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Published on Aug 17, 2024 Updated 0 Hours ago

रूस और यूक्रेन के बीच चल रही जंग का दायरा बढ़ता जा रहा है और सबसे परेशानी वाली बात यह है कि अफ्रीका के साहेल क्षेत्र में इस युद्ध का एक नया मोर्चा खुल गया है.

यूक्रेन-रूस संघर्ष का नया केंद्र बना साहेल

रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध थमने का नाम नहीं ले रहा है. रूस ने 24 फरवरी 2022 को जब यूक्रेन के डोनबास क्षेत्र में हवाई हमला शुरू किया था, तब इस बात का कोई अंदाज़ा नहीं था कि आने वाले दिनों में यह टकराव एक भीषण युद्ध में तब्दील हो जाएगा और इतने लंबे समय तक चलेगा. रूस-यूक्रेन जंग को दो साल से ज़्यादा का वक़्त हो चुका है और इसका दायरा लगातार बढ़ता जा रहा है. इस भीषण लड़ाई का असर आस-पास के देशों में ही नहीं, बल्कि सुदूर अफ्रीका के देशों में भी महसूस किया गया है. ज़ाहिर है कि रूस-यूक्रेन लड़ाई की वजह से अफ्रीका के कई देशों में न केवल खाद्य संकट पैदा हो गया है, बल्कि ऊर्जा की आपूर्ति भी प्रभावित हुई है. जुलाई 2023 में सात सदस्यीय अफ्रीकी शांति प्रतिनिधिमंडल ने रूस एवं यूक्रेन का दौरा किया था. इस प्रतिनिधिमंडल के दौरे का मकसद दोनों देशों के राष्ट्राध्यक्षों को इस भीषण व विनाशकारी युद्ध को समाप्त करने के लिए सहमत करना था. अफसोस की बात यह है कि तमाम दूसरे देशों द्वारा की गई शांति पहलों की तरह ही यह शांति प्रस्ताव भी नाक़ाम हो गया, क्योंकि उस समय दोनों में से कोई भी राष्ट्राध्यक्ष इस पर बातचीत के लिए तैयार नहीं हुए.

सोवियत संघ और अमेरिका के इसी संघर्ष की वजह से अफ्रीका में तमाम टकराव देखने के मिले, साथ ही कई बार तो ये भीषण युद्ध में भी बदल गए. 

इस बीच रूस-यूक्रेन जंग का विस्तार अफ्रीका के साहेल क्षेत्र तक हो गया है. यह सब शीत युद्ध के डरावने दौर की याद दिलाता है. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के उस दौर की याद करें, तो तब साम्यवादी सोवियत संघ और पूंजीवादी अमेरिका के बीच वर्चस्व की बढ़ती होड़ ने वैश्विक स्तर पर सभी देशों को प्रभावित किया था. तब अफ्रीका में इन दोनों महाशक्तियों की आपसी लड़ाई का असर ख़ास तौर पर देखने को मिला था. सोवियत संघ और अमेरिका के इसी संघर्ष की वजह से अफ्रीका में तमाम टकराव देखने के मिले, साथ ही कई बार तो ये भीषण युद्ध में भी बदल गए. इन युद्धों में लाखों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी. इस अराजकता से भरे वातावरण में अफ्रीका महाद्वीप के कई देशों में तानाशाही शासन को पैर पसारने का भी अवसर मिला. आज की परिस्थितियों की बात करें, तो रूस-यूक्रेन युद्ध का दायरा भी अफ्रीका तक पहुंच गया है और ऐसा महसूस होता है कि अफ्रीका का साहेल क्षेत्र इस लड़ाई का एक नया मोर्चा बनकर उभरा है.

