Expert Speak Raisina Debates
Published on Apr 18, 2024 Updated 0 Hours ago

आज जब दक्षिण अफ्रीका आम चुनावों की ओर बढ़ रहा है, तो राजनीतिक दलों की बढ़ती तादाद के साथ, वहां आने वाले समय में गठबंधन की राजनीति होना एक तय सच्चाई है. 

दक्षिण अफ्रीका में 2024 के चुनाव: राजनीतिक बहुलता या खंडित लोकतंत्र?

 29 मई को दक्षिण अफ्रीका में राष्ट्रीय और प्रांत स्तर के चुनाव होने वाले हैं. तमाम सर्वेक्षण ये इशारा कर रहे हैं कि, वहां रंगभेद हुकूमत ख़त्म होने के बाद से इन चुनावों में शायद ऐसा पहली बार होगा, जब अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस (ANC) को अपने दम पर बहुमत न मिल सके. ANC ने 12 जनवरी को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में इज़राइल के ख़िलाफ़ नरंसहार रोकने की संधि का उल्लंघन करने के इल्ज़ाम को लेकर कार्रवाई शुरू की थी. अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस का ये क़दम निश्चित रूप से अपनी छवि को बहाल करने की कोशिश था. उसके इस क़दम की वजह से पूरी दुनिया में दक्षिण अफ्रीका की तारीफ़ की गई. हालांकि, आज जब देश में गठबंधन सरकार की संभावनाएं और मज़बूत होती जा रही हैं, तो देश के सामने कुछ गंभीर घरेलू चुनौतियां खड़ी दिखाई देती हैं. इनमें खंडित लोकतंत्र सबसे बड़ी चुनौती है.

ये सच है कि, 1994 में रंगभेद के ख़ात्मे के बाद से दक्षिण अफ्रीका बड़े अहम सामाजिक बदलाव और संवैधानिक लोकतंत्र का उभार होते देखा है. और, ये कहना ज़्यादती होगी कि दक्षिण अफ्रीका में लोकतंत्र नाकाम हो रहा है. 

जब अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र की परिभाषा, ‘जनता की, जनता के द्वारा और जनता के लिए काम करने वाली सरकार’ के तौर पर की थी. तब निश्चित रूप से उनके ज़हन में दक्षिण अफ्रीका के लोकतंत्र का ख़याल नहीं था. ये सच है कि, 1994 में रंगभेद के ख़ात्मे के बाद से दक्षिण अफ्रीका बड़े अहम सामाजिक बदलाव और संवैधानिक लोकतंत्र का उभार होते देखा है. और, ये कहना ज़्यादती होगी कि दक्षिण अफ्रीका में लोकतंत्र नाकाम हो रहा है. हालांकि, दक्षिण अफ्रीका अभी कार्यकारी लोकतंत्र तो बना हुआ है. लेकिन, उसके जनतांत्रिक सिद्धांतों में कुछ दरारें साफ़ तौर पर दिख रही हैं, जिन्हें भरने और मज़बूती प्रदान करने की ज़रूरत है.

अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस का घटता प्रभाव

इस वक़्त संसद में अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के पास सबसे ज़्यादा सीटें हैं. उसके बाद गोरों के बहुमत वाले डेमोक्रेटिक एलायंस (DA), सबसे बड़ी और वामपंथी झुकाव वाली विपक्षी पार्टी इकॉनमिक फ्रीडम फाइटर्स (EFF) का नंबर आता है. रंगभेद ख़त्म होने के बाद जब 1994 में दक्षिण अफ्रीका में पहले आम चुनाव हुए थे, तो नेल्सन मंडेला राष्ट्रपति चुने गए थे. उसके बाद से अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस ही सत्ता में रहती आई है. हालांकि, देश की अगुवाई करने का ANC का रिकॉर्ड दाग़दार रहा है और इस बार उसकी जीत की संभावनाओं पर सवालिया निशान लग रहे हैं. 2019 में दक्षिण अफ्रीका में केवल 49 प्रतिशत लोगों ने मतदान किया था; इस बार मतदान का प्रतिशत और भी कम रहने का अंदेशा जताया जा रहा है.

