Published on Nov 18, 2021 Updated 0 Hours ago

विकसित ऊर्जा बाज़ारों के घटनाक्रमों से भारत के सामने ऊर्जा सुरक्षा के लिए बिजली की मांग और जलवायु सुरक्षा की ज़रूरतों के बीच संतुलन बिठाने के रास्ते में मौजूद चुनौतियों की झलक मिलती है.

कोयले की ख़पत कम करने का लक्ष्य: लगातार फ़िसल रहे हैं चीन और भारत

2006 में चीन ने कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन के मामले में अमेरिका को पीछे छोड़ दिया था. उसके बाद चीन दुनिया में कार्बन डाइऑक्साइड का सबसे बड़ा उत्सर्जक बन गया. लिहाज़ा चीन पर उत्सर्जन का स्तर कम करने का दबाव बढ़ता गया. 2014 में अमेरिकी राष्ट्रपति की चीन यात्रा के दौरान चीन का ये बयान सामने आया: ‘चीन 2030 तक COउत्सर्जन का उच्चतम स्तर हासिल कर लेना चाहता है. चीन इस लक्ष्य को और जल्दी पा लेने की हर संभव कोशिश करेगा. हम 2030 तक अपने प्राथमिक ऊर्जा उपभोग में ग़ैर-जीवाश्म ईंधनों का हिस्सा बढ़ाकर 20 प्रतिशत करना चाहते हैं.’ जून 2015 में वर्ल्ड रिसोर्सेज़ इंस्टीट्यूट के एक समारोह में बोलते हुए चीन के नेशनल सेंटर फ़ॉर क्लाइमेट चेंज के डिप्टी डायरेक्टर जनरल ज़ोउ जी ने विश्व की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं और उत्सर्जकों यानी अमेरिका और चीन के साझा बयान की अहमियत को रेखांकित किया था. उन्होंने चीन में प्रति व्यक्ति आय के 20,000 से 25,000 अमेरिकी डॉलर का स्तर छूने से पहले ही उत्सर्जन का सर्वोच्च स्तर हासिल करने के लक्ष्य के महत्व पर ज़ोर दिया था. उत्सर्जन का शिखर छू लेने का मतलब है कोयले के इस्तेमाल का उच्चतम स्तर हासिल कर लेना.

चीन में प्रति व्यक्ति आय के 20,000 से 25,000 अमेरिकी डॉलर का स्तर छूने से पहले ही उत्सर्जन का सर्वोच्च स्तर हासिल करने के लक्ष्य के महत्व पर ज़ोर दिया था. उत्सर्जन का शिखर छू लेने का मतलब है कोयले के इस्तेमाल का उच्चतम स्तर हासिल कर लेना. 

कोयले के इस्तेमाल से जुड़े अनुमान

2014 में अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) ने चीन के कोयले का सबसे बड़ा उपभोक्ता बने रहने का अनुमान लगाया था. एजेंसी के आकलन के मुताबिक विश्व में कोयले के कुल उपभोग में चीन का हिस्सा 51 प्रतिशत के आसपास रहने का अनुमान था. भारत के बारे में एजेंसी का अनुमान था कि 2024 में भारत कोयला इस्तेमाल में अमेरिका को पीछे छोड़ देगा. आकलन के मुताबिक 2024 में भारत में दुनिया के कुल कोयला उपभोग का 13 प्रतिशत खपत होने का अनुमान लगाया गया था. बहरहाल भारत ने इस अनुमान से क़रीब एक दशक पहले 2015 में ही विश्व में कोयला के उपभोग के मामले में अमेरिका को पीछे छोड़ दिया. ब्रिटिश पेट्रोलियम (BP) ने इसको लेकर ‘सबसे संभावित’ हालात का अनुमान लगाया था. BP के आंकड़ों में चीन में कोयले की मांग में वृद्धि की दर के तेज़ी से नीचे आने की बात कही गई थी. चीन में कोयले की मांग के 2005-15 के 1.3 अरब टन (6.1 प्रतिशत सालाना) के स्तर के मुक़ाबले 2025-35 के दौरान सिर्फ़ 19.5 करोड़ मीट्रिक टन (0.1 प्रतिशत सालाना) हो जाने का अनुमान लगाया गया है.

