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अगर SID का सही और पूरी तरह से इस्तेमाल किया जाए तो इससे काफी फायदे मिल सकते हैं. लेकिन भारत में अभी तक इसे सिर्फ जरूरत पड़ने पर, संकट के समय ही थोड़े-थोड़े तरीके से इस्तेमाल किया गया है. इसे किसी ठोस और लंबी योजना के हिस्से के रूप में अब तक लागू नहीं किया गया है.
ब्रिगेडियर जनरल फ्रैंक ग्रैफ़ जब सिंगापुर के अपने होटल के कमरे 2024 से जर्मन वायु सेना लूफ़्तवाफे के वरिष्ठ सहयोगियों के साथ आधी रात को वेबेक्स पर बात कर रहे थे, तो उन्हें रत्ती भर भी चिंता न थी. आखिरकार, वह एक सुरक्षित लाइन से जुड़े हुए थे, जिसको भेदना उन लोगों के लिए नामुमकिन था, जो जर्मनी के ख़िलाफ़ थे. फिर भी, सिर्फ़ दो हफ़्ते के बाद ही, यूरोप 38 मिनट की उस कॉल की पूरी ऑडियो रिकॉर्डिंग सुनकर बुरी तरह चौंक गया. उसमें जर्मनी द्वारा यूक्रेन को दी जाने वाली टॉरस मिसाइलों की अगली डिलीवरी के बारे में पूरी जानकारी थी. इसे रूस के सरकारी चैनल RT ने प्रसारित किया था. हालांकि, बाद में जर्मनी के खुफ़िया अधिकारियों ने जांच में यह पता लगा लिया कि रूसी खुफ़िया अधिकारियों ने होटल के असुरक्षित वाई-फ़ाई का इस्तेमाल करके कॉल को इंटरसेप्ट (भेदना) किया था. और, अपनी रणनीतिक योजना के तहत इस खुफ़िया जानकारी को गुप्त रखने के बजाय रूस ने पश्चिम की रणनीति से सबक लेते हुए 2022 से चल रहे यूक्रेन युद्ध के बीच में इस इंटरसेप्ट की गई सूचना को सार्वजनिक करने और रणनीतिक खुफ़िया प्रकटीकरण (SID) का उपयोग करते हुए अपने विरोधी पर प्रचार संबंधी बढ़त हासिल करने का फ़ैसला किया.
SID में सिर्फ़ खुफ़िया जानकारी साझा करना ही नहीं, बल्कि इसे प्रेस या सोशल मीडिया पर जानबूझकर लीक कर स्रोत को छिपाना भी शामिल है.
SID हर समस्या का हल नहीं है, लेकिन यह हमारी रणनीति और ताक़त बढ़ाने में बहुत मददगार साबित हो सकता है.
डिजिटल मीडिया और रणनीतिक संचार के प्रभावी उपयोग से सूचना क्षेत्र को अपने नियंत्रण में ले लेना किसी रणनीति को प्रभावशाली ढंग से क्रियान्वित करने का बुनियादी आधार माना जाता है. कोई भी सरकार SID और उसके इस्तेमाल के प्रति अनुकूल नज़रिया अपनाकर इसका लाभ उठा सकती है. फिर भी, भारत में SID का कभी-कभार उपयोग किया जाता है, विशेषकर संकट के समय इसका कुछ हद तक इस्तेमाल किया जाता है, न कि एक समग्र रणनीति के तौर पर. इस निबंध में SID के फ़ायदे और ख़तरों का ज़िक्र किया गया है, साथ ही वैश्विक ताक़तों द्वारा इसके उपयोग की हाल-फिलहाल की घटनाओं का ज़िक्र करते हुए भारत की मौजूदा रणनीतिक स्थिति के लिहाज़ से इसके उपयोग को प्रासंगिक बनाने की वकालत की गई है.
