ये लेख हमारी सीरीज़, इंडिया@75: एस्पिरेशंस, एंबिशंस ऐंड एप्रोचेज़ का हिस्सा है.
‘रौशनी आती है जो, तो साये भी जगमगा उठते हैं.’ विश्व स्तर पर मची उठा-पटक और व्यवस्था में ख़लल के बीच एक ख़ुदमुख़्तार लोकतांत्रिक देश के तौर पर भारत का उभार विश्व व्यवस्था के लिए बड़ी उम्मीद जगाता है.
कोविड-19 के चलते पूरी दुनिया के परेशानी में पड़ने से पहले ही दुनिया के तमाम समाजों का रंग-रूप, भूमंडलीकरण और तकनीक में तेज़ी से हो रहे विकास से तय हो रहा था. आज दुनिया में पहले से कहीं ज़्यादा संपत्ति भी है और अवसर भी हैं. मगर इसके साथ साथ भू-मंडलीकरण के असमान प्रभाव के ख़िलाफ़ विरोध भी बढ़ रहा है. आर्थिक नियमों और राष्ट्रीय पहचानों में पड़े ख़लल के चलते पहले की तुलना में आज राजनीति ज़्यादा ध्रुवीकरण वाली और विभाजित हो चुकी है. वहीं तानाशाही देशों के इकतरफ़ा बर्ताव ने नियमों पर आधारित व्यवस्था को कमज़ोर कर दिया है.
दूसरे विश्व युद्ध के बाद उभरी विश्व व्यवस्था पहले से ही जिन संकटों का सामना कर रही थी, उन्हें इस महामारी ने और गंभीर बना दिया है. अटलांटिक के आर-पार आम सहमति वाला मॉडल पूरी दुनिया को तरक़्क़ी की राह दिखाएगा, अब इस बात की लोकप्रियता ख़त्म हो चुकी है.
दूसरे विश्व युद्ध के बाद उभरी विश्व व्यवस्था पहले से ही जिन संकटों का सामना कर रही थी, उन्हें इस महामारी ने और गंभीर बना दिया है. अटलांटिक के आर-पार आम सहमति वाला मॉडल पूरी दुनिया को तरक़्क़ी की राह दिखाएगा, अब इस बात की लोकप्रियता ख़त्म हो चुकी है. यहां तक कि पश्चिमी दुनिया में भी इस पर यक़ीन नहीं किया जाता है. हालांकि, ये चुनौतियां लोकतांत्रिक पूंजीवाद की बुनियादी ताक़तों को कमज़ोर करने वाली नहीं हैं. आज भी लोकतांत्रिक पूंजीवाद का ये मॉडल उन जगहों को समृद्धि, सुरक्षा और लचीलापन देने में कामयाब हो रहा है, जहां पर इसके मूल्यों को पूरी तरह अपनाकर एकसार लागू किया जा रहा है. हालांकि, अब इस मॉडल को अपने नए समर्थकों और मिसालों की तलाश है.
भारत जैसे दुनिया में बहुत कम ही देश हैं, जो ये ज़िम्मेदारी उठा सकते हैं. एक देश के तौर पर भारत के सामने पहाड़ जैसी तमाम चुनौतियां खड़ी हैं- मसलन, इसकी तमाम विभिन्नताएं, इसका औपनिवेशिक इतिहास, और इसकी सामाजिक विरासत- इसके बावजूद भारत गणराज्य, दुनिया भर में स्वतंत्रता और लोकतंत्र दिलाने वाले मुक्तिदाता देश की मिसाल बना है. इसमें कोई दो राय नहीं कि आने वाले दशकों में भारत का स्वरूप काफ़ी हद तक उन चुनावों पर निर्भर करेगा, जो विकल्प भारत ‘बड़ी ताक़त’ बनने की अपनी संभावनाएं तलाशने के लिए चुनेगा. भारत ये सफ़र उस वक़्त तय कर रहा है जब दुनिया की आर्थिक शक्ति का केंद्र अटलांटिक महासागर से हिंद प्रशांत क्षेत्र की ओर खिसक रहा है, और जब दुनिया में व्यापक तकनीकी और राजनीतिक बदलाव देखने को मिल रहे हैं.
