Published on Apr 23, 2019 Updated 0 Hours ago

भारत ने लगातार दूसरे बार बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव फोरम के बहिष्कार से चीन को कई महत्वपूर्ण सन्देश दिए हैं।

बीआरआई से भारत की दूरी का औचित्य

मई 2018 में बीआरआई फोरम की प्रथम बैठक के बहिष्कार के समय भारत ने विरोध के जो विषय उठाये थे वह आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने दो वर्ष पूर्व थे। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा की इन दो वर्षो में ‘वुहान भावना’ जो अप्रैल 2018 में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की अनौपचारिक बैठक के बाद जागृत होती प्रतीत हुई थी, वह मात्र एक मरीचिका साबित हुई। ‘वुहान भावना’ की विफलता का कारण शी जिनपिंग के कार्यकाल में चीनी विस्तारीकरण जो चीन के सुनहरे ‘मध्य राज्य’ को वापस लाने और सैन्य विचारक सुन ज़ू की नीति “युद्ध की सर्वोच्च कला दुश्मन को बिना लड़े ही परास्त करना है,” पर आधारित है, कहना अनुचित नहीं होगा।

2013 में अनावरण के पश्चात, बीआरआई चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग की एक व्यक्तिगत विदेश नीति परियोजना बन गई है। यह पहल जो चीन की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं का प्रतिबिम्ब है, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की 19वीं कांग्रेस के दौरान चीनी संविधान में सम्मिलित की गयी थी। उसी कांग्रेस के दौरान जिनपिंग ने एक “नए युग” और “चीनी राष्ट्र के महान कायाकल्प” की घोषणा भी की थी। जिनपिंग की बीआरआई परियोजना ने “क्षमताओं को छिपाने” और “कभी भी नेतृत्व का दावा न करने” की डेंग ज़ियाओपिंग की चीनी नीति में मूलभूत बदलाव कर चीन को विश्व पटल पर अमरीका के समकक्ष एक ऐसे महाशक्ति के रूप में प्रस्तुत कर दिया है जो अपनी शक्तियों को छुपाने में विश्वास नहीं करता।

चीनी व्याख्या के अनुसार बीआरआई उन देशों में मूलभूत ढाँचा निर्माण और संयोजन की परियोजना है जिनमें इनका नितांत अभाव है। प्रथम दृष्टया यह विचार द्धितीय विश्व युद्ध के बाद अमरीकी मार्शल योजना का आधुनिक अवतार है जिसके ज़रिये युद्ध में ध्वस्त यूरोप का अमरीकी सहयोग से पुनर्निर्माण किया गया था। जिन देशों में विश्व के अन्य आर्थिक महाशक्ति निवेश करने से हिचकते थे, उसे बीआरआई के अंतर्गत चीनी आर्थिक सहयोग एक स्वागत योग्य पहल होनी चाहिए थी। पर कूटनीति मात्र सतही कल्पना पर नहीं अपितु गूढ़ यथार्थ पर चलती है, यह बीआरआई स्पष्ट रूप से परिलक्षित करता है। परियोजना में सम्मिलित देशों के साथ अनुबंधों में पारदर्शिता का अभाव, ऊँचे ब्याज दरों पर ऋण, भ्रष्ट शासकों को प्रोत्साहन एवं चीन ही द्वारा प्रदान किये गए इन ऋणों से चीनी कंपनियों को ही निर्माण का कार्य दिलवाना यह दर्शाता है की परियोजना जिनपिंग की “चीनी राष्ट्र के महान कायाकल्प” का एक अंग मात्र है। ऊँचे ब्याज दरों पर ऋण प्राप्त करने के पश्चात दुर्बल आर्थिक अवस्था के देश इस ऋण को चुकाने की असमर्थता के कारण ‘ऋण जाल कूटनीति’ का शिकार होते जा रहे हैं। नतीजन इस ऋण के मूल और सूद के एवज में श्रीलंका को चीन को हम्बनटोटा बंदरगाह 99 वर्ष के पट्टे पर चीन को सौपना पड़ा है। विदित हो की चीन को 1899 में ब्रिटेन को हांगकांग को भी 99 वर्ष के पट्टे पर सौपना पड़ा था। चीन इस कृत को अपनी ‘शर्म की सदी’ (1849-1949) का एक काला अध्याय मानता है। हम्बनटोटा बंदरगाह को हासिल करना ना केवल चीन के लिए ‘शर्म की सदी’ का मानसिक स्तर पर प्रतिकार है अपितु सामरिक दृष्टि से भी अति महत्वपूर्ण है। ज्ञातव्य हो की पट्टे पर हम्बनटोटा बंदरगाह प्राप्त करने के पूर्व और श्रीलंका से शर्तों के विपरीत 2014 में चीन इस बंदरगाह में एक परमाणु पनडुब्बी और युद्धपोत भेज चुका है। निस्संदेह हम्बनटोटा का अधिकार हासिल करना चीन की भारत के विरुद्ध ‘मोतियों की माला’ नीति का एक अभिन्न अंग है जो भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है।

