नदी जोख़िम स्थिति मे है. ब्रह्मांड की नसे और धमनीयां प्रदूषित, जब्त और भरी हुई है, और उनके ज़्यादार प्रयोजन मनुष्य द्वारा एवं मनुष्य के लिए ही परिभाषित है. हालिए अनुमान के अनुसार, अंटार्कटिका को छोड़ कर सारे उपमहाद्वीपों को जोड़ने वाली लगभग 12 मिलियन किलोमीटर नदियों मे से मात्र 37 प्रतिशत नदी, जो की 1000 किलोमीटर से बड़ी है, वे ही मात्र धारा प्रवाह एवं निर्विरोध बह रही है. बाकी सब के लिए, पारिस्थितिक तंत्रकार्य और सेवाएं पहले ही बांधों के बनने, तटबंधी आदि की वजह से बेतरह प्रभावित रही है. ये जल बटवारा,ऊर्जा, मटेरियल और नदी के हिस्सों के बीच बायोटा और परिदृश्य के बीच आदान प्रदान आदि मे एक बहुत बड़ी अवरोधक है. वैश्विक स्तर पर लागू पर्यावरण अधिनियम के बावजूद, तालाब पारिस्थितिक यंत्र को पहुँचने वाली हानी बदस्तूर जारी है.
मौजूदा क़ानूनी सुरक्षा उपाय के पीछे की कमजोरी के पीछे की एक संभावित वजह, ये है कि हमारी न्यायिक व्यवस्था प्रकृति को शोषण किये जाने योग्य संपत्ति मानती है.
मनुष्य द्वारा प्रकृति के ऊपर बनाया गया ये हौवा और दोनों के बीच बांटी गई अंतरसंयोजनात्मकता, मौजूदा क़ानूनी सुरक्षा उपाय के पीछे की कमजोरी के पीछे की एक संभावित वजह, ये है कि हमारी न्यायिक व्यवस्था प्रकृति को शोषण किये जाने योग्य संपत्ति मानती है. किसी हद तक पर्यावरण को होने वाले नुकसान के वैधकरण और प्राकृतिक संसार के कुल विध्वंस के नियमों के सुचारु संचालन के लिए अक्सरहाँ ‘पर्यावरणीय दहलीज’ को इन कानूनों को लागू करने हेतु आगे कर दिया जाता है. आगे, विकासशील देश जैसे की भारत मे नियामक मशीनरी द्वारा स्थापित इन प्रोटोकॉल के सुचारू अनुपालन की प्रक्रिया अब तक कमजोर ही रही है. ऐसी स्थिति मे, उभरती हुई पर्यावरणीय न्यायशास्त्र के इन नदियों को ‘व्यक्तिवाद’ की वैधता, नदियों के लिए लंबे समय से स्थापित उपचार के तौर पर निष्क्रिय वस्तु के रूप मे सुरक्षा की आवश्यकताएं भिन्न होती है. इनके विपरीत, ये एक प्रकार से इन्हे सजगतापूर्वक खुद की रक्षा करने हेतु अभियोग मे भाग लेने का अधिकार प्रदान करते है.
अलग रास्ते पर मंजिल एक ही.
संयुक्त राज्य अमेरिका के ,सिएरा क्लब बनाम मोर्टन केस (1972) मे हमे, इन वैध अधिकारों को पहचाने जाने संबंधी पहला साक्ष्य देखने को मिला. इस केस मे, सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस विलियम ओ. डगलस ने ये प्रसिद्ध असहमतिपूर्ण राय जारी की थी: “ प्रकृति के पारिस्थितिक संतुलन की रक्षा के लिए ज़रूरी समसामयिक सार्वजनिक सरोकार को ज़रूरी पर्यावरणीय वस्तु के संरक्षण के लिए ज़रूरी , किए जाने वाले मुकदमे का सम्मान करना चाहिए.”
