Author : Shashank Joshi

Published on Dec 27, 2016 Updated 0 Hours ago

भारत, भविष्य में अफगानिस्तान में बिजली की परियोजना के लिए मध्य एशिया-विशेष कर ताजिकिस्तान पर निर्भर कर सकता है, लेकिन क्षेत्र में उसकी अपनी पहुंच ईरान और रूस के साथ अच्छे रिश्तों और अफगानिस्तान में स्थायित्व पर निर्भर करेगी। अभी तक ईरान और रूस पाकिस्तान के साथ सौहार्दपूर्ण रिश्ते हैं, जबकि अफगानिस्तान में सुरक्षा के हालात बिगड़ रहे हैं।

विरोधियों से घिरे भारत के लिए सामरिक चुनौतियां

पृष्ठभूमि

भारत का सामरिक वातावरण उथल-पुथल से भरपूर है। लगभग एक दशक के दौरान चीन का उदय एशिया की निरंतर वृद्धि में सहायक रहा है, लेकिन साथ ही उसने सुरक्षा व्यवस्था पर अभूतपूर्व दबाव भी बनाया है। पश्चिम से संपर्क बनाने के लिए चीन की ‘वन बेल्ट वन रोड’ (ओबीओआर) पहल काफी बदलावकारी है, लेकिन इससे उन दबावों के और ज्यादा प्रबल होने की संभावना है। अमेरिका का एशिया की ओर झुकाव अभी शुरूआती अवस्था में है, लेकिन एशिया में ‘हब एंड स्पोक’ गठबंधन विकसित हो रहे है, जबकि मझोंली ताकतें अमेरिका की प्रतिबद्धता पर सवालिया निशान लगाते हुए ज्यादा सक्रिय हो रही हैं और एक-दूसरे के साथ गहरे संबंध स्थापित कर रही हैं। चीन के खिलाफ आंतरिक और बाहरी संतुलन के ये रुझान भारत के लिए उपयुक्त हैं और वह लगातार अमेरिका तथा जापान के करीब जा रहा है और साथ ही समुद्रीय एशिया की सुरक्षा व्यवस्था में गहरी पैठ बना रहा है। इन धीमी प्रक्रियाओं के विपरीत, अफगानिस्तान की सत्ता में उभरता शून्य, भारत की सत्ता और सुरक्षा को काफी जल्दी चुनौती दे सकता है। सऊदी अरब और ईरान के बीच अनबन के कारण होने वाली प्रतिस्पर्धाओं से भूमध्यसागर से लेकर अरब सागर तक का स्थान कहीं ज्यादा तेजी से ध्वस्त हो़ रहा है।

उस पर, भारत ऐसे विलक्षण स्थान पर स्थित है, जिसके पूर्व में महान ताकतों के बीच राष्ट्र पर केंद्रित होड़ या प्रतिस्पर्धा (स्टेट सेंट्रिक पाॅवर काॅम्पीटिशन) हो रही है और पश्चिम में राष्ट्र—राज्य विखंडन (स्टेट फ्रैग्मेंटेशन) की स्थिति में है। भारत की रक्षा की स्थिति से दोनों की ही भिन्न-भिन्न अपेक्षाएं हैं, वह भी ऐसे मौके पर, जब भारतीय नेता अपने देश की धरती से हटकर नए सुरक्षा उत्तरदायित्वों की संभावनाओं को तेजी से अपना रहे हैं। इसके बावजूद, भारत को पहले से कहीं ज्यादा सहभागियों और प्रतिद्वंद्वियों के साथ इन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। ये सब ऐसे समय हो रहा है, जब दशकों बाद भारत की घरेलू सुरक्षा के वातावरण में शांति और आर्थिक स्थिति में सुदृढ़ता है।

