Published on Apr 08, 2023 Updated 0 Hours ago

बढ़ते आतंकवाद का मुक़ाबला करने के लिए अफ्रीका का साहेल क्षेत्र वैश्विक समुदाय की ओर टकटकी लगाकर देख रहा है और उसकी तवज्जो चाहता है.

अफ्रीका के साहेल क्षेत्र में आतंकवाद: फ्रांस, रूस की भूमिका – भारत के लिए एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा!

सेनेगल से लेकर इरिट्रिया तक फैले अफ्रीका के साहेल क्षेत्र ने काफ़ी लंबे वक़्त से गंभीर और पेचीदा किस्म के सुरक्षा एवं मानवीय संकटों का सामना किया है. इस क्षेत्र की आधी से अधिक आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करती है और इस इलाक़े के कई देश आतंकवाद एवं संगठित अपराध के ख़तरों का सामना करते हैं. इतना ही नहीं साहेल क्षेत्र तेज़ी के साथ इस्लामिक स्टेट ऑफ़ द ग्रेटर सहारा (ISGS), मैकिना लिबरेशन फ्रंट (FLM) और हिंसक हमलों को अंज़ाम देने वाले जमात नुसरत उल-इस्लाम वा अल-मुस्लिमिन (JNIM) जैसे चरमपंथी इस्लामिक संगठनों के एक मुफ़ीद ठिकाने के रूप में उभरा है. 

इस क्षेत्र में सबसे बड़ी और दिखाई देने वाली चिंताजनक प्रवृत्ति साल-दर-साल बढ़ती हिंसा की घटनाएं हैं. साहेल क्षेत्र में अकेले वर्ष 2021 में इस तरह की चरमपंथी हिंसा की वजह से अनुमानित 4,839 लोगों की मौत हुई, यह संख्या पिछले वर्षों की तुलना में 70 प्रतिशत अधिक थी. इन घटनाक्रमों ने देखा जाए, तो आतंकवाद को मिडिल ईस्ट से दूर अफ्रीकी साहेल क्षेत्र में विशेष रूप से स्थानांतरित कर दिया है. ज़ाहिर है कि पूरे विश्व में आतंकवादी गतिविधियों से होने वाली मौतों में लगभग आधा हिस्सा साहेल क्षेत्र का है. बीते 16 वर्षों में साहेल क्षेत्र ने इस्लामिक आतंकवाद में 2,000 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज़ की है. इन सभी घटनाक्रमों से चिंतित नई दिल्ली ने संयुक्त राष्ट्र (UN) के माध्यम से महाद्वीप में 'बंदूकों को शांत करने' के लिए यानी शांति स्थापित करने के लिए छह सूत्री योजना की भी पेशकश की है.

साहेल क्षेत्र में अकेले वर्ष 2021 में इस तरह की चरमपंथी हिंसा की वजह से अनुमानित 4,839 लोगों की मौत हुई, यह संख्या पिछले वर्षों की तुलना में 70 प्रतिशत अधिक थी.

तेज़ी के साथ बढ़ती हिंसा की इन घटनाओं का मुक़ाबला करने के लिए और चरमपंथियों को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए, साहेल क्षेत्र के देशों ने मुख्य रूप से सैन्य सहायता के रूप में विदेशी साझेदारों की मदद लेने की कोशिश की है. उदाहरण के लिए, वर्ष 2012 में माली ने उस समय फ्रांस से सहायता का अनुरोध किया था, जब आतंकवादियों ने देश की राजधानी बमाको पर कब्जा कर लिया था. फ्रांसीसी सेना ने कुछ ही हफ्तों के भीतर ऑपरेशन सर्वल चलाकर गाओ और टिम्बकटू के मध्य उत्तरी शहरों पर सफ़लतापूर्वक दोबारा कब्ज़ा कर लिया. इस ऑपरेशन को अगस्त 2014 में फ्रांस के एंटी-इंसर्जेंट ऑपरेशन यानी ऑपरेशन बरखाने द्वारा बदल दिया गया, जो कि औपचारिक रूप से 9 नवंबर 2022 को समाप्त हो गया.