इस निबंध में SID के फ़ायदे और ख़तरों का ज़िक्र किया गया है, साथ ही वैश्विक ताक़तों द्वारा इसके उपयोग की हाल-फिलहाल की घटनाओं का ज़िक्र करते हुए भारत की मौजूदा रणनीतिक स्थिति के लिहाज़ से इसके उपयोग को प्रासंगिक बनाने की वकालत की गई है.
SID के महत्व को वैश्विक खुफ़िया एजेंसियां लंबे समय से पहचानती रही हैं. एक बार जब खुफ़िया जानकारी जानबूझकर सार्वजनिक की जाती है और व्यापक सूचना रणनीति के तहत उसका प्रसारण किया जाता है तो सूचना जारी करने वालों की विरोधियों पर दबाव बनाने की क्षमता उल्लेखनीय रूप से बढ़ सकती है. इससे वह अधिक प्रभावी बन सकता है और उसके कई उद्देश्य पूरे हो सकते हैं. जैसे- मनोवैज्ञानिक लाभ पाने के लिए उक्त विरोधी को सार्वजनिक तौर पर शर्मिंदा किया जा सकता है, या विरोधी के ख़िलाफ़ अपनी बातों के पक्ष में वैश्विक जनमत या राजनयिक समर्थन जुटाया जा सकता है.
यह वह तर्क है, जिसने सरकारों को SID के उपयोग के प्रति सजग बनाया है. 1962 की शुरुआत में, संयुक्त राज्य अमेरिका ने क्यूबा मिसाइल संकट के दौरान अपने पक्ष में वैश्विक राय बनाने के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सामने सोवियत मिसाइलों की मौजूदगी के बारे में उस इमेजरी इंटेलिजेंस (IMINT) से खुलासा किया, जो उसने टोही विमानों, उपग्रहों आदि से जुटाए थे. 2021 के बाद से, पश्चिमी खुफ़िया एजेंसियां- विशेष रूप से अमेरिका और ब्रिटेन की, जो यूक्रेनी सुरक्षा सेवाओं के साथ मिलकर काम कर रही हैं- SID की रणनीति अपनाती रही हैं. पहले तो आसन्न सैन्य टकराव को कुछ समय तक टालने के लिए यूक्रेनी सीमा पर रूसी सैनिकों की आवाजाही के बारे में खुफ़िया जानकारियों का खुलासा किया गया, और फिर जब युद्ध शुरू हो गया, तो विरोधी के मनोबल को तोड़ने के लिए रूसी सैनिकों व उनके फील्ड कमांडरों की बातचीत को इंटरसेप्ट व सार्वजनिक किया जाने लगा. कुछ मामलों में तो निजी कलाकारों द्वारा वृत्तचित्र भी बनाया गया है, ताकि बड़े पैमाने पर लोगों में प्रभाव पैदा किया जा सके.
SID कोई रामबाण उपाय नहीं है और इसका उपयोग सोच-समझकर किया जाना चाहिए. SID के नाम पर झूठी या फ़र्जी खुफ़िया सूचनाओं को प्रचारित करने से उसे जारी करने वाले देश की प्रतिष्ठा पर गहरा दाग लग सकता है और उसके लिए रणनीतिक ख़तरे पैदा हो सकते हैं.