तब से अबतक , ताज़ा जल के स्त्रोत जैसे, नदियां, वेटलेंड्स, अकविफर्स आदि वैध व्यक्तिवाद का दावा करने वालों की दौड़ मे काफी तेजी से उभरे है. नदी जलाशय विशिष्ट संधि या फिर क्षेत्र-विशेष अध्यादेश से लेकर राष्ट्र स्तरीय संवैधानिक कानून तक – अलग अलग छेत्राधिकार के तराजू से छन कर, और भांति भांति प्रकार के मशीनरी के जरिए कानून उभर कर बाहर आ रहा है. उसके उपरांत भी, दो अलग रास्ते, अधिकार आधारित फ्रेमवर्क के संचालन हेतु अब भी अस्तित्व मे है. पहले को एक वैध संरक्षक की ज़रूरत है जो की इन नदियों की ज़रूरत को संबोधित कर सके और दूसरे मे, न्यायालय को चाहिए कि समुदाय के स्फूर्त प्रतिभागिता के जरिए वे इनके अधिकारों की रक्षा कर सके. भिन्नता के बावजूद,उद्देश्य सदैव एक ही रहता है – वो कि नदियों को एक मानवकेंद्रित पारिस्थितिकी दृष्टिकोण का अंगीकार करके होने वाले निम्नीकरण से बचाया जा सके और नदियों की ज़रूरत को प्रथम वरीयता दे सके.
देश |
विधान के प्रकार |
किनकी जिम्मेदारी ? |
न्यूज़ीलेंड |
संधि |
वैधानिक गार्डियन |
ऑस्ट्रेलिया |
उप-राष्ट्रीय /प्रांतीय अधिनियम |
वैधानिक गार्डियन |
इकुआड़ोर |
संवैधानिक कानून |
नागरिक (गण) |
बोलीविया |
संवैधानिक कानून |
वैधानिक गार्डियन |
कोलम्बिया |
न्यायिक निर्णय |
वैधानिक गार्डियन |
बांग्लादेश |
न्यायिक निर्णय |
वैधानिक गार्डियन |
भारत |
न्यायिक निर्णय |
वैधानिक गार्डियन |
युगांडा |
राष्ट्रीय कानून |
नागरिक (गण) |
संयुक्त राष्ट्र अमेरिका |
स्थानीय कानून |
नागरिक (गण) |
कनाडा |
स्थानीय कानून |
वैधानिक गार्डियन |
क़ानूनी अधिकार प्रदान करने के प्रयास के अंतर्गत, उन संबंधों के प्रति कम ध्यान दिया गया है जो रिवर सिस्टम को परिभाषित करे. मानवकेंद्रित पारिस्थितिक नजरिए के कानून बनाने की पुनरावृत्ति के बावजूद, कानून ने अब तक आसपास के परिदृश्य के साथ नदियों के बीच संवादात्मक मार्ग,को ध्यान मे नहीं रखा है.
इसप्रकार, परस्पर जुड़ी प्रक्रियाओं को कम करके नदी के समीप के भिन्न प्रकार के इकोसीस्टम और रिपेरियन ज़ोन मे दृष्टव्य चैनलों द्वारा, न्यायिक व्यक्तिवाद के प्रति स्वीकृति को अक्सरहाँ प्रतिबंधित किया जाता है.
उदाहरण के लिए, इक्वाडोर मे, विलकबंबा नदी के संदर्भ मे, जहां स्थानिये प्रशासन ने स्थानिय प्रशासन को सड़क के चौड़ीकरण और “घाटी के दीर्घावधिक आयु” के बेहतर पहुँच के लिए ज़रूरी,चट्टान और अन्य उत्खनन सामग्री को नदी मे डाले जाने की अनुमति प्रदान की. वहाँ कोर्ट ने अपने दिए निर्णय मे, संविधान की धारा 71 के अंतर्गत प्रकृति के अधिकार का हवाला देते हुए, संबंधित प्राधिकरण के लिए, नदी मे मलबों को फेंकने से प्रतिबंधित कर दिया है. हालांकि, उन्होंने सड़कों के चौड़ीकरण को मंजूरी देते हुए, प्रशासन को उन पेड़ों को हटाने की मंजूरी दे दी है है जिसने नदी किनारे की वनस्पति का गठन किया है.
