Author : Shoba Suri

Published on Feb 13, 2021 Updated 0 Hours ago

दलहन, न केवल खाद्य सुरक्षा में सुधार करते हैं, और आर्थिक स्थिरता का निर्माण करते हैं, बल्कि वे ग्रीनहाउस गैसों को कम करके जलवायु परिवर्तन को कम करने में भी योगदान देते हैं.

सतत भविष्य और खाद्य सुरक्षा के लिए दलहन

विश्व दलहन दिवस (World Pulses Day) का आयोजन ‘दालों के पोषण संबंधी लाभों के बारे में आम लोगों के बीच जागरूकता बढ़ाने और टिकाऊ खाद्य प्रणालियों व #ZeroHunger के लिए प्रतिबद्ध दुनिया के लक्ष्य को पूरा करने में उनके योगदान रेखांकित करने का एक अवसर है. दालों में पोषक तत्वों, उच्च प्रोटीन सामग्री, कम वसा और उच्च फाइबर के साथ आंतरिक मूल्य होता है, जो कोलेस्ट्रॉल और रक्त में पाई जाने वाली चीनी को नियंत्रित रखता है. दलहन, न केवल खाद्य सुरक्षा में सुधार करते हैं, और आर्थिक स्थिरता का निर्माण करते हैं, बल्कि वे ग्रीनहाउस गैसों को कम करके जलवायु परिवर्तन को कम करने में भी योगदान देते हैं.

संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन, एफएओ (Food and Agriculture Organisation, FAO) के महानिदेशक के अनुसार, ‘दालें’ खाद्य असुरक्षा को दूर करने और सभी के लिए स्वस्थ और संतुलित आहार सुनिश्तित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं. इस मायने में दलहन की पोषण क्षमताओं को टटोलने की आवश्यकता है, ताकि साल 2030 के लिए सतत विकास लक्ष्य, एसडीजी (sustainable development goals) की दिशा में प्रगति में तेज़ी लाई जा सके और यह समझा जा सके कि दलहन इस लक्ष्य को कैसे पूरा कर सकते हैं. विश्व दलहन दिवस के लिए इस वर्ष की थीम है सतत भविष्य के लिए पौष्टिक बीज, जो अपने आप में दालों के मूल्यवान होने की व्याख्या करता है.

महामारी ने भूख को समाप्त करने और खाद्य सुरक्षा हासिल करने की दिशा में दशकों में की गई प्रगति को उलट कर दुनियाभर में कुपोषितों के जीवन और लोगों की आजीविका को ख़तरे में डाल दिया है. 

खाद्य सुरक्षा को आगे बढ़ाने और ग़रीबी को कम करने में वैश्विक प्रगति के बावजूद, दुनिया में भूखे लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है, बाल स्टंटिंग (child stunting) यानी बच्चों के विकास में अनियमितता अब भी बनी हुई है और इसे लेकर निर्धारित किए गए लक्ष्यों को पूरा नहीं किया जा सका है. इस के अलावा बीमारी के रूप में मोटापा लगातार बढ़ रहा है. साल 2030 तक 840 मिलियन से अधिक लोगों के कुपोषित होने के अनुमान के चलते, दुनिया ‘ज़ीरो हंगर’ के अपने लक्ष्य को हासिल करने की राह पर नहीं है. महामारी ने भूख को समाप्त करने और खाद्य सुरक्षा हासिल करने की दिशा में दशकों में की गई प्रगति को उलट कर दुनियाभर में कुपोषितों के जीवन और लोगों की आजीविका को ख़तरे में डाल दिया है. संयुक्त राष्ट्र के विश्व खाद्य कार्यक्रम, डब्ल्यूएफपी (World Food Programme, WFP) की रिपोर्ट महामारी के कारण भूख में वृद्धि का संकेत देती है, जिसमें लगभग 270 मिलियन लोग खाद्य-असुरक्षा का सामना कर रहे हैं, जो कोविड-19 से पहले 149 मिलियन थे. यह गंभीर चिंता का विषय है.

