Published on Feb 28, 2024 Updated 0 Hours ago
भारत में नवीनीकरण योग्य ऊर्जा को अपनाने में उपभोक्ताओं की भूमिका

2014 के विद्युत संशोधन बिल (EA 2014) में बिजली क़ानून 2003 (EA 2003) में किए गए संशोधनों के ड्राफ्ट में अन्य तमाम सुझावों के साथ साथ ये भी कहा गया था कि बिजली ढोने और बिजली की तादाद को भी अलग किया जाए. इसका मक़सद बिजली ख़रीदने में ग्राहकों के विकल्प बढ़ाना और रिन्यूएबल एनर्जी (RE) पर आधारित बिजली के इस्तेमाल को बढ़ावा देना है. कैरिज और कंटेंट को अलग करने का मतलब बिजली वितरण और उसकी आपूर्ति के काम को अलग करना है. इससे उम्मीद लगाई गई थी कि ख़ुदरा बिजली के क्षेत्र में प्रतिद्वंदिता बढ़ेगी. नवीनीकरण योग्य स्रोतों पर आधारित बिजली को बढ़ावा देने के लिए 2014 के संशोधित बिजली क़ानून में आपूर्ति के मामले में कई प्रोत्साहन शामिल किए गए थे. EA 2014 के तहत RE पर आधारित बिजली के उत्पादन और आपूर्ति के लिए किसी लाइसेंस की ज़रूरत नहीं होगी और खुली पहुंच के लिए मिलने वाली क्रॉस सब्सिडी को ख़त्म किया जाना था. 

वैसे तो 2014 का बिजली विधेयक अब तक क़ानून में तब्दील नहीं हो सका है. लेकिन, 2003 के बिजली क़ानून के जिन प्रावधानों को ख़ुदरा स्तर पर प्रतिद्वंदिता को बढ़ावा देने के लिए लागू किया गया था, उनके नतीजे उम्मीद के मुताबिक़ नहीं निकले. ओपेन एक्सेस लड़खड़ा रहा है क्योंकि क्रॉस सब्सिडी अधिक है और मूलभूत ढांचे का अभाव है. वितरण के समानांतर मॉडल का उपयोग भी नहगीं बढ़ सका क्योंकि इसके तहत वितरण कंपनियों को बिजली का वितरण एक ही क्षेत्र के भीतर अपनी वितरण व्यवस्था के ज़रिएही करना था. इसका मतलब था कि भारी पूंजी की लागत से तैयार होने वाले मूलभूत ढांचे का दोहराव, जिसमें भारी निवेश लगना था. वितरण के लाइसेंस का जो मॉडल मुंबई में अपनाया गया, वो इस नतीजे की मिसाल है.

 वितरण के समानांतर मॉडल का उपयोग भी नहगीं बढ़ सका क्योंकि इसके तहत वितरण कंपनियों को बिजली का वितरण एक ही क्षेत्र के भीतर अपनी वितरण व्यवस्था के ज़रिएही करना था.

इस संदर्भ में वितरित उत्पादन और परिवारों एवं उद्योगों द्वारा प्राथमिक रूप से सौर फोटोवोल्टिक सिस्टमों (PV) के ज़रिए नवीनीकरण योग्य ऊर्जा के इस्तेमाल को RE से बिजली उत्पादन और खपत बढ़ाने के संभावित विकल्प के तौर पर पेश किया जा रहा है. 2023 में छत पर लगाए जाने वाले सोलर पैनल से बिजली बनाने की स्थापित क्षमता 10 गीगावाट (GW) थी, जो नवंबर 2023 में नवीनीकरण योग्य स्रोतों से बनाई जाने वाली बिजली की स्थापित क्षमता का 7.5 प्रतिशत और कुल सौर ऊर्जा उत्पादन की स्थापित क्षमता का 13.8 फ़ीसद थी. भारत में छत पर लगे सोलर पैनल के 75 प्रतिशत से भी ज़्यादा हिस्से कारोबारी और औद्योगिक संस्थाओं में लगे हैं. छत पर सौर ऊर्जा के पैनल लगाकर बिजली बनाने वाले, RE के उत्पादक भी हैं और ग्राहक भी और अगर वितरण कंपनियों द्वारा इनको सही मूलभूत ढांचा और वित्तीय प्रोत्साहन दिया जाए, तो ये देश में नवीनीकरण योग्य स्रोतों से बनी बिजली के इस्तेमाल को बढ़ावा देने के अगुवा बन सकते हैं. हालांकि, इस मामले में फूंक-फूंक कर आगे बढ़ने की ज़रूरत है, क्योंकि इस विकल्प से भारत के आर्थिक रूप से कमज़ोर परिवारों पर लागत का बोझ बढ़ सकता है.