उत्तराखंड हाई कोर्ट (यूएचसी) द्वारा दिए गए एक महत्वपूर्ण निर्णय मे, जहां गंगा, यमुना, उनकी सहायक नदियां और बाकी अन्य प्राकृतिक वस्तुओं को क़ानूनी व्यक्तिवाद प्रदान की गई, वहीं इस फैसले के विरोध मे उत्तराखंड सरकार ने भारत के सुप्रीम कोर्ट मे अपनी अपील दायर कर दी.
उसी तरह से, भारत मे गंगा नदी के संदर्भ मे, न्यायालय ने शुरुआत मे, क़ानूनी व्यक्तित्व के बाकी अन्य संबंधी तत्वों के दायरे एवं संभावनाओं की अवहेलना की . न्यायालय को नदी के साथ ही बाकी अन्य प्राकृतिक वस्तुओं जिनमे ग्लेशियर भी शामिल है, के न्यायिक व्यक्तिवाद को समाहित करने के लिए अन्य जनहित याचिका की ज़रूरत पड़ गई.
आगे बढ़ते हुए, यह जानना ज़रूरी है कि नदियां सिर्फ़ उन ग्लेशियर से ही जुड़ी हुई नहीं है जो उनका पोषण करती है, बल्कि ये बाढ़ग्रस्त मैदान, जलभृत, नदी के किनारे की वनस्पति,जलग्रहण क्षेत्र और समुद्र आदि के साथ भी आपस मे परस्पर प्रणाली आदि तत्व से जुड़ी हुई है. एक जटिल और आश्रित पारिस्थितिक प्रक्रियाओं के निर्माण के लिए, जल – तलछट, पोशाक तत्वों एवं बायोटा के बीच एक पाइप्लाइन सरीखी कार्य करती है, जैसा की, चार अंतःक्रियात्मक रास्ते मौजूद है – पार्श्व (नदी – बाढ़युक्त मैदान), अनुदैर्ध्य (नदी के विभिन्न हिस्सों के पार), खड़ा (तलीय –मैदानी बाधयुक्त जल), अनुदैर्ध्य (विभिन्न नदी के पार) और लौकिक ( समय के साथ निर्मित नदियों के दृश्यों की जैव जटिलता). इस हेतु, ज़रूरी है कि नदियों के अधिकार जिस हद तक स्थापित किए जा सकते है, उनका वैज्ञानिकी तरीकों से मूल्यांकन किया जाना आवश्यक है. नदी संपर्क की अवधारणा और विनिमय मार्ग से इनकी शुरुआत की जा सकती है.
पैमाने की मरम्मती
पिछले सेक्शन मे हुए बहस से काफी नजदीकी से ताल्लुक रखते हुए, जबतक नदी प्रणाली को एकरूप मे नहीं माना जाता है , तब तक नदियों को दिया जाने वाले वैध व्यक्तिवाद निरर्थक ही रहेगा. प्रादेशिक क्षेत्राधिकार के आधार पर विधान काफी सीमित होजाती जिसके मायने ये है की इन नदी प्रणालियों को पारंपरिक रूप से प्रबंधनीय इकाइयों तक ही सीमित कर दिया गया है. सरकार के लिए इन संस्थानों ने सुईट का पालन किया है. इन्हे क़ानूनी अधिकार प्रदान किए जाने के बाद, खासकर उन बड़ी नदियों के संदर्भ मे, ये एक काफी बड़ी अड़चन प्रतीत होती है जो, प्रांतीय और अन्तराष्ट्रिय सीमाओं को पार करती है.
