भारतीय अंतरिक्ष नीति परिदृश्य से जुड़े इतिहास के लिए पिछले कुछ दिन बेहद अहम रहे हैं. महिंद्रा एंड महिंद्रा के पूर्व मैनेजिंग डायरेक्टर पवन कुमार गोयनका को भारतीय राष्ट्रीय अंतरिक्ष संवर्धन और प्राधिकरण केंद्र (IN-SPACe) का अध्यक्ष बनाया गया है. इस नियुक्ति से ज़ाहिर है कि अंतरिक्ष के क्षेत्र में उद्यमिता को बढ़ावा देने वाली नई नीतियों की घोषणा सिर्फ़ काग़ज़ों पर किए गए वादे नहीं हैं. दरअसल ये अंतरिक्ष कार्यक्रमों के प्रति सरकार के नज़रिए में साफ़ बदलावों को दर्शाते हैं. अंतरिक्ष से जुड़ी नीतियों में परिवर्तनों के साथ-साथ दूरसंचार के क्षेत्र में नियम-क़ानूनों का मकड़जाल कम करने की भी घोषणा हुई है. इन तमाम बदलावों से सैटेलाइट और दूरसंचार उपकरणों के बाज़ार के तौर पर भारत की छवि एक बार फिर निखर कर सामने आई है. हालांकि, इन सकारात्मक घटनाक्रमों के बावजूद कुछ चिंताएं अपनी जगह कायम हैं. इनमें सिंगल विंडो क्लीयरेंस का अभाव प्रमुख है. इसकी वजह दूरसंचार विभाग और सैटेलाइट दूरसंचार उपकरणों से जुड़े अंतरिक्ष विभाग के बीच अधिकारों के दायरे का घालमेल और अस्पष्टता है. इसके साथ ही इस क्षेत्र से संबंधित नई नीतियों से जुड़े सरकारी दृष्टिकोण को संसद से पास कराकर क़ानूनी जामा पहनाने की नाकामी भी एक बड़ी ख़ामी रही है. अंतरिक्ष से जुड़े कारोबार से ताल्लुक़ रखने वाली नीतियों के मसौदे और रिमोट सेंसिंग नीतियों से निवेशों को सुलभ बनाने के लिए ज़रूरी स्पष्टता और पूर्वानुमान हासिल नहीं हुए हैं. इतना ही नहीं इस उद्योग से जुड़े नए नियामक IN-SPACe के सटीक क्रियाकलापों, ज़िम्मेदारियों और शक्तियों को किसी क़ानूनी ढांचे के तहत परिभाषित भी नहीं किया गया है.
परिवर्तनों के साथ-साथ दूरसंचार के क्षेत्र में नियम-क़ानूनों का मकड़जाल कम करने की भी घोषणा हुई है. इन तमाम बदलावों से सैटेलाइट और दूरसंचार उपकरणों के बाज़ार के तौर पर भारत की छवि एक बार फिर निखर कर सामने आई है.
इसमें कोई शक़ नहीं है कि द्विपक्षीय निवेश समझौतों (बीआईटी) और अंतरराष्ट्रीय व्यापार और निवेश प्रतिबद्धताओं के संदर्भ में भारत का इतिहास उतार-चढ़ावों से भरा रहा है. ऐसी ख़ामियां अंतरिक्ष के क्षेत्र या दूसरे तमाम सेक्टरों में देखी गई हैं. अनेक मामलों में मध्यस्थता अदालतों के आदेशों और निर्णयों से ये बातें सामने आई हैं. बात चाहे एंट्रिक्स-देवास विवाद की हो, केयर्न एनर्जी पीएलसी और एनरॉन बनाम भारतीय गणराज्य के बीच के झगड़े की हो या वोडाफ़ोन इंटरनेशनल होल्डिंग्स बीवी बनाम भारत सरकार के बीच मध्यस्थता की हो…इन तमाम मामलों पर काफ़ी कुछ लिखा-पढ़ा जा चुका है. इतना ही नहीं सौर ऊर्जा उद्योग के क्षेत्र में स्थानीय सामग्रियों के इस्तेमाल को लेकर भारत की नीति पर अमेरिका और भारत के बीच के विवाद पर भी लंबा-चौड़ा दस्तावेज़ तैयार हो चुका है.