फिर भी, SID कोई रामबाण उपाय नहीं है और इसका उपयोग सोच-समझकर किया जाना चाहिए. SID के नाम पर झूठी या फ़र्जी खुफ़िया सूचनाओं को प्रचारित करने से उसे जारी करने वाले देश की प्रतिष्ठा पर गहरा दाग लग सकता है और उसके लिए रणनीतिक ख़तरे पैदा हो सकते हैं. 2003 में अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सामने इराक के कथित मानव संहारक हथियारों के बारे में जो ‘ठोस सबूत’ पेश किया था, वह कुछ इसी तरह का मामला था. इसके अलावा, अगर बिना सावधानी के इसका इस्तेमाल किया जाए, तो SID जासूसों या खुफ़िया जानकारी जुटाने में शामिल तकनीकी स्रोतों की सुरक्षा को ख़तरे में डाल सकता है. हालांकि, सरकारें कच्ची सूचनाओं के बजाय खुफ़िया आकलन जारी करना पसंद करती हैं और इन चुनौतियों से बचने की कोशिश करती रहती हैं. वे यदि कच्ची सूचनाएं जारी भी करती हैं, तो उनके स्रोत को छिपाने के लिए हर संभव कदम उठाती है. हालांकि, इन कुछ सावधानियों के बावजूद, सरकारों ने कभी-कभी कच्ची सूचनाएं जारी कर विरोधियों के ख़िलाफ़ SID को आगे बढ़ाने का विकल्प चुना, जैसा कि 2018 में देखा गया था, जब तुर्किये की खुफ़िया सेवाओं ने ज़माल खशोगी की हत्या में सऊदी अरब की मिलीभगत के ऑडियो और विजुअल सबूतों को सार्वजनिक करने का फ़ैसला किया, जबकि ऐसा करने से यह भी पता चल रहा था कि उन्होंने उस दूतावास की जासूसी की थी, जहां यह घटना हुई थी.
हालांकि, SID के तहत केवल खुफ़िया सूचनाओं को खुद ही सार्वजनिक करने का काम नहीं किया जाता, बल्कि प्रेस या सोशल मीडिया को जानबूझकर ‘लीक’ करने की रणनीति अपनाकर उक्त खुफ़िया जानकारी के स्रोत को छिपाने का प्रयास भी किया जा सकता है. इज़रायल ने अतीत में इस तरह की रणनीति अपनाई है. उसने सबसे पहले 2017 में लेबनानी हिज़्बुल्लाह के पास कुछ ख़ास हथियारों के होने की खुफ़िया सूचना अरब और वैश्विक मीडिया में ‘लीक’ की, ताकि अरब को सार्वजनिक रूप से जवाब देने के लिए मजबूर किया जा सके और इस तरह उसके फ़ैसले को प्रभावित किया जा सके. इसी तरह, 2018 में JCPOA समझौते के बावजूद, ईरान द्वारा चलाए जा रहे परमाणु हथियार कार्यक्रम के बारे में संयुक्त राष्ट्र में खुफ़िया सूचना साझा करके यही रणनीति अपनाई गई थी.
भारत SID से अनजान नहीं है. रणनीतिक औज़ार के रूप में इसकी सफलता का सबसे बड़ा उदाहरण 1999 का कारगिल युद्ध है, जब भारतीय खुफ़िया एजेंसियों ने परवेज़ मुशर्रफ और पाकिस्तान के चीफ ऑफ जनरल स्टाफ जनरल अज़ीज़ खान के बीच एक टेलीफोन कॉल को इंटरसेप्ट किया और उसे सार्वजनिक रूप से प्रसारित करने में मदद की. इससे न सिर्फ़ पाकिस्तान द्वारा मुज़ाहिदीन लड़ाकों को मदद करने के सुबूत मिले, जिसे मानने से उसने इनकार कर दिया था, बल्कि नवाज़ शरीफ़ के नेतृत्व वाले पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार के प्रति सेना की नाफ़रमानी का भी प्रमाण मिला. पूर्व रॉ प्रमुख विक्रम सूद के अनुसार, इस खुफ़िया जानकारी के खुलासे के कारण न सिर्फ़ नवाज़ शरीफ़ को सेना से नियंत्रण वापस हासिल करने में मदद मिली, बल्कि इसने आगे चलकर युद्ध को समाप्त करने में भी अपना उल्लेखनीय योगदान दिया.