 

कुछ दिनों पहले ही माली के विद्रोहियों ने उत्तरी माली में घात लगाकर किए गए एक भीषण हमले में रूस के प्राइवेट आर्मी ग्रुप वैगनर समूह के 84 लड़ाकों और माली की सेना के 47 जवानों को मौत के घाट उतार दिया था. गौरतलब है कि अल्जीरियाई सीमा के समीप तिनज़ाउतेन इलाक़े में माली की सेना और वैगनर समूह की 22 से 27 जुलाई के बीच माली के अलगाववादी समूह तुआरेग और जिहादी आतंकवादियों के गठबंधन से ज़बरदस्त मुठभेड़ हुई थी. इस लड़ाई के आख़िरी कुछ दिनों में माली के विद्रोहियों व आतंकवादियों ने हमले तेज़ करते हुए जमकर घातक हथियारों, ड्रोन एवं आत्मघाती कार बमों (SVBIEDs) का इस्तेमाल किया था. इन हमलों में बड़ी संख्या में वैगनर लड़ाकों और माली सेना के जवानों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी, साथ ही कई सैनिक घायल भी हुए थे. यूक्रेन की सेना ने इस बात को स्वीकार किया है कि इस हमले को अंज़ाम देने के लिए उसने माली के विद्रोही गुटों को ख़ुफ़िया जानकारी दी थी. इसके अलावा, वैगनर लड़ाकों और माली के सैनिकों के ख़िलाफ़ लड़ रहे विद्रोही गुटों को यूक्रेनी सेना की तरफ से हथियार भी दिए गए थे.

 

माली देखा जाए तो पश्चिमी अफ्रीका का एक ऐसा देश हो जो चारों तरफ से ज़मीन से घिरा हुआ है. माली की सेना उत्तरी इलाक़ों में एक दशक से भी ज़्यादा समय से विद्रोही गुटों, जिहादियों और अलगाववादियों के साथ लड़ रही है. ज़ाहिर है कि फ्रांस वर्ष 2013 से ही इस लड़ाई में माली सरकार की मदद करता रहा है. वर्ष 2020 में माली में सैन्य जुंटा के सत्ता पर काबिज होने के बाद फ्रांस ने वहां की नई सरकार को मान्यता देने से मना कर दिया था. इसके अलावा, इकोनॉमिक कम्युनिटी ऑफ वेस्ट अफ्रीकन स्टेट्स (ECOWAS) ने भी माली पर कड़े आर्थिक एवं व्यापारिक प्रतिबंध लगा दिए थे. इसकी प्रतिक्रिया देते हुए माली में सत्तारूढ़ सैन्य जुंटा ने फ्रांस की सेना को देश छोड़ने का फरमान सुना दिया और ECOWAS से भी अपनी सदस्यता वापस ले ली. इसके अलावा, माली की सैन्य जुंटा ने रूस की निजी सेना वैगनर समूह से हाथ मिलाया और विद्रोहियों के ख़िलाफ़ लड़ाई में उसकी सहायता ली.

 

