Author : Anchal Vohra

Published on Feb 09, 2021 Updated 0 Hours ago

पाबंदी के पहले दो प्रारूपों को हटा दिया गया था और फिर ट्रंप ने वेनेज़ुएला, उत्तरी कोरिया, नाइजीरिया, म्यांमार और दूसरे कई और देशों को भी इसमें जोड़ा ताकि फ़ैसले को क़ानूनी तरीक़े से लागू किया जा सके.

अमेरिका में मुसलमानों की यात्रा पर ट्रंप की पाबंदी रद्द: ज़्यादा शरणार्थियों को पनाह देंगे बाइडेन

अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अपने कार्यकाल की शुरुआत 13 देशों के लोगों की अमेरिका यात्रा पर लगाए गए पाबंदी के अपने पूर्ववर्ती डोनाल्ड ट्रंप के विवादित फ़ैसले को रद्द करके किया है. क़ानून विशेषज्ञों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने इस पाबंदी को ट्रंप के द्वारा “मुसलमानों पर पाबंदी” का नाम दिया था.

बाइडेन ने अपने चुनाव अभियान के दौरान कहा था, “मैं पहले ही दिन ट्रंप के असंवैधानिक मुसलमानों पर पाबंदी को ख़त्म कर दूंगा. मेरा प्रशासन इस तरह का होगा जहां अमेरिका का हर मुसलमान नागरिक हर स्तर पर काम करेगा.”

2017 में कई कार्यकारी आदेशों के ज़रिए डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान, लीबिया, सीरिया और यमन समेत सात मुस्लिम बहुल देशों से प्रवासियों के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी थी.

लेकिन इस पाबंदी को भेदभावपूर्ण बताया गया था क्योंकि इसमें धर्म के आधार पर लोगों पर निशाना साधा गया था. पाबंदी के पहले दो प्रारूपों को हटा दिया गया था और फिर ट्रंप ने वेनेज़ुएला, उत्तरी कोरिया, नाइजीरिया, म्यांमार और दूसरे कई और देशों को भी इसमें जोड़ा ताकि फ़ैसले को क़ानूनी तरीक़े से लागू किया जा सके.

जिस वक़्त अमेरिका की अदालतों में पाबंदी पर चर्चा हो रही थी, उस दौरान हज़ारों परिवारों को अलग-अलग रहने के लिए मजबूर होना पड़ा. 

जिस वक़्त अमेरिका की अदालतों में पाबंदी पर चर्चा हो रही थी, उस दौरान हज़ारों परिवारों को अलग-अलग रहने के लिए मजबूर होना पड़ा. इनमें से कई लोगों के पास अमेरिका की यात्रा के लिए वैध वीज़ा था लेकिन इसके बावजूद उनकी उड़ान रद्द कर दी गई और उन्हें अमेरिका जाने का कार्यक्रम टालना पड़ा. हज़ारों शरणार्थियों से सुरक्षा का जो वादा किया गया था, उसे निभाया नहीं गया. अपने देश में ज़ुल्म से बचने के लिए भागने वाले मध्य-पूर्व के राजनीतिक असंतुष्टों को लेबनान और तुर्की जैसे देशों में शहर के बाहरी इलाक़ों या अस्थायी घरों में रहने के लिए विवश होना पड़ा.

इस्लामोफ़ोबिया को भुनाने की कोशिश

2018 में अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए आतंकी हमलों से बचे रहने को ज़रूरी माना. आलोचक इससे असहमत हुए और इस सोच पर सवाल उठाए. ट्रंप और उनके इस्लामोफ़ोबिक समर्थकों ने दलील दी कि अगर प्रशासन ने ट्विन टावर और पेंटागन से हवाई जहाज़ को टकराने वाले 19 विदेशी नागरिकों को वीज़ा नहीं दिया होता तो 3,000 अमेरिकी नागरिकों की जान बचाई जा सकती थी.

लेकिन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने इस दावे को खारिज कर दिया. उन्होंने कहा कि आतंकी हमला करने वाले 19 आतंकियों में से ज़्यादातर सऊदी अरब के नागरिक थे लेकिन सऊदी अरब को पाबंदी वाले देशों की लिस्ट में नहीं रखा गया था. वो इस नतीजे पर पहुंचे कि पाबंदी का मक़सद इस्लामोफ़ोबिया को भुनाना था. साथ ही अमेरिकी ज़मीन पर भविष्य के आतंकी हमले से बचने के बदले इसका मक़सद माहौल को और बिगाड़ना था.

बाइडेन की टीम ने इस विचार को माना कि मुसलमानों को अमेरिका में प्रवेश से रोकना “नैतिक तौर पर ग़लत” था और इस बात का कोई सबूत नहीं है कि ऐसा करने से अमेरिका ज़्यादा सुरक्षित हो गया.

