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भारत में स्टार्टअप कंपनियाँ बहुत तेज़ी से बढ़ रही हैं लेकिन पैसे (पूंजी) के लिए वे अभी भी ज़्यादातर विदेशी निवेश पर निर्भर हैं. आने वाले 10 सालों में अगर हमें तकनीक के क्षेत्र में सच में आत्मनिर्भर बनना है तो हमें विदेशी निवेश पर निर्भरता कम करनी होगी. इसके लिए ज़रूरी है कि देश के अंदर ही बड़े स्तर पर फंड और संसाधन जुटाए जाएँ ताकि हमारे स्टार्टअप्स अपने दम पर आगे बढ़ सकें.
भारत ने पिछले दस सालों से भी कम समय में दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा स्टार्टअप इकोसिस्टम बना लिया है. भारत पहले से ही सॉफ्टवेयर सेवाओं, कंसल्टिंग और डिजिटल पब्लिक इन्फ्रास्ट्रक्चर (DPI) के क्षेत्र में दुनिया के अग्रणी देशों में गिना जाता है. अब स्टार्टअप्स भी भारत की अर्थव्यवस्था के बड़े इंजन बनते जा रहे हैं. आज भारत में उद्योग और आंतरिक व्यापार संवर्धन विभाग (DPIIT) से मान्यता प्राप्त स्टार्टअप्स की संख्या 1,90,000 से ज़्यादा है और इन स्टार्टअप्स में करीब 10,000 निवेशकों ने पैसा लगाया है. इनमें से 120 से अधिक स्टार्टअप यूनिकॉर्न बन चुके हैं. साल 2014 के बाद से भारतीय स्टार्टअप्स ने 164 बिलियन अमेरिकी डॉलर (लगभग 14 लाख करोड़ रुपये) से ज़्यादा का निवेश जुटाया है. इसकी वजह से फिनटेक, ई-कॉमर्स, SaaS, लॉजिस्टिक्स, मोबिलिटी और AI जैसे कई क्षेत्रों में तेज़ी से विकास हुआ है.
भविष्य में भारत को अपने स्टार्टअप्स के लिए देश के भीतर ही निवेश के स्रोत बढ़ाने होंगे. इससे विदेशी पूंजी पर निर्भरता कम होगी और भारत तकनीक के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन सकेगा. जब भारतीय स्टार्टअप्स में भारतीयों का निवेश बढ़ेगा तो उनकी कमाई भी देश के अंदर ही रहेगी.
एक अहम बात यह है कि इन स्टार्टअप्स की सफलता ज़्यादातर विदेशी निवेश पर निर्भर है. भारत के स्टार्टअप्स में जितना पैसा लगा है, उसका लगभग 83 प्रतिशत विदेशी स्रोतों से आया है. विदेशी निवेश ने भारत के स्टार्टअप्स को बढ़ने में बहुत मदद की है लेकिन लंबे समय तक इस पर निर्भर रहना सही नहीं है.
भविष्य में भारत को अपने स्टार्टअप्स के लिए देश के भीतर ही निवेश के स्रोत बढ़ाने होंगे. इससे विदेशी पूंजी पर निर्भरता कम होगी और भारत तकनीक के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन सकेगा. जब भारतीय स्टार्टअप्स में भारतीयों का निवेश बढ़ेगा तो उनकी कमाई भी देश के अंदर ही रहेगी. इससे भारत की तकनीकी स्वतंत्रता (टेक्नोलॉजी सॉवरेनिटी) मज़बूत होगी और देश सुरक्षित, आत्मनिर्भर और नवाचार में अग्रणी बन पाएगा.
डील वॉल्यूम और स्टार्टअप्स की संख्या के लिहाज़ से देखा जाए तो भारत का स्टार्टअप इकोसिस्टम दोनों मामलों में दुनिया में तीसरे स्थान पर है. केवल अमेरिका और चीन ही इस मामले में भारत से आगे हैं. हालांकि, भारत के स्टार्टअप्स विदेशी निवेश पर बहुत ज़्यादा निर्भर बने हुए हैं.