अफ्रीका में दोबारा से अपना प्रभाव जमाने की कोशिशों के बाद माली में विद्रोही गुटों द्वारा किया गया यह हमला निश्चित तौर पर रूस के लिए एक बड़ा झटका है. देखा जाए तो, माली में फ्रांस की सेना को नौ साल के दौरान जितनी जान-माल की क्षति हुई थी, रूस को उससे कहीं अधिक नुक़सान अकेले इस भीषण हमले में झेलना पड़ा है. इस हमले के बाद माली की सरकार ने यूक्रेन के साथ अपने राजनयिक संबंध तोड़ दिए. इसी के साथ माली के उत्तर में स्थित पड़ोसी देश नाइजर ने भी यूक्रेन के साथ अपने राजनयिक रिश्ते ख़त्म कर दिए और ऐसा क़दम उठाने वाला वह दूसरा अफ्रीकी देश बन गया. इसके अलावा, यह भी संभावना जताई जा रही है कि लिप्टाको-गौर्मा चार्टर में शामिल तीसरा राष्ट्र और साहेल देशों के गठबंधन का सदस्य बुर्किना फासो भी ज़ल्द यूक्रेन से अपने राजनयिक संबंध समाप्त कर सकता है. इससे पहले, यूक्रेन ने सूडान के गृह युद्ध में अपनी संलिप्तता की बात मानी थी और सूडान आर्म्ड फोर्सेज (SAF) के विरुद्ध चल रही लड़ाई में रैपिड सपोर्ट फोर्स (RSF) का सहयोग करने की बात कबूली थी. सूडान में अर्धसैनिक बल रैपिड सपोर्ट फोर्स की अगुवाई जनरल मुहम्मद हमदान हेमेदती दगालो कर रहे हैं. बताया जाता है कि दगालो को संयुक्त अरब अमीरात का समर्थन हासिल है. वहीं दूसरी ओर SAF का नेतृत्व जनरल अब्देल फत्ताह अल-बुरहान कर रहे हैं और वर्तमान में इन्हें रूसी की निजी सेना वैगनर समूह का समर्थन हासिल है. अगर आने वाले दिनों में सूडान भी यूक्रेन के साथ अपने राजनयिक रिश्तों को समाप्त करता है, तो इसमें कोई हैरानी नहीं होगी. हालांकि, इन देशों द्वारा राजनयिक रिश्ते समाप्त करने का यूक्रेन पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ेगा, फिर भी यह यूक्रेन के लिए कहीं न कहीं झटका तो है ही. ज़ाहिर है कि इन घटनाक्रमों से पूरी दुनिया में यूक्रेन द्वारा खुद को एक पीड़ित राष्ट्र के तौर पर प्रचारित करने के अभियान को झटका लगा है और निश्चित तौर पर इन ताज़ा घटनाओं से यूक्रेन को फायदे की जगह नुक़सान होता दिखाई दे रहा है.

अगर आने वाले दिनों में सूडान भी यूक्रेन के साथ अपने राजनयिक रिश्तों को समाप्त करता है, तो इसमें कोई हैरानी नहीं होगी. हालांकि, इन देशों द्वारा राजनयिक रिश्ते समाप्त करने का यूक्रेन पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ेगा, फिर भी यह यूक्रेन के लिए कहीं न कहीं झटका तो है ही.

इतना सब होने के के बावज़ूद यूक्रेन इसे अपनी हार मानने को तैयार नहीं है, बल्कि वैगनर समूह के ख़िलाफ़ अपनी जीत को ज़ोर-शोर से प्रचारित करने में जुट गया है. साहेल क्षेत्र में यूक्रेन को मिली कूटनीतिक हार के बावज़ूद यूक्रेन के विदेश मंत्री दिमित्री कुलेबा ने हाल ही में तीन अफ्रीकी देशों की यात्रा की थी. इन देशों में मलावी, जाम्बिया और मॉरीशस शामिल थे. गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) में यूक्रेन पर रूसी हमले के ख़िलाफ़ प्रस्ताव के दौरान इन तीनों देशों ने रूस के विरोध में मतदान किया था, जबकि 24 अफ्रीकी देशों ने इस प्रस्ताव से किनारा कर लिया था. बीते दो वर्षों के दौरान यूक्रेन के विदेश मंत्री का यह चौथा अफ्रीकी दौरा था. इससे साफ पता चलता है कि अफ्रीका यूक्रेन के लिए रणनीतिक लिहाज़ कितना महत्वपूर्ण है. इसके अलावा, यूक्रेन ने जून महीने में स्विट्जरलैंड में एक शांति सम्मेलन का भी आयोजन किया था. इस शांति सम्मेलन में अफ्रीकी देशों की बहुत अधिक दिलचस्पी देखने को नहीं मिली थी. 55 अफ्रीकी राष्ट्रों में से महज 12 देशों ने ही इस समिट में हिस्सा लिया था. इसके बाद यूक्रेन ने अफ्रीकी राष्ट्रों को अपने पाले में लाने की कोशिशें तेज़ कर दी हैं.

