Author : Kabir Taneja

Published on Feb 19, 2021 Updated 0 Hours ago

सोशल मीडिया सरकारों के लिए न सिर्फ़ घरेलू तौर पर अपनी बात पहुंचाने का एक बड़ा मंच बन गया बल्कि अंतर्राष्ट्रीय तौर पर भी. लेकिन इसके साथ-साथ बढ़ती चुनौती और लोगों के भरोसे में कमी का भी सामना करना पड़ा .

सोशल मीडिया, विदेश-नीति और चरमपंथी सोच का चौराहा: भारत से एक उदाहरण

साल 2020 में जब कोविड-19 महामारी पूरी दुनिया में फैल गई और अलग-अलग देश शहरों को बंद करने के आर्थिक दुष्परिणाम पर काबू पाने के लिए संघर्ष कर रहे थे तो सोशल मीडिया सामाजिक व्याख्य़ानों ढक्कन वाला बर्तन बन गया. इससे भी महत्वपूर्ण ये कि सोशल मीडिया सरकारों के लिए न सिर्फ़ घरेलू तौर पर अपनी बात पहुंचाने का एक बड़ा मंच बन गया बल्कि अंतर्राष्ट्रीय तौर पर भी. लेकिन इसके साथ-साथ बढ़ती चुनौती और लोगों के भरोसे में कमी का भी सामना करना पड़ा. ये मंच जहां इंटरनेट का इस्तेमाल करके दुष्प्रचार और भर्ती करने वाले चरमपंथियों, जो अक्सर सरकार से अलग होते है, की कड़ी चुनौतियों का सामना करता है, वहीं इसका दूसरा पहलू सरकार और सरकार के द्वारा सोशल मीडिया का इस्तेमाल है. इस पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है.

विदेश नीति और राजनीतिक दिखावे के आधिकारिक टूल के तौर पर सोशल मीडिया के बढ़ते इस्तेमाल ने राजनीति, प्रवासन और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को भी दिलचस्प पॉलिसी कॉकटेल में ढालना शुरू कर दिया है जिसका नतीजा अक्सर अनचाहा होता है. इसके पीछे ये तथ्य भी है कि अक्सर नीति और भू-राजनीतिक वास्तविकताओं की वजह से बड़े देश की प्रकृति हस्तक्षेप करने की होती है. मशहूर स्कॉलर सी.राजा मोहन बताते हैं कि कैसे भारत और चीन- दोनों देश, जो सभ्यतागत संबंधों और ऐतिहासिक, राजनीतिक एवं सामाजिक जटिलताओं से बंधे हैं, अक्सर दक्षिण एशिया में हस्तक्षेप करने वाली शक्ति के तौर पर देखे जाते हैं. ऐसी संरचना में लोक कूटनीति आज महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है और अक्सर सोशल मीडिया और इंटरनेट तेज़ी से इसके लिए महत्वपूर्ण टूल बन जाते हैं.

विदेश नीति और राजनीतिक दिखावे के आधिकारिक टूल के तौर पर सोशल मीडिया के बढ़ते इस्तेमाल ने राजनीति, प्रवासन और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को भी दिलचस्प पॉलिसी कॉकटेल में ढालना शुरू कर दिया है जिसका नतीजा अक्सर अनचाहा होता है. 

अप्रैल 2020 में तीन भारतीयों को संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) में अपनी सोशल मीडिया की गतिविधियों की वजह से नौकरी गंवानी पड़ी. उन पर आरोप लगे कि अपने “इस्लामोफ़ोबिक” पोस्ट के ज़रिए उन्होंने वहां की सामाजिक सद्भावना के माहौल को बिगाडा. इस घटना से अलग हटकर भारत में दक्षिणपंथी सोच वाले लोगों और यूएई एवं वृहद खाड़ी इलाक़े के अलग-अलग प्रभावशाली लोगों और कार्यकर्ताओं के बीच सोशल मीडिया पर झगड़े ने इलाक़े के भारतीय राजनयिक मिशन को डैमेज कंट्रोल के काम में लगा दिया. उन्होंने सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा कही गई बात का हवाला दिया कि कोविड-19 किसी धर्म, जाति, नस्ल या सरहद को नहीं जानता. घरेलू घटनाएं जैसे फरवरी 2020 में दिल्ली के सांप्रदायिक दंगे और तब्लीगी जमात के मामले बताते हैं कि किस तरह ये स्थानीय घटनाएं ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर अंतर्राष्ट्रीय बन जाती हैं. इससे भारतीय राजनयिकों के लिए नई चुनौती खड़ी हो गई है.