प्रोज़्यूमर्स (उत्पादक ग्राहक) के लिए प्रोत्साहन

प्रोज़्यूमर्स बिजली के वो अंतिम उपभोक्ता होते हैं, जो अपनी बिजली की ज़रूरतें पूरी करने के लिए खपत के बिंदु पर अपनी बिजली ख़ुद पैदा करते हैं और अपनी ज़रूरत से ज़्यादा बिजली ग्रिड को दे देते हैं. प्रोज़्यूमर्स की तादाद बढ़ाकर RE की खपत को बढ़ावा दिया जा सकता है, और साथ ही साथ इससे ट्रांसमिशन और सिस्टम के दूसरे नुक़सान को भी काफ़ी हद तक कम किया जा सकता है. शहरों के स्तर पर तो ये संभावित लाभ और भी अहम हो जाते हैं, क्योंकि शहरों में बिजली का एक बड़ा हिस्सा उपभोग किया जाता है और तेज़ी से हो रहे शहरीकरण को देखते हुए शहरों में बिजली की खपत बढ़ने का भी अनुमान है. प्रोज़्यूमर्स के विकास को बढ़ावा देने के लिए जो प्रमुख नीतियां अपनाई जा रही हैं, वो सोलर पैनल (PV) की स्थापना, नेट मीटरिंग और फीड इन टैरिफ (FiTs) के लिए पूंजी की सब्सिडी है.

शहरों के स्तर पर तो ये संभावित लाभ और भी अहम हो जाते हैं, क्योंकि शहरों में बिजली का एक बड़ा हिस्सा उपभोग किया जाता है और तेज़ी से हो रहे शहरीकरण को देखते हुए शहरों में बिजली की खपत बढ़ने का भी अनुमान है.