भारत में स्टार्टअप्स में होने वाली फंडिंग का क़रीब 83 प्रतिशत हिस्सा विदेशी निवेशकों से आता है. आंकड़ों पर गौर करें तो वर्ष 2014 से सितंबर 2025 तक भारत के स्टार्टअप्स में 136 बिलियन अमेरिकी डॉलर यानी 11.6 लाख करोड़ रुपये का विदेशी निवेश हुआ है. भारतीय स्टार्टअप्स को फंडिंग करने वाले विदेशी निवेश में शामिल हैं:
जब स्टार्टअप कंपनियों में बहुत ज़्यादा विदेशी निवेश होता है तो ज़ाहिर तौर पर भारत में काम करने वाले स्टार्टअप्स को होने वाली कमाई का लाभ घरेलू निवेशकों, पेंशनभोगियों, भारतीय निगमों या परिवारों को नहीं मिल पाता है, बल्कि इसके लाभ का एक बड़ा हिस्सा विदेशी निवेशकों के पास चला जाता है.
वैश्विक स्तर पर एशियाई देशों में होने वाले कुल विदेशी निवेश में भारत की स्टार्टअप कंपनियों की हिस्सेदारी बहुत ज़्यादा है और हर कोई इनमें निवेश करना चाहता है. इसके पीछे है हाल के वर्षों में भारतीय स्टार्टअप इकोसिस्टम में आई तेज़ी और इनोवेशन से होने वाली इनकी ज़बरदस्त कमाई. निसंदेह तौर पर भारत के स्टार्टअप इकोसिस्टम में आने वाला यह विदेशी निवेश बेहद फायदेमंद रहा है और इसने कंपनियों के फलने-फूलने में मदद की है लेकिन भारत के लिहाज़ से देखें तो इस विदेशी निवेश ने निम्नलिखित तीन प्रमुख ख़तरे भी पैदा किए हैं -
इन वास्तविकताओं के मद्देनज़र भारत में स्टार्टअप्स और इनोवेशन सेक्टर से जुड़ी नीतियों को इस प्रकार से बनाया जाना चाहिए, जिससे इस क्षेत्र की कंपनियों को घरेलू स्तर पर अधिक से अधिक फंड उपलब्ध हो सके और उन पर भारतीयों का स्वामित्व बरक़रार रहे. यानी भारत में ऐसे क़दम उठाए जाने चाहिए, जिनमें नवाचार क्षेत्र में रणनीतिक प्रौद्योगिकियां और आर्थिक मूल्य राष्ट्रीय हितों और प्राथमिकताओं के अनुरूप हों. इसके अतिरिक्त, जब विदेशी सॉवरेन कैपिटल, बीमा कंपनियों, एंडोमेंट और पेंशन फंड्स को लगता है कि भारत के स्टार्टअप इकोसिस्टम में निवेश बेहद फायदेमंद है और इससे अच्छी-ख़ासी कमाई की जा सकती है तो निश्चित रूप से भारतीय संस्थागत पूंजी निवेशक भी ऐसा कर सकते हैं. यानी भारतीय संस्थागत निवेशक भी अगर घरेलू स्टार्टअप्स में निवेश करेंगे तो उनके लिए भी लाभ कमाने के बेहतरीन अवसर ज़रूर बनेंगे.
दुनिया के उन देशों में जहां नवाचार और स्टार्टअप का पारिस्थितिक तंत्र तेज़ी से फलफूल रहा है, वहां इस सेक्टर में घरेलू संस्थागत पूंजी निवेश सबसे अधिक होता है. यह दिखाता है कि जब घरेलू संस्थान स्टार्टअप्स में सीधे निवेश करते हैं, तो इससे पूरे इकोसिस्टम को न तो पूंजी की कमी होती है और न ही नीतिगत अड़चनें सामने आती हैं.
