कन्वेंशन ऑन बायोलॉजिकल डायवर्सिटी (CBD) की 15वीं कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़ के द्वारा दिसंबर 2022 में अपनाई गई कुनमिंग-मॉन्ट्रियल ग्लोबल बायोडायवर्सिटी (जैव विविधता) फ्रेमवर्क को क़ुदरत और लोगों के लिए एक 'ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण' फ्रेमवर्क बताया गया है. ये फ्रेमवर्क उस वक़्त आया है जब औद्योगिक, खनन और बुनियादी ढांचे से जुड़ी गतिविधियों के कारण जैव विविधता को नुक़सान की गति तेज़ हो रही है. फ्रेमवर्क का मक़सद जैव विविधता को हो रहे नुक़सान को रोकना और उसे पलटना है, साथ ही धरती और यहां रहने वाले लोगों के फ़ायदे के लिए प्रकृति को सही हालात में लाना है. ऐसा करने के लिए फ्रेमवर्क में चार प्रमुख गोल और इन गोल को हासिल करने में मदद के लिए 23 टारगेट निर्धारित किए गए हैं. ये मूल निवासियों और ज़मीन एवं संसाधनों पर स्थानीय समुदायों के अधिकारों की मान्यता को भी महत्व देता है. साथ ही इसमें पर्यावरण और मानव अधिकारों की रक्षा करने वालों की सुरक्षा भी शामिल है. जैव विविधता के संरक्षण में महिलाओं की भूमिका को मान्यता देकर लैंगिक (जेंडर) समानता को भी फ्रेमवर्क में शामिल किया गया है.
कुनमिंग-मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल में दुनिया भर के लिए तय टारगेट की सफलता काफ़ी हद तक अलग-अलग देशों के द्वारा इसे शुरू करने और लागू करने पर निर्भर करती है. इसलिए इसे राष्ट्रीय स्तर पर क़रीब से देखने और निगरानी रखने की ज़रूरत है. इनमें ख़ास तौर पर महत्वपूर्ण है टारगेट 3 जिसे सामान्य तौर पर 30x30 कहा जाता है. इसका उद्देश्य 2030 तक 30 प्रतिशत ज़मीनी एवं अंतर्देशीय पानी और समुद्री एवं तटीय क्षेत्र का संरक्षण और प्रबंधन है. इस टारगेट का अर्थ 2011 में कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़ में तय आईची टारगेट को आगे बढ़ाना है. इस टारगेट का ज़ोर संरक्षित क्षेत्रों (प्रोटेक्टेड एरियाज़) और दूसरे प्रभावी क्षेत्र आधारित संरक्षण उपायों (अदर इफेक्टिव एरिया बेस्ड कंज़र्वेशन मेज़र यानी OECM) को बढ़ाना है.
भारत की प्रगति?
ये ध्यान रखना दिलचस्प है कि भारत ने जानकारी दी है कि वो अपने ज़मीनी क्षेत्र के 22 प्रतिशत और समुद्री एवं तटीय क्षेत्रों के 5 प्रतिशत को प्रभावी ढंग से संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क (प्रोटेक्टेड एरिया नेटवर्क) के तहत ले आया है. ख़बरों के मुताबिक़ इस काम के लिए भारत ने छह श्रेणियों के तहत ‘संरक्षित क्षेत्रों’ की घोषणा की है: नेशनल पार्क, वाइल्ड लाइफ सेंचुरी, कंज़र्वेशन रिजर्व, कम्युनिटी रिज़र्व (वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972 के अनुसार); रिज़र्व फ़ॉरेस्ट (आरक्षित वन), प्रोटेक्ट फॉरेस्ट (संरक्षित वन) और विलेज फॉरेस्ट (ग्रामीण वन) (भारतीय वन अधिनियम 1927 के अनुसार); लेक एंड वॉटर बॉडी (झील एवं पानी के स्रोत) (दलदली ज़मीन संरक्षण एवं प्रबंधन नियम 2017 के अनुसार) और बायोडायवर्सिटी हेरिटेज साइट्स (जैव विविधता अधिनियम 2002 के अनुसार). इस साल की शुरुआत में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन के केंद्रीय मंत्री ने बयान दिया कि आने वाले वर्षों में और ज़्यादा क्षेत्रों को संरक्षण के तहत लाया जाएगा और 30x30 के टारगेट को 2030 तक “आराम से हासिल” कर लिया जाएगा.