भारत का उभार आज उस वक़्त भी हो रहा है, जब चीन और अमेरिका के बीच दुनिया पर प्रभुत्व के लिए दो-ध्रुवीय होड़ शुरू हो चुकी है. इसके साथ-साथ दोनों के आर्थिक मॉडल भी अब एक दूसरे से कट रहे हैं.
भारत का उभार
भारत का उभार आज उस वक़्त भी हो रहा है, जब चीन और अमेरिका के बीच दुनिया पर प्रभुत्व के लिए दो-ध्रुवीय होड़ शुरू हो चुकी है. इसके साथ-साथ दोनों के आर्थिक मॉडल भी अब एक दूसरे से कट रहे हैं. इस सामरिक मुक़ाबले के दौर और एक बहुध्रुवीय दुनिया में ज़्यादातर विकासशील देश अपने विकास की ऐसी प्राथमिकताएं तय करने की कोशिश कर रहे हैं, जो उनके लिए मुफ़ीद हो और उन्हें अमेरिका और चीन की होड़ का हिस्सा बनने से बचा सके. हालांकि, आज दुनिया उस कोने में धकेली जा रही है, जहां पर हर देश को दो विकल्पों मे से एक का चुनाव करना ही होगा: लोकतांत्रिक मूल्यों और क़ानून के राज से चलने वाले मुक्त बाज़ार बनाम सरकार नियंत्रित कारोबार आधारित व्यापार, निवेश और क़र्ज़ वाली व्यवस्था. दुनिया भर के देश या तो नियमों पर चलने वाले मुक्त देशों के ख़ेमे में जाएंगे या फिर कील-काटों वाली वैसी व्यवस्था की ओर झुकेंगे जिसके केंद्र में चीन होगा.
भारत का झुकाव किस व्यवस्था की ओर है, ये दिखाने के लिए उसे लद्दाख में चीन के आक्रामक रवैया दिखाने की ज़रूरत नहीं थी. भारत का मिज़ाज ही बहुलतावादी समाज का है और वो निश्चित रूप से तानाशाही प्रशासन के विरोधी ख़ेमे में खड़ा होगा. भारत मूल रूप से उद्यमिता वाला देश है, जिसने लोकतांत्रिक पूंजीवादी व्यवस्था में मौक़े मिलने पर हमेशा ही तरक़्क़ी करने का हुनर दिखाया है. ऐसे में आज भारत गुटनिरपेक्षता की विरासत से आगे बढ़कर अंतरराष्ट्रीय मंच पर एक बड़ा खिलाड़ी बनकर सामने आया है. भारत की कामयाबी स्वदेश में लोकतांत्रिक मॉडल और विदेश में उचित साझेदारियों पर निर्भर करेगी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साहसिक नीतिगत क़दम इस बात का साफ़ इशारा करते हैं कि भारत को इस बात का अंदाज़ा अच्छे से है कि उसकी अहमियत बढ़ रही है और उसी हिसाब से उसकी ज़रूरतों और संभावनाओं में भी इज़ाफ़ा हो रहा है.
भारत को अपने संरचनात्मक ढांचे में तुरंत दूरगामी बदलाव लाने की ज़रूरत है- ये बदलाव पीढ़ियों में होने वाले परिवर्तन लाएंगे- तभी भारत की विविधता भरी कामकाज़ी आबादी चौथी औद्योगिक क्रांति की नई हक़ीक़तों का सामना करने के लिए तैयार हो सकेगी.
भारत की तमाम ज़रूरतों में से एक, दुनिया की सबसे बड़ी कामकाजी आबादी को बेहतर मौक़े उपलब्ध कराना है. भारत के विदेश मंत्री डॉक्टर एस. जयकंर ने बिल्कुल सही कहा कि वर्ष 2030 तक भारत की मानवीय पूंजी इसकी कूटनीति का अहम अंग होगी. इसके बावजूद, आज भी भारत की आधी से ज़्यादा कामकाज़ी आबादी खेती के काम में लगी है, जबकि कृषि देश की GDP का महज़ 15 प्रतिशत हिस्सा है. ऐसे में भारत को अपने संरचनात्मक ढांचे में तुरंत दूरगामी बदलाव लाने की ज़रूरत है- ये बदलाव पीढ़ियों में होने वाले परिवर्तन लाएंगे- तभी भारत की विविधता भरी कामकाज़ी आबादी चौथी औद्योगिक क्रांति की नई हक़ीक़तों का सामना करने के लिए तैयार हो सकेगी.