अबुधाबी के साथ बेहतर संबंध – मोदी सरकार की उपलब्धि

पूरे खाड़ी के इलाक़े में 80 लाख से ज़्यादा भारतीय रहते हैं और भारत के लिए अपनी सरहद से बाहर एक छोटे देश के आकार की आबादी की देखभाल करना कोई आसान काम नहीं है, ख़ासतौर से सोशल मीडिया के युग में. जिस तकनीक को सरकार और समाज- दोनों ने विदेश नीति के टूल के तौर पर अपनाया है, उसने महामारी के दौरान अपना नकारात्मक पहलू दिखाया है. इससे न सिर्फ़ सोशल मीडिया मंचों बल्कि सरकारों के लिए भी मज़बूती से ये सोचने की ज़रूरत महसूस हुई है कि किस तरह सोशल मीडिया का सर्वश्रेष्ठ इस्तेमाल किया जाए. चुनौती ख़ासतौर से राजनीति और गवर्नेंस के बीच के क्षेत्र में आती है. डिजिटल तौर पर दुनिया में सबसे तेज़ी से बढ़ते देश में समर्थन के लिए जिस तरह राजनेता सोशल मीडिया का काफ़ी ज़्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं, उससे ऑनलाइन इकोसिस्टम दोधारी तलवार में बदल गया है. खाड़ी देशों का उदाहरण भी ये बताता है.

खाड़ी देशों के भीतर अबू धाबी ने धीरे-धीरे पाकिस्तान के मुक़ाबले भारत को ज़्यादा महत्व देना शुरू किया और यहां तक कि पहले हिंदू मंदिर की घोषणा करके समावेशी राजनीति को भी अपनाया. 

एक लंबे समय तक भारत के लोगों के बीच चर्चा में विदेश नीति को सरकार के काम-काज में “तकनीकी क्षेत्र” की तरह देखा जाता था. यानी विदेश नीति को सार्वजनिक संवाद से थोड़ा दूर रखा जाता था और राजनयिकों को अलग होकर काम करने की छूट मिलती थी. वो अक्सर लोगों के समर्थन और लोगों के विरोध से अलग रहते थे. लेकिन घरेलू राजनीति में विदेश में रहने वाले लोगों के सीधे तौर पर शामिल होने और घरेलू एवं अंतर्राष्ट्रीय तौर पर समर्थन जुटाने के लिए इन इकोसिस्टम के इस्तेमाल की वजह से कमज़ोर लोक कूटनीति की रणनीति नहीं बल्कि बेहद सतर्क रणनीति के विकास की ज़रूरत है. ख़ासतौर पर ऐसी रणनीति नहीं चाहिए जो ऑनलाइन स्पेस में आधिकारिक कूटनीति और लोक कूटनीति के अंतर के बीच पुल नहीं बन सके.

एक बार फिर यूएई के उदाहरण की ओर आएं तो अबू धाबी के साथ भारत के संबंध मोदी सरकार की उपलब्धियों में से एक है. दुबई की शहज़ादी लतीफ़ा ने जब अपने परिवार से फ़रार होकर भागने की कोशिश की तो गोवा के तट से उन्हें भारत ने लौटाया, खाड़ी देशों के भीतर अबू धाबी ने धीरे-धीरे पाकिस्तान के मुक़ाबले भारत को ज़्यादा महत्व देना शुरू किया और यहां तक कि पहले हिंदू मंदिर की घोषणा करके समावेशी राजनीति को भी अपनाया. अगर लोक कूटनीति और लोगों के बीच आपसी संपर्क ख़राब होने लगेंगे, ख़ासतौर पर सोशल मीडिया गतिविधियों की वजह से, तो अलग-अलग राजनीतिक और वैचारिक मतों वाले देशों के बीच संबंधों में आए इस तरह के सुधार को चोट पहुंच सकती है. इसका एक उदाहरण खाड़ी देशों के बीच भी देखा जा सकता है. सऊदी अरब और यूएई ने, शायद ग़ैर-इरादतन, जिस तरह क़तर पर पाबंदी लगाई है, उससे अरब लोगों के बीच भी खाई बन गई है. इससे सऊदी अरब और यूएई के ख़िलाफ़ लोगों की राय बनी. लोग, जिनमें भारत के प्रवासी भी शामिल हैं, पक्ष लेने लगे. इस तरह उन्होंने खाड़ी सहयोग परिषद जैसे संगठनों की एकजुटता को चुनौती दी. कुछ मामलों में तो क़तर में कई वर्षों से काम कर रहे भारतीयों ने भी सोशल मीडिया के ज़रिए क़तर के नेतृत्व के लिए अपना समर्थन ज़ाहिर किया. इस तरह उन्होंने एक डिजिटल चर्चा के ‘सीमाहीन’ होने के सच्चे स्वभाव को दिखाया. डॉ. परम सिन्हा पालित ने भारत और लोक कूटनीति पर अपनी रिसर्च में इस बात को विशेष रूप से दिखाया है कि जहां भारतीय राजनीति में सोशल मीडिया पर शख़्सियत को काफ़ी हद तक देश के लोगों के लिए बनाया जाता है, लेकिन वो घरेलू राजनीतिक एजेंडा और वैश्विक मुद्दों के बीच सीमा को भी धुंधला करते हैं. इन नये अपरिभाषित क्षेत्रों को अगर काफ़ी हद तक कल्पना के भरोसे छोड़ दिया जाए तो इनकी प्रवृति कूटनीति के लिए बड़ी चुनौती बनने की होती है.

