिए व्यापार ढांचे और वित्तीय प्रणाली के संदर्भ में पूरी तरह से तैयार नहीं है. कुछ चीनी विद्वानों का मत है कि RMB के अंतरराष्ट्रीयकरण की क़वायद को अभी और गहरा किए जाने की दरकार है. ख़ासतौर से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर RMB के बढ़ते इस्तेमाल और पूंजी आधार से मेल खाते हुए RMB का परिसंपत्ति बुनियाद खड़ा किए जाने की अब भी सख़्त ज़रूरत है. इससे अन्य देशों में तेल की बिक्री से हासिल की गई RMB का निवेश किया जा सकेगा. ग़ौरतलब है कि चीन-सऊदी अरब शिखर सम्मेलन से पहले ऐसी अटकलें लगाई जा रही थीं कि कच्चे तेल के व्यापार के कुछ हिस्से का RMB में भुगतान (settlement) करने को लेकर दोनों देशों के बीच समझौता हो जाएगा. हालांकि अब तक इस मसले पर किसी बड़ी कामयाबी का कोई आधिकारिक एलान नहीं हुआ है.

“क्या चीन और GCC के बीच FTA वार्ताओं में प्रगति होगी?”

जैसे-जैसे शी का दौरा आगे बढ़ा, चीन के कई रणनीतिकारों ने उम्मीद जताई कि इससे चीन और खाड़ी सहयोग परिषद (GCC) के देशों के बीच FTA वार्ता प्रक्रिया में तेज़ी आ सकती है. चीन और GCC के बीच मुक्त व्यापार क्षेत्र से जुड़ी वार्ताएं जुलाई 2004 में शुरू हुई थीं. हालांकि इस दिशा में अबतक बेहद सुस्त रफ़्तार से प्रगति हुई है. 2009 में इन वार्ताओं को अस्थायी रूप से रोक भी दिया गया था. जनवरी 2014 में वार्ता प्रक्रियाएं दोबारा पटरी पर लौटी थीं. चीनी विद्वानों का विचार है कि चीन की आर्थिक और ऊर्जा सुरक्षा के लिए चीन-GCC मुक्त व्यापार क्षेत्र (CGFTA) से जुड़ी वार्ताओं को दोबारा शुरू करना निहायत ज़रूरी है. साथ ही बेल्ट एंड रोड से जुड़े चीन के सामरिक नज़रिए को साकार करने में भी इससे मदद मिलेगी. चीनी टीकाकारों के मुताबिक क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धा में हाशिए पर धकेले जाने से बचने के लिए चीन द्वारा GCC के साथ इस तरह का रिश्ता बनाना एक अपरिहार्य विकल्प है. उनका मानना है कि चीन-GCC रिश्तों की बुनियाद यूरोप, अमेरिका और अन्य क्षेत्रीय ताक़तों के साथ खाड़ी देशों के संबंधों की बुनियाद के मुक़ाबले हर नज़रिए से कमज़ोर है. मौजूदा दौर में GCC अनेक किरदारों के साथ मुक्त व्यापार समझौतों पर वार्ताएं करती आ रही है. इनमें यूरोपीय संघ, जापान, भारत, दक्षिण कोरिया और अन्य देश शामिल हैं. ऐसे में अगर चीन-GCC मुक्त व्यापार समझौते में प्रगति नहीं होती है तो चीन के सामने व्यापार में फिराव (trade diversion) के नकारात्मक प्रभाव झेलने का ख़तरा रहेगा. ऐसे में चीन के सामने क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धा में हाशिए पर चले जाने का जोख़िम बढ़ जाएगा. उधर, चीन के कई शोधकर्ताओं का विचार है कि CGFTA पर दस्तख़त होने से चीन और GCC के सदस्यों पर व्यापार निर्माण के क्षेत्र में अहम प्रभाव पड़ेगा. इसके बाद चीन GCC के देशों को खाद्य पदार्थों, कपड़ों, पोशाकों, इलेक्ट्रॉनिक साज़ोसामानों, मशीनरी और अन्य वस्तुओं का अपना निर्यात बढ़ा सकेगा. इसके अलावा वो श्रम सेवाओं और निवेश में भी पहले से ज़्यादा सक्रिय हो सकेगा. साथ ही कच्चे तेल, प्राकृतिक गैस और रासायनिक उत्पादों के संदर्भ में चीन को GCC से होने वाले निर्यातों में भी बढ़ोतरी हो सकती है.[1] इसके साथ ही दूसरे देशों और इलाक़ों के लिए व्यापार फिराव प्रभाव (trade diversion effects) भी पैदा हो सकते हैं. इनमें भारत, जापान और अमेरिका शामिल हैं.[2] हालांकि चीन की सामरिक बिरादरी के एक तबक़े का मानना है कि चीन के लिए FTA स्थापित करना और GCC देशों में व्यापार उदारीकरण का लक्ष्य हासिल करना (और इस तरह इस इलाक़े में चीनी निर्यातों की बढ़ोतरी को रफ़्तार देना) इतना आसान नहीं होगा. दरअसल खाड़ी के ये देश एकाकी आर्थिक ढांचे पर निर्भर हैं. यहां प्रति व्यक्ति आय ऊंची है और बाज़ार का आकार छोटा है. माना जा रहा है कि चीन-GCC FTA वार्ताओं में एक अन्य अड़चन पेट्रोकेमिकल्स उत्पादों पर शुल्क से जुड़ी सौदेबाज़ियां हैं. CGFTA से जुड़ी वार्ता प्रक्रियाएं काफ़ी लंबी खिंचती जा रही हैं. चीनी आकलन के हिसाब से इसकी प्रमुख वजह चीनी पेट्रोकेमिकल कंपनियों की घबराहट है. दरअसल चीन में पेट्रोकेमिकल क्षेत्र की वैसी कंपनियां, जो तुलनात्मक रूप से कम प्रतिस्पर्धी हैं, उन्हें ख़ासतौर से इस बात का डर है कि शुल्क में किसी भी तरह की गिरावट से चीनी बाज़ारों में GCC के पेट्रोकेमिकल उत्पादों की बाढ़ आ जाएगी. इससे चीन के पेट्रोकेमिकल उद्योग को बड़ा झटका लगेगा और बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी फैल जाएगी.[3] चीनी रणनीतिकार इस सिलसिले में एक सौदे की ओर इशारा कर रहे हैं. इसके तहत चीन तेल, गैस और पेट्रोकेमिकल उत्पादों में शुल्क घटाने की अगुवाई करेगा और बदले में GCC के देश चीनी कंपनियों के साथ कच्चे तेल के व्यापार में "एशियाई शुल्क" को दूर कर देंगे. इस कड़ी में प्राथमिकता के तौर पर तेल के व्यापार में RMB के ज़रिए अदायगी का रास्ता अपनाया जा सकता है.[4]