इसके उलट, अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस के लगातार कम होते समर्थन की वजह से पिछले कुछ वर्षों के दौरान बहुत सी नई और न परखी गई राजनीतिक पार्टियों का उदय होता देखा जा रहा है. अगले चुनाव में उम्मीद है कि लगभग 400 राजनीतिक दल और स्वतंत्र उम्मीदवार हिस्सा लेंगे; इन नई पार्टियों में से 60 फ़ीसद तो अकेले 2023 में ही रजिस्टर्ड कराई गई हैं. दक्षिण अफ्रीका के इतिहास में चुनाव लड़ने वाली पार्टियों की ये सबसे ज़्यादा संख्या है. दक्षिण अफ्रीका में तो ‘ऑपरेशन डुडुला’ नाम की एक पार्टी भी रजिस्टर्ड है. ज़ुलू भाषा में इसका मतलब ‘धकेल देना’ होता है. ये पार्टी सिर्फ़ अप्रवासियों को दक्षिण अफ्रीका में आने से रोकने और आ चुके अप्रवासियों को बाहर निकालने पर अपना ध्यान केंद्रित करती है.

ये सच है कि देश में रजिस्टर्ड दलों की बढ़ती संख्या एक ऊर्जावान राजनीतिक माहौल की तरफ़ इशारा करती है. ये दल जनता की अलग अलग चिंताओं और हितों की नुमाइंदगी करते हैं.

हालांकि, सियासी दलों की बढ़ती संख्या के साथ ही देश में गठबंधन की राजनीति कोई दूर की कौड़ी नहीं, बल्कि सामने खड़ी हक़ीक़त बन चुकी है. यही नहीं, ये तो कुछ हद तक चिंता की बात है कि पारंपरिक गठबंधन सरकारें स्थानीय और प्रांतीय स्तर पर बेहद ख़राब प्रदर्शन करती रही हैं. गठबंधन के इन दलों के बीच बुनियादी मसलों पर असहमति की वजह से ये सरकारें अस्थिर बनी रहती हैं, जिनसे कुछ राजनेताओं को हालात का फ़ायदा उठाने का मौक़ा मिल जाता है.

राजनीतिक दलों की बढ़ती संख्या: लोकतंत्र के लिए अच्छा है या ख़राब?

अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के महासचिव फिकिले एमबालुला के मुताबिक़, नई राजनीतिक पार्टियों के गठन के पीछे असल मक़सद ANC को सत्ता से बेदख़ल करना और एक नई तरह की गठबंधन की सियासत शुरू करना है. इसके अतिरिक्त मशहूर राजनीतिक विश्लेषक प्रोफ़ेसर सिफो सीपे दावा करते हैं कि राजनीतिक दलों की संख्या में बेतरह बढ़ोत्तरी, एक तरह से मौजूदा सियासी पार्टियों के प्रति अविश्वास का प्रदर्शन है. ख़ास तौर से सत्ताधारी दल के प्रति, जो अक्षम नेतृत्व की चुनौती से जूझ रही है. राजनीतिक विश्लेषक स्टीवेन फ्राइडमैन ने भी ऐसी ही भावनाओं का इज़हार किया. उन्होंने कहा कि आम जनता अपना भविष्य, देश की मौजूदा प्रमुख पार्टियों के हाथ में सौंपने को तैयार नहीं है. ये सच है कि देश में रजिस्टर्ड दलों की बढ़ती संख्या एक ऊर्जावान राजनीतिक माहौल की तरफ़ इशारा करती है. ये दल जनता की अलग अलग चिंताओं और हितों की नुमाइंदगी करते हैं. जब किसी जनतंत्र में नई आवाज़ें और मंच उभरते रहते हैं, तो उसे नई ऊर्जा से भरा हुआ लोकतंत्र माना जाता है.