किसान आंदोलन और जस्टिन ट्रूडो का बयान

सिर्फ़ खाड़ी देशों और वहां रहने वाले भारी संख्या में प्रवासियों ने ही इन चुनौतियों की तरफ़ ध्यान नहीं दिलाया है. हाल के दिनों में दिल्ली के किसान प्रदर्शन और उसको लेकर कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के अनुचित बयान के बाद जब भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर से इस मुद्दे पर भारत के जवाब के बारे में पूछा गया तो उन्होंने सोशल मीडिया पर भारत और कनाडा के लोगों के एक साथ ज़ोरदार जवाब की ओर ध्यान दिलाया. ये तथ्य कि सोशल मीडिया पर जवाब को आधिकारिक कूटनीतिक बयान के समानांतर देखा जा रहा था, निश्चित रूप से कूटनीति के संचालन में एक नई परत जोड़ता है.

सोशल मीडिया को आज राजनीति और नीति के टूल के तौर पर तेज़ी से इस्तेमाल किया जा रहा है. न सिर्फ़ सरकारें बल्कि ग़ैर-सरकारी लोग भी कम क़ीमत पर असरदार ढंग से समर्थन जुटाने और विचारधारा, राजनीति का प्रचार करने में सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर रहे हैं. ग़ैर-सरकारी इकोसिस्टम जैसे कि चरम दक्षिणपंथी क्यूएनॉन, जिसने 2020 के अमेरिकी चुनाव के इर्द-गिर्द और उसके बाद जनवरी 2021 में वॉशिंगटन डीसी में कैपिटल हिल पर हमले में बड़ी भूमिका निभाई, से लेकर ग़ैर-सरकारी उग्रवादी संगठन जैसे कि इस्लामिक स्टेट (आईएस), जो सोशल मीडिया के ज़रिए भर्ती करता है और दुनिया भर में अपने बारे में सुर्खिया बटोरता है, तक सरकारें ख़ुद सोशल मीडिया और लोक कूटनीति के मामले में काफ़ी हद तक अराजक समझ रखती हैं. कई मामलों में तो सोशल मीडिया मंचों की नीतियों के अपरिभाषित क्षेत्र वैश्विक तौर पर चुनी हुई और ग़ैर-चुनी हुई राजनीतिक हस्तियों को दुरुपयोग और दोषपूर्ण आचरण से बच निकलने के बहुत से रास्ते मुहैया कराते हैं.

घरेलू राजनीति, दिखावे और अंतर्राष्ट्रीय मामलों के बीच मिटते अंतर विदेश नीति की पहुंच में तनाव पैदा कर सकते हैं. आगे की बात करें तो विदेश नीति और लोक कूटनीति के बीच सोशल मीडिया समाता है या नहीं, इसकी गहरी समझ के लिए स्पष्टता की ज़रूरत होगी. ये नीति निर्माताओं, तकनीकी प्लेटफॉर्म और शैक्षणिक समुदाय के लिए मुश्किल चुनौती होगी.


ये समीक्षा मूल रूप से ग्लोबल नेटवर्क ऑन एक्स्ट्रीमिज़्म एंड टेक्नोलॉजी (जीएनईटी) में छपी.

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