19 सितंबर 2022 को न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक के दौरान चीन के स्टेट काउंसलर और विदेश मंत्री वांग यी ने GCC के विदेश मंत्रियों से मुलाक़ात की थी. इस बैठक में CGFTA का मुद्दा प्रमुखता से उठा था. उस वक़्त ऐसी ख़बरें आई थीं कि बैठक में दोनों पक्षों ने इस मसले पर जल्द से जल्द आम सहमति तक पहुंचने के लिए साझा उपाय करने पर हामी भरी थी. ये क़वायद चीनी रणनीतिकारों के बीच गरमागरम बहस का मसला बना हुआ है. हालांकि आधिकारिक बयानों में ये कहीं दिखाई नहीं दिया है.

"चीन के GCC जुड़ावों को ईरान कैसे देखेगा?"  

चीन को भी मध्य पूर्व के पेचीदा भूराजनीतिक परिदृश्य में आगे बढ़ने में दिक़्क़त पेश आ रही है. पेकिंग यूनिवर्सिटी के सेंटर फ़ॉर मिडिल ईस्ट स्टडीज़ के प्रोफ़ेसर वु बिंगबिंग के मुताबिक पूरे आसार हैं कि चीन मध्य पूर्व में "सकारात्मक संतुलनकारी क़वायदों" को अंजाम देगा. इसके तहत एक पक्ष के साथ सहयोग करते हुए दूसरे पक्ष पर एक निश्चित हद तक दबाव बनाया जाएगा ताकि उसे चीन के साथ आगे रिश्तों में और सुधार लाने के लिए प्रभावित किया जा सके. बहरहाल चीन नकारात्मक संतुलनकारी उपायों, यानी एक पक्ष के साथ रिश्ते ख़राब होने के डर से दूसरे पक्ष के साथ सहयोग को सीमित करने की क़वायदों से परहेज़ करना चाहता है क्योंकि इस तरह इलाक़े में चीन की गतिविधियों का दायरा सीमित हो जाएगा. मिसाल के तौर पर चीन ने ईरान के साथ 25 साल के सहयोग समझौते पर दस्तख़त किए हैं, लेकिन खाड़ी देशों के साथ इस तरह का कोई क़रार नहीं किया है. चीन को लगता है कि इस रणनीति से वो खाड़ी देशों पर एक हद तक दबाव बना सकता है. उसका विचार है कि इससे खाड़ी देशों को चीन के साथ बेहतर तालमेल बनाने (निवेश के विस्तार और ऊर्जा सहयोग जैसे मसलों पर) के लिए प्रेरित किया जा सकेगा. इसी तरह व्यापार के संदर्भ में अभी कुछ अर्सा पहले ही क़तर ने चीन के साथ 27 साल के प्राकृतिक गैस समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं. चीन को उम्मीद है कि इसका ईरान पर भी समान रूप से असर होगा. दरअसल ईरान के पास प्राकृतिक गैस का बेशुमार भंडार है, जो क़तर से भी ज़्यादा है. हालांकि ईरान का चीन के साथ फ़िलहाल ऐसा कोई समझौता नहीं है.

