Published on Nov 21, 2023 Updated 0 Hours ago
G20 से जलवायु सम्मेलन तक दावों और हक़ीक़त में ज़मीन आसमान का फ़ासला

भारत की G20 अध्यक्षता विकासशील देशों पर दुनिया का ध्यान खींचने के मामले में ज़बरदस्त रही है, जिसकी सख़्त ज़रूरत भी थी. दुनिया की आबादी के एक बड़े हिस्से और उभरती अर्थव्यवस्थाओं के प्रतिनिधि  के तौर पर भारत ने प्रभावी तरीक़े से विकासशील देशों की आवाज़ और चिंताओं को बुलंद किया है. अपनी अध्यक्षता के दौरान भारत ने लगातार समावेशी और समानता वाली नीतियों पर ज़ोर दिया, और टीकों की समान रूप से उपलब्धता, निष्पक्ष व्यापारिक व्यवहार और टिकाऊ विकास जैसे मुद्दों को उठाने की कोशिश की. विकासशील देशों की ज़रूरतों और आकांक्षाओं की ओर ध्यान खींचने की इस कोशिश ने दुनिया में आर्थिक और विकास की खाई को पाटने की अहमियत को रेखांकित किया है.

हालांकि, ये चिंता साफ़ तौर पर दिखाई दे रही है कि इनमें से बहुत से तारीफ़ के क़ाबिल प्रयास शायद बेकार साबित होंगे. अंतरराष्ट्रीय समझौतों का इतिहास, और ख़ास तौर से जलवायु संबंधी मंचों जैसे कि पर्यावरण सम्मेलन (COP) के दौरान बनी सहमतियों के मामले में देखा गया है कि प्रभावशाली और अमीर देश अक्सर जो वादे करते हैं, उन्हें पूरा नहीं करते. इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो अमीर देशों का जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए पूंजी उपलब्ध कराने का वादा रहा है, जिससे इन देशों द्वारा अपने ही वादे पूरे करने की नीयत पर सवाल खड़े होते हैं. ये ज़रूरी है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय इन देशों को जवाबदेह बनाए और ये सुनिश्चित करें  कि बार बार किए गए ये वादे महज़ खोखली घोषणाएं न साबित हों बल्कि ऐसे ठोस नतीजों के रूप में अमल में लाए जाएं, जिससे पूरी दुनिया और ख़ास तौर से कमज़ोर विकासशील देशों को लाभ हो. भारत की G20 अध्यक्षता की कामयाबी का आकलन भी सिर्फ़ घोषणाओं के पैमाने पर नहीं, बल्कि ऐसे ठोस बदलावों के तौर पर किया जाए, जिससे उन लोगों का भला हो, जिनको इन बदलावों की सख़्त दरकार है.

हाल के वर्षों में अंतरराष्ट्रीय मंच लगातार ऐसे आयोजन बनते जा रहे हैं जहां वैश्विक मसलों पर बड़ी बड़ी घोषणाएं और सुनने में अच्छे लगने वाले वादे किए जाते हैं. इन घोषणाओं में बार बार हरित पहल और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए उठाए जाने वाले क़दमों का ज़िक्र देखा जाता है. हालांकि, जैसे ही ये सम्मेलन ख़त्म होते हैं और आयोजक इनका बोरिया बिस्तर समेटकर झंडे हटाते हैं, तो वही तकलीफ़देह सवाल फिर खड़ा हो जाता है: क्या ये घोषणाएं बदलाव की दिशा में उठाए जाने वाले ईमानदार क़दम हैं, या फिर महज़ सियासी बयानबाज़ी, जिनका मक़सद यथास्थिति को बनाए रखना है?

ये चिंता केवल G20 तक सीमित नहीं है; ये सवाल तमाम बहुपक्षीय मंचों और बहुराष्ट्रीय समूहों से जुड़ा हुआ है और इसमें जलवायु सम्मेलन (COP) की श्रृंखला भी शामिल है. वादों और क़दमों की भरमार के बावजूद, इन अंतरराष्ट्रीय आयोजनों का इतिहास नेक नीयत से किए गए ऐलानों  से भरा पड़ा है. मगर, जैसे ही दुनिया का ध्यान दूसरी तरफ़ जाता है तो इन क़समों और वादों को भुला दिया जाता है. वादे करने और फिर उन्हें भुला देने का ये दुष्चक्र, दुनिया के किसी आम नागरिक के लिए बहुत तकलीफ़देह होता है. इससे अमीर और ग़रीब के बीच की खाई चौड़ी होती जाती है और विकासशील देश और उनकी कमज़ोर आबादी, जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों का तुलनात्मक रूप से ज़्यादा नुक़सान झेलते रहते हैं.

चुनौतियों की भरमार

एक बड़ी अहम चुनौती देशों को उनके वादों के लिए जवाबदेह बनाने की है. ये घरेलू राजनीति का एक पेचीदा जाल होता है, जिसकी वजह से नेताओं को एक तरफ़ तो वैश्विक मंच पर कूटनीतिक रूप से सही दिखने वाली बातें भी करनी होती हैं और फिर उनका तालमेल अपनी घरेलू राजनीतिक ज़रूरत के साथ भी बिठाना पड़ता है. ये बहुत नाज़ुक काम होता है, जिसमें सभी देश अक्सर हमारी धरती की ज़रूरतों के ऊपर अपने राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देते हैं. तमाम बहुराष्ट्रीय मंचों पर देशों द्वारा किए गए वादों के लिए उन्हें जवाबदेह बनाना अक्सर जटिल होता है और ये काम कूटनीतिक नफ़ा-नुक़सान देखकर किया जाता है. लगातार बदलती भू-राजनीतिक परिस्थितियां और तमाम देशों की घरेलू नीतियों में बदलाव भी बहुपक्षीय मंचों पर किए गए दूरगामी वादे पूरे करने की राह में बड़ी बाधा बन जाते हैं. ये उतार-चढ़ाव, बहुराष्ट्रीय समझौतों के मामले में जवाबदेही और पारदर्शिता लाने की ज़रूरत को रेखांकित करते हैं, ताकि बदलती भू-राजनीतिक परिस्थितियों के बावजूद, हर देश द्वारा अपना वादा पूरा करना सुनिश्चित किया जा सके.