BP ने उम्मीद जताई है कि चीन में कोयले की मांग 2030 के आसपास अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच जाएगी और उसके बाद प्रति वर्ष 0.1 प्रतिशत की दर से नीचे आने लगेगी. IEA और BP ने चीन में कोयले की खपत में इस अनुमानित कमी का श्रेय वहां किए गए ढांचागत सुधारों और नीतिगत उपायों को दिया है. मिसाल के तौर पर चीन विनिर्माण और उद्योगों पर आधारित अर्थव्यवस्था से आगे निकलकर सेवा और घरेलू मांग पर आधारित अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ गया है. इतना ही नहीं चीन में कुशलता में सुधार आने और पर्यावरण को लेकर लागू की गई सख़्त नीतियों के चलते कोयले की मांग में तेज़ी से गिरावट आई है. बर्नस्टेन की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि चीन 2015 तक कोयले का आयात बंद कर देगा और 2016 से चीन के भीतर कोयले की मांग में गिरावट आने लगेगी. रॉयटर्स के आंकड़े के मुताबिक 2021 के पहले 8 महीनों में चीन ने 19.77 करोड़ मीट्रिक टन कोयले का आयात किया. वहीं दूसरी ओर भारत में कोयले की मांग में 2030 के बाद तक बढ़ोतरी जारी रहने के आसार हैं. हालांकि भारत में परिमाण के हिसाब से कोयले की मांग में बढ़ोतरी पिछले दो दशकों में चीन में कोयले की मांग में हुए इज़ाफ़े के मुक़ाबले काफ़ी कम है.

2014 में चीन में कोयले की खपत में 14 सालों में पहली बार 2.9 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई. CAT के विश्लेषण में भी इस बात को रेखांकित किया गया था. इस रिपोर्ट में 2020 से पहले ही चीन में कोयले की खपत के अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच जाने की भविष्यवाणी की गई थी.  

चीन में कोयले की मांग के उच्चतम बिंदु तक पहुंच जाने को लेकर जलवायु-केंद्रित संस्थानों के आकलन कहीं ज़्यादा आशावादी रहे हैं. क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर (CAT) की मार्च 2015 की रिपोर्ट में अमेरिका में ‘कोयले की मांग के धराशायी’ होने का स्वागत किया गया. रिपोर्ट में दलील दी गई कि आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (OECD) के सदस्य देशों में कोयले की मांग में आई गिरावट बेहद महत्वपूर्ण है. साथ ही कहा गया कि चीन और भारत में कोयले की मांग से इस गिरावट की भरपाई नहीं हो सकती. रिपोर्ट में बताया गया कि समुद्री रास्ते से दूसरे देशों को निर्यात किए जाने वाले कोयले की क़ीमतें नरम पड़ चुकी हैं. लिहाज़ा कोयला उत्पादक देशों द्वारा निर्यात किए जाने वाले ज़्यादातर हिस्से से लागत तक हासिल नहीं हो सकेंगे. इतना ही नहीं कोयले की भावी या वायदा क़ीमतों में भी कोई ख़ास सुधार आने की संभावना नहीं है. अक्टूबर 2021 में कोयले का कारोबारी भाव 260 अमेरिकी डॉलर प्रति टन के आसपास बना रहा. नवंबर 2020 के मुक़ाबले ये क़ीमत तक़रीबन 375 फ़ीसदी ज़्यादा थी. 2014 में चीन में कोयले की खपत में 14 सालों में पहली बार 2.9 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई. CAT के विश्लेषण में भी इस बात को रेखांकित किया गया था. इस रिपोर्ट में 2020 से पहले ही चीन में कोयले की खपत के अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच जाने की भविष्यवाणी की गई थी.

 इकोनॉमिस्ट के मार्च 2015 के अंक में बताया गया था कि 2014 में चीन में 7.3 प्रतिशत की आर्थिक विकास दर के बावजूद कोयले की खपत में 1.6 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई थी. हालांकि इस विश्लेषण में ये स्वीकार किया गया कि कोयला उद्योग के पास कोयला व्यवसाय में आने वाले उतार-चढ़ावों से निपटने की काबिलियत है, लेकिन 2014 में आई ये सुस्ती ढांचागत बदलावों का नतीजा थी. इन परिवर्तनों के पीछे मुख्य रूप से तीन कारण रहे हैं: (1) पश्चिमी दुनिया की तरह चीन भी कोयले के इस्तेमाल को चरणबद्ध तरीक़े से कम करने लगा (2) भारत अपनी खपत के लिए ज़्यादा से ज़्यादा घरेलू उत्पादनों पर निर्भर रहने लगा और (3) कोयले का उपभोग करने वाले ज़्यादातर देशों में कोयले की बजाए गैस के इस्तेमाल का चलन बढ़ने लगा.

