Published on Aug 13, 2022 Updated 0 Hours ago

सुशासन के लिए अच्छे नेतृत्व के साथ-साथ जांच-परख और संतुलन के मज़बूत तंत्र की भी दरकार होती है.

‘दुनिया भर के हुक्मरानों को सुशासन के सबक़ देता श्रीलंका का मौजूदा संकट’

श्रीलंका दशकों तक गृह युद्ध की आंच में झुलसा है. इसके बावजूद UNDP की रिपोर्ट के मुताबिक मानव विकास की श्रेणी में ये दुनिया के 189 देशों की सूची में ऊपर से 72वें पायदान पर है. इस पैमाने पर श्रीलंका ने दक्षिण एशिया के अपने सभी पड़ोसियों पर बढ़त बना रखी है. 2010 से ही उसने मानव विकास रैंकिंग में 72-70 के बीच का क्रम बरकरार रखा है. ऐसे में श्रीलंका को संकट के मौजूदा भंवर में फंसा देखना और भी ज़्यादा तकलीफ़देह एहसास देता है. श्रीलंका की मौजूदा दुश्वारियों से मानव विकास के मोर्चे पर विनाशकारी परिणाम सामने आ सकते हैं. 

श्रीलंका को सियासी और आर्थिक मोर्चे पर अनेक कारकों की वजह से ये दिन देखने पड़ रहे हैं. आज इस इलाक़े और पूरे संसार को श्रीलंका को संकट में धकेलने वाले इन तमाम कारकों पर नज़र दौड़ाने और उनसे सबक़ लेने की दरकार है.

भारत का ये पड़ोसी देश फ़िलहाल एक विस्फोटक घालमेल का असर झेल रहा है. ऐसे हालात पूरी तरह से टाले जा सकते थे. संकट इतना भीषण है कि मानव विकास संकेतकों में देश की शानदार बढ़त भी इसकी मार नहीं झेल सकती. आज देश एक अहम पड़ाव पर आ गया है. श्रीलंका को सियासी और आर्थिक मोर्चे पर अनेक कारकों की वजह से ये दिन देखने पड़ रहे हैं. आज इस इलाक़े और पूरे संसार को श्रीलंका को संकट में धकेलने वाले इन तमाम कारकों पर नज़र दौड़ाने और उनसे सबक़ लेने की दरकार है. 

राजपक्षे और संकट

राजपक्षे परिवार के नेतृत्व के तौर-तरीक़ों के शुरुआती संकेत 2009 में ही दिखाई देने लगे थे. उस वक़्त रक्षा मंत्री रहे गोटाबाया ने तमिल टाइगर विद्रोहियों के सफ़ाए के लिए बड़ी बेरहमी से बमबारियों का सहारा लिया था. उस वक़्त मासूम तमिल नागरिकों की ज़िंदगियों की ज़रा भी परवाह नहीं की गई थी. इससे श्रीलंकाई तमिलों में अलगाव की भावना और प्रबल हो गई. 

2015-16 में राजपक्षे बंधुओं से मिली निजात लचर और विभाजित विपक्ष की वजह से अल्पकालिक क़वायद साबित हुई. 2019 में गोटाबाया और 2020 में महिंदा की चुनावी जीत ने सियासी दमन को और हवा दे दी. 2019 में ईस्टर रविवार को हुए बम हमलों के बाद मुस्लिम समुदाय के ख़िलाफ़ चलाए गए क्रूर अभियान से अल्पसंख्यकों के प्रति नफ़रत का इज़हार हुआ. तमिलों की ही तरह मुस्लिमों के साथ भी भारी ज़ोर-ज़बरदस्ती की गई. इन तमाम गतिविधियों से शासकीय नेतृत्व के बेहद सख़्त रुख़ की झलक मिली. इस कड़ी में नस्लीय राष्ट्रवाद और डर को औज़ार की तरह इस्तेमाल में लाया गया. ग़ौरतलब है कि बौद्ध धर्मगुरुओं और बहुसंख्यक सिंहला समुदाय का अहम तबका इन तौर-तरीक़ों का समर्थक रहा है.  

शुरुआती संकेत 2009 में ही दिखाई देने लगे थे. उस वक़्त रक्षा मंत्री रहे गोटाबाया ने तमिल टाइगर विद्रोहियों के सफ़ाए के लिए बड़ी बेरहमी से बमबारियों का सहारा लिया था. उस वक़्त मासूम तमिल नागरिकों की ज़िंदगियों की ज़रा भी परवाह नहीं की गई थी. इससे श्रीलंकाई तमिलों में अलगाव की भावना और प्रबल हो गई.  