भारत में कुपोषण

साल 2020 के ग्लोबल हंगर इंडेक्स पर भारत 107 के बीच 94वें पायदान पर है. यह भूख को लेकर ‘गंभीर’ स्तर की श्रेणी में आता है. लैंसेट ने दुनिया भर में पांच साल से कम उम्र के बच्चों में होने वाली कुपोषण से संबंधित 1.04 मिलियन मौतों में से दो-तिहाई के लिए भारत को ज़िम्मेदार ठहराया है. दुनिया भर में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की श्रेणी में अनियमित विकास का शिकार होने वाले 144 मिलियन बच्चों में से 46.6 मिलियन बच्चे अकेले भारत से हैं. इसके अलावा, दुनिया भर में पांच साल की उम्र से कम के बच्चों में कुपोषण के चलते, कद और वज़न के अनुपात में होने वाली कमी के चलते स्वास्थ्य में गिरावट के शिकार 47 मिलियन बच्चों में से 25.5 मिलियन भारत में है. कोविड-19 की महामारी संभवतः भारत की कुपोषण की समस्या को और बिगाड़ते हुए उसमें दस से बीस प्रतिशत बढ़ोत्तरी तक सकती है.

अनुसंधान यह बताते हैं कि आहार में विविधता (dietary diversity) सीधे तौर पर, आहार की गुणवत्ता और घरेलू खाद्य सुरक्षा के साथ-साथ मातृ शिक्षा और रोज़गार के चलते, सामाजिक-आर्थिक स्थिति के बीच संबंध दर्शाता है और इसे लेकर आने वाले सकारात्मक बदलाव से जुड़ा है. साल 2015-16 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (National Family Health Survey – NFHS) एनएफएचएस-4, के अनुसार, केवल 9.6 प्रतिशत बच्चों (6-23 महीने) को न्यूनतम स्वीकार्य आहार दिया जाता है. भारत के 22 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में किए गए एनएफएचएस-5 में यह बात सामने आई है कि पर्याप्त आहार प्राप्त करने वाले बच्चों के प्रतिशत में मामूली सुधार हुआ है. गुजरात में यह 5.9 प्रतिशत से लेकर मेघालय में 29.8 प्रतिशत तक है. ईट- लैंसेट कमीशन ऑन फूड, प्लैनेट, हेल्थ (Eat-Lancet Commission on Food, Planet, Health) के अनुसार, भारत को पोषण संबंधी सुरक्षा प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण रूप से आहार में विविधता (dietary diversity) और व्यवहार में परिवर्तन (behaviour change) सुनिश्चित करने की आवश्यकता है. इस संबंध में किए गए अध्ययनों में सामने आए आंकड़े बताते हैं कि दलहन, खाद्य सुरक्षा के मुद्दे में व्यापक और विस्तृत रूप से योगदान कर सकते 

संयुक्त राष्ट्र का खाद्य और कृषि संगठन यह सुझाव देता है कि, ‘21वीं सदी में भूख और कुपोषण पर काबू पाने का मतलब है, भोजन की मात्रा और गुणवत्ता बढ़ाना, जिस के साथ हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हम निरंतर, कुशलतापूर्वक और सुरक्षित रूप से भोजन का उत्पादन करें.’ भारत में केवल 42 प्रतिशत बच्चे (6-23 महीने) नियत समय पर न्यूनतम भोजन खा पाते हैं (उनकी आयु के हिसाब से प्रति दिन ज़रूरी न्यूनतम संख्या में भोजन) और केवल 21 प्रतिशत मामलों में न्यूनतम आहार विविधता होती है (चार या अधिक भोजन समूहों वाला आहार- अनाज, दलहन और फलियां, दूध और दूध से बने उत्पाद, अंडे, फल और सब्जियां, और ताजा खाद्य पदार्थ). ताज़ा घरेलू व्यय सर्वेक्षण रिपोर्ट (household expenditure survey) के अनुसार, दालों और दूध जैसे सुरक्षात्मक खाद्य पदार्थों के खर्च और खपत में गिरावट आई है. भारत, अनाज आधारित आहारों से अपने प्रोटीन को प्राप्त करता है और गुणवत्ता में सुधार करता है, विशेष रूप से दालों के माध्यम से प्रोटीन, कुपोषण से निपटने के लिए आवश्यक है. भारत में 20 मिलियन टन (वैश्विक उत्पादन का 25 प्रतिशत) के दलहन उत्पादन के ज़रिए विश्व में अग्रणी होने के बावजूद, दालों के लिए मांग और आपूर्ति में बढ़ते अंतर को झेल रहा है.