इसके अलावा भारत को आमदनी बढ़ाने के लक्ष्य हासिल करने के लिए व्यापक स्तर पर आर्थिक सुधार करने होंगे. आगे बढ़ने के लिए भारत को तकनीक का इस्तेमाल करके अपनी जटिल अफ़रशाही की बाधाओं से पार पाना होगा. राज्य सरकारों के साथ केंद्र के संबंधों को मज़बूत बनाना होगा. निजी क्षेत्र पर अधिक ज़ोर देना होगा और सरकारी संस्थाओं का काम-काज भी सुधारना होगा. संगठित क्षेत्र का दायरा बढ़ाने के लिए भारत ने हाल में आधार के ज़रिए सेवाएं देने और GST लागू करने जैसे जो क़दम उठाए हैं, वो सही दिशा में किए गए अहम सुधार हैं. अहम क्षेत्रों में निजीकरण के शुरुआती क़दम भी उत्साह बढ़ाने वाले हैं. कृषि क्षेत्र में संरचनात्मक सुधारों पर भी चर्चा हो रही है. इसके अलावा भारत को अपने उस स्टार्ट अप सिस्टम को भी बढ़ाना चाहिए, जो पहले ही दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा है.
आपूर्ति श्रृंखलाओं में भारत की अहमियत
आख़िर में, आज जब दुनिया के तमाम देश अपने अपने आर्थिक हितों को तरज़ीह दे रहे हैं, तो आर्थिक जोश और साझा फ़ायदों वाले एक भारतीय एजेंडे को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मज़बूती से आगे बढ़ाने की ज़रूरत होगी. भारत के लिए व्यापार का एक स्पष्ट एजेंडा ज़रूरी. इससे दुनिया की आपूर्ति श्रृंखलाओं में भारत की अहमियत बढ़ेगी और निवेश के ठिकाने के तौर पर दुनिया का भरोसा भी भारत में बढ़ेगा. भारत को निर्यात पर आधारित संरक्षणवाद और भारतीय औद्योगिक क्षेत्र को दोबारा उपनिवेशवाद की ओर ले जाने के लालच से बचना होगा. इस मामले में सही फ़ैसला करने से भारत न केवल वास्तविक रूप से समृद्ध देश बनेगा, बल्कि वैश्विक स्तर पर इसके नेतृत्व में भी विश्वास बढ़ेगा और तभी भारत दुनिया को एक मज़बूत और स्थिर व्यापारिक व्यवस्था दे सकेगा.
भारत को निर्यात पर आधारित संरक्षणवाद और भारतीय औद्योगिक क्षेत्र को दोबारा उपनिवेशवाद की ओर ले जाने के लालच से बचना होगा. इस मामले में सही फ़ैसला करने से भारत न केवल वास्तविक रूप से समृद्ध देश बनेगा, बल्कि वैश्विक स्तर पर इसके नेतृत्व में भी विश्वास बढ़ेगा
भारत पहले ही काफ़ी उपलब्धियां हासिल कर चुका है. इसकी तीन हज़ार साल से भी ज़्यादा पुरानी सभ्यता ने पूरी मानवता पर गहरे सांस्कृतिक प्रभाव डाले हैं. आधुनिक भारत ने उस तर्क को झुठला दिया है कि विशाल सामाजिक विविधता और शुरुआती स्तर पर भयंकर ग़रीबी के चलते लोकतांत्रिक प्रशासन और आर्थिक प्रगति साथ साथ नहीं चल सकते हैं. आज़ादी के बाद भारत ने पहले के दौर में पड़ने वाले अकालों से निजात पायी. 1990 के दशक से भारत ने आर्थिक बदलावों को अपनाया है, जो इसे नई ऊंचाइयों तक ले जाएंगे. अब अगर भारत अपने लिए सही विकल्प चुनता है, तो इससे उसे दुनिया को अधिक समृद्धि और शांति की ओर ले जाने की अपनी क्षमता का दोहन करने में और मदद मिलेगी.
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