ऑपरेशन बरखाने के साथ फ्रांस का प्रवेश

प्रारंभिक वर्षों में ऑपरेशन बरखाने को एक सफलता के रूप में देखा गया था. फ्रांसीसी सेनाएं अपनी विशेष हवाई एवं ज़मीनी टेक्नोलॉजी को इस्तेमाल करने और प्रमुख स्थानों से आतंकवादियों को खदेड़ने में सक्षम थीं. अपने यूरोपीय भागीदारों के समर्थन के साथ फ्रांस, साहेल क्षेत्र में अपनी मौज़ूदगी को बढ़ाने में सक्षम था और उसने चाड के एनजमीना एवं नाइजर के नियामी में दो अतिरिक्त स्थाई बेस भी स्थापित किए. वर्ष 2017 में बुर्किना फासो, नाइजर, माली, मॉरिटानिया और चाड के साथ फ्रांस ने G5 साहेल फोर्स का गठन किया, जो कि पांच हजार सैनिकों वाला एक मज़बूत आतंकवाद रोधी बल था. सीमा पार करने के लिए विस्तृत जनादेश होने के बावज़ूद फ्रांस की इन कोशिशों को स्थानीय स्तर पर समर्थन नहीं मिला और आख़िरकार फ्रांस के ये सारे प्रयास नाक़ाम साबित हुए. भारी संख्या में नागरिकों के हताहत होने और सुरक्षा बलों द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोपों ने एक लिहाज़ से इस सारे क्षेत्रीय और राष्ट्रीय प्रयासों को कमज़ोर करने का काम किया. अपने घोषित उद्देश्यों को हासिल करने में फ्रांस की नाक़ामी के लिए कई तरह की बातें ज़िम्मेदार थीं, जैसे कि ऑपरेशनल ग़लतियां, राजनीतिक ग़लतियां और सबसे बड़ी ग़लती यानी कि उस क्षेत्र में स्थानीय स्तर पर चल रहे संघर्षों की गंभीरता को समझने में नाक़ामी. जल्द ही, इस क्षेत्र में फ्रांस के ऑपरेशनों को राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के अपने स्वयं के अफ़ग़ानिस्तान मोमेंट के रूप में देखा जाने लगा.

अगस्त 2020 और मई 2021 में माली में हुई तख़्तापलट की घटनाओं ने उन नेताओं को भी सत्ता से अपदस्थ कर दिया, जो कुछ हद तक फ्रांस द्वारा किए जा रहे प्रयासों में अपना सहयोग दे रहे थे.

माली को लेकर फ्रांस का नज़रिया प्रत्यक्ष तौर पर सैन्यीकरण का था, जो कि एक ग़लत धारणा पर आधारित था कि साहेल में अस्थिरता की मूल वजह आतंकवादी संगठन हैं. जबकि सच्चाई ऐसी नहीं थी और फ्रांस ने साहेल में एक हद तक अस्थिरता के लिए ज़िम्मेदार वहां के सामाजिक रूप से जटिल एवं उलझे हुए विद्रोहों को नज़रंदाज कर दिया. इतना ही नहीं माली में लोकतंत्रीकरण का मुद्दा ज़ोर-शोर से उठाने के साथ ही वहां राष्ट्र निर्माण के महत्त्व पर ज़ोर देने के बावज़ूद, फ्रांस ने संघर्ष पर काबू पाने के लिए सैन्य-केंद्रित दृष्टिकोण को अपनाया. इसका नतीज़ा यह हुआ कि माली के सरकार के संकट को दूर करने में फ्रांस नाक़ाम रहा. फ्रांस के कार्य करने के तरीक़े पर नज़र डालें तो इस लिहाज़ से भी उसने कई गंभीर गलतियां कीं. जैसे कि फ्रांस ने एक तुआरेग अलगाववादी समूह नेशनल मूवमेंट फॉर दि लिबरेशन ऑफ़ आज़वाड (MNLA) के साथ अपनी साझेदारी को आंशिक रूप से नवीनीकृत किया. उल्लेखनीय है कि यह संगठन वर्ष 2012 में विद्रोह शुरू करने वालों में सबसे प्रमुख था और इसी ने आख़िर में ज़्यादातर उत्तरी माली पर जिहादी नियंत्रण का नेतृत्व किया था. इसके अलावा, फ्रांसीसी सेना ने तुआरेग एवं दौसाहक मिलिशिया जैसे गैर-सरकारी सशस्त्र संगठनों के साथ भी संबंध स्थापित किए. ज़ाहिर है कि इन संगठनों पर फुलानी समुदायों के ख़िलाफ़ गंभीर तौर पर अत्याचार करने का आरोप लगाया गया था. फ्रांस की इस तरह की गतिविधियों ने भी वहां जातीय हिंसा को बढ़ाने का काम किया.

