पृष्ठभूमि
आईईए (अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी) के कार्यकारी निदेशक ने 2021 में टिप्पणी की, कि जलविद्युत स्वच्छ बिजली का भुला दिया गया महाबली (जायंट) है और अगर देश अपने नेट-जीरो लक्ष्यों को पूरा करने को लेकर गंभीर हैं तो ऊर्जा व जलवायु एजेंडे पर इसे ज़ोरदार ढंग से वापस लाये जाने की ज़रूरत है. यह भारत के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश है, जहां कुल क्षमता में और कुल बिजली उत्पादन में जलविद्युत की हिस्सेदारी असाध्य गिरावट से गुज़र रही है. 1947 में, जलविद्युत क्षमता कुल बिजली उत्पादन क्षमता का लगभग 37 फ़ीसद और कुल बिजली उत्पादन के 53 फ़ीसद से ज़्यादा थी. 2021-22 में, जलविद्युत उत्पादन क्षमता (छोटे जलविद्युत और पंप्ड स्टोरेज प्लांट शामिल नहीं) की हिस्सेदारी 11 फ़ीसद से बस थोड़ी ज़्यादा थी और बिजली उत्पादन में भी इसकी हिस्सेदारी 11 फ़ीसद से बस थोड़ी ज़्यादा थी. जलविद्युत क्षेत्र में निवेश बढ़ाने और वृद्धि का मार्ग प्रशस्त करने के लिए, सरकार ने जलविद्युत उत्पादन को 1991 में निजी क्षेत्र के लिए खोला. हालांकि, जलविद्युत उत्पादन में निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी अभी 10 फ़ीसद के नीचे है, जो कि अक्षय ऊर्जा क्षेत्र में 96 फ़ीसद और ताप विद्युत उत्पादन खंड में 36 फ़ीसद के मुक़ाबले सबसे कम है.
1947 से 1967 तक, जलविद्युत क्षमता में 13 फ़ीसद की वृद्धि हुई और जलविद्युत केंद्रों से बिजली उत्पादन 11 फ़ीसद बढ़ा. यह बड़े बहुउद्देश्यीय जल भंडारण बांधों के निर्माण में राज्य की अगुवाई वाली वृद्धि का दौर था.
जलविद्युत विकास के अलग-अलग दौर
1947 से 1967 तक, जलविद्युत क्षमता में 13 फ़ीसद की वृद्धि हुई और जलविद्युत केंद्रों से बिजली उत्पादन 11 फ़ीसद बढ़ा. यह बड़े बहुउद्देश्यीय जल भंडारण बांधों के निर्माण में राज्य की अगुवाई वाली वृद्धि का दौर था. राज्य ने सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराने और बिजली उत्पादन के लिए, बड़े बांधों को ‘भारत के मंदिर’ क़रार देते हुए उनके निर्माण का ख़र्च उठाया. इसके बाद के दो दशकों (1967-87) में जलविद्युत क्षमता का विकास 18 फ़ीसद बढ़ा, लेकिन उत्पादन में वृद्धि 5 फ़ीसद से बस कुछ ज़्यादा रही. इस अवधि में, कोयला-आधारित बिजली उत्पादन में तेज वृद्धि ने जलविद्युत उत्पादन को विस्थापित करना शुरू कर दिया और बनाये गये ज़्यादातर बड़े बांधों का इस्तेमाल नहर-आधारित सिंचाई के लिए किया गया. राज्य स्तर पर बिजली की दरों में सब्सिडी के चलते देश भर में भूगर्भ जल की पंपिंग में तेज़ी आयी, लेकिन यह कोयला ही था जिसने ज़्यादातर बिजली की आपूर्ति की. 1987 से 2007 तक जलविद्युत क्षमता विकास में गिरावट जारी रही. क्षमता विस्तार और उत्पादन दोनों की वृद्धि गिरकर लगभग 3 फ़ीसद तक आ गयी. 1980 के दशक में बड़े बांधों का जो सामाजिक और पर्यावरणीय विरोध शुरू हुआ, उसने इस अवधि में तेज़ी पकड़ी. जलविद्युत उत्पादन निजी क्षेत्र के लिए खुला था, इसके बावजूद क्षमता विस्तार और उत्पादन की वृद्धि गिरकर 2007-2019 में लगभग 1 फ़ीसद तक आ गयी.
1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था के आंशिक उदारीकरण के बाद, जलविद्युत उत्पादन में निजी क्षेत्र के प्रवेश को सक्षम बनाने वाली नीतियों की एक शृंखला लागू की गयी. 1991 में, जलविद्युत उत्पादन को निजी क्षेत्र के लिए खोला गया और 1992 में इक्विटी पर 16 फ़ीसद रिटर्न की अनुमति दी गयी.
निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने वाली नीतियां
1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था के आंशिक उदारीकरण के बाद, जलविद्युत उत्पादन में निजी क्षेत्र के प्रवेश को सक्षम बनाने वाली नीतियों की एक शृंखला लागू की गयी. 1991 में, जलविद्युत उत्पादन को निजी क्षेत्र के लिए खोला गया और 1992 में इक्विटी पर 16 फ़ीसद रिटर्न की अनुमति दी गयी. बड़ी संभावनाओं वाले, देश के उत्तरी और पूर्वोत्तर क्षेत्र में जलविद्युत परियोजनाओं को सुगम बनाने के लिए 1998 में जलविद्युत नीति बनायी गयी. 1995 में, सरकार ने जलविद्युत उत्पादन केंद्रों के लिए द्विभागीय दर (टू-पार्ट टैरिफ) मुहैया कराने वाला एक नोटिस जारी किया, जिसने निजी डेवलपर्स की कुछ चिंताओं के समाधान का प्रयास किया. विद्युत अधिनियम 2003 की अधिसूचना, राष्ट्रीय विद्युत नीति 2005 और विद्युत दर नीति 2006 ने बिजली उत्पादन में निजी निवेश की तरफ़दारी की. औद्योगिक परियोजनाओं से प्रभावित लोगों के पुनर्वास और पुनर्स्थापन की 2007 की नीति ने जलविद्युत परियोजनाओं को लेकर एक प्रमुख चिंता के समाधान की कोशिश की. 2003 में, सरकार ने जलविद्युत के विकास को तेज़ करने के लिए 50,000 मेगावाट जलविद्युत की पहल का शुभारंभ किया. इस नीति का मक़सद भूमि अधिग्रहण और पर्यावरणीय मंज़ूरियों को तेज़ी से निपटाना था. जलविद्युत विकास में निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ावा देने के लिए, केंद्र सरकार की इस नीति का अनुसरण कई राज्य-स्तरीय नीतियों ने किया, जिनमें राज्य बिजली बोर्डों के पास परियोजना के क्रियान्वयन के लिए डेवलपर चयनित करने का अधिकार बरक़रार रखा गया. 1996 में, 1 अरब रुपये से ज़्यादा के पूंजीगत व्यय के अनुमान वाली सभी जलविद्युत परियोजनाओं के लिए केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (सीईए) से तकनीकी-आर्थिक मंज़ूरी की आवश्यकता थी, जिसे बाद में बढ़ाकर 2.5 अरब रुपये कर दिया गया. प्रतिस्पर्धी बोली के ज़रिये राज्य सरकार के निकायों द्वारा चयनित परियोजनाओं के लिए सीईए की तकनीकी-आर्थिक मंज़ूरी से छूट की सीमा 10 अरब रुपये तक बढ़ा दी गयी. निजी क्षेत्र को मिले इस बड़े समर्थन ने रन-ऑफ-द-रिवर (आरओआर) परियोजनाएं अपनाना सुगम बनाया.
निजी क्षेत्र की भूमिका: आरओआर परियोजनाएं
सैद्धांतिक रूप में, आरओआर जलविद्युत परियोजनाएं, पारंपरिक जलविद्युत योजनाओं के उलट पानी को बांध के पीछे एक बड़े जलाशय में रोकती नहीं हैं और नदी के प्राकृतिक प्रवाह के साथ काम करती हैं. वे बहते पानी के प्राकृतिक प्रवाह का इस्तेमाल करती हैं. इसके लिए वे इसे सुरंगों के ज़रिये मोड़ती हैं और एक निश्चित ऊंचाई से गिराकर बिजली पैदा करती हैं. बिजली बनाने के बाद पानी को वापस नदी की धारा में छोड़ दिया जाता है. बड़े जलाशयों की गैरमौजूदगी स्थानीय समुदायों के विस्थापन से बचाती है. इसी तरह, यह भी माना जाता है कि प्राकृतिक प्रवाह का इस्तेमाल नदी की पारिस्थितिकी पर सीमित प्रभाव डालता है. निजी निवेशकों के लिए आरओआर जलविद्युत परियोजनाएं कम पूंजीगत लागत (जल भंडारण बांधों के मुक़ाबले), निर्माण में कम समय लगने, और स्थानीय पर्यावरण व आबादी के साथ कम टकराव के रूप में सामने आयी हैं. इसका मतलब यह हुआ है कि जल भंडारण बांधों के मुक़ाबले आकर्षक राजस्व की धाराएं काफ़ी पहले ही बहने लगेंगी, जो सबसे अहम है. भारत की जलविद्युत नीति 2008 में कई उदार रियायतें थीं जो निजी कंपनियों को इस सेक्टर में अंतर्निहित बड़े हाइड्रोलॉजिकल (जल प्रवाह संबंधी) और वित्तीय जोख़िमों से बचाती थीं. बिजली की क़ीमतें बढ़ाकर निजी डेवलपर के मुनाफ़े के लिए मार्जिन को अधिकतम रखते हुए इन जोख़िमों को जनता पर स्थानांतरित किया जाता था. जलविद्युत के लिए टैरिफ व्यवस्था ने बिजली उत्पादकों को व्यापक हाइड्रोलॉजिकल डाटा के मुताबिक़ प्रोजेक्ट डिजाइन को सर्वोत्तम बनाने के लिए कोई आर्थिक प्रोत्साहन नहीं दिया. निजी डेवलपर्स को चूंकि पूरे ‘डिजाइन एनर्जी’ उत्पादन के लिए भुगतान किया जाना था, इसलिए उन्होंने परियोजनाओं के लिए उच्च-क्षमता की संभावना दिखायी, भले ही पानी की क़िल्लत हो और बिजली उत्पादन कम हो, जबकि ख़रीदारों ने कम बिजली के लिए ज़्यादा भुगतान किया.