पाकिस्तान

पाकिस्तान लगातार भारत का विरोधी बना हुआ है। जम्मू-कश्मीर में सीमा-पार हिंसा में 2003 के बाद से पर्याप्त कमी आई है। हालांकि, पाकिस्तान, भारत की सरजमीं पर हमले करने और विदेश में भारतीय हितों को निशाना बनाने के इच्छुक सशस्त्र आतंकी गुटों को शरण देना, प्रायोजित करना और कुछ मामलों में उन्हें सीधे निर्देश देना जारी रखे हुए है। इन गुटों में सबसे बड़ा और खतरनाक गुट लश्कर-ए-तैयबा है, जबकि अन्य गुटों में अल कायदा से संबद्ध-जैश-ए-मोहम्मद और तालिबान से संबद्ध हक्कानी नेटवर्क शामिल हैं, जिन्होंने कुछ अर्से तक निष्क्रिय रहने के बाद जनवरी, 2016 में दोबारा सिर उठाना शुरू कर दिया। पाकिस्तान ने जानबूझ कर, खास तौर पर पश्चिमी दबाव के कारण इन गुटों को नियंत्रित किया है, लेकिन वे मजबूती से जड़े जमाए हुए हैं। इसके अलावा, भारतीय उपमहाद्वीप में पाकिस्तान से गतिविधियां चलाने वाला अल कायदा (एक्यूआईएस) इन गुटों से सहायता लेकर भारत और दूसरे दक्षिण एशियाई देशों के लिए खतरा बन सकता है।

साल 2009 में चरम पर पहुंचने के बाद से जेहादी हिंसा में निरंतर कमी आ रही है और वह दशक भर के अपने सबसे न्यूनतम स्तर तक पहुंच गई है। अगर ऐसे ही चलता रहा, तो पाकिस्तान की पूर्वी सीमा पर बड़ी तादाद में सुरक्षाबलों का जमावड़ा हो सकता है। पश्चिमोत्तर में जर्ब-ए-अज्बिन आपरेशन की कामयाबी से प्रोत्साहित होकर पाकिस्तान की सेना ने नागरिक सरकार पर अपनी ताकत संगठित कर रखी है। पाकिस्तान की कूटनीतिक स्थिति भी मजबूत है। उसने अपने संरक्षक सऊदी अरब और पड़ोसी देश ईरान के बीच संतुलित रुख बरकरार रखा है। इतना ही नहीं, उसे पीओके (पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर) से होकर गुजरने वाले 46 अरब डालर वाले चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे से भी अपार लाभ होगा। पाकिस्तान ने अफगानिस्तान के भविष्य से संबंधित वार्ता में भी केंद्रीय भूमिका निभाई है। इसके अलावा पाकिस्तान की भारत के परम्परागत रक्षा सहयोगी-रूस के साथ 2016 में अपना पहला अभ्यास करने की योजना है।

भारत के समक्ष दो परम्परागत सैन्य खतरे हैं, उनमें से एक खतरा उसे पाकिस्तान के परम्परागत सशस्त्र बलों से है। पाकिस्तान के सेना प्रमुख रहे रहील शरीफ ने भले ही कश्मीर पर नए सिरे से शत्रुतापूर्ण बयानबाजी की है, लेकिन इसके बावजूद, करगिल जैसे एकाएक होने वाले किसी हमले के कोई आसार नहीं है। किसी आतंकवादी हमले के परिणामस्वरूप युद्ध भड़क सकता है, लेकिन हाल के शोध दर्शाते हैं कि इस तरह की त्वरित लड़ाईयां (शॉटलैंड वॉर्स) भारत के लिए ज्यादा फायदेमंद नहीं रहेंगी। इसका कारण – बड़ी तादाद में सुरक्षा बलों की मौजूदगी वाला इलाका (डिफेंस डोमिनेंट टरैन) है, यहां अचानक हमला कर विरोधी पक्ष को हैरत में नहीं डाला जा सकता। शताब्दी के मोड़ तक आते-आते चौथी पीढ़ी के लड़ाकू विमानों के प्रति पाकिस्तान और भारत का अनुपात के बाद लगभग आधा रह गया है।1 अंततः, बड़े पैमाने पर जवाबी कार्रवाई पर आधारित भारत के परमाणु सिद्धांत को प्रबल रूप से जटिल बनाते हुए पाकिस्तान के परमाणु हथियार, (निर्मित लेकिन तैनात नहीं) सामरिक परमाणु हथियारों सहित भारत के सैन्य लाभ की संभावनाओं को बुनियादी तौर पर सीमित करते हैं।