पारंपरिक भारतीय प्रशासनिक सोच
प्रशासनिक हलकों में मौजूद पारंपरिक सोच के मुताबिक रक्षा और अंतरिक्ष जैसे क्षेत्रों में निजी उद्योग के साथ भागीदारी राष्ट्रीय हितों को ख़तरा पहुंचा सकती है. इस सोच के अनुसार चूंकि निजी क्षेत्र और उनसे जुड़े लोगों पर राज्यसत्ता का पूरा नियंत्रण नहीं होता लिहाज़ा राष्ट्रीय महत्व के नाज़ुक मुद्दों में निजी क्षेत्र की भागीदारी उचित नहीं है. हालांकि, ये सोच अब बदलने लगी है. अंतरिक्ष क्षेत्र में हालिया घटनाक्रम से यही बात सामने आती है.
प्रशासनिक हलकों में मौजूद पारंपरिक सोच के मुताबिक रक्षा और अंतरिक्ष जैसे क्षेत्रों में निजी उद्योग के साथ भागीदारी राष्ट्रीय हितों को ख़तरा पहुंचा सकती है. इस सोच के अनुसार चूंकि निजी क्षेत्र और उनसे जुड़े लोगों पर राज्यसत्ता का पूरा नियंत्रण नहीं होता लिहाज़ा राष्ट्रीय महत्व के नाज़ुक मुद्दों में निजी क्षेत्र की भागीदारी उचित नहीं है
बहरहाल नीतिगत बदलावों के लिए सबसे पहले नीति से जुड़े लक्ष्यों को साफ़-साफ़ परिभाषित करना ज़रूरी होता है. लिहाज़ा हमारे लिए अपने आप से ये प्रश्न पूछना ज़रूरी है कि दरअसल हम अंतरिक्ष से क्या हासिल करना चाहते हैं? भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम की शुरुआत व्यवस्थावादी और प्रचलित क़ानूनों के पालन के नज़रिए के तहत हुई थी. इसमें अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष क़ानूनों का सख़्ती से पालन किए जाने की बात शामिल थी. इसी का नतीजा रहा है कि भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम राज्यसत्ता द्वारा संचालित रहा है. इसके संचालन में कल्याणकारी राज्य से जुड़ी सोच काम करती रही है. भारतीय अंतरिक्ष तकनीकी के पीछे मोटे तौर पर धरती पर कल्याणकारी उद्देश्यों को पूरा करने का लक्ष्य रहा है. भारतीय रक्षा बलों के नज़रिए से शस्त्रीकरण और फ़ौजी उद्देश्यों से अंतरिक्ष कार्यक्रमों की भले ही अहमियत रही हो, लेकिन इसरो के अंतरिक्ष कार्यक्रमों में इन मकसदों को कभी भी बहुत ज़्यादा तवज्जो नहीं दी गई. इस सिलसिले में ये बात भी स्पष्ट नहीं है कि भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम ने इस बात की पहचान की है या नहीं कि बाहरी अंतरिक्ष संधि के ग़ैर-इस्तेमाल सिद्धांतों के सटीक स्वभाव और दायरे से जुड़ा विषय तमाम तरह की बहसों के लिए खुला हुआ है.
लिहाज़ा ऐसा लगता है कि कुछ चुनिंदा राज्यसत्ताओं द्वारा अपने फ़ौजी दस्तावेज़ों में अंतरिक्ष को एक अलग प्रभाव क्षेत्र के तौर पर घोषित किए जाने से पैदा होने वाली दिक़्क़तों के बारे में भारत पूर्वानुमान नहीं लगा सका. इन राज्यसत्ताओं ने बेशक़ीमती संसाधनों की तलाश में अंतरिक्ष की छानबीन को जायज़ बना दिया. भारतीय रक्षा बलों, वैज्ञानिकों और इंजीनियरों ने हमें दुनिया की इन हक़ीक़तों के साथ क़दम मिलाने के काबिल बनाकर बहुत बड़ा कारनामा कर दिखाया है. हालांकि, अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष क़ानूनों को लेकर हमारी आदर्शवादी व्याख्या ने हमारे भीतर इन रुझानों में आगे रहने के लिए ज़रूरी नज़रिया विकसित नहीं होने दिया. आज की सच्चाई यही है कि अब हम बाक़ी दुनिया के रुझानों के प्रति अपनी प्रतिक्रिया दिखा रहे हैं. इतना ही नहीं आदर्शवाद से दूर हक़ीक़त की दुनिया में प्रचलित सियासी नज़रियों से जुदा अंतरिक्ष कार्यक्रम संचालित करने के चलते भी हम आत्मनिर्भर नहीं हो सके. हमारा देश रक्षा और दूरसंचार से जुड़ी अहम ज़रूरतों (जैसे सैटेलाइट तस्वीरों और रक्षा/सामुद्रिक संचार) के लिए विदेशी सरकारों और विक्रेताओं पर निर्भर और आश्रित हो गया. निश्चित रूप से बेहद संवेदनशील क्षेत्रों और मामलों में ये हालात बेहद नाज़ुक हैं. पूर्व थल सेना अध्यक्ष जनरल वी पी मलिक ने कारगिल युद्ध पर लिखी अपनी क़िताब, “कारगिल फ़्रॉम सरप्राइज़ टू विक्ट्री” में इन तथ्यों को रेखांकित किया है.