मौजूदा रुझान

चीन दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से इकलौती ऐसी अर्थव्यवस्था है जहां 2020 में कोयले की मांग में बढ़ोतरी दर्ज की गई. 2020 में चीन में कोयले की खपत 28.29 करोड़ मीट्रिक टन की नई ऊंचाई तक पहुंच गई. इससे पहले कोयले की सबसे ज़्यादा खपत 2014 में हुई थी. दरअसल पहले माना जा रहा था कि 2014 में चीन में कोयले का उपभोग अपने शिखर पर पहुंच चुका था. लिहाज़ा 2020 में कोयले की खपत में आई इस बढ़ोतरी ने कई विशेषज्ञों के पूर्वानुमान को झुठला दिया. इन विशेषज्ञों का मानना था कि चीन की आर्थिक वृद्धि का पहले से ही कोयले की मांग से किसी भी तरह का सरोकार नहीं रह गया था. 2021 में आर्थिक विकास में आई मज़बूती बिजली की मांग को परवान चढ़ा रही है. महामारी के बाद अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए घोषत किए गए उत्प्रेरक उपायों से स्टील, सीमेंट और कोयले का सघनता से इस्तेमाल करने वाले दूसरे औद्योगिक पदार्थों के उत्पादन को बढ़ावा मिल रहा है. IEA को उम्मीद है कि 2021 में चीन में कोयले की मांग में 4 प्रतिशत से ज़्यादा की बढ़ोतरी होगी. इस साल कोयले की मांग 2014 में कोयले की मांग के अब तक के सर्वोच्च स्तर से कहीं आगे निकल जाएगी. दूसरे शब्दों में साल 2021 में चीन में कोयले की मांग अपने अब तक के उच्चतम स्तर पर पहुंच जाएगी.

इस साल कोयले की मांग 2014 में कोयले की मांग के अब तक के सर्वोच्च स्तर से कहीं आगे निकल जाएगी. दूसरे शब्दों में साल 2021 में चीन में कोयले की मांग अपने अब तक के उच्चतम स्तर पर पहुंच जाएगी.   

चीन में कोयले से बिजली तैयार करने वाला बेड़ा (ताप और ऊर्जा के सम्मिलित रूप के साथ या सीएचपी प्लांट्स) दुनिया में कोयले की कुल खपत का एक तिहाई हिस्सा ख़र्च करता है. 2020 के आख़िर से 2021 के शुरुआत के कालखंड में चीन में ऊर्जा के उत्पादन में कोयले का हिस्सा फिर से ऊंचे स्तर पर पहुंच गया. ग़ौरतलब है कि 2020 की शुरुआत में चीन के ऊर्जा उत्पादन में कोयले का हिस्सा रिकॉर्ड स्तर तक गिर गया था. इस साल कोयले की मांग और खपत को एक और वजह से काफ़ी बल मिला है. दरअसल चीन में सर्दियों में बारिश न होने और मौसम सूखा रहने के चलते पनबिजली की उपलब्धता घट गई. दूसरी ओर आर्थिक गतिविधियों में बढ़ोतरी के कारण बिजली की मांग में तेज़ी से इज़ाफ़ा हुआ. ऐसे में नवंबर 2020 के बाद से चीन में बिजली उत्पादन में कोयले का हिस्सा बढ़ गया है. अप्रैल 2021 तक ये अनुपात 64 फ़ीसदी से भी ऊपर रहा था. 2021 के पहले चार महीनों में चीन में बिजली उत्पादन में कोयले का हिस्सा 66.5 प्रतिशत था. 2019 और 2020 के इसी कालखंड के मुक़ाबले ये आंकड़ा कहीं ज़्यादा था. ग़ौरतलब है कि चीन ने हाल ही में 2060 तक नेट ज़ीरो उत्सर्जन स्तर हासिल करने का लक्ष्य रखा है. ऐसे में कोयले की ओर इस तरह का मौसमी रुझान कम से कम अल्प और मध्यम काल में चीन के सामने खड़ी चुनौतियों को रेखांकित करता है. बिजली की मांग में बेतहाशा बढ़ोतरी के बीच कोयले से बिजली उत्पादन के स्तर को कम करना चीन के लिए बहुत बड़ी चुनौती है.

