Author : Niranjan Sahoo

Expert Speak India Matters
Published on Mar 08, 2024 Updated 0 Hours ago
भारत में परिचर्चात्मक लोकतंत्र में फिर से नई जान डालने की कोशिश!

इंटनरेशनल इंस्टीट्यूट फॉर डेमोक्रेटिक ऐंड इलेक्टोरल असिस्टेंस (IDEA) की दि ग्लोबल स्टेट ऑफ डेमोक्रेसी 2023 की ताज़ा रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले छह वर्षों के दौरान पूरे विश्व में ‘लोकतांत्रिक पतन’ होता देखा जा रहा है. इस रिपोर्ट में लोकतंत्र और आज़ादी के अहम सूचकांकों के ज़रिए बताया गया है कि 173 में लगभग 85 देशों में ‘पिछले पांच वर्षों के दौरान लोकतंत्र के कम से कम एक सूचकांक के मामले में गिरावट दर्ज की गई है.’ दूसरे लफ़्ज़ों में कहें, तो दुनिया के लगभग आधे लोकतांत्रिक देशों में किसी न किसी तरह की गिरावट आई है. जो बात सबसे ज़्यादा परेशान करने वाली है, वो ये है कि बहुत से स्थापित लोकतंत्रों वाले देशों को भी ऐसे झटकों का सामना करना पड़ा है. इनमें अमेरिका में सामाजिक समूहों की समानता में गिरावट, ब्रिटेन में इंसाफ़ तक सीमित पहुंच जैसी मिसालें भी शामिल हैं. फिर भी, अभी सब कुछ हाथ से नहीं निकला है. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि उच्च स्तर की राजनीतिक भागीदारी, जवाबदेही की मांग करने वाले सक्रिय नागरिक आंदोलनों और खोजी पत्रकारों, लोकतंत्र के रक्षकों और क़ानून के राज के संरक्षकों की भूमिका लगातार बढ़ती जा रही है.

 इंटनरेशनल इंस्टीट्यूट फॉर डेमोक्रेटिक ऐंड इलेक्टोरल असिस्टेंस (IDEA) की दि ग्लोबल स्टेट ऑफ डेमोक्रेसी 2023 की ताज़ा रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले छह वर्षों के दौरान पूरे विश्व में ‘लोकतांत्रिक पतन’ होता देखा जा रहा है.

लोकतंत्र में वाद-विवाद का मतलब क्या होता है?

 

लोकतांत्रिक मूल्यों में गिरावट को थामने के लिए कई प्रयास किए जा रहे हैं. दुनिया भर के विद्वानों और लोकतंत्र के भागीदारों के बीच इसका एक प्रमुख पहलू परिचर्चा का है. उनकी सधी हुई राय के मुताबिक़, किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जवाबदेही सुनिश्चित करने मतदान ही इकलौता या सबसे अच्छा राजनीतिक औज़ार नहीं है. चुनावों के अंतराल में जो कुछ होता है, और सरकार के फ़ैसला लेने वाले प्रतिनिधियों के साथ नागरिकों का जो संवाद चलता है, वो सीधे तौर पर लोकतंत्र की गुणवत्ता पर असर डालता है. इन जानकारों की नज़र में वाद विवाद की राजनीतिक व्यवस्था, लोकतांत्रिक संस्थानों की अच्छी सेहत के लिए बहुत आवश्यक है. इसीलिए, ‘लोकतांत्रिक घाटे’ की खाई को पाटने और भागीदारी वाली सियासत में नई जान डालने के लिहाज़ से किसी लोकतंत्र का परिचर्चात्मक पहलू बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है.

 

इसके अलावा, लोकतंत्र के विद्वान तर्क देते हैं कि हाल के वर्षों में नस्लवादी राष्ट्रवाद, जनवाद, धार्मिक कट्टरपंथ और गृह युद्धों जैसी घटनाओं में बढ़ोत्तरी, आज के समाजों में लोकतंत्र के अभाव का सीधा नतीजा हैं. लोकतांत्रिक संस्थानों के प्रति नागरिकों का बढ़ता असंतोष, जनता के बढ़ते विरोध प्रदर्शनों से स्पष्ट रूप से दिखाई देता है. इसी वजह से मतदाताओं की भागीदारी कम हो रही है और सार्वजनिक संस्थान नागरिकों की मांगों और ज़रूरतों को पूरा कर पाने में बार बार नाकाम हो रहे हैं. ये सब बातें साफ़ तौर पर लोकतांत्रिक समाजों की वैधता को चुनौती दे रही हैं. इस संदर्भ में परिचर्चात्मक लोकतंत्र के प्रमुख समर्थकों में से एक युर्गेन हेबरमास तर्क देते हैं कि किसी उदारवादी लोकतंत्र में नियमित चुनाव, संसद और क़ानून के राज जैसी व्यवस्थाएं होना ही पर्याप्त नहीं है. आज वक़्त की मांग ये है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया की गुणवत्ता और समावेश को सामाजिक जीवन के तमाम पहलुओं और सभी सार्वजनिक संस्थानों के भीतर उपलब्ध होना सुनिश्चित किया जाना चाहिए. उनकी नज़र में संकीर्ण जातीय राष्ट्रवाद, धार्मिक कट्टरपन और जनता के विरोध प्रदर्शन आम तौर पर ‘ख़ुद को लोकतांत्रिक कहने वाली हुकूमतों द्वारा राजनीतिक रूप से अनदेखी करने और अलग थलग रखने का परिणाम हैं.’ हेबरमास के तर्क को और आगे बढ़ाते हुए, इस विषय के एक और जानकार इयान ओ’ फ्लिन ये दोहराते हैं कि आज आम जनता के बीच राजनीतिक मोहभंग और उसकी वजह से आम जन-जीवन में आ रही ख़राबी के बढ़ते स्तरों पर लगाम लगाने के लिए परिचर्चात्मक लोकतंत्र को बढ़ावा देना वक़्त की मांग बन गया है.

