मॉस्को में हुआ आतंकवादी हमला, जिसकी ज़िम्मेदारी इस्लामिक स्टेट (जिसे IS, ISIS या फिर अरबी में दाएश के नाम से भी जाना जाता है) ने ली है. इस हमले ने दुनिया में आई चुनौतियों की बाढ़ में संघर्ष का एक और ठिकाना जोड़ दिया है. रूस की राजधानी मॉस्को में जब आतंकवादियों ने एक कॉन्सर्ट हाल पर हमला किया तो 135 से ज़्यादा लोग मारे गए थे. आरोप है कि हमला करने वाले ताजिकिस्तान के निवासी हैं. आतंकवादियों द्वारा रूस को निशाना बनाना कोई नई बात नहीं है. 2002 में चेचेन आतंकवादियों ने दुब्रोवका थिएटर पर हमला करके सैकड़ों लोगों को बंधक बना लिया था. ये हमला चार दिन तक चला था, जिसमें 130 से ज़्यादा लोग मारे गए थे. मॉस्को में ताज़ा आतंकवादी हमला, 22 साल पहले के उस हमले से काफ़ी मिलता जुलता है.
1970 के दशक में अफ़ग़ानिस्तान में दख़लंदाज़ी और अभी हाल में सीरिया में रूस की भूमिकाओं की वजह से भी उस पर आतंकवादी हमले होते रहे हैं. हक़ीक़त तो ये है कि अभी इसी महीने की शुरुआत में अमेरिका ने रूस पर इस्लामिक स्टेट के हमले की आशंका जताते हुए ख़ुफ़िया जानकारी साझा की थी.
मॉस्को को अक्सर इस्लामिक आतंकवादी निशाना बनाकर हमले करते रहे हैं. इन हमलावरों में से कई तो उसके अपने विद्रोही क्षेत्रों जैसे कि दागिस्तान, तातारस्तान और चेचन्या से ताल्लुक़ रखते थे और कई का संबंध, मध्य एशिया में रूस के पड़ोसी देशों से रहा है. 1970 के दशक में अफ़ग़ानिस्तान में दख़लंदाज़ी और अभी हाल में सीरिया में रूस की भूमिकाओं की वजह से भी उस पर आतंकवादी हमले होते रहे हैं. हक़ीक़त तो ये है कि अभी इसी महीने की शुरुआत में अमेरिका ने रूस पर इस्लामिक स्टेट के हमले की आशंका जताते हुए ख़ुफ़िया जानकारी साझा की थी (अमेरिका अपने एक और दुश्मन ईरान के साथ भी ऐसी जानकारी साझा करता रहा है). हाल के वर्षों में रूस पर इस्लामिक आतंकवादी हमलों का ख़तरा बार-बार सामने आता रहा है. मध्य पूर्व (पश्चिमी एशिया) में इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़, ख़ास तौर से 2014 से जारी युद्ध की अगुवाई अमेरिका के नेतृत्व वाला गठबंधन और उसके क्षेत्रीय साझीदारों जैसे कि यज़ीदी, कुर्द और अन्य बाग़ी गुट करते रहे हैं. इस युद्ध के शुरुआती दौर में रूस ने भी सीरिया में इस्लामिक स्टेट के ठिकानों पर बमबारी की थी, जब मुश्किल में घिरे सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद ने सितंबर 2015 में रूस से मदद मांगी थी. आज वैसे तो इस्लामिक स्टेट का बड़ा ख़तरा कुछ कम हुआ है. मगर सीरिया में खुले क़ैदख़ाने अभी भी मौजूद हैं, जिसमें इस्लामिक स्टेट समर्थक हज़ारों कट्टरपंथी और विशेष रूप से महिलाएं रह रही हैं. इन क़ैदियों को विदेशी ताक़तों द्वारा दिए जाने वाले बेहद कम बजट और क्षमता में किसी तरह घेरकर रखा जा रहा है. इनकी निगरानी सीरिया की लोकतांत्रिक ताक़तों और उनकी सैन्य शाखा कुर्दिश पीपुल्स प्रोटेक्शन यूनिट्स (YPG) के पास है. इन ख़तरनाक क़ैदियों के साथ क्या किया जाना चाहिए, इसे लेकर अंतरराष्ट्रीय सहयोग का अभाव है.