पूंजी की सब्सिडी से मध्यम वर्गीय परिवारों और छोटे कारोबारी और औद्योगिक इकाइयों को छत पर लगाए जाने वाले सौर ऊर्जा के पैनलों को अपनाने का रास्ता खुलता है. नेट मीटरिंग, जो प्रोज़्यूमर्स के लिए सबसे आकर्षक बिलिंग व्यवस्था है, इसमें सौर ऊर्जा से अपनी ज़रूरत की बिजली ख़ुद बनाने वाले ग्राहकों (रिहाइशी, कारोबारी और औद्योगिक) को वो बिजली ग्रिड में डालने का मौक़ा मिलता है, जो उनकी ज़रूरत से ज़्यादा होती है. नेट मीटरिंग के तहत प्रोज़्यूमर्स द्वारा ग्रिड में दी जाने वाली बिजली का मूल्य वही होता है, जो वो ग्रिड से अपने इस्तेमाल के लिए आयात करता है. बिल की गणना नेट मूल्य पर होती है. नेट मीटर सिस्टम में नेट प्रेज़ेंट वैल्यू (NPV) बहुत अधिक होती है; नेट मीटरिंग के तहत किसी प्रोज़्यूमर को भंडारण की व्यवस्था में निवेश करने की आवश्यकता नहीं होती है वहीं, सौर ऊर्जा के पैनल वाले नेट मीटरिंग के सिस्टम में भुगतान चुकाने का समय कम होता है. भारत में नेट मीटरिंग को लेकर हर राज्य में अलग अलग नीति है. नेट बिलिंग भी नेट मीटरिंग जैसी होती है. इसमें फ़र्क़ बस ये होता है कि ग्रिड को जो बिजली भेजी जाती है, उसका मूल्य ग्रिड से इस्तेमाल के लिए ली जाने वाली बिजली की तुलना में कम होता है. ग्रॉस मीटरिंग सिस्टम में प्रोज़्यूमर्स को सोलर पैनलों से बनी बिजली सीधे इस्तेमाल नहीं करने दी जाती. इसके बजाय, सोलर पैनल से बनी बिजली पहले तय दर (FiT) पर ग्रिड को भेजी जाती है, और फिर प्रोज़्यूमर्स अन्य ग्राहकों की तरह, वितरण कंपनियों से उसी दर पर ग्रिड से बिजली लेते हैं, जिस क़ीमत पर दूसरे ग्राहक लेते हैं. वैसे तो ग्रॉस मीटरिंग से प्रोज़्यूमर्स की बचत कम हो जाती है लेकिन, इससे वितरण कंपनियों को वितरण व्यवस्था से प्रोज़्यूमर्स को जोड़ने का प्रोत्साहन मिलता है. विशुद्ध आर्थिक नज़रिए से देखें, तो नेट मीटरिंग से प्रोज़्यूमर्स द्वारा आपूर्ति की जाने वाली बिजली की ज़्यादा क़ीमत आंकी जाती है. लेकिन, अगर हम जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयासों के नज़रिए से देखें, तो ये क़ीमत इस आधार पर वाजिब लगती है कि इससे बिजली ग्रिड के कार्बन उत्सर्जन को कम करने को बढ़ावा मिलता है.

 

चुनौतियां

 

भारत में सोलर पैनल की मदद से बिजली उत्पादन करने और खपत करने वालों (Prosumers) के विस्तार में कई बाधाएं हैं. इनमें शुरुआत में भारी लागत, सहयोग की अपर्याप्त व्यवस्थाएं और क़ानूनी ढांचे, सहयोग देने में मौजूदा वितरण कंपनियों द्वारा किया जाने वाला विरोध, तकनीक देने वालाों द्वारा प्रशिक्षण और कौशल का अपर्याप्त स्तर, जानकारी की कमी और कई तरह की प्रशासनिक और वित्तीय बाधाएं शामिल हैं. सोलर पैनल बनाने और उनका इस्तेमाल करने के लिए दी जाने वाली सब्सिडी से इन बाधाओं से पार पाया जा सकता है. लेकिन, RE को अपनाने के लिए सब्सिडी देने की अपनी सीमाएं हैं. ये बात स्पेन की मिसाल से साबित हो जाती है. 2000 के दशक के आख़िरी वर्षों में स्पेन ने नवीनीकरण योग्य स्रोतों वाली बिजली को अपनाने के लिए खुले हाथों से सब्सिडी देने का कार्यक्रम लागू किया था. मदद की इस व्यवस्था के तहत, प्रोज़्यूमर्स के पास FiT व्यवस्था के अंतर्गत सोलर पैनल से पैदा हुई बिजली बेचने या फिर इसे बाज़ार भाव पर बाज़ार में बेचने का विकल्प मौजूद था, जिसमें फीड इन का प्रीमियम अलग से मिलता था. इससे छतों पर सोलर पैनल लगाने को काफ़ी बढ़ावा मिला. लेकिन, 2012 में सहायता की ये योजना रोक दी गई, क्यों कि प्रोज़्यूमर्स को अपेक्षा से कहीं ज़्यादा भुगतान किया जा रहा था. 2016 और 2017 में सरकार ने ऐसी नीलामी शुरू की, जो किसी ख़ास तकनीक को प्रोत्साहन नहीं देती थी. इसमें पवन ऊर्जा से बनने वाली बिजली ने बाज़ी मार ली, क्योंकि इसमें बाज़ार भाव के अलावा कोई अतिरिक्त प्रीमियम देने की ज़रूरत नहीं थी. 2015 में स्पेन ने सन टैक्सलागू कर दिया, जिसके अंतर्गत 100 किलोवाट (kW) तक बिजली बनाने वालों को अपने इस्तेमाल से बची बिजली को ग्रिड को आपूर्ति करने से रोक दिया गया था. वहीं, 100 किलोवाट से अधिक बिजली बनाने वालों को स्पॉट बाज़ार में बिजली बेचने के लिए रजिस्ट्रेशन कराना अनिवार्य कर दिया गया था.