जब ये सभी घटनाक्रम सामने आ रहे थे, तब साहेल क्षेत्र में फ्रांस विरोधी भावनाएं अपने चरम पर पहुंच गई थीं, ख़ास तौर पर सुरक्षा संकट के निपटने में फ्रांस की अक्षमता को लेकर लोगों में बेहद गुस्सा था. इसको लेकर वहां सड़कों पर लोगों के विरोध प्रदर्शन बहुत आम हो गए थे. अगस्त 2020 और मई 2021 में माली में हुई तख़्तापलट की घटनाओं ने उन नेताओं को भी सत्ता से अपदस्थ कर दिया, जो कुछ हद तक फ्रांस द्वारा किए जा रहे प्रयासों में अपना सहयोग दे रहे थे. मालियन जुंटा, आज तक अपनी वैधता को बरक़रार रखने के लिए लोकप्रिय हथकंड़ों का सहारा लेना जारी रखे हुए है. मालियन नेताओं ने साहेल में फ्रांस के नज़रिए को नवउपनिवेशवादी, पुरुष प्रधान, दूसरे को हीन समझने वाले और खुद को बड़ा दिखाने वाला साबित करते हुए टकराव वाली कूटनीति के मार्ग को अपनाया है. नतीज़तन कुछ ही महीनों के भीतर बमाको और पेरिस के बीच संबंध टूट गए. बमाको ने न सिर्फ़ जनवरी 2022 में फ्रांसीसी राजदूत को निष्कासित कर दिया, बल्कि मई 2022 में उसने G5 साहेल टास्क फोर्स से भी हटने का निर्णय ले लिया.

 

रूस और वैगनर ग्रुप का प्रवेश

 

माली और रूस के बीच प्रगाढ़ होते सहयोग के शुरुआती संकेतों में से एक संकेत सितंबर 2021 में उस समय दिखाई दिया था, जब मास्को ने बमाको को सैन्य साज़ो-सामान सौंपे थे, जिसमें हेलीकॉप्टर, हथियार और गोला-बारूद शामिल थे. तभी से यह अफवाहें फैलनी शुरू हो गईं कि माली ने मास्को की विशेष तौर पर प्रशिक्षित और कुशल प्राइवेट मिलिट्री कंपनी वैगनर ग्रुप के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं. हालांकि, माली के अधिकारी इससे इनकार करते हैं, लेकिन वैगनर ग्रुप की वहां मौज़ूदगी को लेकर अब कोई संदेह नहीं है. स्थानीय सशस्त्र बलों को प्रशिक्षित करने और माली के वरिष्ठ अधिकारियों को सुरक्षा प्रदान करने के बदले में वैगनर समूह के किराए के सैनिकों को स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों तक पहुंच बढ़ाने का काम सौंपा गया था. हालांकि, यह सही है कि मास्को के साथ इस साझेदारी ने माली को सैन्य उपकरण हासिल करने और सैन्य ऑपरेशन्स संचालित करने की अनुमति दी है, लेकिन इसके नतीज़े बहुत सुस्त रहे हैं.

.जिहादियों की बढ़ती तादाद और उनके विस्तार को रोकने के लिए पश्चिमी दख़लंदाज़ी के एक दशक बीतने के बाद भी जिहादियों को हटाने का मंसूबा कामयाब नहीं हो सका है. आज, माली स्वयं को प्रमुख ताक़तों के बीच एक दुष्चक्र में फंसा हुआ महसूस करता है.

इस बात को एक साल से अधिक हो चुका है, जब बमाको को अपने पसंदीदा सैन्य साझेदार को पेरिस से मॉस्को स्थानांतरित करने का निर्णय लिया था. इसके बावज़ूद बमाको जिहादियों को अपने देश से खदेड़ने के सबसे प्रमुख लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाया है. हालांकि, जिहादियों की बढ़ती तादाद और उनके विस्तार को रोकने के लिए पश्चिमी दख़लंदाज़ी के एक दशक बीतने के बाद भी जिहादियों को हटाने का मंसूबा कामयाब नहीं हो सका है. आज, माली स्वयं को प्रमुख ताक़तों के बीच एक दुष्चक्र में फंसा हुआ महसूस करता है. ज़ाहिर है कि माली का अपने सामरिक गठबंधन को स्थानांतरित करने का निर्णय, उसे महत्त्वपूर्ण पश्चिमी और क्षेत्रीय सहयोगियों के समर्थन से महरूम कर सकता है. फिलहाल, माली के अंतर्राष्ट्रीय अधिकारियों ने एक राजनीतिक समर्थन का बेस तैयार किया है और रणनीतिक तौर पर अपनी स्थिति को फिर से स्थापित करने के साथ ही रूस के साथ घनिष्टता को बढ़ाकर स्थानीय लोकप्रियता हासिल की है. लेकिन यह भी सच्चाई है कि अगर देश के उलझे हुए विकट सुरक्षा हालातों पर ध्यान नहीं दिया गया, तो लंबे समय में यह समर्थन आसानी से समाप्त हो सकता है.