हक़ीक़तों के साथ क़दम मिलाने के काबिल बनाकर बहुत बड़ा कारनामा कर दिखाया है. हालांकि, अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष क़ानूनों को लेकर हमारी आदर्शवादी व्याख्या ने हमारे भीतर इन रुझानों में आगे रहने के लिए ज़रूरी नज़रिया विकसित नहीं होने दिया.
इसके साथ-साथ हमारे यहां सैटेलाइट कम्युनिकेशन और रिमोट सेंसिंग से जुड़े ठोस और जीवंत उद्योगों का अभाव रहा. इस वजह से पृथ्वी की कक्षा के चारों ओर के क्षेत्र में भारत की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने की ज़िम्मेदारी इकलौते इसरो के कंधे पर आ गई. अंतरिक्ष के क्षेत्र में इसरो की कामयाबियों पर किसी को कोई शक़ नहीं है. ख़ासतौर से इसरो ने तमाम तरह की पाबंदियों की हदों के बीच ये सफलता हासिल की है. इसके बावजूद एक तथ्य अपनी जगह कायम है. अंतरराष्ट्रीय दूरसंचार संघ में ऑर्बिटल स्लॉट्स और फ्रीक्वेंसी हासिल करने के लिए सौदेबाज़ी करने की भारत की क्षमता चुनौतीपूर्ण बनी हुई है. ये हालात तब तक ऐसे ही रहेंगे जबतक बड़े पैमाने पर ऐसे ऑर्बिटल संसाधनों की खपत के लिए हमारे देश में फलता-फूलता घरेलू उद्योग खड़ा नहीं हो जाता. ऐसे में ये सवाल खड़ा हो सकता है कि क्या हमने भूमध्य रेखा से अपनी नज़दीकी, कार्यकुशल श्रमशक्ति की भरपूर मौजूदगी, विशाल बाज़ार और क़ानून के राज पर आधारित स्थिर लोकतांत्रिक ढांचे का पूरा-पूरा लाभ उठाया है या नहीं. सवाल उठता है कि क्या हमने भारत को न सिर्फ़ सैटेलाइट उपकरणों का इस्तेमाल करने वाला बल्कि उसके साथ-साथ एक निर्यातक बनाने की दिशा में कामयाबी पाई है या नहीं.