 भारत के पास इसकी लागत और फ़ायदों का आकलन करने और ऐसा मॉडल अपनाने का मौक़ा है, जो भारत की विशेष सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के अनुरूप हो.

प्रोज़्यूमर्स के विकास की गति और इसके दायरे के विस्तार पर कई आर्थिक और ग़ैर आर्थिक कारणों का असर पड़ सकता है. भारत में प्रोज़्यूमरिज़्म की प्रगति केवल अंतिम उपभोक्ता के आर्थिक निजी हितों से प्रेरित हो सकती है, ताकि वो अपनी बिजली की लागत कम कर सकें. इस काम में जो बाधा सकती है वो तकनीकी विस्तार के लॉजिस्टिक के विकास की परिभाषित सीमाओं से ही हो सकती है. शहरों के समृद्ध परिवार, जो पश्चिम के रहन-सहन और विचारों को अपनाते हैं, वो जलवायु परिवर्तन से निपटने की ज़रूरत को फ़ौरी बताते हुए ज़मीनी स्तर पर RE को अपनाने की मुहिम शुरू कर सकते हैं, जिससे नए असांप्रदायिक प्रोज़्यूमरिज़्म को बढ़ावा दिया जा सकता है. निर्यात आधारित सेवाओं और उद्योगों के प्रोज़्यूमर्स बनने को बढ़ावा देने वाली अन्य बातों में विकसित देशों द्वारा व्यापार में लगाई गई बाधाओं से पार पाने के लिए हरित बिजली के उपयोग की अनिवार्य शर्त भी शामिल हो सकती है.

बिजली व्यवस्था में प्रोज़्यूमर्स की तादाद बढ़ने से वितरण कंपनियों के लिए कई चुनौतियां पैदा होती हैं. इनमें से सबसे अहम ग्रिड की सुरक्षा और स्थिरता में निवेश के बावजूद राजस्व का नुक़सान होना है. प्रोज़्यूमर्स की बढ़ती तादाद से विश्वसनीयता और लचीलेपन पर पड़ने वाले असर से भी चिंता पैदा होती है. इसका मतलब है कि निगरानी करने, पूर्वानुमान लगाने, एकीकृत करने, स्वचालित बनाने और नियंत्रित करने में अतिरिक्त निवेश करने की आवश्यकता होगी. ये वित्तीय रूप से कमज़ोर वितरण कंपनियों के लिए एक अलग चुनौती है.