भारत ने सभी ‘रिज़र्व फॉरेस्ट’ (फरवरी 2022 में आधिकारिक तौर पर जिसे 4,42,000 हेक्टेयर से ज़्यादा क्षेत्र में फैला बताया गया था) को अपने ‘प्रोटेक्टेड एरिया नेटवर्क’ के हिस्से के तौर पर मान्यता दी है. लेकिन भारतीय वन अधिनियम 1927 के तहत वनों की क़ानूनी श्रेणी “रिज़र्व फॉरेस्ट” को प्रोटेक्टेड एरिया घोषित करने का मतलब क्या है? अगर हम इस अधिनियम पर विचार करें तो इसकी प्रस्तावना में कहा गया है कि ये अधिनियम ‘वनों, वन उत्पादों को ले जाने और लकड़ी एवं अन्य वन उत्पादों पर लगने वाले शुल्क’ से जुड़े क़ानून को मज़बूत करता है. लिहाजा इस अधिनियम के तहत रिज़र्व फॉरेस्ट साफ़ तौर पर संरक्षण के क़ानूनी इरादे के साथ नहीं बनाए गए हैं बल्कि राजस्व इकट्ठा करने के लिए फॉरेस्ट एस्टेट (वन संपदा) बनाए गए हैं. इस प्रकार से इस श्रेणी का कोई जैविक आधार नहीं है और ज़मीन के बड़े हिस्से को इन इलाक़ों में बिना किसी ‘वन’ क्षेत्र के रिज़र्व फॉरेस्ट की श्रेणी में रखा गया है.
इसके अलावा इन इलाक़ों के ‘संरक्षित या प्रोटेक्टेड’ होने का क्या मतलब है? दिसंबर 2021 में एक प्रेस रिलीज़ के ज़रिए पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने जानकारी दी कि प्रोटेक्टेड एरिया का दायरा 2014 में 4.90 प्रतिशत से बढ़कर 2021 में 5.03 प्रतिशत हो गया. हालांकि लीगल इनिशिएटिव फॉर फॉरेस्ट एंड एनवायरनमेंट की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ सिर्फ़ 2021 में नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ (NBWL) ने 1,000 हेक्टेयर से ज़्यादा प्रोटेक्टेड एरिया को दूसरे काम में लगाया (या ग़ैर-वन्य जीवन के इस्तेमाल में तब्दील किया). इसमें से 800 हेक्टेयर टाइगर रिज़र्व के लिए था. इस तरह की तब्दीली सड़क, रेलवे, ट्रांसमिशन लाइन, पाइपलाइन एवं नहर परियोजनाओं, खनन, खदान, सिंचाई और जल बिजली परियोजनाओं जैसे इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट के लिए की गई. इनमें से दो प्रोटेक्टेड एरिया को पूरी तरह से हटा (डिनोटिफाई) दिया गया. इनके नाम हैं गलाथिया बे सेंचुरी और मेगापोड सेंचुरी जो अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह में हैं और भारत में महत्वपूर्ण समुद्री संरक्षित क्षेत्रों का हिस्सा हैं. सेंटर फॉर फाइनेंशियल एकाउंटेबिलिटी की एक अन्य रिपोर्ट में कहा गया है कि अगस्त 2014 से फरवरी 2029 के बीच नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ (NBWL) ने प्रोटेक्टेड एरिया और उसके आसपास 687 में से 682 प्रोजेक्ट को मंज़ूरी दी. ये मंज़ूरी की एक चौंका देने वाली दर है.