देर से ही सही पर भारत अब पृथ्वी के चारों ओर की कक्षा में अपने जायज़ आर्थिक और रक्षा ज़रूरतों को लेकर दखल देने लगा है. हालांकि अमेरिका जैसे दूसरे देश अब गहरे अंतरिक्ष में अपने हित साधने के लिए कमर कसकर सक्रियता से क़दम आगे बढ़ा रहे हैं. इनमें चांद पर बस्ती बसाने से लेकर उल्का पिंडों में संसाधनों की खोज तक के लक्ष्य शामिल हैं. दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं पर ऐसी गतिविधियों के संभावित रुकावटी प्रभाव अब भी अस्पष्ट हैं. हालांकि इसके बावजूद हम अपने सामने नए सिरे से “ख़ज़ाना पाने की होड़” शुरू होता देख सकते हैं. तेज़ी से बदलते इस परिदृश्य में अगर भारत ख़ज़ाना पाने की इस दौड़ में अपने प्रयासों को सिरे चढ़ाने के लिए विदेशी विक्रेताओं और विदेशी सरकारों पर निर्भर होगा, तो उसके कई लक्ष्य पूरे नहीं हो सकेंगे. ऐतिहासिक तौर पर भी रक्षा साज़ोसामानों की पूर्ति के लिए हम विदेशी विक्रेताओं पर ही निर्भर रहे हैं. ऐसे में अंतरिक्ष क्षेत्र की आधुनिक ज़रूरतों के संदर्भ में विदेशी स्रोतों पर ऐसी निर्भरता से भारत में वित्तीय घाटा पाटने से जुड़े कार्यक्रम या अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और सियासत में अपनी स्वतंत्रता पर दबाव पड़ने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. अंतरिक्ष के क्षेत्र में एक तरफ़ अमेरिका और दूसरी ओर रूस और चीन की अगुवाई में ज़बरदस्त होड़ उभर रही है. इस रस्साकशी की झलक अमेरिका की अगुवाई वाले आर्टेमिस अकॉर्ड्स और रूस और चीन के नेतृत्व में इंटरनेशनल साइंटिफ़िक लुनर स्टेशन (आईएसएलएस) के रूप में साफ़तौर पर देखी जा सकती है. भारत को इन दोनों में से किसी का भी पक्ष लेने से बचना चाहिए. इसके लिए अंतरिक्ष से जुड़े मज़बूत घरेलू उद्योग की दरकार है. एक ऐसा उद्योग जो ऐतिहासिक रूप से हमारे गुट-निरपेक्ष रुख़ का इस्तेमाल कर अंतरिक्ष में हमारी महत्वाकांक्षाओं को पूरा कर सके.
परिणाम
निष्कर्ष के तौर पर ये कहा जा सकता है कि भारतीय अंतरिक्ष नीति के परिदृश्य में आमूल-चूल बदलाव की ज़रूरत है. हालांकि ये परिवर्तन सिर्फ़ रोज़गार के अवसर पैदा करने या अंतरिक्ष से जुड़ी गतिविधियों के ज़रिए कर राजस्व बढ़ाने तक ही सीमित नहीं हैं. इसके विपरीत अंतरिक्ष और रक्षा जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में निजी क्षेत्र की ठोस मौजूदगी अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में हमारी स्वतंत्रता को मज़बूत करती है. ये हमें अंतरराष्ट्रीय गठजोड़ कायम करने के साधन उपलब्ध कराती है, अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष नीतियों के उभरते क्षेत्र में हमारे हितों को सबके सामने रखते हैं. इतना ही नहीं अंतरिक्ष के क्षेत्र में दूसरे देशों की महत्वाकांक्षाओं और नीतियों के साथ ख़ुद को जोड़ने की हमारी ज़रूरतों को भी कम करते हैं. अगर इन लक्ष्यों को छोड़ भी दें तो भी इस पूरी क़वायद से अंतरराष्ट्रीय व्यापार और निवेश प्रतिबद्धताओं का पालन करने को लेकर हमारे ट्रैक रिकॉर्ड में सुधार आना तय है. इतना ही नहीं इनसे अंतरिक्ष क्षेत्र से जुड़ी हमारी अफ़सरशाही को एक भरोसा भी मिलता है. मार्गदर्शक नीतियों के आधार पर लिए गए उनके फ़ैसले उन्हें घरेलू अदालतों की न्यायिक समीक्षा और बीआईटी से जुड़े क़ानूनी दावों और अर्ज़ियों पर जवाबदेही से बचाते हैं.
निश्चित रूप से हमारे उद्यमी और वैज्ञानिक दुनिया में सर्वश्रेष्ठ और बेहतरीन प्रतिभा के धनी हैं. ऐसे में अंतरराष्ट्रीय व्यापार और निवेश प्रतिबद्धताओं से तालमेल खाती नीति हमारे उद्यमियों और वैज्ञानिकों में राष्ट्रीय समर्थन और वैधता का भाव भरती हैं. उनके लाभ के लिए ऐसी नीति बेहद ज़रूरी है. ऐसी नीति पूंजी तक उनकी पहुंच को बढ़ाएगी और उनको क़ानूनी जोखिमों से परे रखेगी. ये बात अपने आप में बेहद अहम है. घरेलू निर्माण को बढ़ावा देने का लक्ष्य भारत के राष्ट्रीय लक्ष्यों में शामिल है. इसके साथ ही भारत वैश्विक अंतरिक्ष राजनीति में एक ताक़तवर खिलाड़ी बनने की भी इच्छा रखता है. इन तमाम महत्वाकांक्षाओं के मद्देनज़र ऐसी क़वायद भारत का उत्साह और ताक़त बढ़ाने वाली साबित होगी.
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