हाल में आए एक पेपर में वितरण कंपनियों के मौत की घाटी में लुढ़कनेके विचार की समीक्षा की गई है, जहां बिजली के ग्राहक ख़ुद ही प्रोज़्यूमर्स बन जाते हैं और इस तरह जो ग्राहक प्रोज़्यूमर बनने की लागत उठा पाने में सक्षम नहीं होते, उन्हें बिजली की बढ़ती लागत का बोझ उठाना पड़ता है, जिससे और अधिक ग्राहकों को प्रोज़्यूमर्स बनने को मजबूर होना पड़ता है. इससे बिजली की क़ीमतें और भी बढ़ जाती हैं. भारत में छतों वाले अच्छे घरों से महरूम ग़रीबों, सोलर पैनल की व्यवस्था तक पहुंच रखने वाले किराएदारों और जो लोग सोलर पैनल से बनी बिजली का बोझ नहीं उठा सकते हैं, उन्हें इस प्रोज़्यूमरिज़्म का बोझ उठाना पड़ेगा. यहां जिस विडम्बना पर ध्यान देने की ज़रूरत है वो ये कि जो ग्राहक प्रोज़्यूमर बनने का ख़र्च नहीं उठा सकते, वो ही प्रोज़्यूमर्स को भुगतान करते हैं ताकि प्रोज़्यूमरिज़्म का विकल्प आकर्षक बना रहे. स्पेन के मामले के एक और अध्ययन में पाया गया था कि अगर हरित बिजली को ग्रिड को बेचने के फ़ायदे अधिक आकर्षक होंगे, तो ज़्यादातर प्रोज़्यूमर्स, ग्रिड से कटेंगे नहीं, भले ही उनके पास अपना बैक अप सिस्टम हो और वो अपनी ज़रूरत को आसानी से पूरा कर सकें. भारत में प्रोज़्यूमरिज़्म अभी बहुत शुरुआती दौर में है. इससे भारत के पास इसकी लागत और फ़ायदों का आकलन करने और ऐसा मॉडल अपनाने का मौक़ा है, जो भारत की विशेष सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के अनुरूप हो. चूंकि रिहाइशी सोलर पैनल से बिजली बनाना, किसी संस्था के स्तर पर बिजली उत्पादन से ज़्यादा महंगा है. इसलिए, रिहाइशी इलाक़ों में सोलर पैनल (PV) से बिजली बनाने की प्रति किलोवाट घंटे (kWh) की सब्सिडी की लागत, किसी संस्थान द्वारा सोलर पैनल से बिजली बनाने के लिए प्रति किलोवाट घंटे दी जाने वाली सब्सिडी की लागत से कहीं अधिक है. मगर दोनों के बीच लाभ का कोई ख़ास अंतर नहीं है और ऐसे में संस्थान के स्तर पर सौर ऊर्जा बनाने वालों के बजाय रिहाइशी इलाक़ों में सोलर पैनल से बिजली बनाने वालों को ज़्यादा रियायती सब्सिडी देने का कोई मतलब नहीं बनता है. नवीनीकरण योग्य स्रोतों से बिजली बनाने और खपत में मदद करने की नीतियों में रिहाइशी इलाक़ों में सोलर पैनल लगाकर बिजली बनाने वालों को संस्थाओं द्वारा इसी तरह बनाई जाने वाली बिजली की तुलना में ज़्यादा सब्सिडी देने का प्रावधान रखने की ज़रूरत नहीं है. ज़रूरत इस बात की है कि वितरण कंपनियों के लिए वितरण की लागत वसूल होने की ऐसी व्यवस्था हो, जिससे नेटवर्क के उपभोक्ताओं और ख़ास तौर से प्रोज़्यूमर्स का उन लागतों पर प्रभाव झलकता हो.

Source: Ministry of New & Renewable Energy; Note: Only states with installed capacity above 10 MW are shown.

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Authors

Lydia Powell

Lydia Powell

Ms Powell has been with the ORF Centre for Resources Management for over eight years working on policy issues in Energy and Climate Change. Her ...

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Akhilesh Sati

Akhilesh Sati

Akhilesh Sati is a Programme Manager working under ORFs Energy Initiative for more than fifteen years. With Statistics as academic background his core area of ...

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Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar, Assistant Manager, Energy and Climate Change Content Development of the Energy News Monitor Energy and Climate Change. Member of the Energy News Monitor production ...

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