अफगानिस्तान और मध्य एशिया

अफगानिस्तान में अमेरिका के नेतृत्व में दशक भर चला युद्ध तालिबान को हराने, अलकायदा का सफाया करने या प्रभावशाली राष्ट्र की स्थापना करने में विफल रहा। विदेशी सेनाओं की वापसी के साथ ही तालिबान को काफी बड़े इलाके पर जीत मिली है, अफगान सुरक्षा बलों को भारी नुकसान पहुंचा है, राजनीतिक मतभेदों की खाई और चौड़ी हो गई है और इस्लामिक देश अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लगा है। 2014-15 में अफगानिस्तान की पाकिस्तान तक पहुंच बांटने वाली रही है और इसका कोई लाभ नहीं हुआ, लेकिन अमेरिका और चीन, दोनों पाकिस्तान को इस बात के लिए प्रोत्साहित करते रहे हैं कि वह तालिबान को बातचीत के लिए राजी करे।

वैसे तो सभी क्षेत्रीय ताकतों ने अफगान सरकार की सहायता करने की बात दोहराई है, लेकिन उनकी प्रतिक्रियाओं और सरोकारों में महत्वपूर्ण रूप से विविधता रही है। अफगानिस्तान को हथियार उपलब्ध कराने के लिए रूस को भारत सहित तीसरी दुनिया के देश धन उपलब्ध कराते रहे हैं, लेकिन उसकी प्राथमिकता इसके मध्य एशिया में दाखिल होने पर रोक लगाना रही है और वह हिंसा में कमी लाने वाले किसी भी समझौते के प्रति व्यवहारिक रवैया अपना सकता है। ईरान ने अफगानिस्तान के साथ अच्छे संबंध बरकरार रखे हैं, लेकिन वह लगातार तालिबानी गुटों को हथियार, प्रशिक्षण और सहायता उपलब्ध कराकर संभावित खतरे से अपना बचाव करता रहा है। इससे जाहिर होता है कि शांति वार्ताओं में इसका रवैया तालिबान के सशक्तिकरण का व्यापक विरोध करने के स्थान पर विशिष्ट भागीदारों द्वारा आकार लेगा।

इस संदर्भ में भारत कुछ हद तक अलग-थलग पड़ गया है। उसने शांति वार्ताओं को इन देशों की तुलना में कहीं ज्यादा चिंता के साथ देखा है, क्योंकि पाकिस्तान समर्थित तालिबान गुटों के हाथ मजबूत करने वाला कोई भी समझौता, भारतीय हितों को बहुत बड़े पैमाने पर चोट पहुंचा सकता है। इसके परिणामस्वरूप भारतीय वाणिज्य दूतावास बंद हो सकता है, अफगान सैन्य अधिकारियों को भारत द्वारा प्रशिक्षण देना समाप्त हो सकता है और भारत तथा अफगान खुफिया एजेंसियों के बीच बहुमूल्य सहयोग में कमी आ सकती है, इसके अलावा सबसे ज्यादा खतरनाक संभावना यह है कि 1999 में हुए आईसी-814 विमान अपहरण से मिलती जुलती घटनाएं हो सकती हैं। हालांकि, अगर संघर्ष लगातार जारी रहता है, तो भी भारत को गंभीर समस्याओं का सामना करना होगा, खासतौर पर तब, जब काबुल को पश्चिम से मिलने वाली वित्तीय सहायता में कमी आएगी और भारत के 1990 के दशक के तालिबान विरोधी साझेदार-ईरान और रूस, एक दोषपूर्ण समझौते के पक्ष में चीन और पाकिस्तान के साथ जा मिलेंगे। भारत के पास ऐसे किसी निष्कर्ष को स्वतंत्र रूप से निरंतर, प्रभावी चुनौती देने की क्षमता सीमित है।

अफगानिस्तान के इन बदलावों को मध्य एशिया के व्यापक संदर्भ में देखा जाना चाहिए। कैस्पियन सागर और शिंजियांग के बीच का स्थान, जहां चीन अपना प्रभाव बढ़ा रहा है, वह रूस तक जाता है। भारत, भविष्य में अफगानिस्तान में बिजली की परियोजना के लिए मध्य एशिया-विशेषकर ताजिकिस्तान पर निर्भर कर सकता है, लेकिन क्षेत्र में उसकी अपनी पहुंच ईरान और रूस के साथ अच्छे रिश्तों और अफगानिस्तान में स्थायित्व पर निर्भर करेगी। अभी तक ईरान और रूस के पाकिस्तान के साथ सौहार्दपूर्ण रिश्ते हैं, जबकि अफगानिस्तान में सुरक्षा के हालात बिगड़ रहे हैं।