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देश |
मॉडल |
मुख्य साधन |
परिणाम |
|---|---|---|---|
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अमेरिका |
पेंशन फंड्स और यूनिवर्सिटी एंडोमेंट्स |
CalPERS, येल और हार्वर्ड वेंचर फंड्स में दीर्घकालिक लिमिटेड पार्टनर्स (LPs) के रूप में कार्य करते हैं |
सिलिकॉन वैली को व्यापक स्तर पर बरक़रार रखने वाले स्थानीय कैपिटल के डीप और स्टेबल फंड्स |
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चीन |
सॉवरेन “बिग फंड्स” |
सेमीकंडक्टर और एआई सेक्टर में सरकार की अगुवाई वाले विषय आधारित फंडिंग माध्यम |
औद्योगिक नीति के साथ पूंजी का रणनीतिक संरेखण |
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सिंगापुर |
टेमासेक और जीआईसी |
सरकारी स्वामित्व वाली वैश्विक निवेश शाखाएं |
प्राइवेट इनोवेशन को समर्थन देने वाली सॉवरेन वेल्थ |
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इजराइल |
योज़मा प्रोग्राम |
सरकारी-निजी सीड फंड्स, जिनका बाद में निजीकरण कर दिया गया |
1990 के दशक में इजराइल की वेंचर इंडस्ट्री को आगे बढ़ाया |
स्रोत: लेखक द्वारा संकलित
भारत में स्टार्टअप इकोसिस्टम में घरेलू संस्थागत निवेश पूरी तस्वीर को बदल सकता है. ऐसे में नीति निर्माताओं को ऐसे क़दम उठाने चाहिए, जिनसे बीमा कंपनियों, पेंशन फंडों, एंडोमेंट फंड्स, कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी फंड यानी सीएसआर फंड्स और सरकारी फंड-ऑफ-फंड्स (FoFs) की घरेलू बाज़ार में निवेश की रुकावटें दूर हों और वे ज़्यादा से ज़्यादा निवेश के लिए प्रोत्साहित हों.
इसके लिए पेंशन फंड्स को अल्टरनेटिव इन्वेस्टमेंट फंड्स यानी वैकल्पिक निवेश फंडों (AIFs) में एंकर एलपी यानी प्रमुख लिमिटेड पार्टनर (LPs) के तौर पर निवेश करने के लिए सशक्त बनाया जाना चाहिए. ज़ाहिर है कि एंकर एलपी किसी फंड में शुरुआती और प्रमुख निवेशक होता है. भारत में पेंशन फंड्स के पास बहुत ज़्यादा पैसा है. कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (EPFO) और पेंशन फंड नियामक एवं विकास प्राधिकरण (PFRDA) को मिलाकर भारत का पेंशन फंड क़रीब 40 लाख करोड़ रुपये (लगभग 470 अरब अमेरिकी डॉलर) से ज़्यादा का है. देखा जाए तो वर्तमान में AIFs में इन पेंशन फंड्स की ओर से किया जाना वाले निवेश नाम मात्र का है. हालांकि, वर्ष 2021 में ईपीएफओ बोर्ड ने कुल वार्षिक जमा राशि के 5 प्रतिशत हिस्से को AIFs में में निवेश करने की स्वीकृति प्रदान की थी. सरकार का यह फैसला बहुत सराहनीय है लेकिन इसमें एक कमी यह है कि इसके तहत मुख्य रूप से सरकार की ओर से समर्थित इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट ट्र्स्ट जैसे वैकल्पिक निवेश फंड़ों में ही निवेश को तवज्जो दी गई है. ऐसे में यह ज़रूरी है कि PFRDA और EPFO को अपनी वार्षिक जमा राशि के 5 प्रतिशत हिस्से को स्टार्टअप्स और MSMEs पर आधारित कैटेगरी-I वाले AIFs में निवेश की मंजूरी देने के बारे में सोचना चाहिए. इसके अलावा, PFRDA और EPFO को बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले और नियम व दिशानिर्देशों का सख़्ती से पालन करने वाले AIFs में ही निवेश को प्राथमिकता देनी चाहिए, ताकि नुक़सान के जोख़िम से बचा जा सके.