 लोकतांत्रिक संस्थानों के प्रति नागरिकों का बढ़ता असंतोष, जनता के बढ़ते विरोध प्रदर्शनों से स्पष्ट रूप से दिखाई देता है. इसी वजह से मतदाताओं की भागीदारी कम हो रही है और सार्वजनिक संस्थान नागरिकों की मांगों और ज़रूरतों को पूरा कर पाने में बार बार नाकाम हो रहे हैं.

इसकी भयंकर प्रासंगिकता को स्वीकार करते हुए कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों और स्थापित लोकतंत्रों ने परिचर्चात्मक लोकतंत्र को बढ़ावा देने वाली कई पहलों की शुरुआत की है. इसका एक प्रमुख उदाहरण आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (OECD) है, जिसने सदस्य देशों के बीच परिचर्चात्मक लोकतंत्र को बढ़ावा देने और उसे संस्थागत बनाने के आठ तरीक़ों का प्रस्ताव सामने रखा है. इस पहल की गूंज यूरोप के व्यापक क्षेत्र में भी सुनाई दे रही है, जहां नागरिकों के जमा होने, नागरिकों की निगरानी समितियों के गठन और प्रत्यक्ष लोकतंत्र के मंचों जैसे उपायों की मांग बढ़ती जा रही है. इसी तरह अमेरिका के कई देशों ने सिटिज़न्स इनिशिएटिव रिव्यूज़ (ओरेगन) जैसी परिचर्चात्मक संस्थाओं की शुरुआत की है, ताकि लोकतांत्रिक निर्णय प्रक्रिया में नागरिकों की भूमिका को स्थायी स्वरूप दे सकें. हाल के वर्षों में एशिया और अफ्रिका में परिचर्चात्मक लोकतंत्र की पहलों का एक लोकप्रिय उदाहरण और देखने को मिल रहा है, ख़ास तौर से उन देशों में जहां हाल ही में लोकतांत्रिक व्यवस्था लागू हुई है.

 

भारत में परिचर्चात्मक लोकतंत्र का उभार

 

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत को अक्सर प्रक्रियागत लोकतंत्र की स्थापना (जहां नियमित रूप से स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीक़े से चुनाव होते हैं और ग़रीब एवं हाशिए पर पड़े तबक़ों की भागीदारी बढ़ रही है और सत्ता का शांतिपूर्ण हस्तांतरण होता है, वग़ैरह…) के संदर्भ में एक बड़ी कामयाबी के तौर पर पेश किया जाता है. लेकिन, भारत में हाल के वर्षों में परिचर्चात्मक लोकतंत्र का बहुत अच्छा अनुभव देखने को नहीं मिला है. वैसे तो भारत में लोकतांत्रिक वाद-विवाद की एक लंबी और ऐतिहासिक परंपरा रही है, जिसकी जड़ें ईसा से पांच सदी पहले के दौर तक जाती हैं. लेकिन, सच तो ये है कि 1992 में संविधान के दो (73वें और 74वें) संशोधनों को लागू करने के बाद जाकर देश में परिचर्चात्मक लोकतंत्र को संस्थागत तरीक़े से बढ़ावा देने के प्रयास शुरू हो सके थे. उससे पहले परिचर्चा का बमुश्किल ही कोई मंच था, जहां आम लोग अपने चुने हुए प्रतिनिधियों और अधिकारियों से ऐसे मुद्दों पर परिचर्चा कर सकते थे, जो उनकी बेहतरी पर असर डालते थे.

  वैसे तो भारत में लोकतांत्रिक वाद-विवाद की एक लंबी और ऐतिहासिक परंपरा रही है, जिसकी जड़ें ईसा से पांच सदी पहले के दौर तक जाती हैं. लेकिन, सच तो ये है कि 1992 में संविधान के दो (73वें और 74वें) संशोधनों को लागू करने के बाद जाकर देश में परिचर्चात्मक लोकतंत्र को संस्थागत तरीक़े से बढ़ावा देने के प्रयास शुरू हो सके थे.