दूसरा रास्ता जिसके ज़रिए टारगेट 3 संरक्षण को बढ़ावा दे रहा है, वो है ‘दूसरे प्रभावी क्षेत्र आधारित संरक्षण उपायों’ (अदर इफेक्टिव एरिया बेस्ड कंज़र्वेशन मेज़र्स यानी OECM) को मान्यता पर ज़ोर देना. OECM ‘संरक्षित क्षेत्र के अलावा एक भौगोलिक तौर पर परिभाषित क्षेत्र हैं, जिसकी व्यवस्था और प्रबंधन इस ढंग से होता है जो मूल स्थिति के आसपास जैव विविधता के संरक्षण के लिए सकारात्मक और स्थायी दीर्घकालीन नतीजे हासिल करे. इसके साथ इकोसिस्टम के कामकाज और सेवाएं और जहां लागू हो वहां सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, सामाजिक-आर्थिक और दूसरे स्थानीय उचित मूल्य भी हों’. OECM की धारणा को कन्वेंशन ऑन बायोलॉजिकल डायवर्सिटी (CBD) की चर्चा में मूल निवासी और स्थानीय समुदाय लेकर आए. इसका उद्देश्य उन क्षेत्रों (लैंडस्केप) के संरक्षण की अहमियत के बारे में बताना था जो व्यावहारिक तौर पर उनका इलाक़ा है ताकि ‘लोगों से मुक्त’ संरक्षित क्षेत्रों के निर्माण के विशेष संरक्षण मॉडल का मुक़ाबला किया जा सके. साथ ही ज़मीन पर अधिकार से जुड़े दीर्घकालीन महत्वपूर्ण मुद्दों, स्थानीय समुदायों के परंपरागत संरक्षित क्षेत्रों तक उनकी पहुंच और खनन के उद्देश्य से उन संरक्षित क्षेत्रों को बर्बाद करने को रोका जा सके.
भारत ने ज़मीनी, जलीय (वॉटर बॉडी) और समुद्री इकोसिस्टम की व्यापक श्रेणी में OECM की 14 श्रेणियों की पहचान की है. इनमें निजी तौर पर एक व्यक्ति के द्वारा देख-रेख किया जा रहा इलाक़ा; नगर निगमों; कंपनियों (जो कि फर्टिलाइज़र, गाड़ियां, इत्यादि के मैन्युफैक्चरिंग में शामिल हैं); फाउंडेशन एवं ट्रस्ट और नेचर क्लब के द्वारा प्रबंधित ज़मीन; बायोडायवर्सिटी मैनेजमेंट कमेटी और कुछ स्थानीय पंचायत एवं गांव जिन्हें सरकारी ज़मीन के रूप में वर्गीकृत किया गया है; या डीम्ड और ग़ैर-वर्गीकृत वन शामिल हैं. इन क्षेत्रों के संरक्षण को लेकर ऐसे संस्थानों की कोशिशें सराहनीय हैं और इन्हें खारिज नहीं किया जा सकता है.