उदाहरण के लिए, उत्तराखंड हाई कोर्ट (यूएचसी) द्वारा दिए गए एक महत्वपूर्ण निर्णय मे, जहां गंगा, यमुना, उनकी सहायक नदियां और बाकी अन्य प्राकृतिक वस्तुओं को क़ानूनी व्यक्तिवाद प्रदान की गई, वहीं इस फैसले के विरोध मे उत्तराखंड सरकार ने भारत के सुप्रीम कोर्ट मे अपनी अपील दायर कर दी. अपनी अपील मे, सरकार के ओर से उनके प्रतिनिधि ने हाई कोर्ट ने निर्णय के प्रतिपालन मे यह कहते हुए, अपनी असमर्थता व्यक्त की, क्यूंकी अंतरराज्यीय नदी कानून को केन्द्रीय सरकार निर्देशित करती है और उनमे राज्य सरकारों की कोई प्रकार की भूमिका नहीं होती है. हालांकि, गंगा और उनकी सहायक नदियां ना सिर्फ राज्यों की सीमाएं वरन अंतरराष्ट्रीय सीमाओं को भी पार करती है!
बड़े नदियों के लिए बेसिन स्तरीय कानून तो बहुत दूर की बात है, जबकि रिपेरियन राष्ट्रों के बेसिन स्तर पर एकीकृत प्रबंधन के लिए ज़रूरी ना तो सहाय मशीनरियाँ और ना ही संस्थान उपलब्ध है. शायद, इस मुसीबत से निजात पाने के लिए , वैश्विक सम्मेलन एक संभावित रास्ता हो सकती है.
अतः, इन नदियों को प्रांतीय कानून के क्षेत्राधिकार के अंतर्गत यथायोग्य क्षेत्र तक रोकने की नीति, विभिन्न फैसलों के तहत अनजाने मे लिया गया एक अपरिहार्य निर्णय है जो कि न्यूनीकरणवादी और सीधे सीधे कानून बनाने के लिए ज़रूरी पारिस्थितिक दृष्टिकोण के मूलभूत सिद्धांत से संघर्ष करता है. उसी वक्त मे, बड़े नदियों के लिए बेसिन स्तरीय कानून तो बहुत दूर की बात है, जबकि रिपेरियन राष्ट्रों के बेसिन स्तर पर एकीकृत प्रबंधन के लिए ज़रूरी ना तो सहाय मशीनरियाँ और ना ही संस्थान उपलब्ध है. शायद, इस मुसीबत से निजात पाने के लिए , वैश्विक सम्मेलन एक संभावित रास्ता हो सकती है.
इसके लिए ज़रूरी एक शुरुआती पहल के तौर पर, प्रासंगिक हितधारकों के गठबंधन ने छह सूत्री मौलिक मूल्यों की पहचान की है जो नदी के अधिकारों को परिभाषित करती है और सरकारों के लिए एक नई पहल की शुरुआत्त के तौर पर मदद करती है, एवं जल अधिकार के सार्वभौमिक घोषणापत्र के रूप मे ख्यात इस बिल को एक वैधनिक पहचान देने को तत्पर है. वे छह मौलिक मूल्य है:
- बहने का अधिकार
- पारिस्थिकी तंत्र के सुचारु संचालन का अधिकार
- प्रदूषण मुक्त रहने का अधिकार
- टिकाऊ जलभृत द्वारा खाने और खिलाए जाने का अधिकार
- मूल जैवविविधता का अधिकार
- पुनर मरम्मती का अधिकार
जब रिपेरियन राष्ट्रों के पास बेसिन स्तर पर किसी एकीकृत प्रबंधन के लिए ज़रूरी किसी प्रकार का सहयोगी तंत्र और संस्थान उपलब्ध नहीं है तो बड़ी नदियों के लिए बेसिन स्तरीय कानून तो बहुत दूर की बात है. संभवतः इस दुविधा को पार पाने मे, एक वैश्विक सम्मेलन मददगार साबित हो सकती है.