तमाम सरकारों द्वारा किए गए वादों की पारदर्शी तरीक़े से जानकारी देने के साथ साथ ये भी बताया जाना ज़रूरी है कि उन देशों ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पहले जो वादे किए थे, उनको किस हद तक पूरा किया है. इससे ख़ुद से अनुशासन का पालन करने को बढ़ावा मिलेगा. अपनी प्रगति और चुनौतियों को खुलकर दुनिया से साझा करके सभी देश, जवाबदेही और भरोसे की संस्कृति को बढ़ावा दे सकते हैं. ऐसी पारदर्शिता से साफ़ तौर पर ये पता चलेगा कि हर सरकार अपने वादों को लेकर कहां खड़ी है. इससे ख़ुद का ऐसा मूल्यांकन भी होगा, जो कूटनीतिक बयानबाज़ी से परे होगा.

इस सार्वजनिक समीक्षा से न केवल नेता अपने नागरिकों के सामने जवाबदेह होंगे, बल्कि इससे उन्हें एक सकारात्मक प्रतिक्रिया भी मिलेगी. सरकारें, अपनी सफलताओं और नाकामियों से सीख सकेंगी, और उसी हिसाब से अपनी रणनीतियों और नीतियों में बदलाव कर सकेंगी. अपने मूल्यांकन की बार बार दोहराई जाने वाली इस प्रक्रिया से देशों को अपने वादे पूरे करने का हौसला मिलेगा, जो केवल कूटनीतिक चमक दमक तक सीमित नहीं होगा, बल्कि जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक चुनौतियों के प्रति उनकी ईमानदारी को भी दिखाएगा.

जवाबदेही की प्रभावी व्यवस्था बनाने के लिए, हर बहुराष्ट्रीय मंच में निगरानी और जानकारी देने की एक स्वतंत्र व्यवस्था को लागू किया जा सकता है, जो बाद में होने वाले आयोजनों के दौरान अब तक की उपलब्धियों पर चर्चा करने का मंच बन सकेंगे. मिसाल के तौर पर 2024 का G20 सम्मेलन, पिछले सम्मेलन के दौरान किए गए वादों पर चर्चा के साथ शुरू हो सकता है और फिर मौजूदा हालात की समीक्षा की जा सकती है. शब्दों के भरमजाल से पहले किए गए वादों को ही दोहराने का कोई मतलब नहीं बनता. नवीनीकरण योग्य ऊर्जा के क्षेत्र में बदलाव, कार्बन प्राइसिंग लागू करने और जलवायु परिवर्तन सह सकने वाले मूलभूत ढांचे में निवेश जैसे ठोस क़दम, वादों को अर्थपूर्ण कार्रवाई में तब्दील करने के अहम तत्व हैं. इसके अलावा संसाधनों तक समान रूप से पहुंच और तकनीक दूसरे देशों को देना भी ज़रूरी है, ताकि जलवायु परिवर्तन से निपटने के वैश्विक प्रयासों में हर देश भागीदारी कर सके. इसमें स्वतंत्र रूप से निगरानी करने और जानकारी देने, पारदर्शी तरीक़े से प्रगति पर नज़र रखने और वादे पूरे न करने के नतीजे बताने की व्यवस्थाएं भी शामिल की जा सकती हैं.

दुनिया के नागरिकों को भी इस संवाद का हिस्सा बनाया जाना चाहिए. निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में उनकी आवाज़ और चिंताओं को हाशिए पर धकेलने के बजाय शामिल किया जाना चाहिए. जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए हमें ऐसी व्यवस्थाएं बनानी होंगी, जो आम नागरिकों और सिविल सोसाइटी को अपनी सरकारों से क़दम उठाने और पारदर्शिता लाने की मांग करने का अधिकार दे.

अब किधर जाएंगे?

आज जब दुनिया अगले जलवायु शिखर सम्मेलन (COP28) की तरफ़ बड़ी उम्मीद से देख रही है, तो ये ज़रूरी है कि सख़्त सवाल किए जाएं. क्या हम बड़े बड़े वादे करने और फिर निराशा के दुष्चक्र को दोहराने के लिए अभिशप्त हैं? या फिर, आख़िर में हम अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को अर्थपूर्ण क़दमों में तब्दील कर सकते हैं? हो सकता है कि अगले जलवायु सम्मेलन को लेकर उम्मीदें फिर परवान चढ़ें, लेकिन ये वैश्विक नागरिकों, नीति निर्माताओं और अंतरराष्ट्रीय समुदाय की ज़िम्मेदारी है कि वो ये सुनिश्चित करें  कि इस बार फिर हम किसी धोखे में न फंसें. जब तक दुनिया भर की सरकारें अपने वादे पूरे नहीं करती हैं, तब तक हम तमाम वैश्विक मुद्दों का हल नहीं निकाल सकेंगे. इसी मौक़े पर तमाम वैश्विक मंचों द्वारा मज़बूत और लचीला स्वशासन दिखाने की ज़रूरत है. हमारी धरती का भविष्य इसी पर निर्भर है.

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