भारत में अप्रैल 2020 में कोयले का उपभोग उससे पहले के कई सालों के मुक़ाबले न्यूनतम स्तर पर आ गया. 2019 की दूसरी छमाही में ज़बरदस्त आर्थिक सुस्ती और उसके बाद कोविड-19 के चलते लगे लॉकडाउन की वजह से ऐसे हालात पैदा हुए. बहरहाल उसके बाद से अबतक आर्थिक गतिविधियों के परवान चढ़ने से कोयले की खपत में लगातार इज़ाफ़ा देखा जा रहा है. 2020 की चौथी तिमाही में इसमें 6 फ़ीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई. कोयले की ऊंची मांग के पीछे पनबिजली स्रोतों से बिजली उत्पादन में आई गिरावट भी एक बड़ी वजह रही. 2019 में पनबिजली उत्पादन में ज़ोरदार बढ़त दर्ज की गई थी लेकिन 2020 में इसमें तेज़ी से कमी देखी गई. कोयले की बढ़ती खपत 2021 में तेज़ आर्थिक तरक्की का इशारा कर रही है. आर्थिक गतिविधियों में तेज़ी के चलते कोयले की मांग में तक़रीबन 9 प्रतिशत तक की बढ़त आ गई है. ये 2019 के स्तर से 1.4 फ़ीसदी ज़्यादा है.

2021 की शुरुआत में कोयले से पैदा होने वाली बिजली का मासिक हिस्सा भारत में तैयार कुल बिजली के 79 प्रतिशत तक पहुंच गया. 2019 के शुरुआती कालखंड से देखे तों ये उस समय तक का सबसे ऊंचा स्तर था. पनबिजली और पवन ऊर्जा से बिजली की उपलब्धता कम होने की वजह से मांग पूरा करने के लिए कोयला आधारित ताप बिजली का सहारा लिया जाने लगा. 2021 की पहली तिमाही में भारत में बिजली उत्पादन 2019 के इसी कालखंड के मुक़ाबले तक़रीबन 10 प्रतिशत ऊंचा रहा था. 2021 के जनवरी और फ़रवरी महीनों में 2019 के जनवरी और फ़रवरी महीनों के मुक़ाबले बिजली का उत्पादन 5 फ़ीसदी ज़्यादा था. दरअसल ये कोविड-19 को लेकर लगी पाबंदियों से पहले का कालखंड था.

कोयले की मांग और खपत में इस तरह की बढ़ोतरी सिर्फ़ चीन और भारत तक ही सीमित नहीं है. अमेरिका में गैस का बहुत बड़ा भंडार मौजूद है, इसके बावजूद वहां कोयले की खपत बढ़ रही है. इसी तरह गैस का आयात करने वाले यूरोप में भी कोयले की मांग में इज़ाफ़ा देखने को मिल रहा है. अमेरिका और यूरोप के अपेक्षाकृत परिपक्व ऊर्जा बाज़ारों में प्राकृतिक गैस की क़ीमतों में बढ़ोतरी के चलते कुछ बिजली निर्माता कोयले का रुख़ करने को बाध्य हो गए हैं. इससे कोयले की क़ीमत में बढ़ोतरी देखने को मिल रही है. हालांकि दूसरे साधनों की अपेक्षा कोयला अब भी सस्ता विकल्प बना हुआ है. यूरोप में कार्बन की क़ीमतें ऊंचे स्तर पर बरकरार है और प्राकृतिक गैस के दाम में भारी बढ़ोतरी देखने को मिली है.

संभव है कि इस तरह से अगले साल कोयले से पैदा होने वाली बिजली का अब तक का सबसे ऊंचा रिकॉर्ड कायम हो जाए. ऐसे में बाज़ार के मौजूदा रुझानों और जलवायु की रक्षा को लेकर घोषित मध्यम और दीर्घकालक लक्ष्यों के बीच के अंतर और विसंगतियों का पता चलता है.  