आंदोलन को जीवंत बनाए रखने की कोशिश
दर्शनशास्त्र और क़ानूनी प्रक्रिया एवं प्रशासनिक व्यवस्था के रूप मे पृथ्वी न्यायशास्त्र ने इस प्रचलित विचारधारा को उलटा करने की कोशिश की है जहां, वे प्रकृति को न्याय के विषय से इतर, न्यायिक वस्तु के तौर पर स्थापित कर सके. इस कानून से नदी और लोगों जैसे की मनुष्य के बीच एक पारस्परिक संबंध की ज़रूरत बनेगी ताकि वे नदी की बहाव पर आश्रित धारा, वनस्पति और जलीय जन्तु एवं प्राणियों और विभिन्न तत्वों आदि स्थित को बगैर प्रभावित किए, वैसे ही लाभ प्राप्त करना जारी रख सके. इस वजह से मानव, आसानी से नदियों से पाए जाने वाले पूर्वगामी वर्तमान लाभ को बांधों के निर्माण, तटबंधों, पानी के डाइवर्जन आदि मे आसानी से परिवर्तित किया जा सकेगा.
दर्शनशास्त्र और क़ानूनी प्रक्रिया एवं प्रशासनिक व्यवस्था के रूप मे पृथ्वी न्यायशास्त्र ने इस प्रचलित विचारधारा को उलटा करने की कोशिश की है जहां, वे प्रकृति को न्याय के विषय से इतर, न्यायिक वस्तु के तौर पर स्थापित कर सके.
इसलिए इस वार्ता के उपरांत जो सबसे बाद सवाल उठता है वो ये है कि क्या मानव समाज वाकई इस बदलाव के लिए तैयार है. औद्योगिक युग की पतन के बाद, मानव समाज अपनी ज़रूरतों की पूर्ति के लिए शुद्ध रूप से इंजीनियरिंग स्वभाव पर ही आश्रित रह गया है. जलों के अभाव और उसकी बहुतायत – दोनों ही नवशास्त्रीय विकास की राह मे एक बहुत बड़ी चुनौती है – और इन धाराओं को हाइड्रॉलिक कंट्रोल की मदद से पराजित किया जा सका. मानव सभ्यता की इस बहुप्रतीक्षित काया पलट के लिए ना सिर्फ कानून की , जो इन नदियों को उनका अधिकार दे सके बल्कि उससे और भी कई ज्यादा की ज़रूरत पड़ेगी. इसके लिए अधिकार आधारित फ्रेमवर्क इसके रिजल्ट के टोकन के रूप मे एक ज़रूरी पुशबैक साबित होगी, और इसके लिए सतत विकास और प्रकृति आधारित समाधान जैसे रचनात्मक विचारों को संकलित किए जाने की आवश्यकता है.
इन नदियों को दिए जाने वाले अविश्वसनीय और परिवर्तनकारी क्षमता के अधिकारों की परिकल्पना अधूरी रह जाएगी, अगर बेतहाशा फैसले दिए जाएंगे और कानून मे अस्पष्टता होगी. सावधानी बरते जाने की ज़रूरत होगी, ताकि नदियों का मनुष्यों के साथ का मिलना जुलना सुलभ ना हो जाए और फिर मानव के समतुल्य अधिकारों पर बहस ना छिड़ जाए. सबसे महत्वपूर्ण, कि स्थायी प्रभाव बनाए रखने के लिए ज़रूरी पंच प्राप्त करने केलिए मिलने वाली छात्रवृत्ति मे होनेवाली निरंतर वृद्धि को आंदोलन के लिए बढ़ती सक्रियता के साथ मजबूती से कदम से कदम मिला कर रहना होगा.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.