बहरहाल ऐसा सकारात्मक संतुलन कतई आसान नहीं होगा. शंघाई को-ऑपरेशन ऑर्गेनाइज़ेशन रिसर्च सेंटर ऑफ़ द शंघाई एकेडमी ऑफ़ सोशल साइंसेज़ के निदेशक पान गुआंग का मानना है कि चीन और ईरान के बीच दस्तख़त किए गए 20 साल के दीर्घकालिक सामरिक सहयोग समझौते को लेकर अरब के देश सबसे ज़्यादा संवेदनशील रहे हैं. वो इसे शक़ की नज़रों से देखते हैं. हालांकि चीन और ईरान ने इस समझौते की विषयवस्तु का पूरे तौर पर ख़ुलासा नहीं किया है, लेकिन अरब के देश और इज़राइल ख़ासतौर से चीन-ईरान के ख़ुफ़िया सौदों को लेकर चिंतित रहे हैं. इस मसले पर चीन-अरब सहयोग पर पहले से ही संदेह के बादल मंडराते आ रहे हैं. इस बीच ईरान भी चीन-अरब समीकरणों पर क़रीब से निग़ाह जमाए हुए है. ऐसी ख़बरें भी आई थीं कि GCC देशों के साथ चीन के हालिया संपर्कों से ईरान नाख़ुश है. अरब देशों के साथ चीन के साझा बयान को लेकर ईरान ने तेहरान में तैनात चीन के राजदूत को तलब कर लिया था. इस बयान में अन्य मसलों के साथ-साथ ग्रेटर टुन्ब, लेसर टुन्ब और अबू मूसा के मालिक़ाना हक़ का मुद्दा भी शामिल था. ग़ौरतलब है कि होर्मुज़ जलसंधि के इन तीनों द्वीपों पर फ़िलहाल ईरान की हुकूमत है लेकिन इसपर संयुक्त अरब अमीरात (UAE) अपना दावा जताता है.

अभी कुछ अर्सा पहले ही क़तर ने चीन के साथ 27 साल के प्राकृतिक गैस समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं. चीन को उम्मीद है कि इसका ईरान पर भी समान रूप से असर होगा. दरअसल ईरान के पास प्राकृतिक गैस का बेशुमार भंडार है, जो क़तर से भी ज़्यादा है. हालांकि ईरान का चीन के साथ फ़िलहाल ऐसा कोई समझौता नहीं है.

कुल मिलाकर ये दलील दी जा सकती है कि मध्य पूर्व में शी के ताज़ा दौरे से इस इलाक़े में चीन के “1+2+3” सहयोग मॉडल में नई रफ़्तार आ गई है. इसमें सबसे पहले ऊर्जा पर ज़ोर है; बुनियादी ढांचे के निर्माण, व्यापार और निवेश को बढ़ावा देने की बात दूसरे क्रम पर है और फिर नाभिकीय ऊर्जा, एयरोस्पेस सैटेलाइट्स और नई ऊर्जा जैसे हाई-टेक क्षेत्रों में अहम कामयाबियों का नंबर आता है. हालांकि ये क़वायद चीन-GCC रिश्तों में कुछ अहम पेचीदा मसलों का पर्याप्त रूप से निपटारा करने में कहीं ना कहीं नाकाम रही है.


[1] Ni Yueju, “The Restart of China-GCC Free Trade Area Negotiations under the Background of “One Belt and One Road”——Background, Significance and Policy Suggestions”, International Trade . 2015, (06)

[2] Cheng Minmin , “中国—海合会自由贸易协定的经济效应研究 ——基于GTAP模型和偏效应分解”, Guizhou University of Finance and Economics

[3] Ni Yueju, “The Restart of China-GCC Free Trade Area Negotiations under the Background of “One Belt and One Road”——Background, Significance and Policy Suggestions”, International Trade . 2015, (06)

[4] Ni Yueju, “The Restart of China-GCC Free Trade Area Negotiations under the Background of “One Belt and One Road”——Background, Significance and Policy Suggestions”, International Trade . 2015, (06), Yang Guofeng , “石油人民币,还称不上美元对手”(The Petro-RMB is not yet a rival to US dollar) , 中国石油石化 2019,(07),50-51, Hu Yang, Han Xiaoyu, “石油人民币战略与人民币国际化 (Petroleum RMB Strategy and RMB Internationalization)”, 中国金融. 2019,(12)

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