चीन

चीन, भारत के लिए बड़ी, दीर्घकालिक और बहुपक्षीय: पूर्व और पश्चिम में विवादित सीमा पर, भारत की जमीनी और समुद्रीय परिधि पर, भारत के परमाणु हथियारों के बचे रहने पर और समस्त भारत प्रशांत पर चुनौती प्रस्तुत करता है। पिछले दशक में, चीन, भारत से आकार में तीन गुना बढ़ा होने से बढ़कर गुना बढ़ा होने जितनी प्रगति कर चुका है। राष्ट्रपति शी जिंपिंग 2013 के बाद से राजनीतिक और सैन्य ताकत को संगठित कर चुके हैं। हालांकि 2015 में चीन की वृद्धि दर 25 वर्ष में न्यूनतम (6.9 प्रतिशत) रही और पूंजी बाजारों के ठीक से कार्य न करने, बूढ़ी होती जनसंख्या और पूर्व की दिशा में करीबी सहभागियों (उत्तर कोरिया का लाभ पहुंचाने वाला होने के स्थान पर जिम्मेदारी होना) का अभाव जैसी अन्य दीर्घकालिक चुनौतियां भी रहीं।

भारत को नजरंदाज करते हुए भारत के परम्परागत प्रभाव के क्षेत्रों में चीन की मौजूदगी और प्रभाव में वृद्धि हुई है, हालांकि यह प्रक्रिया असमान और प्रतिवर्ती यानी ‘रिवर्सिबल’ रही है। पाकिस्तान में चीन की मौजूदगी और प्रभाव सबसे ज्यादा टिकाऊ है: पाकिस्तान की सेना के आधुनिकीकरण के लिए, विशेषकर लड़ाकू विमान और परमाणु सामग्री के उत्पादन के लिए चीन महत्वपूर्ण है। एशिया से लेकर यूरोप तक फैले- चीन की ओर से वित्त पोषित विशाल जमीनी और समुद्रीय अवसंरचना के नेटवर्क -यानी चीन की ओबीओआर पहल- का उद्देश्य चीन के पश्चिमी और दक्षिणी प्रांतों को प्रोत्साहन देना है और यह भारत में वृद्धि और लाभ को प्रोत्साहन दे सकती है। लेकिन इस अवसंरचना के अंगों (जैसे ग्वादर बंदरगाह) की भविष्य में सैन्य उपयोगिता हो सकती है, जबकि चीन की पूंजी का आकर्षण चीन के क्षेत्रीय प्रभाव को बढ़ा सकता है। भारत की एक्ट ईस्ट नीति कुछ मामलों में भारतीय क्षेत्र में किए गए चीन के प्रयासों का प्रतिबिम्ब है। लेकिन भारत के लिए रुकावटे बहुत अधिक हैं। पूर्व और दक्षिण पूर्व एशिया में भारत के सहभागी समृद्ध हैं और दक्षिण एशिया में चीन की तुलना में उनमें राजनीतिक रूप से कम लचीलापन है, जबकि दूसरी ओर, भारत के संसाधन कम हैं। 2011 से 2015 के दौरान, चीन के हथियारों के निर्यात में 88 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जिसका दो-तिहाई अंश पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार में गया।

पिछले दशक भर में भारत-चीन सीमा पर व्याप्त सैन्य असंतुलन में कमी आई है। इसका कारण परिवहन संपर्क में सुधार लाने, हवाई पट्टियों को फिर से सक्रिय करने और नई पवर्तीय इन्फेंट्री यूनिट्स की स्थापना की दिशा में भारत की ओर से किए गए सम्मिलित प्रयास हैं। चीन, भारत के लिए उत्तरादायी दो सैन्य क्षेत्रों (चेंगदू और लान्झू) को एक नए ‘पश्चिमी‘ क्षेत्र में मिलाना चाहता है-जिसका विस्तार मध्य एशिया से कोरियाई प्रायद्वीप तक होगा और जिसमें एक-तिहाई जमीनी सुरक्षा बल शामिल होंगे, लेकिन यह अब तक स्पष्ट नहीं है कि यह भारत को कैसे प्रभावित करेगा।

