ये द चाइना क्रॉनिकल्स सीरीज़ का 138वां लेख है.
पिछले पांच वर्षों में वैश्विक अर्थव्यवस्था को अपनी प्रणाली में अनेक दुश्वारियों का सामना करना पड़ा है. अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध, कोविड-19 महामारी, यूक्रेन जंग, और उसके नतीजे के तौर पर उभरे तेल और खाद्य सुरक्षा के संकट, इसके प्रमुख सहभागी कारक रहे हैं. इसी बीच, चीन की ज़ीरो-कोविड नीति वैश्विक प्रणाली पर एक और बोझ बनकर सामने आई है.
हालांकि, हालिया ख़बरों के मुताबिक नागरिकों के विरोध-प्रदर्शन की वजह से इस नीति को वापस लिया जा रहा है, जो चीन के लिहाज़ से एक हैरान करने वाला वाक़या है. हालांकि इस नीति के आर्थिक नुक़सानों से पार पाना आसान नहीं है. इस पूरे संकट के बीच बाक़ी दुनिया में एक विनिर्माण केंद्र के रूप में चीन की निर्भरता से दूर निकलने की जुगत लगाई जाती रही है.
अक्टूबर 2022 में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के विश्व आर्थिक पूर्वानुमान में वैश्विक आर्थिक वृद्धि की रफ़्तार मंद पड़ने की आशंका जताई गई है. रिपोर्ट के मुताबिक 2021 में विश्व में आर्थिक प्रगति की दर 6 प्रतिशत थी, जो 2022 में घटकर 3.2 प्रतिशत और 2023 में और ज़्यादा गिरकर 2.7 प्रतिशत हो जाएगी.
अक्टूबर 2022 में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के विश्व आर्थिक पूर्वानुमान में वैश्विक आर्थिक वृद्धि की रफ़्तार मंद पड़ने की आशंका जताई गई है. रिपोर्ट के मुताबिक 2021 में विश्व में आर्थिक प्रगति की दर 6 प्रतिशत थी, जो 2022 में घटकर 3.2 प्रतिशत और 2023 में और ज़्यादा गिरकर 2.7 प्रतिशत हो जाएगी. रिपोर्ट में इस बात की तस्दीक़ की गई है कि ज़ीरो-कोविड नीति, पहले से ही संकट की चपेट में आई आपूर्ति श्रृंखलाओं के लिए बड़ी अड़चन साबित हुई है. विनिर्माण क्षमता उपयोग भी 76 प्रतिशत के नीचे चला गया है. हालांकि, बाज़ार में ऐसी उथल-पुथल के बावजूद ये समझना ज़रूरी है कि चीनी विनिर्माण को रातों-रात किसी और स्रोत से बदला नहीं जा सकता.
मौजूदा हालात
2000 और 2010 के दशकों में वैश्विक विनिर्माण की एक प्रमुख तस्वीर चीन की हिस्सेदारी और उत्पादन नेटवर्कों में हर ओर उसकी मौजूदगी से जुड़ी रही है. चीन सस्ते श्रम की उपलब्धता के साथ-साथ सुचारु और केंद्रीय नियंत्रण वाली नियामक प्रणाली का भरपूर लाभ लेने में कामयाब रहा. वहां संसाधनों का भी कार्यकुशलता के साथ इस्तेमाल हुआ है.
अल्पकाल में वस्तुओं की आवाजाही या चीन से उत्पादों की आपूर्ति में किसी भी तरह की रुकावट अस्थिरता का कारक बन सकती है.
दरअसल, चीन पेचीदा विनिर्माण के क्षेत्र में पूरी शिद्दत के साथ आगे बढ़ने का मन बना चुका था. वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं में उसकी निरंतर हिस्सेदारी इसी ज़िद के चलते मुमकिन हो पाई है. आपूर्ति श्रृंखलाओं में उसकी हिस्सेदारी इस क़वायद का कारक रही है. ऐसा नहीं होने पर उसके राजनीतिक रूप से अस्थिरता भरे मुल्क (banana republic) में तब्दील हो जाने का ख़तरा था. हालिया वक़्त में “मेड इन चाइना 2025” नीति से ये बात साबित हो गई है. 2015 से प्रभावी इस नीति के ज़रिए हाई-टेक विनिर्माण में चीन की हिस्सेदारी बढ़ाने पर ज़ोर दिया गया है.
विश्व के विशाल विनिर्माताओं की चीन पर निर्भरता बढ़ती चली गई है. इसके दीर्घकालिक समाधानों की तलाश जारी है. हालांकि अल्पकाल में वस्तुओं की आवाजाही या चीन से उत्पादों की आपूर्ति में किसी भी तरह की रुकावट अस्थिरता का कारक बन सकती है.
शुरुआती दौर में कोरोना महामारी के ज़ोर पकड़ने और चीन द्वारा अपनी सीमाओं को बंद किए जाने के वाक़ये के बाद ऐसे गहरे झटकों का पहला प्रमाण सामने आया. व्यापार युद्ध के दौरान भी कुछ रुकावटें आई थीं, लेकिन उनका प्रभाव इतना व्यापक नहीं था. विश्व आर्थिक मंच (WEF) की एक रिपोर्ट में बताया गया कि आवश्यक वस्तुओं के वैकल्पिक आपूर्तिकर्ताओं को तेज़ी से ढूंढ पाने में नाकाम रहने के चलते दुनिया भर के विनिर्माता बेहद दबाव में थे.