कुछ लोग ऐसे भी हैं जो मांग कर रहे हैं कि अमेरिका एक नो-बैन एक्ट को पारित करे जो भविष्य में किसी अमेरिकी राष्ट्रपति को धर्म या जातीयता के आधार पर यात्रा की पाबंदी लागू करने से रोके. 

पाबंदी को रद्द करने के बाइडेन के फ़ैसले के बाद कई लोग पूछ रहे हैं कि क्या अमेरिका को उन लोगों से माफ़ी मांगनी चाहिए जिन्हें ट्रंप की रास्ते से भटकी हुई और विदेशियों के प्रति नफ़रत वाली नीति की वजह से बेकार में मुसीबतों का सामना करना पड़ा. कुछ लोग ऐसे भी हैं जो मांग कर रहे हैं कि अमेरिका एक नो-बैन एक्ट को पारित करे जो भविष्य में किसी अमेरिकी राष्ट्रपति को धर्म या जातीयता के आधार पर यात्रा की पाबंदी लागू करने से रोके.

ट्रंप ने इज़रायल समेत खाड़ी के देशों की तरफ़ से ईरान के ख़िलाफ़ “अधिकतम दबाव” का अभियान शुरू किया ताकि ईरान की सरकार को कमज़ोर किया जा सके. लेकिन आलोचकों को लगता है कि इस पाबंदी ने अमेरिका को लेकर नरम रुख़ रखने वाले और अपने देश में पश्चिमी देशों की तरह लोकतंत्र की वक़ालत करने वाले ईरान के नागरिकों पर असर डाला. जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी के एक रिसर्च प्रोजेक्ट के मुताबिक़, अक्टूबर 2015 से सितंबर 2019 के बीच ईरान के नागरिकों को वीज़ा में 79% की गिरावट दर्ज की गई.

अदालतों के द्वारा दी गई छूट को काफ़ी कम मंज़ूर किया गया. कोई भी आदमी जो “अनावश्यक मुसीबत” जैसे युद्ध के दौर से गुज़र रहा हो, या फिर ऐसे लोग जिनका प्रवेश अमेरिका के राष्ट्रीय हित में हो सकता है जैसे कि वो असंतुष्ट जो उन मूल्यों को मानते हों जिनका प्रचार अमेरिका के द्वारा किया जाता है, और ऐसे लोग जो अमेरिका की सुरक्षा के लिए कोई ख़तरा नहीं हैं, जैसे अमेरिका में पहले से बसे लोगों के माता-पिता, अलग हो चुके बच्चे और परिवार के बीमार सदस्य- को छूट मिल सकती थी. लेकिन जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी के रिसर्च प्रोजेक्ट के मुताबिक़, दिसंबर 2017 से अप्रैल 2020 के बीच छूट मांगने वाले 74% आवेदकों के आवेदन को ठुकरा दिया गया.

बाइडेन ने पाबंदी को हटा तो दिया है लेकिन मानव अधिकारों के पथप्रदर्शक के तौर पर अमेरिका की ख्याति को धक्का लगा है. विशेषज्ञों के मुताबिक़ बाइडेन ने चुनाव में जीत हासिल की है लेकिन देश के एक बड़े हिस्से ने ट्रंप को भी वोट दिया है. अमेरिका के दक्षिणपंथी फल-फूल रहे हैं और आगे वो ऐसी नीतियों के साथ ही सत्ता में लौट सकते हैं.

बाइडेन ने पाबंदी को हटा तो दिया है लेकिन मानव अधिकारों के पथप्रदर्शक के तौर पर अमेरिका की ख्याति को धक्का लगा है. 

दूसरी तरफ़ अमेरिका की विदेश नीति को लेकर अपने पहले भाषण में राष्ट्रपति जो बाइडेन ने ज़ोर दिया कि अमेरिका प्रवासियों का देश है. उन्होंने ये संकल्प भी किया कि वो और ज़्यादा शरणार्थियों को पनाह देंगे. उन्होंने कहा कि वो शरणार्थियों की संख्या बढ़ाकर हर साल 1,25,000 करेंगे जबकि ट्रंप के कार्यकाल के दौरान ये संख्या सिर्फ़ 15,000 थी.

शुरुआत में बाइडेन प्रशासन को पहले से भारी संख्या में जमा उन आवेदनों का निपटारा करना होगा जिनको ट्रंप के सत्ता में आने से पहले अमेरिका आने की मंज़ूरी मिली थी. इमिग्रेशन विशेषज्ञों का कहना है कि इस काम में कई वर्ष लग सकते हैं.

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