हाल के दिनों में, भारत ने ख़ासकर पाकिस्तान के साथ, संकट और संघर्ष के समय रणनीतिक उद्देश्यों के लिए सूचनाओं के इस्तेमाल की कोशिश की है, जो बेशक खुफ़िया जानकारी न मानी जाती हो. असल में, 2019 में बालाकोट में आतंकी शिविरों पर हवाई हमलों के बाद, भारतीय वायु सेना ने मीडिया संस्थानों को उपग्रह से लिए गए चित्र दिखाए, जिनसे साबित हुआ कि पाकिस्तान स्थित आतंकी ठिकानों पर SPICE मिसाइलों का इस्तेमाल किया गया था. ऑपरेशन सिंदूर के दौरान, विदेश सचिव और सशस्त्र बलों के प्रतिनिधियों ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में पाकिस्तानी आतंकी शिविरों व सैन्य ठिकानों को हुए नुकसान की पुष्टि करती उच्च-गुणवत्ता वाली उपग्रह तस्वीरें जारी की थीं.
फिर भी, कुछ प्रमुख कारणों से भारत SID का प्रभावशाली इस्तेमाल नहीं कर पा रहा. इसकी पहली वज़ह यही है कि SID का उपयोग मुख्य रूप से संकट के समय अपनी सफलता को मापने या साबित करने के एक माध्यम के रूप में किया जाता रहा है, न कि किसी ठोस शांतिकालीन रणनीति के तहत दुश्मन का मनोबल तोड़ने या उसे सार्वजनिक तौर पर शर्मिंदा करने के लिए. दूसरी, कारगिल युद्ध को छोड़ दें, तो खुफ़िया सूचनाओं के खुलासे में मुख्य रूप से स्थिर तस्वीरों का इस्तेमाल किया जाता रहा है, जो 30 सेकंड के ऑडियो-विजुअल वाले इंस्टाग्राम रील या यू-ट्यूब शॉर्ट वाले इस दौर में सार्वजनिक प्रसारण के लिए उपयुक्त नहीं होते. तीसरी, भारत में SID को लेकर बहस घरेलू राजनीतिक माहौल के कारण, जो यहां की लोकतांत्रिक राजनीति का अभिन्न हिस्सा बन गया है, बेमानी बन गई है, जिससे भारत के विरोधी इसका फ़ायदा उठा रहे हैं. इसी का उदाहरण है, 2016 में पाकिस्तान के ख़िलाफ़ भारत की सर्जिकल स्ट्राइक के ठोस ‘सुबूत’ मांगना. और आख़िरी कारण, भारत की नौकरशाही में गोपनीयता की संस्कृति इतनी गहरी जड़ें जमा चुकी हैं कि खुफ़िया एजेंसियां अपने पास मौजूद खुफ़िया जानकारियों को उनसे साझा करने से बचती हैं, क्योंकि उनको अपने स्रोतों और तरीकों के सार्वजनिक होने की चिंता सताती है. हालांकि, अपने खुफ़िया तंत्र के जाहिर होने की चिंता के बावजूद, भारत को गोपनीयता को आड़े नहीं आने देना चाहिए, क्योंकि यह कहीं अधिक पारदर्शी युग है और अब कोई भी इंसान सूचनाओं को सार्वजनिक कर सकता है. इसलिए, भारत को SID को लेकर स्पष्ट नीति व सिद्धांत अपनाना चाहिए और इसका लाभ उठाना चाहिए.
भारत की नौकरशाही में गोपनीयता की संस्कृति इतनी गहरी जड़ें जमा चुकी हैं कि खुफ़िया एजेंसियां अपने पास मौजूद खुफ़िया जानकारियों को उनसे साझा करने से बचती हैं, क्योंकि उनको अपने स्रोतों और तरीकों के सार्वजनिक होने की चिंता सताती है.