मॉस्को में हमला
लुकास वेबर, रिकार्डो वाले और कॉलिन पी क्लार्क जैसे विद्वानों ने पिछले साल मई में अपने लेख में IS के विलायत (सूबे) के ज़रिए इस्लामिक स्टेट समर्थक दुष्प्रचार में इज़ाफ़े के प्रति ध्यान दिलाया था. इस्लामिक स्टेट के इस गुट को इस्लामिक स्टेट खुरासान (ISK या ISKP) के नाम से जाना जाता है. वेबर और उनके साथियों ने तर्क दिया था कि यूक्रेन में रूस के युद्ध ने ISKP जैसे संगठनों को भर्तियां करने और फंड जुटाने का बहाना दे दिया है. ये संगठन चेचन्या, अफ़ग़ानिस्तान और सीरिया जैसे इलाक़ों में रूस के प्रति नाराज़गी का लाभ उठा रहे हैं. इस तथाकथित इस्लामिक स्टेट के पहले ख़लीफ़ा अबु बक्र अल-बग़दादी के ज़माने से ही रूस IS के निशाने पर रहा है. बग़दादी ने रूस को ‘मुस्लिम विरोधी’ और ‘धर्म युद्ध’ करने वाला मुल्क क़रार दिया था. उसी वक़्त से रूस की इस्लामिक स्टेट से ठनी हुई है. 2022 में काबुल में रूस के दूतावास पर हुआ हमला इसका एक बड़ा उदाहरण है. उस हमले में रूसी दूतावास के दो कर्मचारी मारे गए थे. स्कॉलर आरोन वाय ज़ेलिन ने रेखांकित किया है कि कुल मिलाकर, 2016 रूस को निशाना बनाकर किए 9 हमलों की ज़िम्मेदारी इस्लामिक स्टेट ने ली है.
मॉस्को में आतंकवादी हमले को लेकर सदमा, हैरानी और कई परिचर्चाओं में जो भ्रम देखने को मिला, उससे ज़ाहिर होता है कि जनता की कमज़ोर याददाश्त का ये मतलब क़तई नहीं है कि आतंकवाद के मोर्चे से बुनियादी ख़तरे ख़त्म हो गए हैं. 2019 में तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की अगुवाई में अमेरिका ने एलान किया था कि इस्लामिक स्टेट को शिकस्त दे दी गई है. हालांकि, किसी ने वक़्त निकालकर ये नहीं समझाया था कि किसी आतंकवादी संगठन की ‘पराजय’ का मतलब क्या होता है. इस दौरान, रणनीतिक रूप से, मोटे तौर पर अमेरिका की अगुवाई वाले ऑपरेशन इनहेरेंट रिज़ॉल्व की कामयाबी की वजह से, इस्लामिक स्टेट की भौगोलिक ‘ख़िलाफ़त’ को तो निश्चित रूप से हरा दिया गया था. बग़दादी 2019 में मारा गया था. और उसके बाद इस आतंकवादी संगठन की कमान संभालने वाले भी बाद के वर्षों में मारे गए थे. इससे लोगों को ये लगा कि इस्लामिक स्टेट के ख़लीफ़ा के तौर पर बयानबाज़ी वाले व्यक्तित्व आधारित हैसियत को पीछे धकेल दिया गया था. उसके बाद से अमेरिका भी अक्सर IS के बड़े बड़े आतंकवादियों को बेहद जोखिम भरे छापे मारकर गिरफ़्तार करता रहा है. उनसे भविष्य के आतंकवाद निरोधक अभियानों के लिए अहम ख़ुफ़िया जानकारी हासिल होती रही है.
मॉस्को के हमले की बर्बरता के अलावा दूसरा पहलू सदमे का है. इसके अलावा एक कड़वी हक़ीक़त ये भी है कि, इस्लामिक स्टेट दुनिया के दूसरे हिस्सों में ख़ूब फल-फूल रहा है. ये ऐसे इलाक़े हैं, जिनको लेकर दुनिया को शायद ज़्यादा फ़िक्र नहीं है, या फिर किसी को फ़र्क़ नहीं पड़ता है.
हालांकि, इस्लामिक स्टेट का ख़ात्मा करने का काम जितना बताना आसान है, उतना करना नहीं है. इस्लामिक स्टेट मॉस्को पर हुए हमले की उसी तरह अस्पष्ट रूप से ज़िम्मेदारी ली है, जैसा वो पहले भी करता रहा है. हालांकि, उसने साफ़ तौर पर ये नहीं बताया कि उसकी किस शाखा ने ये हमला किया था. अक़्लमंदी इस बात में होगी कि हम अप्रैल 2019 में ईस्टर के मौक़े पर श्रीलंका में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों को ज़हन में रखें. तब भी इस्लामिक स्टेट ने उस हमले की ज़िम्मेदारी ली थी, जिसमें 260 से ज़्यादा लोग मारे गए थे. उस हमले के लगभग एक दशक बाद भी उसके रहस्य पर से पर्दा नहीं उठा है, और आज भी इस हमले से जुड़े कौन, क्यों, क्या और कैसे जैसे सवालों के जवाब नहीं मिल सकें. जो जवाब सामने आए भी हैं, उन पर या तो विवाद है, या फिर उन दावों के बारे में कोई पक्की जानकारी नहीं है.