सरकार के शीर्ष स्तरों पर राजपक्षे परिवार के कम से कम चार सदस्यों की नियुक्ति से सियासी भाई-भतीजावाद खुलकर दिखाई दिया. वित्तीय अपराधों के कई मामले सामने आए. मतभेदों और असंतोष को कुचलने के साथ-साथ मीडिया का दमन इस पूरे कालखंड की निशानी रही है. राजपक्षे परिवार के हाथ में सारी सत्ता आने के चलते सत्ता संचालन को लेकर ज़रूरी सलाह-मशविरे का अभाव रहा. एक छोटे समूह के हाथ में ही सारी सत्ता केंद्रित रही. सियासी, आर्थिक और सामाजिक जवाबदेहियों के नदारद रहने और नीतिगत तौर पर उठाए गए ग़लत क़दमों ने संकट के मौजूदा हालात को जन्म दिया.  

मौजूदा आर्थिक दुश्वारियों के लिए ज़िम्मेदार सरकार की पांच सबसे अहम नीतियों का ब्योरा नीचे दिया गया है: 

  1. श्रीलंका में जीडीपी के मुक़ाबले करों की उगाही का अनुपात पहले से ही काफ़ी कम था. ऐसे में टैक्स में चौतरफ़ा कटौती किए जाने से देश के ख़ज़ाने में भारी गिरावट आ गई.
  2. विदेशी कर्ज़ों पर आधारित बुनियादी ढांचा परियोजनाओं (जिनके आर्थिक नतीजे संदिग्ध रहे हैं) को आगे बढ़ाने की नासमझी भरी क़वायद ने श्रीलंका को कमर तोड़ने वाले और ग़ैर-टिकाऊ ऋणों के जाल में फंसा दिया. हम्बनटोटा पोर्ट इसकी जीती-जागती मिसाल है. 
  3. देश के हुक्मरानों ने 51 अरब अमेरिकी डॉलर के भारी-भरकम विदेशी कर्ज़ के प्रति अनदेखी भरा रवैया रखा. इनमें से 28 अरब अमेरिकी डॉलर की रकम 2027 तक वापस लौटानी है. शुरुआती दौर में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) से राहत पैकेज हासिल करने में भी आनाकानी भरा रुख़ अपनाया गया. 
  4. देश पर चढ़े भारी-भरकम कर्ज़ से निपटने की क़वायद में रासायनिक खाद के आयात पर रोक लगाने की नीति अपनाए जाने से किसानों को जल्दबाज़ी में ऑर्गेनिक खेती अपनाने पर मजबूर होना पड़ा. इसी वजह से खाद्य आपूर्ति का मौजूदा संकट खड़ा हो गया. देश में चाय के निर्यात (श्रीलंका का मुख्य निर्यात उत्पाद) से हासिल होने वाले विदेशी मुद्रा में नाटकीय रूप से गिरावट आ गई. 
  5. कोविड-19 से निपटने के लचर तौर-तरीक़ों से मुल्क में कोरोना वायरस का तेज़ी से प्रसार हुआ. इससे पर्यटन आधारित आय में ज़बरदस्त गिरावट आ गई. 

इन तमाम नीतियों के साझा प्रभावों के साथ-साथ विदेशों में रह रहे श्रीलंकाई प्रवासियों द्वारा वतन भेजी जाने वाली रकम के बेहद निम्न स्तर पर रहने के चलते श्रीलंका में विदेशी मुद्रा का संकट पैदा हो गया. देश दिवालिया हो गया. श्रीलंका के सेंट्रल बैंक का विदेशी मुद्रा भंडार लगभग खाली हो गया. देश में आवश्यक वस्तुओं की गंभीर किल्लत हो गई है. ईंधन, खाद, खाद्यान्न, दवाइयों के साथ-साथ बुनियादी ज़रूरतों के दूसरे सामानों का सीमित मात्रा में आयात करने के लिए भी श्रीलंका को हर महीने कम से कम 1 अरब अमेरिकी डॉलर की दरकार है. मई 2022 में श्रीलंका इतिहास में पहली बार अपने कर्ज़ की अदायगी करने में नाकाम साबित हुआ. 

सलाह मशविरे से कामकाज की फ़ितरत रखने वाले और असहमति भरे नज़रिए को स्वीकार करने वाले नेताओं की दरकार होती है. साथ ही मज़बूती से जांच-परख करने वाला और संतुलन क़ायम करने वाला तंत्र भी आवश्यक होता है. इनमें विश्वसनीय राजनीतिक विपक्ष, स्वतंत्र और निडर न्यायपालिका, चुनाव आयोग और मीडिया शामिल हैं.