 

माली में हाल ही में सेना के सहयोगी वैगनर लड़ाकों पर विद्रोहियों द्वारा किए गए भीषण हमले ने वैगनर समूह को सकते में डाल दिया है. इस हमले में वैगनर समूह को जान-माल की ज़बरदस्त क्षति हुई थी. बावज़ूद इसके, इसकी उम्मीद बेहद कम है कि निकट भविष्य में वैगनर लड़ाके माली से वापस लौट जाएं. एक और बात है कि फ्रांस और अमेरिका ने माली एवं उसके पड़ोसी देश नाइजर से अपनी सेना को पहले ही वापस बुला लिया है. इससे इस क्षेत्र में रूस के लिए खुला मैदान है, यानी उसके सामने आसानी से अपना वर्चस्व स्थापित करने का मौक़ा है. मौज़ूदा समय में माली में वैगनर समूह के क़रीब 1,000 सैनिक तैनात हैं. देखा जाए तो फ्रांस ने माली में इससे दोगुनी संख्या में अपने सैनिकों को माली में तैनात किया हुआ था, इसके बावज़ूद वो माली के विद्रोही और जिहादी गुटों पर लगाम लगाने में नाक़ाम रहा था. इसके मद्देनज़र, रूस माली में अपने सैनिकों की संख्या में बढ़ोतरी करने के बारे में सोच सकता है. अफ्रीकी राष्ट्रों मध्य अफ्रीकी गणराज्य और सूडान में वैगनर समूह एवं उसकी सहयोगी अफ्रीका कोर अच्छी तरह से अपनी गतिविधियां संचालित कर रहे हैं. लेकिन इसके उलट माली में ऐसा नहीं है. इसकी वजह यह है कि माली के पास संसाधनों की कमी है, ऐसे में वहां की जुंटा सरकार के लिए इन किराए के सैनिकों को रखना आसान नहीं होगा.

अगर ऐसा होता है, तो पहले से ही अस्थिरता से जूझ रहे इस क्षेत्र में हालत और बिगड़ सकते हैं.

आगे का रास्ता

 

कुल मिलाकर माली में हाल ही में लगे इस झटके के बावज़ूद रूस न तो वहां से अपना बोरिया-बिस्तर समेटेगा और न ही अपने वैगनर लड़ाकों को वापस बुलाएगा. अफ्रीकी राष्ट्र मोजाम्बिक में भी कुछ ऐसा ही हुआ था, जहां जिहादियों से लड़ाई में वैगनर समूह के सैकड़ों सैनिकों की मौत हो गई थी. एक बात ज़रूर है कि अगर माली के उत्तरी इलाक़े में यह टकराव बढ़ता है, तो यह आस-पास के दूसरे देशों में फैल सकता है. अगर ऐसा होता है, तो पहले से ही अस्थिरता से जूझ रहे इस क्षेत्र में हालत और बिगड़ सकते हैं. इसके अलावा, एक बड़ा सवाल यह भी बना हुआ है कि अमेरिका से मिल रहे गुपचुप सहयोग के बल पर या फिर उसके बगैर क्या यूक्रेन अफ्रीका के इस भूभाग पर अपनी रूस विरोध मुहिम को आगे बढ़ा पाएगा. ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि पश्चिमी देशों से अलगाव के बाद माली और तमाम दूसरे अफ्रीकी राष्ट्रों के पास अब अपनी सुरक्षा के लिए बहुत अधिक विकल्प मौज़ूद नहीं है. इसलिए, वर्तमान हालातों के मद्देनज़र ऐसा कतई नहीं लग रहा है कि इन अफ्रीकी देशों में से कोई भी निकट भविष्य में रूस का साथ छोड़ेगा. दूसरी ओर, सच्चाई तो यह है कि अगर अफ्रीका के इस क्षेत्र में हालात बिगड़ते हैं, तो रूस यहां अपना दख़ल बढ़ाने और प्रभुत्व स्थापित करने के बारे में ज़रूर सोच सकता है.

 


समीर भट्टाचार्य ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में एसोसिएट फेलो हैं.

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