मॉस्को के हमले की बर्बरता के अलावा दूसरा पहलू सदमे का है. इसके अलावा एक कड़वी हक़ीक़त ये भी है कि, इस्लामिक स्टेट दुनिया के दूसरे हिस्सों में ख़ूब फल-फूल रहा है. ये ऐसे इलाक़े हैं, जिनको लेकर दुनिया को शायद ज़्यादा फ़िक्र नहीं है, या फिर किसी को फ़र्क़ नहीं पड़ता है. भौगोलिक रूप से ‘दूरी का ये पहलू’ और देशों के अलग अलग हित की वजह से इस्लामिक स्टेट का ख़तरा कम, हल्का या फिर तवज्जो न देने लायक़ मालूम होता है. अफ़ग़ानिस्तान, अफ्रीका के साहेल, मोज़ाम्बीक और यहां तक कि सीरिया में भी इस्लामिक स्टेट से जुड़े संगठन धीरे धीरे इन इलाक़ों में अपना दबदबा बढ़ाते जा रहे हैं. साहेल में सबसे अहम ताक़त फ्रांस को 2023 में अपने आतंकवाद निरोधक अभियान के मोर्चे से पीछे हटना पड़ा था. इसकी एक वजह तो फ्रांस की अपनी घरेलू मजबूरियां थीं. पर, इसके अलावा भू-सामरिक प्रतिद्वंदिता भी एक कारण थी, क्योंकि अफ्रीका के स्थानीय नेताओं ने यूरोप और रूस के बीच लगी इस होड़ में रूस के साथ खड़े होने का विकल्प चुना. क्योंकि रूस ने उनके देशों की सहायता के बजाय, नेताओं की हुकूमत बचाने की गारंटी पहले दी. इसमें, इस्लामिक स्टेट समर्थक स्थानीय संगठनों के ख़िलाफ़ सैन्य मदद भी शामिल थी. मॉस्को के आतंकवादी हमले के बाद फ्रांस ने भी आतंकवादी हमले के एलर्ट को अधिकतम स्तर तक कर दिया है. क्योंकि, फ्रांस की राजधानी पेरिस में भी 2015 में मॉस्को जैसा आतंकवादी हमला हुआ था, जिसकी ज़िम्मेदारी इस्लामिक स्टेट ने ली थी.
आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में इस बढ़ती कमज़ोरी से कैसे निपटा जाए, ये आने वाले समय की एक बड़ी चुनौती होगी.
इस्लामिक स्टेट जैसे समूहों के लिए वैश्विक भू-राजनीतिक दरारें ऐसा माहौल देती हैं, जिनमें वो सबसे ज़्यादा फल-फूल सकते हैं. हालांकि, IS एक तरह से एक अनूठा वैचारिक समूह है, जिसके लिए दुनिया के लगभग सारे तो देश दुश्मन हैं ही. इनके अलावा अल क़ायदा, हमास और दूसरे उग्रवादी संगठन भी उसके निशाने पर हैं. अलकायदा ने इराक़ और सीरिया में इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी थी (जिसमें वो नाकाम रहा). जबकि, एक ज़माने में इस्लामिक स्टेट का गठन अल क़ायदा इन इराक़ (AQI) के बचे खुचे आतंकवादियों ने ही मिलकर दिया था. विडम्बना देखिए कि हमास के नेताओं ने मॉस्को के हमले के बाद दो दिन इस हमले पर शोक जताया था. वहीं, अल क़ायदा और अफ़ग़ान तालिबान दोनों ही अफ़ग़ानिस्तान में ISKP से लड़ रहे हैं.
आगे की राह
एक बुनियादी लड़ाई के तौर पर आतंकवाद के ख़िलाफ़ जंग को पर्दे के पीछे नहीं धकेला जा सकता. आज की बंटती हुई विश्व व्यवस्था को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र जैसे बहुपक्षीय मंचों पर आतंकवाद से मुक़ाबले का दबाव बनाया जाना चाहिए. आज दुनिया की भू-राजनीतिक चुनौतियां आतंकवादी और उग्रवादी समूहों और ख़ास तौर से इस्लामिक कट्टरपंथियों को फलने फूलने का ख़ूब मौक़ा दे रही हैं. इससे उन्हें समझौते करने के सामरिक, रणनीतिक और हैरान करने वाली बात ये है कि राजनीतिक मौक़े भी मुहैया हो रहे हैं. ये बात उस वक़्त खुलकर उजागर हुई थी, जब 2020 में अमेरिका ने अफग़ान तालिबान के साथ उनका देश छोड़ने के लिए समझौता किया था. आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में इस बढ़ती कमज़ोरी से कैसे निपटा जाए, ये आने वाले समय की एक बड़ी चुनौती होगी.
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