भारत में कई बड़ी बीमा कंपनियां हैं जो घरेलू बाज़ार में निवेश का एक और प्रमुख स्रोत हैं. भारत में भारतीय बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण (IRDAI) के तहत कई इंश्योरेंस कंपनियां कार्यरत हैं और इन बीमा कंपनियों के पास बहुत अधिक फंड मौज़ूद है. अगर भारतीय जीवन बीमा निगम (LIC) की ही बात की जाए तो उसके पास 54 लाख करोड़ रुपये (640 अरब अमेरिकी डॉलर) से ज़्यादा की कुल संपत्ति (AUM) है. वहीं अगर IRDAI के तहत आने वाली सभी बीमा कंपनियों की कुल संपत्ति की बात की जाए तो यह 80 लाख करोड़ रुपये (लगभग 940 अरब अमेरिकी डॉलर) से भी ज़्यादा की है. ज़ाहिर है कि बीमा कंपनियों के पास जो फंड होता है वो लंबे समय के लिए होता है और निजी उद्यमों या कंपनियों में इनका निवेश एकदम उपयुक्त होता है. हालांकि, IRDAI के जो भी रेगुलेटरी मानक हैं, वो स्टार्टअप्स में निवेश के लिहाज़ से अनुकूल नहीं है. ऐसे में IRDAI को अपने मानकों में बदलाव करना चाहिए और बीमा कंपनियों को स्टार्टअप्स जैसे उद्यमों में निवेश के लिए नियमों में ढील देनी चाहिए. ऐसा करने पर बीमा कंपनियां बेहतरीन ट्रैक रिकॉर्ड वाले यानी सभी मानकों पर खरा उतरने वाले रेगुलेटेड वेंचर फंड्स में अपनी राशि का एक छोटा हिस्सा निवेश कर पाएंगी.
बीमा कंपनियों के पास जो फंड होता है वो लंबे समय के लिए होता है और निजी उद्यमों या कंपनियों में इनका निवेश एकदम उपयुक्त होता है. हालांकि, IRDAI के जो भी रेगुलेटरी मानक हैं, वो स्टार्टअप्स में निवेश के लिहाज़ से अनुकूल नहीं है. ऐसे में IRDAI को अपने मानकों में बदलाव करना चाहिए और बीमा कंपनियों को स्टार्टअप्स जैसे उद्यमों में निवेश के लिए नियमों में ढील देनी चाहिए.
इसके अलावा, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IITs), भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) और भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIMs) जैसे भारत के प्रमुख विश्वविद्यालय और कई निजी शिक्षण संस्थान भी ऐसे एंडोमेंट फंड सृजित कर रहे हैं, जिससे वे अत्याधुनिक एवं उभरती तकनीक़ों के क्षेत्र में कार्यरत स्टार्टअप्स को फंडिंग कर सकें. हालांकि, सरकारी स्तर पर जो नीतियां हैं, उनकी वजह से ये शीर्ष शिक्षण संस्थान स्टार्टअप कंपनियों में कोई ख़ास निवेश नहीं कर पाते हैं. इसके अलावा, भारत में एंडोमेंट फंड्स को न केवल तमाम रेगुलेटरी बाधाओं से जूझना पड़ता है, बल्कि अनुपालन में भी कई सख़्त नियमों और शर्तों का सामना करना पड़ता है. इसके अलावा, गैर-नकद या दीर्घकालिक दान को लेकर भी कई रूढिवादी सामाजिक अवरोध और किसी व्यापक क़ानूनी फ्रेमवर्क की गैरमौज़ूदगी भी एंडोमेंट फंड्स की राह में रोड़ा बने हुए हैं. ऐसे में भारतीय शिक्षण संस्थाओं को हार्वर्ड और टेक्सास यूनिवर्सिटी जैसी दुनिया के शीर्ष शिक्षण संस्थाओं द्वारा अपनाए जाने वाले क़दमों से सीख लेने और उन्हें अपने यहां लागू करने की अनुमति दी जानी चाहिए. इसके साथ ही, भारतीय विश्वविद्यालयों को विदेशी संस्थानों की तरह ही फंड को जुटाने और निवेश करने की मंजूरी दी जानी चाहिए और उन्हें अपने मन मुताबिक़ निवेश के तौर-तरीक़े अपनाने की भी छूट दी जानी चाहिए.