भारत, चीन द्वारा अपने नौसैन्य बलों के दायरे की पहुंच बढ़ाने के प्रयासों से भी प्रभावित होगा। इन प्रयासों में दूसरे विमानवाही पोत का निर्माण, पनडुब्बी के आधुनिकीकरण और हिंद महासागर में बढ़ती नौसैनिक गतिविधि (जिबूती में प्रोटो बेस के निर्माण की योजना सहित) शामिल हैं। भारत के अंडमान निकोबार द्वीप समूह की भौगोलिक स्थिति अरक्षितता भी है और अवसर भी। आखिरकार, चीन के परमाणु बल आकार में छोटे और विन्यास में रक्षात्मक हैं। लेकिन अमेरिकी मिसाइल डिफेंस और लम्बी दूरी तक सटीक वार करने की क्षमता वाले परम्परागत मिसाइलों का आगे बढ़ना चीन के मुखास्त्रों की संख्या और रुख को उकसा सकता है, जिसका प्रभाव भारत के अपने आयुध भंडार के बचे रहने पर पड़ेगा। आगे चलकर भारत की परमाणु स्थिति या सिद्धांत में बदलाव चीन के व्यवहार को प्रभावित कर सकते हैं।

अमेरिका

सैन्य विफलताओं और कटौती की अवधारणा के बावजूद अमेरिका का भारत के सामरिक वातावरण पर व्यापक प्रभाव है। यह पाकिस्तान को समर्थ बना सकता है या विवश कर सकता है, अफगान सरकार को सुदृढ़ बना सकता है या छोड़ सकता है, चीन की ताकत का मुकाबला कर सकता है या समायोजित कर सकता है और उन्नत सैन्य प्रौद्योगिकी भारत को हस्तांतरित कर सकता है या रोक सकता है। यूपीए-2 के कार्यकाल के दौरान उपजे ठहराव के बावजूद, अमेरिका-भारत रिश्ते निरंतर प्रगाढ़ होते रहे हैं और यह बात विशेषकर 2014-15 में उस समय जाहिर हुई, जब दोनों देशों ने दक्षिण चीन सागर में चीन के व्यवहार पर समान रुख अख्तियार किया। अमेरिका-भारत संबंध, अमेरिका के सहयोगी देशों और जापान व आॅस्ट्रेलिया जैसी ‘‘मझोंली ताकतों’’ के साथ भारत के स्वतंत्र रिश्तों को भी सुदृढ़ बनाते हैं, जो पहले द्विपक्षीय रहे मालाबार नौसैनिक अभ्यासों में जापान के स्थायी आगमन से जाहिर होते हैं। यह सहक्रियाशीलता एशिया प्रशांत और हिंद महासागर क्षेत्रों के लिए अमेरिका-भारत के जनवरी, 2015 के दीर्घकालिक सामरिक विजन से सही मायनों में प्रतिबिम्बित होती है।

अमेरिका, पाकिस्तान के साथ ऐसे तरीकों से निरंतर सम्पर्क बनाए हुए है, जो भारत पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। इनमें एफ-16 लड़ाकू विमानों की बिक्री, असैन्य परमाणु करार के सुझाव (त्याग दिया गया) और पाकिस्तान में अफगानिस्तान-पाकिस्तान और अफगानिस्तान-तालिबान वार्ता कराने के चीन के प्रयासों को प्रोत्साहन देना शामिल है। अमेरिका ने वर्ष 2016-17 में पाकिस्तान के लिए 860 मिलियन डालर वित्तीय सहायता का बजटीय प्रावधान किया है, जो वर्ष 2013-14 के बजटीय प्रावधान से महज 0.2 प्रतिशत ही कम है। अमेरिका ने यह कदम यह देखते हुए उठाया है कि पाकिस्तान ”अमेरिका की आतंकवाद विरोधी रणनीति, अफगानिस्तान की शांति प्रक्रिया, परमाणु अप्रसार प्रयासों और दक्षिण तथा मध्य एशिया के आर्थिक एकीकरण के केंद्र में है।”