IEA के आकलनों के मुताबिक 2021 में बिजली की 45 प्रतिशत अतिरिक्त मांग जीवाश्म आधारित बिजली के ज़रिए पूरी होगी, जबकि 2022 में ये आंकड़ा 40 प्रतिशत रहने के आसार हैं. कोयले से पैदा होने वाली बिजली में 2020 में 4.6 प्रतिशत की गिरावट देखी गई थी. हालांकि 2021 में इसमें तक़रीबन 5 फ़ीसदी की बढ़त का अनुमान लगाया गया है. इस बढ़ोतरी के साथ ताप बिजली महामारी से पहले वाले स्तर से आगे निकल जाएगी. 2022 में कोयले से पैदा होने वाली बिजली के उत्पादन में और 3 प्रतिशत का इज़ाफ़ा होने का अनुमान है. बहुत संभव है कि इस तरह से अगले साल कोयले से पैदा होने वाली बिजली का अब तक का सबसे ऊंचा रिकॉर्ड कायम हो जाए. ऐसे में बाज़ार के मौजूदा रुझानों और जलवायु की रक्षा को लेकर घोषित मध्यम और दीर्घकालक लक्ष्यों के बीच के अंतर और विसंगतियों का पता चलता है.

भारत में बिजली का मौजूदा शुल्क बिजली आपूर्ति की लागत को पूरा करने के हिसाब से भी पर्याप्त नहीं है, ऐसे में क्षमता से जुड़ी लागत कैसे पूरी होगी…ये एक बड़ा सवाल है. 

मुद्दे

ऊर्जा सुरक्षा के सामने मौजूद ख़तरों ने वैश्विक ऊर्जा बाज़ारों को घटिया समझे जाने वाले जीवाश्म-ईंधनों का रुख़ करने पर मजबूर कर दिया है. बेहद नियंत्रित बाज़ार (जैसे भारत और चीन) और हल्के और मामूली नियम-क़ायदों वाले अनियंत्रित बाज़ार (यूरोप और अमेरिका)- दोनों ही बिजली की मांग में अचानक आई बढ़ोतरी और आपूर्ति (नवीकरणीय ऊर्जा) में गिरावट के हिसाब से ढलने में सक्षम साबित नहीं हुए. इसके लिए उन्हें जीवाश्म ईंधनों की मज़बूत क्षमता के मदद की दरकार पड़ी है. हो सकता है कि ये एक अस्थायी या अल्पकालिक घटना हो, लेकिन इसके बावजूद इससे भारत के सामने कुछ अहम सवाल खड़े होते हैं. भारत बिजली की आपूर्ति के स्रोतों को कार्बन-मुक्त करने के साथ-साथ बिजली बाज़ार से नियम क़ायदों का मकड़जाल कम करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है. भारत अपने यहां बिजली की मांग के सर्वोच्च स्तर को पूरा करने के लिए बिजली निर्माण की पर्याप्त क्षमता बरकरार रखने की जद्दोजहद कर रहा है. बेकार पड़ी बिजली निर्माण क्षमता के लिए कोई अतिरिक्त ख़र्च न करने की व्यवस्था के साथ इसका बेहतरीन संतुलन हासिल करना भारत की विद्युत व्यवस्था की एक जटिल समस्या है. ज़रूरत से ज़्यादा क्षमता ग़ैर-ज़रूरी लागतों को बढ़ा सकती है जबकि ज़रूरत से कम क्षमता से बत्ती गुल होने (ब्लैकआउट) का जोख़िम रहेगा. लागत की रकम वापस पाने के संदर्भ में भी भारत के सामने एक अजीब तरह की समस्या है. भारत में बिजली का मौजूदा शुल्क बिजली आपूर्ति की लागत को पूरा करने के हिसाब से भी पर्याप्त नहीं है, ऐसे में क्षमता से जुड़ी लागत कैसे पूरी होगी…ये एक बड़ा सवाल है. विकसित ऊर्जा बाज़ारों के घटनाक्रमों से भारत के सामने ऊर्जा सुरक्षा के लिए बिजली की मांग और जलवायु सुरक्षा की ज़रूरतों के बीच संतुलन बिठाने के रास्ते में मौजूद चुनौतियों की झलक मिलती है.

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