भारतीय उद्योग जगत ने देखा जाए तो वैश्विक स्तर पर ऐसे सेक्टर विकसित किए हैं, जो बहुत लाभदायक हैं और जिनमें उत्पादन की लागत काफ़ी कम है. भारतीय उद्योगों के विस्तार के साथ ही सीएसआर फंड में भी अभूतपूर्व वृद्धि हुई है. वित्त वर्ष 2024 में भारतीय कंपनियों का सीआरएस फंड अनुमानित तौर पर लगभग 35,000 करोड़ रुपये था, जबकि वित्त वर्ष 2020 में यह क़रीब 25,000 करोड़ रुपये ही था. ज़ाहिर है कि भारतीय कंपनियों का सीआरएस फंड साल दर साल लगातार बढ़ रहा है. सीआरएस फंड के रूप में एकत्र की गई इस विशाल पूंजी का इस्तेमाल आंशिक रूप से इम्पैक्ट फंड्स में निवेश करके या फंड-ऑफ-फंड्स (FoFs) में निवेश करके किया जा सकता है. ज़ाहिर है कि ये इम्पैक्ट फंड्स और FoFs अलग-अलग सेक्टरों के AIFs में निवेश करते हैं.
आख़िर में भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (SIDBI) का फंड ऑफ फंड्स इस दिशा में सरकार की ओर से उठाए गए क़दमों की अभूतपूर्व कामयाबी को दिखाता है. ज़ाहिर है कि SIDBI का FoFs भारत के स्टार्टअप इकोसिस्टम की वित्तीय ज़रूरतों को पूरा करने और उसके विकास में अहम भूमिका निभा रहा है. सिडबी के FoF ने 150 से अधिक AIFs में 11,000 करोड़ रुपये से ज़्यादा का निवेश किया है, जिससे फॉलो ऑन इन्वेस्टमेंट यानी अनुवर्ती निवेश में पांच गुना से अधिक रिटर्न हासिल हुआ है. इतना ही नहीं, इसने दिखाया है कि अगर पब्लिक सेक्टर की ओर से स्टार्टअप कंपनियों में निवेश किया जाता है तो यह कितना प्रभावशाली होता है. केंद्र सरकार ने 2025 के बजट में स्टार्टअप्स के लिए फंड ऑफ फंड्स (FoF) में अतिरिक्त 10,000 करोड़ रुपये देने का प्रावधान किया है. नौ साल पहले ही बजट में पहली बार स्टार्टअप्स के लिए FoF के तहत पैसा रखा गया था, और अब सरकार ने इसे बढ़ाया है. FoF स्टार्टअप इकोसिस्टम की प्रगति में बहुत मदद करते हैं और इस सेक्टर को सरकारी पूंजी की ज़रूरत है. बावजूद इसके, इतने सालों बाद ही सरकार ने इसे बजट में शामिल किया है.