भारत में SID का भविष्य क्या हो? सबसे पहले, SID को अपनी प्रासंगिकता साबित करने की रणनीति के रूप में नहीं, बल्कि एक ऐसे उपाय के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसका उद्देश्य शांतिकाल और संकट या संघर्ष-काल, दोनों में ही विरोधी को विश्व स्तर पर शर्मिंदा करना हो. विरोधी के अगले कदमों को सार्वजनिक करके उसके लिए रणनीतिक विकल्प सीमित करने का प्रयास होना चाहिए. इस तरह की रणनीति का मनोवैज्ञानिक प्रभाव खूब पड़ता है, जिससे विरोधी ज्यादातर समय अचंभित ही रहेगा.
दूसरा, रणनीतिक खुफ़िया जानकारियों को केवल उपग्रह से मिलने वाली तस्वीरों से साबित नहीं करना चाहिए. 2019 के बालाकोट ऑपरेशन और 2025 में ऑपरेशन सिंदूर के दौरान इस तरह की तस्वीरों का उपयोग किया गया था, जिसकी वजह समझी जा सकती हैं, क्योंकि मैक्सार जैसे वाणिज्यिक प्लेटफार्म द्वारा आसानी से उठाए जा सकने वाली उपग्रह तस्वीरों का खुलासा करके भारत खुफ़िया जानकारी जुटाने के अपने महत्वपूर्ण स्रोतों व तरीकों का खुलासा नहीं करना चाहता था. फिर भी, जैसा कि कारगिल युद्ध के दौरान रॉ द्वारा पाकिस्तान में उच्च-स्तरीय फोन कॉलों को इंटरसेप्ट करने और सार्वजनिक करने से पता चलता है कि भारतीय खुफ़िया एजेंसियों के पास ऑडियो, यहां तक कि वीडियो वाली खुफ़िया जानकारियों को भी खोज निकालने की पूरी क्षमता है. वे इनसे विनाशकारी प्रभाव डालने के लिए सार्वजनिक करने की भी योग्यता रखती हैं. ऑडियो-वीडियो वाली खुफ़िया सूचनाएं SID के संभावित रणनीति के रूप में प्रमुखता से उपयोग में लाई जा सकती हैं, विशेष तौर पर सोशल मीडिया पर छोटे-छोटे वीडियो के रूप में, या फिर फिल्मों या वृत्तचित्रों, पॉडकास्ट आदि के रूप में प्रसारित करके.
तीसरा, SID और सूचना युद्ध को एक ही माना जाना चाहिए. खुफ़िया जानकारी तभी सार्वजनिक की जानी चाहिए, जब यह तय हो कि खुलासे के बाद विरोधी अपनी प्रतिक्रिया देगा, जो आखिरकार किसी न किसी रूप में उसकी रणनीति को कमज़ोर करेगा. इसका इस्तेमाल इस तरह होना चाहिए कि विरोधी की नीतियों को भेदती हुई यह उसके सामाजिक, धार्मिक, असैन्य या नौकरशाही दरारों के केंद्र तक पहुंचकर उसे जवाब देने के लिए बाध्य कर दे.
परिभाषा की नज़र से देखें, तो खुफ़िया व्यवसाय गोपनीयता में लिपटा हुआ है, और इसे ऐसा होना भी चाहिए. फिर भी, एक ऐसे युग में, जहां डिजिटल संचार और सार्वजनिक प्रसारण तक लोगों की आसान पहुंच ने सूचना परिदृश्य को पूरी तरह बदल दिया है, भारत की खुफ़िया व्यवस्था को भी इसके अनुकूल बनाना होगा. SID भले ही रामबाण न हो, लेकिन यह निश्चित रूप से हमारी रणनीतिक क्षमता और प्रभावशीलता को बढ़ाने में काफ़ी महत्वपूर्ण साबित होगा.
(अर्चिष्मान रे गोस्वामी ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में नॉन-रेजिडेंट जूनियर फेलो हैं)
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Archishman Ray Goswami is a Non-Resident Junior Fellow with the Observer Research Foundation. His work focusses on the intersections between intelligence, multipolarity, and wider international politics, ...
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