भारत ने जिन प्रस्तावित OECM की पहचान की है, उनमें से कई क्षेत्रों का संरक्षण नागरिकों की अगुवाई वाली पहल के ज़रिए किया जा रहा है. ऐसा उन लैंडस्केप को ख़तरे की वजह से संभव हो पाया है. उदाहरण के लिए, भारत के पहले OECM- गुरुग्राम का अरावली बायोडायवर्सिटी पार्क- में पत्थरों की खुदाई होती थी जिसे बाद में लोगों ने रोककर उसे ठीक किया. लोगों ने इस जगह हाईवे के निर्माण की योजना का विरोध किया. लोगों की अगुवाई में इस तरह की कई पहल शहरों और कस्बों के साथ-साथ ग्रामीण इलाक़ों में की जा रही है. जिन इलाक़ों को बचाया जा रहा है उनका संरक्षण मूल्य बहुत ज़्यादा है लेकिन अलग-अलग तरह की ग़लत गतिविधियों की वजह से उन पर ख़तरा है. हलचल से भरपूर महानगर मुंबई के बीचो-बीच आरे को ले लीजिए. यहां संजय गांधी नेशनल पार्क से सटे कुछ इलाक़ों को एक-एक करके डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड, नगर निगम और कई रियल एस्टेट प्रोजेक्ट को दे दिया गया. इस इलाक़े के इर्द-गिर्द रहने वाले जागरूक लोगों के साथ-साथ अनुसूचित जनजाति के लोग इलाक़े में मेट्रो कार शेड बनाने के लिए नगर निगम के द्वारा ग़ैर-क़ानूनी ढंग से पेड़ काटने का विरोध कर रहे हैं. आरे इलाक़ा एक समृद्ध, विविध (डायवर्स) वन का इकोसिस्टम है लेकिन इसे अभी तक क़ानूनी रूप से वन की श्रेणी में नहीं रखा गया है. एक और उदाहरण राजस्थान के जैसलमेर में देगराय ओरण का है. जिस वक़्त मॉन्ट्रियल में फ्रेमवर्क को लेकर चर्चा चल रही थी, उसी वक़्त इस ओरण (गांवों-मंदिरों के आसपास की वो ज़मीन जिसे खेती से मुक्त कर दिया गया है) का इस्तेमाल करने वाले और इसका संरक्षण करने वाले गांवों के लोग बड़े पैमाने पर रिन्यूएबल एनर्जी ट्रांसमिशन पावर लाइन के ख़िलाफ़ यात्रा निकाल रहे थे. ये पावर लाइन लुप्त हो रहे ग्रेट इंडियन बस्टर्ड और दूसरे पक्षियों के साथ-साथ इस इलाक़े के ऊंटों का भी रास्ता रोक रहे हैं, इनकी वजह से उनकी मौत हो रही है.
इस तरह के क्षेत्र आदर्श रूप से OECM हैं और OECM के रूप में उनके वर्गीकरण से उस क्षेत्र के संरक्षण के महत्व को मान्यता मिलने के साथ-साथ स्थानीय स्तर पर संरक्षण की कोशिशों के लिए असरदार सुरक्षा मुहैया हो सकती है. लेकिन भारत में OECM के घोषणा की मौजूदा प्रक्रिया पूरी तरह से स्वैच्छिक है. इसके अलावा ये तथ्य भी है कि OECM के रूप में किसी क्षेत्र की मान्यता का कोई क़ानूनी, वित्तीय या प्रबंधन से जुड़ा अर्थ नहीं होगा. इसका ये अर्थ है कि भारत जहां ऐसे क्षेत्रों को संरक्षित इलाक़े के तौर पर बता पाएगा लेकिन उन्हें किसी दूसरी ग़ैर-संरक्षण की गतिविधि के लिए तब्दील करने से नहीं बचाया जा सकेगा.
इसलिए इन टारगेट पर अमल के मामले में जैव विविधता के हिसाब से महत्वपूर्ण क्षेत्रों के संरक्षण को लेकर सरकारों की वास्तविक कार्रवाई के ज़रिए गंभीरता से पड़ताल करने की ज़रूरत है, न कि प्रतिशत में अमल के बारे में जानकारी देना. ये मूल निवासियों और स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाकर करना होगा. साथ ही ऐसे इलाक़ों को विनाशकारी गतिविधियों से क़ानूनी तौर पर बचाने के लिए सरकारों को ख़ास दिलचस्पी लेनी होगी.
मीनल तत्पति कल्पवृक्ष एनवायरमेंट एक्शन ग्रुप के साथ सीनियर रिसर्च एंड एडवोकेसी एसोसिएट हैं.
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