भू-राजनीति, परस्पर विरोधी ताक़तें और इस्लामिक आतंकवादी गुट

ज़ाहिर है कि राजनीतिक अस्थिरता और राष्ट्रों की कमज़ोरी विदेशी आतंकवादी गुटों की क़ामयाबी के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ें होती हैं. अफ़ग़ानिस्तान से लेकर सीरिया तक अल क़ायदा और तथाकथित इस्लामिक स्टेट (जिसे अरबी में ISIS या दाएश के रूप में भी जाना जाता है) जैसे तमाम आतंकवादी संगठन हैं, जो राजनीतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक तौर पर कमज़ोर देशों के बल पर खूब फल-फूल रहे हैं. इतना ही नहीं, स्थानीय स्तर पर चल रहे विवादों और लड़ाई-झगड़ों ने इन आतंकी गुटों और इनकी विचारधाराओं को ज़मीन हासिल करने के लिए एक मुफ़ीद माहौल उपलब्ध कराया है.

बड़े पैमाने पर स्थानीय विवादों और संघर्षों के बल पर फलने-फूलने वाले इस्लामिक समूहों ने अल क़ायदा और ISIS जैसे बड़े अंतर्राष्ट्रीय जिहादी संगठनों के नाम का फायदा उठाकर सफलतापूर्वक काम किया है. इस क्षेत्र में विभिन्न इस्लामिक समूह, जैसे कि सोमालिया में अल क़ायदा-गठबंधन वाले अल शबाब से लेकर डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो (DRC) में ISIS-गठबंधन के सहयोगी एलाइड डेमोक्रेटिक फोर्सेस (या ISIS-DRC) ने ध्यान आकर्षित करने के लिए और अधिक आसानी से धन जुटाने के लिए बड़े इस्लामिक गुटों का इस्तेमाल किया है. इसके साथ ही स्थानीय आतंकी समूहों ने 'दो तरफा' कोऑपरेटिव मॉडल विकसित करने के लिए भी बड़े इस्लामिक गुटों का इस्तेमाल किया है. इसके तहत जहां स्थानीय सहयोगी आतंकी संगठन अल क़ायदा और ISIS के वैश्विक आदेशों और उनके प्रभाव से लाभ हासिल करते हैं, वहीं अल क़ायदा और ISIS स्थानीय सहयोगियों की क्षमता के माध्यम से अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाने का काम करते हैं और इस तरह से अपने कार्यों एवं गतिविधियों को आगे बढ़ाते हैं, जिससे उन्हें चुनौतीपूर्ण सरकारी संस्थानों, सरकारों और सेनाओं में समान रूप से अपना दबदबा क़ायम करने में मदद मिलती है. यह मिडिल ईस्ट जैसी जगहों में अल क़ायदा और ISIS के कार्य करने के तरीक़ों से काफ़ी अलग है, लेकिन यह कुछ हद तक अफ़ग़ानिस्तान की तरह है. अफ़ग़ानिस्तान में ISIS संगठन ने उग्रवादियों और स्थानीय विद्रोहों को एक साथ अपने मंसूबों के लिए चुना है, जो अफ़ग़ानिस्तान-पाक के बीच पैदा हुईं राजनीतिक और जातीय दरारों का लाभ उठाते हुए अपने कार्यों को अंज़ाम देते हैं. जहां तक साहेल जैसे स्थानों की बात है, तो यहां मुद्दा न केवल रणनीतिक और सामरिक है, बल्कि आर्थिक भी है, विशेष रूप से दक्षिण अफ्रीका जैसे महाद्वीप के प्रमुख केंद्रों में, जहां ISIS के सदस्यों को क्षेत्र में समूह की गतिविधियां चलाने के लिए औपचारिक अर्थव्यवस्था का उपयोग करने हेतु धन जुटाने के लिए अधिकृत किया गया है.