इन बदलावों के कारण, ये राजनीतिक दल जिस अश्वेत समुदाय की नुमाइंदगी करने की चाहत रखते हैं, उसको ही नुक़सान पहुंचता है. पिछली बार चुनाव में भाग लेने वाले कुल 48 दलों में से 46 दल अश्वेत वोट हासिल करने का संघर्ष कर रहे थे. 

हालांकि, ज़रूरत से ज़्यादा राजनीतिक दलों की मौजूदगी का एक मतलब ये भी है कि वोट बहुत अधिक बंट जाते हैं. ऐसे में लोगों के वोट लोकतंत्र को मज़बूत करने के बजाय बर्बाद हो जाते हैं. हालांकि, बहुदलीय राजनीति में आम लोगों को इस बात की इजाज़त मिलनी चाहिए कि वो अपनी पसंद की सरकार चुनें. लेकिन, चुनाव के मैदान में बहुत ज़्यादा पार्टियों के होने से, समुदायों के हित बयान करने और जवाबदेही तय करने को लेकर सियासी दलों में जनता के भरोसे को चोट पहुंचती है. इससे विपक्ष का प्रभाव कम होता है और मतदान के फ़ैसले अस्पष्ट ही रह जाते हैं.

राजनीतिक दलों के विस्तार से जुड़ी चुनौतियां

ज़्यादा विकल्प होना फ़ायदे का सौदा तो है, मगर कुछ गिने चुने हालात में ही. राजनीतिक दलों की लगातार बढ़ती संख्या की वजह से दक्षिण अफ्रीका के लोकतंत्र में जटिलताओं की नई परतें जुड़ती जा रही हैं. सियासी दलों की ख़राब छवि की एक बड़ी वजह, उनकी अंदरूनी संरचना है, जिसमें पारदर्शिता का अभाव है. यही नहीं, जो नए दल गठित किए जा रहे हैं, वो भी संगठन के स्तर पर मौजूदा ढांचे या फिर उन सियासी दलों की संस्कृति से हटकर कुछ नया करने का प्रयास नहीं कर रहे हैं, जिनसे वो लड़ना चाहते हैं. लोग भी उन्हें अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस का विकल्प नहीं समझते हैं, क्योंकि वो जनता के बीच बदलाव लाने विश्वास ही नहीं जगा पा रहे. अब इसमें हैरानी की बात नहीं है कि तमाम पंजीकृत दलों के बीच में अकेले EEF ही है, जिसका गठन दस साल पहले हुआ था, वो ANC को चुनौती दे पा रही है.

नई पार्टियों की बढ़ती तादाद का एक और आयाम भी है. ये दल अक्सर ऐसे नेताओं द्वारा गठित किए जाते हैं, जो ख़ुद को विशेष अधिकारों वाला समझते हैं. ऐसे में वो उपयोगी रिश्ते क़ायम नहीं कर पाते और जनता व अपनी पार्टी के बीच के रिश्ते को भी चोट पहुंचाते हैं. इसका नतीजा ये होता है कि ऐसे राजनेता, आम लोगों, और विशेष रूप से युवा पीढ़ी को अपने से दूर कर देते हैं, जिनका सियासी दलों से पहले से ही मोह भंग हो चुका है.

इसमें कोई दो राय नहीं कि एक स्वस्थ जनतंत्र में कई पार्टियां होनी ही चाहिए. लेकिन, बहुत ज़्यादा टुकड़ों में बंटने की अपनी कमियां होती हैं. जैसे जैसे दलों के बीच बंटवारा होता जाता है, वैसे वैसे देश पर राज करना मुश्किल होता जाता है. 