अगर वे अपने निवेश का सिर्फ 3 प्रतिशत हिस्सा भी स्टार्टअप्स में लगाएं तो लगभग 6 अरब डॉलर का पैसा जुटाया जा सकता है. यह भारत के स्टार्टअप सेक्टर के लिए बहुत बड़ा बदलाव साबित हो सकता है. इससे देश के स्टार्टअप्स को घरेलू निवेश मिलेगा, विदेशी बाज़ार के उतार-चढ़ाव का असर कम होगा और भारत का नवाचार (इनोवेशन) सेक्टर मज़बूत बनेगा.
हालांकि, भारत सरकार स्टार्टअप कंपनियों के वित्तपोषण के मामले में सिर्फ़ इसी एक साधन पर निर्भर नहीं रह सकती है. विशाल आबादी (144 करोड़) वाले भारत में, जिसकी अर्थव्यवस्था करीब 4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की है और एक दशक में जिसके 10 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है, वहां स्टार्टअप इकोसिस्टम के विकास की असीमित संभावनाएं हैं. इसके मद्देनज़र भारत में स्टार्टअप्स की सरकारी फंडिंग के लिए और अधिक फंड ऑफ फंड्स की ज़रूरत है. मौज़ूदा समय में उभरते तकनीक़ी सेक्टरों में कार्यरत स्टार्टअप्स की फंडिंग के लिए 50,000 करोड़ रुपये के डीप टेक फंड के साथ ही आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, क्वांटम कंप्यूटिंग, डिफेंस टेक, हेल्थ टेक और सेमीकंडक्टर के लिए अलग-अलग FoFs की ज़रूरत है. इसके अलावा सरकार फर्स्ट लॉस कैपिटल प्रोवाइडर के रूप में काम कर सकती है यानी स्टार्टअप्स से जुड़ी परियोजनाओं में निवेश के दौरान शुरुआती नुक़सान वहन करने की गारंटी दे सकती है. ऐसा करके सरकार स्टार्टअप इकोसिस्टम में निवेश के लिए संस्थागत निवेशकों और निजी लिमिटेड पार्टनर्स (LPs) को प्रोत्साहित कर सकती है, साथ ही सार्वजनिक निवेश को पांच गुना बढ़ा सकती है.
भारत में स्टार्टअप्स को बढ़ाने के लिए सरकार और उसके विभागों के पास पहले से कई नीतियाँ और तरीके मौजूद हैं. हर साल देश की बीमा कंपनियां, पेंशन फंड और एंडोमेंट फंड्स मिलकर करीब 200 अरब डॉलर का निवेश करती हैं. अगर वे अपने निवेश का सिर्फ 3 प्रतिशत हिस्सा भी स्टार्टअप्स में लगाएं तो लगभग 6 अरब डॉलर का पैसा जुटाया जा सकता है. यह भारत के स्टार्टअप सेक्टर के लिए बहुत बड़ा बदलाव साबित हो सकता है. इससे देश के स्टार्टअप्स को घरेलू निवेश मिलेगा, विदेशी बाज़ार के उतार-चढ़ाव का असर कम होगा और भारत का नवाचार (इनोवेशन) सेक्टर मज़बूत बनेगा.
भारत ने पहले ही साबित किया है कि वह दुनिया के बेहतरीन स्टार्टअप बना सकता है — वह भी बिना ज्यादा घरेलू फंडिंग के. अब ज़रूरत है कि देश के अपने निवेशक और संस्थान स्टार्टअप्स को आगे बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाएं.
अगर सरकार समझदारी से नीतियाँ बनाए और पेंशन, बीमा और सरकारी फंड्स को स्टार्टअप्स में निवेश के लिए प्रोत्साहित करे, तो भारत का इनोवेशन सेक्टर और मज़बूत होगा. इससे देश की घरेलू बचत भारत के ही स्टार्टअप्स में काम आएगी और भारत तकनीक के मामले में आत्मनिर्भर बन जाएगा.
निशा होला ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में विज़िटिंग फेलो हैं.
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Nisha Holla is Visiting Fellow at ORF where she writes on ideas and shifts at the intersection of technology economics and policy. She tracks the ...
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