भारतीय खानपान में दाल की कमी

भारतीय राज्यों और आय समूहों में विभिन्न आहारों पर हुए एक अध्ययन में प्रोटीन, फलों और सब्ज़ियों के आवश्यक अनुपात के बिना, खपत से संबंधित पैटर्न को अस्वास्थ्यकर पाया गया है. भारत भर में एक सात शहरों में हुए सर्वेक्षण में भाग लेने वाले 73 प्रतिशत लोगों में प्रोटीन की कमी पाई गई इसी के साथ, 93 प्रतिशत लोगों को इस बात की कोई जानकारी नहीं थी कि उन्हें दैनिक रूप से प्रोटीन लेने की ज़रूरत है. एनएसएसओ का 68वां दौर यह इंगित करता है कि वर्तमान में अनाज, भारतीयों के लिए प्रोटीन का प्रमुख स्रोत बनते हैं, इस तथ्य के बावजूद कि दालें प्रोटीन का सबसे सस्ता स्रोत हैं. दालें, आहार में मौजूद प्रोटीन का 10 प्रतिशत योगदान देती हैं और इसे लेकर प्रति व्यक्ति मासिक खपत में मामूली वृद्धि हो रही है. दालों के साथ अनाज आधारित आहार को पूरक करने से संभावित रूप से कुपोषण में कमी आ सकती है. इस बात के साक्ष्य मौजूद हैं कि दालों का अधिक सेवन करने वाले लोग कुपोषण से अधिक रूप से सुरक्षित होते हैं.

संयुक्त राष्ट्र का खाद्य और कृषि संगठन यह सुझाव देता है कि, ‘21वीं सदी में भूख और कुपोषण पर काबू पाने का मतलब है, भोजन की मात्रा और गुणवत्ता बढ़ाना, जिस के साथ हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हम निरंतर, कुशलतापूर्वक और सुरक्षित रूप से भोजन का उत्पादन करें.’ 

दालें, भारतीय आहार में प्रोटीन का एक अनिवार्य स्रोत हैं. भारत सरकार के खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम, बच्चों, किशोरियों, गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं को अनुशंसित आहार भत्ते का 50 प्रतिशत प्रदान करते हैं. सरकार ने महामारी के दौरान एक राहत पैकेज की घोषणा की, जिसमें हर महीने पांच किलो चावल / गेहूं और एक किलो पसंदीदा दाल की अतिरिक्त आपूर्ति की गई. कुछ राज्यों जैसे- आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली, पीडीएस (Public Distribution System, PDS) के माध्यम से दालें उपलब्ध कराने में सफलता प्राप्त की है.

दालें, आहार में मौजूद प्रोटीन का 10 प्रतिशत योगदान देती हैं और इसे लेकर प्रति व्यक्ति मासिक खपत में मामूली वृद्धि हो रही है.

एक नीति के रूप में, पीडीएस प्रणाली के अंतर्गत, और अधिक सस्ती व रियायती दरों पर दालें उपलब्ध कराई जानी चाहिए. यह आम लोगों को ज़रूरी पोषण सुरक्षा प्रदान करेगा, विशेष रूप से हमारी आबादी के कमज़ोर वर्ग को. पोषण और टिकाऊ भविष्य का दोहरा लाभ पाने के लिए माईक्रो-न्यूट्रिएंट यानी सूक्ष्म पोषण को लेकर जागरूकता पैदा करना और दालों की खपत के मामले में लोगों को जागरुक बनाने की तत्काल आवश्यकता है. एक स्वस्थ भविष्य और आने वाली पीढ़ियों की बेहतरी के लिए हमें आज ही यह काम करना होगा!

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