आख़िर में, इन बदलावों के कारण, ये राजनीतिक दल जिस अश्वेत समुदाय की नुमाइंदगी करने की चाहत रखते हैं, उसको ही नुक़सान पहुंचता है. पिछली बार चुनाव में भाग लेने वाले कुल 48 दलों में से 46 दल अश्वेत वोट हासिल करने का संघर्ष कर रहे थे. हालांकि, इन 48 पार्टियों में से केवल 14 ऐसी थीं, जिनको इतने वोट मिल सके कि वो संसद पहुंच सकें. दूसरे शब्दों में कहें, तो संसद की एक भी सीट न जीतने वाली 34 पार्टियों को दिए गए लाखों वोट बर्बाद हो गए, क्योंकि वो जीतने के लिए ज़रूरी वोट हासिल नहीं कर सके. अश्वेत पार्टियों के बीच लगातार चलने वाली प्रतिद्वंदिता से एक दुष्चक्र पैदा होता है, जो गहरी जड़ें जमाए बैठे श्वेत नस्लवाद को ही मज़बूत करता है.

आगे का रास्ता

बहुत से लोग दक्षिण अफ्रीका में 2024 के आम चुनाव को 1994 में रंगभेद ख़त्म होने के बाद के सबसे अहम चुनाव कह रहे हैं. इस वक़्त 400 सदस्यों वाली संसद में 230 सांसदों के साथ अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी है. डेमोक्रेटिक एलायंस (DA) के पास 84 सीटे हैं, तो EEF के पास 44. वहीं अन्य दलों के पास 11 सीटें हैं. 14 जनवरी को ANC ने अपनी 112वीं सालगिरह को नस्लभेद के ख़िलाफ़ आज़ादी के आंदोलन के तौर पर मनाया था. हालांकि, 30 साल तक सत्ता में रहने के बाद, ये भी मुमकिन है कि ANC को ज़रूरी 50 प्रतिशत वोट न मिलें, और फिर सत्ता में बने रहने के लिए उसको इकॉनमिक फ्रीडम फाइटर्स (EEF) या फिर किसी दूसरे दल के साथ हाथ मिलाने की ज़रूरत पड़े, जिससे देश में गठबंधन सरकार की शुरुआत हो.

इसमें कोई दो राय नहीं कि एक स्वस्थ जनतंत्र में कई पार्टियां होनी ही चाहिए. लेकिन, बहुत ज़्यादा टुकड़ों में बंटने की अपनी कमियां होती हैं. जैसे जैसे दलों के बीच बंटवारा होता जाता है, वैसे वैसे देश पर राज करना मुश्किल होता जाता है. ये ज़रूरी नहीं है कि किसी बड़ी पार्टी के बजाय बहुत सी छोटी छोटी पार्टियों का गठबंधन ज़्यादा लोगों की नुमाइंदगी करता हो. चूंकि स्थानीय स्तर पर गठबंधन सरकारों का प्रदर्शन देखते हुए ज़ाहिर है कि ये तरीक़ा सबसे विवादित और अस्थिर होता है. ऐसे में राष्ट्रीय स्तर पर किसी गठबंधन सरकार की संभावना से कोई उम्मीद नहीं जगती.

2024 के चुनाव में लगभग 400 दलों के मैदान में उतरने की वजह से 2019 की तरह इस बार भी लाखों लोगों के वोट का बर्बाद होना तय है. इस बार तो दक्षिण अफ्रीका में वोटों का और अधिक बंटवारा हो सकता है. इन छोटी छोटी पार्टियों द्वारा ख़ुद को देश की मुख्यधारा की तीन बड़ी पार्टियों के उपयोगी दूरगामी विकल्प के तौर पर पेश करने में कितनी संभावनाएं हैं, और ये पार्टियां अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस को किस हद तक नुक़सान पहुंचाएंगी, इन सवालों के जवाब तो हमें चुनाव के नतीजे आने के बाद ही पता चलेंगे.

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