वैसे, मोटे तौर पर रुझान इसी ओर संकेत कर रहे हैं कि अमेरिका का भारत के प्रति निरंतर झुकाव हो रहा है और वह पाकिस्तान से दूर जा रहा है। वर्ष 2013 की तुलना में अमेरिकी हथियारों की भारत को बिक्री में वृद्धि हुई है। पाकिस्तान द्वारा समर्थित एलईटी और जेईएम जैसे आतंकवादी गुटों को वर्ष 2014-15 में अमेरिका-भारत संयुक्त वक्तव्य में पहली बार शामिल किया गया। और वर्ष 2015 में, अमेरिका ने हक्कानी नेटवर्क के खिलाफ कोई कार्रवाई न किए जाने का हवाला देते हुए पाकिस्तान को होने वाला भुगतान रोक दिया। सीरियाई युद्ध से लेकर वैश्विक व्यापार वार्ताओं तक अनेक क्षेत्रीय और वैश्विक मामलों पर अमेरिका और भारत की राय बंटी होने के बावजूद, भारत के उदय को सहायता देने और उसे गति प्रदान करने के लिए द्विदलीय अमेरिकी राजनीतिक सर्वसम्मति बरकरार रहने की संभावना है।

दक्षिण एशिया की छोटी ताकतें

बड़ी ताकतें छोटी ताकतों से घिरी हुई हैं, ऐसे में भारत लम्बे अर्से से, प्रभाव खोने, खतरों के विकराल रूप लेने और बलपूर्वक या अतिशय कमजोरी के जरिए तीसरे देश को शामिल करने के लिए उकसाए जाने जैसी असमंजस की स्थिति का सामना कर रहा है। वर्ष 2015 में कूटनीतिक दबाव और आर्थिक नाकाबंदी के माध्यम से नेपाल के अभिजात्य पर दबाव बनाने के भारत के विवादास्पद प्रयास और नेपाल के चीन की को लुभाने के प्रयास, इस प्रक्रिया की नवीनतम छवि है। बाद की भारतीय सरकारों ने हाल ही में क्षेत्रीय आर्थिक एकीकरण पर बल देते हुए, वर्तमान में बहुत ही कम और ठंडा रुख अख्तियार करते हुए और अक्सर श्रीलंका में 2014 में किए गए खुफिया जानकारी से प्रेरित हस्तक्षेपों का विकल्प चुनते हुए सही संतुलन कायम करने का प्रयास किया है। इस क्षेत्र को राष्ट्र की कम क्षमता, असुरक्षित सीमाओं और शह-मात की राजनीति वाले क्षेत्र के रूप में चित्रित किया जाता रहा है जिसकी परिणति, अलग-अलग गुटों के सत्ता में आने पर देशों के बीच गठबंधन बनाने और भारत से दूर जाने में हो सकती है।

रुख में बदलावों और विफलताओं के बावजूद चीन के प्रभाव में निरंतर वृद्धि के हो रही है, जिसके अनेक परिणाम हैं। भारतीय सीमाओं के समीप चीन की मौजूदगी, चाहे वे नौसैनिक बंदरगाह या पोर्ट आफ कॉल्स हों या लिस्निंग पोस्ट्स (इलैक्ट्रानिक संवाद को पकड़ने वाले केंद्र) वे चिंता का विषय हैं, लेकिन वे कोई इकलौती चिंता नहीं है। भारत को सीमा पार से अवैध रूप से हथियारों, मादक पदार्थो और चरमपंथी गैर कानूनी गुटों के दाखिल होने का भी खतरा है। भारत को इन खतरों से निपटने में कई बार पड़ोसी देशों के सहयोग पर निर्भर रहना पड़ता है और कई बार वह लाभान्वित होता है, जैसा कि जून 2015 में म्यांमार में विशेष सुरक्षा बलों की कार्रवाई से परिलक्षित हुआ। हाल के वर्षों में मालदीव में चरमपंथी इस्लामिक गतिविधियों में वृद्धि होने जैसे अन्य खतरों के लिए खुफिया जानकारी तक पहुंच होने की आवश्यकता है। बहुत से कारक-जैसे भारतीय व्यवहार, स्थानीय अभिजात्य वर्गों का दृष्टिकोण और चीन-भारत प्रभाव का संतुलन- भारत की इन चुनौतियों से निपटने की योग्यता पर निर्भर हैं। भारत तेजी से खुद को हिंद महासागर में मौजूद छोटे- छोटे देशों के लिए विशुद्ध सुरक्षा प्रदाता के रूप में देख रहा है। यह बड़ी हुई भूमिका संभवतः भारतीय प्रभाव को व्यापक बनाती है, जैसा कि सेशेल्स, मालदीव, माॅरिशस और श्रीलंका में तटीय निगरानी राडारों की श्रृंखला के विकास से जाहिर है।