73वें संविधान संशोधन के ज़रिए एक प्रमुख लोकतांत्रिक अविष्कार ग्राम सभाओं की शुरुआत करना रहा था. ग्राम सभा, किसी ग्राम पंचायत की वैधानिक संस्था है. ये ज़मीनी स्तर पर परिचर्चात्मक लोकतंत्र और भागीदारी वाले प्रशासन को स्थापित करने के लिए भारत द्वारा की गई एक साहसिक और रचनाशील पहल थी. पहले के ऊपर से हुक्मनामे जारी करने वाली व्यवस्था से अलग हटकर, विकेंद्रीकरण की इस नई त्रिस्तरीय प्रशासनि व्यवस्था ने ग्राम सभाओं को गांव के सामाजिक और आर्थिक विकास से जुड़ी योजनाओं और कार्यक्रमों पर परिचर्चा करने मंज़ूरी देने के अधिकार से लैस किया था. इस व्यवस्था ने निर्णय लेने की प्रक्रिया में आम नागरिकों की भूमिका को संस्थागत स्वरूप दिया. उल्लेखनीय है कि 73वें संविधान संशोधन के तहत गांव के हर वयस्क सदस्य को ग्राम सभा का सदस्य बनाना अनिवार्य किया गया है और इसकी साल में कम से कम दो बैठकें होनी आवश्यक हैं. महत्वपूर्ण है कि 73वें संविधान संशोधन के तहत ग्राम्य परिषद की कम से कम 33 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित रखी गई हैं. इसी तरह गांव की आबादी में हिस्सेदारी के अनुपात में कई सीटें, आबादी के कमज़ोर समुदायों के लिए भी आरक्षित रखी गई हैं. कुल मिलाकर, ग्राम सभा की बनावट ऐसी है जिसके ज़रिए भारत ने अपने विशाल ग्रामीण क्षेत्र और 85 करोड़ से अधिक आबादी के बीच लोकतांत्रिक प्रशासन की जड़ें मज़बूत करने का नया प्रयास शुरू किया था.

 

अब तक का अनुभव

 

वादे के मुताबिक़ एक परिचर्चात्मक संस्था के तौर पर वाद-विवाद के मंच के रूप में ग्राम सभा का अब तक का अनुभव मिला जुला ही रहा है. केरल जैसे राज्यों में ग्राम सभाओं की बैठकों में काफ़ी भागीदारी और ज़बरदस्त परिचर्चाएं होती देखी गई हैं. लेकिन, दूसरी ओर बिहार और मध्य प्रदेश जैसे राज्य भी हैं, जहां ग्राम सभाओं में आम लोगों की भागीदारी बहुत कम होती है. हालांकि, इस पहल का एक महत्वपूर्ण नतीजा ये रहा है कि इस वजह से निर्णय प्रक्रिया में महिलाओं और कमज़ोर तबक़ों की भागीदारी में काफ़ी इज़ाफ़ा हुआ है. कई अध्ययनों में पाया गया है कि महिलाओं के लिए आरक्षित कोटे ने न केवल बैठकों में उनकी भागीदारी को बेहतर बनाया है, बल्कि इससे स्वास्थ्य और साफ़ सफ़ाई के बजट में भी बढ़ोत्तरी को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. यही नहीं, तमाम चुनौतियों के बावजूद, ग्राम सभाएं पड़ताल का ऐसा मंच बन गई हैं, जहां आम नागरिक अपने प्रतिनिधियों से सवाल कर सकते हैं और उन्हें चुनौती देते हैं.

 कुल मिलाकर, तमाम चुनौतियों के बावजूद ग्राम सभाओं ने भारत में परिचर्चात्मक लोकतंत्र को एक आकार देने का काम किया है. हालांकि, ग्राम सभाओं का ये अनुभव ही पूरे देश में भागीदारी और परिचर्चा वाले लोकतंत्र की जड़ें मज़बूत करने के लिए पर्याप्त नहीं है, 

कुल मिलाकर, तमाम चुनौतियों के बावजूद ग्राम सभाओं ने भारत में परिचर्चात्मक लोकतंत्र को एक आकार देने का काम किया है. हालांकि, ग्राम सभाओं का ये अनुभव ही पूरे देश में भागीदारी और परिचर्चा वाले लोकतंत्र की जड़ें मज़बूत करने के लिए पर्याप्त नहीं है, मिसाल के तौर पर भारत के बढ़ते शहरी क्षेत्रों में ग्राम सभाओं से मिलती जुलती व्यवस्थाओं का अभाव दिखता है. इसके साथ साथ, भारत ने तमाम उम्मीदें जगाने के बावजूद शहरों की परिषदों या फिर सामाजिक ऑडिट करने वाली संस्थाओं में पर्याप्त मात्रा में निवेश करके उन्हें मज़बूत बनाने का काम नहीं किया है. कुल मिलाकर अब भारत के नीति नियंताओं के लिए वक़्त आ गया है कि वो परिचर्चात्मक मंचों के दायरे का विस्तार करें, ताकि लोकतंत्र को और अधिक भागीदारी वाला और समावेशी बनाया जा सके.

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