लॉकडाउन का कारखानों पर असर ऐसा है कि कोई भी कर्मचारी वहां से बाहर नहीं निकल सकता. उत्पादन का काम ठप न हो लिहाज़ा कर्मचारियों को हर हाल में कारखाने में ही रहने पर मजबूर किया जा रहा है.
इसी बीच ‘चिप्स की किल्लत’ भी सामने आई. इसका स्मार्टफ़ोन और कंप्यूटर्स जैसे उत्पादों के वैश्विक उत्पादन पर असर पड़ा, जिनकी मांग में महामारी के दौरान उछाल आया था. उपभोक्ता संचार प्रौद्योगिकी से जुड़ी बड़ी कंपनियों पर इसका ख़ासतौर से बुरा प्रभाव पड़ रहा है.
इधर कुआं, उधर खाई: निरंतरता और बदलाव
उत्पादन और आपूर्ति से जुड़ी समय-सीमाओं को लेकर कंपनियां अब पहले की तरह आश्वस्त नहीं रह गई हैं. लिहाज़ा वो आपूर्ति श्रृंखलाओं के वैकल्पिक और नए स्रोत ढूंढ रही हैं, अपने इलाक़े में ही उनकी तलाश कर रही हैं और दोस्ताना स्रोतों से आपूर्ति सुनिश्चित करने पर ज़ोर दे रही हैं. नीतिगत और कारोबारी विकल्प के तौर पर ये क़वायद ज़्यादा आकर्षक हो गई है. कंपनियों ने ‘ऐन मौक़े पर’ आपूर्तियों के जुगाड़ से लेकर अग्रिम रूप से अपने ऑर्डर देने जैसे क़दमों पर भी विचार शुरू कर दिया हैं. आज तमाम कंपनियां, उत्पादन से जुड़ी अपनी क़वायद को चीन से बाहर ले जाने के लिए पूरे ज़ोरशोर से प्रयास कर रही हैं. इस कड़ी में वो विनिर्माण के क्षेत्र में उभरते दूसरे केंद्रों जैसे वियतनाम और भारत पर नज़र टिकाए हुए हैं. लिहाज़ा “मेड इन चाइना 2025” नीति पर इन तमाम कारकों के प्रभाव पड़ने के आसार हैं.
ऐप्पल का मसला, विशाल विनिर्माताओं पर पड़ रही मार की जीती-जागती मिसाल है. झेंगझोउ या ‘आईफ़ोन सिटी’ के फॉक्सकॉन प्लांट में ज़ीरो-कोविड लॉकडाउन लगा है. लॉकडाउन का कारखानों पर असर ऐसा है कि कोई भी कर्मचारी वहां से बाहर नहीं निकल सकता. उत्पादन का काम ठप न हो लिहाज़ा कर्मचारियों को हर हाल में कारखाने में ही रहने पर मजबूर किया जा रहा है. इससे वहां विरोध-प्रदर्शनों का दौर शुरू हो गया. यही वजह है कि हाल ही में चीनी सरकार को अपनी नीति को आंशिक तौर पर वापस लेना पड़ा. नीति वापस लेने की ये क़वायद देर से उठाया गया और नाकाफ़ी कदम है. दरअसल, चीन का बाज़ार अब ग़ैर-भरोसेमंद हो गया है और Apple अपने विनिर्माण से जुड़े अहम हिस्सों का वहां केंद्रीकरण करने से परहेज़ करना चाहता है. यही वजह है कि वो अपने विनिर्माण को भारत और वियतनाम ले जाने की सक्रिय कोशिशें कर रहा है. हालांकि इन देशों के साथ भी अपनी तरह की चुनौतियां जुड़ी हैं. इनमें संघीय स्तर की ख़ामियों के साथ-साथ कुशल श्रम का अभाव शामिल हैं.
चीन ज़ीरो-कोविड नीति पर अमल सुनिश्चित कर “औद्योगिकृत अर्थव्यवस्थाओं के साथ सहयोग करते हुए वैश्विक विनिर्माण श्रृंखला” में एकीकृत होना चाहता है. ऐसे में आज असल सवाल यही है कि वो इन दोनों लक्ष्यों में कैसे तालमेल बिठाएगा. इस बीच चीन में श्रम महंगा होता जा रहा है. नीतिगत स्तर पर अस्थिरता के चलते चीन के प्रति बाक़ी दुनिया के भरोसे में गिरावट आई है. आज चीन विनिर्माण के नए-नए क्षेत्रों में क़दम रखते हुए नई साझेदारियों की तलाश कर रहा है. ऐसे में उसे दोबारा भरोसा हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी.
बहरहाल, आपूर्ति श्रृंखला में मज़बूती लाने की कोई भी नीति तब तक अधूरी रहेगी जबतक उसमें चीन को अल्पकालिक आपूर्तिकर्ता के तौर पर शामिल नहीं किया जाता. वैश्विक बिरादरी को ये बात साफ़ तौर से समझ लेनी चाहिए. विनिर्माण केंद्रों में आमूल-चूल बदलाव की बजाए आपूर्ति श्रृंखला में विविधता सुनिश्चित करने की क़वायद ज़्यादा मज़बूत कारक साबित हो सकती है. नए नेटवर्कों और उत्पादन प्रणालियों की स्थापना होने तक चीनी आपूर्तिकर्ताओं से धीरे-धीरे परे हटने की कोशिशें जारी रहनी चाहिए.
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