अफ्रीका का साहेल क्षेत्र आतंकवाद का सामना करने के लिए वैश्विक समुदाय की ओर टकटकी लगाकर देख रहा है और उसकी तवज्जो चाहता है.

वैश्विक आतंकवाद के केंद्र में हुए इस बड़े बदलाव को लेकर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया बहुत मुखर नहीं रही है. ज़ाहिर है कि इसके पीछे जो बड़ी वजह है, वो 9/11 के बाद के 'वॉर ऑन टेरर' के युग में पश्चिमी ताक़तों द्वारा किए गए विदेशी हस्तक्षेपों की बढ़ती अलोकप्रियता है. अफ़ग़ानिस्तान जैसे स्थानों पर सार्वजनिक तौर पर मिली नाक़ामियों को देखते हुए ऐसा होना लाज़िमी भी है. अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका और पश्चिम की तमाम कोशिशों के बावज़ूद आख़िरकार वर्ष 2021 में तालिबान सत्ता में वापस आ गया. लगता है कि अफ्रीका के नेतृत्व की तरफ से आने वाली किसी प्रतिक्रिया के लिए अभी भी अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की योग्यताओं और क्षमताओं की ज़रूरत होगी या कहा जाए कि वैश्विक समुदाय के दख़ल की आवश्यकता होगी. हालांकि, देखा जाए तो अमेरिका और चीन के बीच महाशक्ति बनने की होड़ की वजह से और रूस के साथ पश्चिम के संबंधों के टूटने के कारण वर्षों के कूटनीतिक मूल्यों के समाप्त होने के चलते, जिसके कारण आतंकवाद के ख़िलाफ़ आम सहमति बनाने में काफ़ी हद तक द्वि-दलीय सफलता मिली, इसकी संभावना कम होती जा रही है.

निष्कर्ष

जैसा कि भारत पूरे अफ्रीका में अपनी राजनयिक उपस्थिति का विस्तार करने में जुटा हुआ है, ऐसे में उसे आतंकवाद का मुक़ाबला करने के मुद्दे को सहयोग का एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र बनना चाहिए. हालांकि, इस मुद्दे को लेकर आगे बढ़ना और इसे अमल में लाना आसान नहीं होगा क्योंकि नई दिल्ली को यह सुनिश्चित करना होगा कि वह उन सरकारों के साथ डील कर रही है, जिनका इस्लामिक आतंकवादी समूहों के साथ कोई सीधा संबंध नहीं है या जिन्होंने सत्ता हासिल करने के लिए आतंकी संगठनों के साथ हाथ मिलाया है. यह उस स्थिति में ख़ास तौर पर सुनिश्चित करना ज़रूरी हो जाता है, जब कुछ देशों की सेनाओं और पुलिस बल को प्रशिक्षण एवं हथियार देने जैसे संस्थागत सहयोग की बात सामने आती है. आने वाले समय में यह कहना आसान होगा, पर करना मुश्किल होगा क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय ताक़तें अपने खुद के हितों को लाभ पहुंचाना चाहती हैं, जबकि स्थानीय नेता किसी भी सूरत में सत्ता हासिल करने में जुटे हुए हैं, भले ही इसके लिए स्थानीय विद्रोहों को ही क्यों ना भड़काना पड़े. अफ्रीका का साहेल क्षेत्र आतंकवाद का सामना करने के लिए वैश्विक समुदाय की ओर टकटकी लगाकर देख रहा है और उसकी तवज्जो चाहता है. इसमें कोई शक नहीं है कि यह भारत के भी हित में है कि वह इस क्षेत्र के और उससे भी आगे के भागीदारों के साथ सहयोग बढ़ाने की अपनी रणनीति में आतंकवाद से मुक़ाबले को एक प्रमुख मुद्दे के रूप में शामिल करे.

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Authors

Abhishek Mishra

Abhishek Mishra

Abhishek Mishra is an Associate Fellow with the Manohar Parrikar Institute for Defence Studies and Analysis (MP-IDSA). His research focuses on India and China’s engagement ...

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Kabir Taneja

Kabir Taneja

Kabir Taneja is a Fellow with Strategic Studies programme. His research focuses on Indias relations with West Asia specifically looking at the domestic political dynamics ...

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