बिजली की क़ीमतें बढ़ाकर निजी डेवलपर के मुनाफ़े के लिए मार्जिन को अधिकतम रखते हुए इन जोख़िमों को जनता पर स्थानांतरित किया जाता था. जलविद्युत के लिए टैरिफ व्यवस्था ने बिजली उत्पादकों को व्यापक हाइड्रोलॉजिकल डाटा के मुताबिक़ प्रोजेक्ट डिजाइन को सर्वोत्तम बनाने के लिए कोई आर्थिक प्रोत्साहन नहीं दिया.
हिमालयी राज्य एमओयू (समझौता ज्ञापन) के ज़रिये हड़बड़ी में जलविद्युत परियोजनाओं का काम निजी डेवलपर्स को सौंपने में जुट गये. अनुभवी और अनुभवहीन निजी डेवलपर्स ने अनुकूल नीतियों से मोटे मुनाफ़े की उम्मीद में, हिमालयी राज्यों से परियोजनाएं हासिल करने के लिए एक दूसरे से तीखी होड़ की. तब प्रेस ने रिपोर्ट किया कि हाइड्रो-डॉलर की उम्मीद के नतीजतन हिमालयी राज्यों को एमओयू वायरस चंगुल में ले रहा है. लगभग एक दशक बाद, निजी डेवलपर्स जलविद्युत योजनाओं से बाहर निकलने के लिए एक बार फिर एक-दूसरे से होड़ कर रहे थे, क्योंकि पर्यावरणीय, सामाजिक और वित्तीय परिणामों को लेकर सकारात्मक पूर्व-धारणाएं झूठ साबित हुईं.
क्या हैं मुद्दे
भारतीय ऊर्जा क्षेत्र में सरकार की दीर्घ-स्थापित भूमिका को निजी क्षेत्र अक्सर एक दायित्व के रूप में चित्रित करता है. हालांकि, निजी क्षेत्र ने जलविद्युत उत्पादन जैसे एक नये व अपेक्षाकृत उच्च-जोखिम वाले क्षेत्र में प्रवेश के लिए ऊर्जा, पानी और पर्यावरणीय क्षेत्रों पर सरकारी दबदबे का पूरा फ़ायदा उठाया. सरकार की मौजूदगी ने जलविद्युत परियोजनाओं की पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक लागत के ‘समाजीकरण’ को सक्षम बनाया, जिसने निजी क्षेत्र के लिए जोखिम को निश्चित रूप से कम किया. निवेश आकर्षित करने के लिए खुले बाज़ारों की जगह ठेके और नीलामी के इस्तेमाल ने पर्यावरणीय मुद्दों, हाइड्रोलॉजिकल चुनौतियों और सामाजिक भागीदारी पर विशेषज्ञ राय को हाशिये पर धकेलना संभव बनाया. ठेके के आधार पर निर्धारित क़ीमतों का बोझ उपभोक्ताओं तक प्रशासनिक रूप से पहुंचा, न कि प्रतिसंवेदी (रिस्पॉन्सिव) मूल्य निर्धारण प्रणाली के ज़रिये.
वक़्त ही बतायेगा कि निजी क्षेत्र भारत की ऊर्जा प्रणाली से कार्बन गैसों को अंतत: कम करता है या नहीं तथा सभी को पर्याप्त व वहनीय स्वच्छ ऊर्जा मुहैया कराता है या नहीं.
कार्बन गैसों में कमी के महत्वाकांक्षी लक्ष्यों (जो सरकार की वैश्विक प्रतिष्ठा को बढ़ाते हैं) को पूरा करने की सरकार की हड़बड़ी अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं में शामिल निजी क्षेत्र के लिए जोख़िम को न्यूनतम करने और फ़ायदे को अधिकतम करने के इसी रास्ते का मोटे तौर पर अनुसरण कर रही है. वक़्त ही बतायेगा कि निजी क्षेत्र भारत की ऊर्जा प्रणाली से कार्बन गैसों को अंतत: कम करता है या नहीं तथा सभी को पर्याप्त व वहनीय स्वच्छ ऊर्जा मुहैया कराता है या नहीं.
स्रोत- tndindia.com
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