पश्चिम एशिया

जहां एक ओर जोखिम के कारक दक्षिण एशिया के भीतर साफतौर पर दिखाई देते हैं-वहीं दूसरी ओर कमजोर राष्ट्र, असुरक्षित सीमाएं, गैर कानूनी गुटों का ताकतवर होना-जैसी बातें अरब जगत के बड़े हिस्से में व्यापक रूप से मौजूद हैं। अरब जगत 2003 में इराक पर आक्रमण और कई अरब देशों में 2011 सेभड़के विद्रोहों के कारण पहले से काफी खराब हालात में है। महान देश और उनके सहयोगी-अमेरिका, रूस, सऊदी अरब, तुर्की और ईरान-सत्ता में उपजे नए शून्य को भरने के लिए एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं, जबकि 1980 के दशक में बना अमेरिका के नेतृत्व वाला सुरक्षा ढांचा इन नई परिस्थितियों में ध्वस्त हो रहा है। रूस ने ताकत के साथ, सीरिया में परिवर्तन और सैन्य संतुलन लाने और इराक, जॉर्डन और मिस्र के साथ संबंधों को प्रगाढ़ बनाने के लिए पश्चिम एशिया की ओर दोबारा रुख किया है।

संयुक्त व्यापक कार्य योजना (जेसीपीओए) ईरान और छह अन्य ताकतों के बीच हुआ एक परमाणु समझौता है। इसने ईरान द्वारा परमाणु हासिल किए जाने के जोखिम को बड़े पैमाने पर घटा दिया है। इसने भारत के लिए ईरान के साथ अपने रिश्तों को प्रगाढ़ बनाना आसान कर दिया है, हालांकि जब ईरान का आर्थिक ध्यान यूरोप की ओर तथा सुरक्षा संबंधी ध्यान इराक और सीरिया की तरफ है। जेसीपीओए ने ईरान की वित्तीय स्थिति को मजबूत बनाने और अमेरिका-ईरान वार्ता को संभव बनाने के साथ ही साथ अरब देशों की आशंकाओं को भी बढ़ा दिया है और सऊदी-ईरान प्रतिस्पर्धा को बढ़ाया है। सऊदी अरब द्वारा रक्षा पर ईरान से कई गुना ज्यादा खर्च किया जाना जारी है, लेकिन ईरान का सैन्य खर्च 2015 में 29 प्रतिशत बढ़ चुका है तथा वायु रक्षा प्रणालियों और लड़ाकू विमानों के लिए- अनेक ईरान-रूस समझौते-इस फासले को और भी कम कर सकते हैं।

इस वातावरण में, भारत की चिंताएं कुछ छितरा गई हैं, लेकिन उनमें लगातार वृद्धि हो रही है। इनमें से कुछ प्रत्यक्ष हैं: वर्ष 2011 में लीबिया में फंसे भारतीयों को जल्दी से वहां से सुरक्षित निकाले जाने, वर्ष 2013 में सीरियाई तेल कुओं की हानि और वर्ष 2011 में मोसुल में इस्लामिक स्टेट द्वारा भारतीय कामगारों का सामूहिक अपहरण । बाकि परोक्ष हैं मिसाल के तौर पर इस्लामिक स्टेट द्वारा भारत के भीतर भर्ती और दुष्प्रचार (जो सीमित रहा) या तेल के दामों की अस्थिरता का व्यापक आर्थिक प्रभाव। ईरान के चाबहार और पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह का निर्माण क्रमशः भारत और चीन ने किया है, जो अरब सागर में 200 किलोमीटर से भी कम फासले पर हैं। भारत ने इस्राइल, ईरान और अरब देशों जैसे विरोधियों की तिकड़ी के अपने रिश्ते को सफलतापूर्वक संतुलित रूप से निभाया है, लेकिन पश्चिम एशिया के साथ भारत का ज्यादा गहराई से जुड़ना उसकी संतुलित छवि को नुकसान पहुंचाएगा।