अहम सबक़

सुशासन के लिए भरोसेमंद, ईमानदार और एक स्पष्ट दीर्घकालिक नज़रिया रखने वाले शासकों की ज़रूरत होती है. सलाह मशविरे से कामकाज की फ़ितरत रखने वाले और असहमति भरे नज़रिए को स्वीकार करने वाले नेताओं की दरकार होती है. साथ ही मज़बूती से जांच-परख करने वाला और संतुलन क़ायम करने वाला तंत्र भी आवश्यक होता है. इनमें विश्वसनीय राजनीतिक विपक्ष, स्वतंत्र और निडर न्यायपालिका, चुनाव आयोग और मीडिया शामिल हैं. 

  1. एक समय था जब गोटाबाया बेहद ताक़तवर थे. ऐसा लगता था कि कोई भी उन्हें छू नहीं सकता. अब उनकी विदाई से ये साफ़ है कि मज़बूत से मज़बूत नेता भी धराशायी हो सकते हैं. ख़ासतौर से चुनावी लोकतांत्रिक समाजों में ज़्यादातर निरंकुश शासकों का पतन बेहद तेज़ रफ़्तार होता है. ये बात क़ाबिल-ए-ग़ौर है क्योंकि फ़िलहाल विकसित और विकासशील देशों में ऐसे नेता ही परवान चढ़ते दिखाई दे रहे हैं. लोकतांत्रिक मुल्कों के साथ-साथ एक-दलीय शासन व्यवस्था वाले देशों में ये तस्वीर दिखाई दे रही है. कुंठित और अज्ञानी मतदाताओं और आबादी की बदौलत इन नेताओं को बढ़ावा मिल रहा है. इनके सियासी टूल किट में आम तौर पर वही घटक दिखाई देते हैं जिन्हें राजपक्षे इस्तेमाल करते रहे हैं. इनमें केंद्रीकृत, ग़ैर-सलाहकारी निर्णय-प्रक्रिया, पक्षपातपूर्ण सरकारी अफ़सरशाही, स्वतंत्र संस्थाओं की कमज़ोरी, मीडिया के बड़े हिस्से पर नियंत्रण या सेल्फ़-सेंसरशिप, फ़र्जी सोशल मीडिया और नस्लीय-राष्ट्रवादी या/और धर्म-आधारित लुभावने दुष्प्रचार और नीतिगत उपाय शामिल हैं. ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में ग्लोबल इकॉनोमिक गवर्नेंस के प्रोफ़ेसर डॉ. एन. वूड्स ने हाल ही में दलील दी है कि “बेहद ताक़तवर रूप से सत्ता संभाल रहे नेता अक्सर आंखों पर पट्टी बांधे रहते हैं. नतीजतन वो संगीन ग़लतियां कर सकते हैं. ऐसे शक्तिशाली नेता के साथ एक और दिक़्क़त ये है कि वो किसी भी तरह के सलाह-मशविरे का इरादा नहीं रखता. साथ ही उसके हाव-भाव आलोचनाएं बर्दाश्त करने वाले नहीं होते. सत्ता अक्सर नेताओं को असाधारण होने का एहसास करा देती है. उन्हें लगने लगता है कि नियम-क़ायदे उनपर लागू ही नहीं होते…दरअसल सत्ता नेताओं को अलग-थलग कर देती है”.
  1. दुनिया के तमाम देशों में बहुसंख्यकवादी नेताओं में ये एहसास घर कर रहा है कि धार्मिक नस्लीय-राष्ट्रवाद पर आधारित लुभावने उपायों की राजनीति आर्थिक मोर्चे पर मिली नाकामियों से उनका बचाव कर सकती है. बहरहाल श्रीलंका के तजुर्बे से ये साफ़ है कि आर्थिक मोर्चे पर ज़बरदस्त संकट ही इन नेताओं के पतन का कारक साबित होता है. चाहे आसमान पर पहुंची महंगाई हो या जीडीपी की निम्न दरें (यहां तक कि मंदी ही क्यों न हो), ये बदलाव को हवा देने के लिहाज़ से काफ़ी नहीं होते. इनके साथ-साथ ज़बरदस्त और चौतरफ़ा कंगाली और आबादी के एक बड़े हिस्से के सामने भूख से जुड़े तात्कालिक हालातों का मिश्रण भी होना चाहिए. ज़बरदस्त आर्थिक संकट का न सिर्फ़ ग़रीबों और नाज़ुक अल्पसंख्यक तबक़ों बल्कि मध्यम वर्ग और प्रभावशाली धार्मिक-नस्ली आबादी पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ना आवश्यक है. ग़ौरतलब है कि राजपक्षे ने पिछले सालभर से श्रीलंका के बहुसंख्यक सिंहला बौद्ध समुदाय का समर्थन गंवा दिया था. यही उनके पतन के पीछे का सबसे बड़ा राज़ है.
  1. कमज़ोर और विभाजित राजनीतिक विपक्ष (जो कई बार सत्तारूढ़ एकाधिकारवादी के मुक़ाबले भी कम भरोसेमंद होता है), पक्षपातपूर्ण न्यायपालिका, चुनाव आयोग और मीडिया सहज लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में रुकावटें खड़ी करने लगते हैं. इन तमाम संस्थाओं को संस्थागत जांच-परख और संतुलन क़ायम करने के लिए स्थापित किया गया था, लेकिन बदले स्वरूप में उनपर आगे भरोसा नहीं किया जा सकता. ये तमाम किरदार ग़ैर-जवाबदेही और लचर प्रशासन के लिए ज़िम्मेदार हैं. कम परिपक्व संस्थानों वाले विकासशील देशों के साथ-साथ कई विकसित लोकतांत्रिक देशों में भी ऐसा ही देखा गया है. श्रीलंका में कमज़ोर राजनीतिक विपक्ष ने राजपक्षे कैबिनेट से इस्तीफ़ा दे चुके एक सदस्य को ही अपना राष्ट्रपति उम्मीदवार बना दिया. इससे उसकी बची-खुची विश्वसनीयता में और गिरावट आ गई. 
  1. विश्वसनीय और प्रभावी विपक्षी पार्टियों और संस्थानों की ग़ैर-हाज़िरी में अक्सर जनता की ताक़त के बूते चले आंदोलन उभरकर सामने आते हैं. इनसे साफ़ तौर पर उम्मीद जगती है. हालांकि सियासी, सामाजिक और आर्थिक मोर्चे पर वांछित रूप से निरंतर और टिकाऊ बदलाव लाने की क़ाबिलियत और क्षमता को लेकर संदेह बना रहता है. देश के सामने खड़ी गंभीर चुनौतियों के बीच ऐसे आंदोलन अपनी स्वच्छंदता, प्रेरकता और क़ुदरती स्वभाव के चलते एक अहम शुरुआत मुहैया कराते हैं. इन आंदोलनों में शामिल लोगों के सामाजिक-नस्ली मिश्रण से भी शुरुआती दौर में ऐसा ही जज़्बा सामने आता है. बहरहाल ऐसे जनआंदोलनों से अपने-आप वांछित बदलाव आने के आसार ना के बराबर होते हैं. बेदाग़, प्रेरक और व्यापक रूप से स्वीकार्य नेता के नदारद रहते हुए ऐसा संभव नहीं हो पाता. नए राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों ही राजपक्षे परिवार के नज़दीकी हैं. दोनों ही पक्षों को एक-दूसरे की हिफ़ाज़त करने की दरकार है. अंतरराष्ट्रीय क्राइसिस ग्रुप के एक वरिष्ठ कंसलटेंट के मुताबिक राष्ट्रपति विक्रमसिंघे के मातहत असंतुष्टों के ख़िलाफ़ जारी कार्रवाइयां तो पूर्व राष्ट्रपति गोटाबाया से भी ज़्यादा सख़्त हैं. लिहाज़ा ऐसा लगता है कि श्रीलंका की जनता को इस अल्पकाल में कोई असल बदलाव नसीब नहीं हुआ है. 
  1. श्रीलंका के जनआंदोलन में वहां के ईसाई, मुस्लिम, तमिल और सिंहली समुदायों द्वारा बेख़ौफ़ होकर दिखाया गया दोस्ताना रुख़ इस पूरे प्रकरण का एक ग़ैर-इरादतन और शायद दीर्घकालिक रूप से फ़ायदेमंद नतीजा साबित होगा. ये तमाम लोग साझा ग़ुस्से और उम्मीद में एकजुट हुए हैं. अगर ये एकता टिकाऊ साबित होती है…बरक़रार रहती है…तो ये देश में नई सामाजिक तस्वीर बना सकती है. विषम परिस्थितियों में एकजुटता की ये क़वायद श्रीलंकाई संकट का सबसे अहम सकारात्मक सबक़ साबित हो सकती है. इस इलाक़े और पूरी दुनिया के लिए ये बड़ा संदेश बन सकती है. 
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