व्यापक सामरिक वातावरण

इस सर्वेक्षण का यह आशय नहीं लिया जाना चाहिए कि अफ्रीका, यूरोप या लैटिन अमेरिका में भारत के लिए महत्व नहीं रखते। दरअसल रक्षा तैयारियों के संदर्भ में भारत का सामरिक वातावरण दक्षिण एशिया, एशिया प्रशांत और पश्चिम एशिया द्वारा ज्यादा प्रबल रूप से आकार लेता है। ये क्षेत्र बुनियादी तौर पर अलग-अलग तरह की चुनौतियां प्रस्तुत करते हैं, पश्चिम में अव्यवस्था है और पूर्व की ओर महान ताकतों में स्पर्धा है, लेकिन दोनों में एक बात समान है कि अमेरिका के नेतृत्व वाली पुरानी सुरक्षा व्यवस्थाएं सत्ता में बदलते संतुलन और बदलती चुनौतियों की वजह से दबाव में है। दोनों दिशाओं में समुद्र की ताकत महत्वपूर्ण होगी, लेकिन दीर्घकालिक संसाधन आवंटनों की ओर इशारा करते हुए भारतीय नौसेना पूर्व के प्रति ज्यादा महत्वपूर्ण होगी। इन स्थानों में निष्कर्षों को आकार देने की भारत की योग्यता इस बात पर निर्भर करेगी कि वह कितनी गहराई इनसे जुड़ना चाहेगा। फिलहाल, विशेषकर समुद्रीय एशिया में, वह व्यापक हस्तक्षेप के बगैर ही विस्तृत होती नौसैनिक ताकत जैसा प्रभाव प्राप्त कर चुका है। भारत के प्रभाव की हद निरंतर आर्थिक वृद्धि, आर्थिक और सैन्य सुधारों, विदेश और सुरक्षा नीति के गिर्द भारत के संकेतों और आंतरिक स्तर पर व्यापक सामाजिक और राजनीतिक स्थायित्व से तय होगी।

मोटे तौर पर, भारत एक ऐसा वातावरण का भी सामना करता है, जिसमें मान लिया जाता है कि वायु, समुद्र, आकाश जैसे “वैश्विक रूप से समान” और साइबरस्पेस जैसे अन्य क्षेत्र दबाव में हैं, जिनसे उदार अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था कमजोर पड़ जाती है। भारत स्थायित्व और व्यापार के लिए इसी व्यवस्था पर निर्भर करता है। अन्य बातों के अलावा, निराशा की बात दक्षिण चीन सागर के महत्वपूर्ण समुद्री मार्गों पर चीन का पुनः प्राप्त द्वीपों का सैन्यीकरण, उपग्रह-रोधी हथियारों का विकास और अंतरिक्ष के मलबे की समस्या, पश्चिमोत्तर मार्ग के खुलने के मद्देनजर संसाधनों से भरपूर आर्कटिक सागर में स्पर्धा और भारत के सहभागियों और विरोधियों द्वारा साइबर-जासूसी का तेज किया जाना शामिल है। विश्व के नेटवर्क से जुड़ने के साथ ही, ये क्षेत्र भारत के सामरिक वातावरण का अंग बन चुके हैं-और इसलिए रक्षा नीति के लिए विचार-परम्परागत भौगोलिक क्षेत्रों के रूप में करना होगा।

शशांक जोशी लंदन में रॉयल यूनाइटेड सर्विस इंस्टीट्यूट (आर.यू.एस.आई.) में सीनियर रिसर्च फेलो और आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में युद्ध के बदलते स्वरूप नामक कार्यक्रम में रिसर्च एसोसिएट हैं। वह दक्षिण एशिया और पश्चिम एशिया में अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा विशेषज्ञ हैं।

यह लेख ORF के प्रकाशन डिफेंस प्राइमर, इंडिया एट 75 से लिया गया है।

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.