विदित हो की चीन को 1899 में ब्रिटेन को हांगकांग को भी 99 वर्ष के पट्टे पर सौपना पड़ा था। चीन इस कृत को अपनी ‘शर्म की सदी’ (1849-1949) का एक काला अध्याय मानता है।

चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा

चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) जो बीआरआई का सबसे महत्वाकांक्षी भाग है, भारत के विरुद्ध ‘मोतियों की माला’ की सबसे अहम् कड़ी है। सूक्ष्म अन्वेषण से यह स्पष्ट है की कहने को तो सीपीईसी पाकिस्तान और चीन की ‘सर्व ऋतु मित्रता’ के अंतर्गत चीनी निवेश के ज़रिये पाकिस्तान के विभिन्न क्षेत्रों, जैसे की कृषि, संचार आर्थिक बाजार का पुनः प्रवर्तन है पर इसका प्रमुख उद्देश्य चीन का सैन्य विस्तारीकरण है। इसका प्रयोग चीन को ग्वादर बंदरगाह के ज़रिये अपनी ‘मलक्का दुविधा’ का समाधान खोजने में कारगर होगा जो उसके लिए अमरीकी नौसैनिक नाकाबंदी की अवस्था में एक दुस्वपन सरीखा है। चीन अपनी बढ़ती ऊर्जा मांग का 80% पश्चिमी एशिया से आयात करता है और युद्ध की परिस्थिति में अमरीका और उसके सहयोगी नौसेनाओं द्वारा नाकाबंदी उसके लिए घातक होगी। चीन इस समस्या का समाधान दक्षिणी चीन सागर में स्थित देशों को सैन्य बाहुबल से दमन कर तलाश रहा है जिससे वह उस पूरे क्षेत्र को अपना सैन्य किला बना किसी भी परिस्थिति का सामना करने में सक्षम हो। चीनी आकलन के अनुसार ग्वादर उसे सीधे पश्चिमी हिन्द महासागर तक पहुँचा उसे ऊर्जा समस्या से सुरक्षित कर उसकी ऊर्जा सुरक्षा का समाधान कर देगा।

सूक्ष्म अन्वेषण से यह स्पष्ट है की कहने को तो सीपीईसी पाकिस्तान और चीन की ‘सर्व ऋतु मित्रता’ के अंतर्गत चीनी निवेश के ज़रिये पाकिस्तान के विभिन्न क्षेत्रों, जैसे की कृषि, संचार आर्थिक बाजार का पुनः प्रवर्तन है पर इसका प्रमुख उद्देश्य चीन का सैन्य विस्तारीकरण है।

इस परिस्थिति में सीपीईसी भारत के हितों के लिए प्रतिकूल है। सीपीईसी जो चीन के पश्चिमी शिनजियांग को ग्वादर बंदरगाह से जोड़ने का कार्य करेगा वह पाक अधिकृत कश्मीर के गिलगिट-बाल्टिस्तान के रास्ते गुजरेगा। विधिक तौर पर गिलगिट-बाल्टिस्तान और पूरा अधिकृत कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है जो पाकिस्तान ने छल-बल के समन्वय से हथियाया था। 1994 के संसद के संयुक्त संकल्प में भी इस ऐतिहासिक तथ्य को दोहराया जा चुका है।

भारतीय विदेश मंत्रालय ने इसी पृष्ठभूमि में 2017 में पहले बीआरआई फोरम का बहिष्कार किया था। बहिष्कार के समय जारी वक्तव्य में भारत ने स्पष्ट कर दिया था कि, “कोई भी देश एक ऐसी परियोजना को स्वीकार नहीं कर सकता जो संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता पर उसकी मुख्य चिंताओं को नजरअंदाज करती है।”

भारत ने इसी वक्तव्य में बीआरआई में पारदर्शिता के अभाव पर भी आपत्ति जताई थी। “कनेक्टिविटी पहल को उन परियोजनाओं जो समुदायों के लिए निरंतर ऋण के बोझ को पैदा करेंगे, से बचने के लिए वित्तीय जिम्मेदारी के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए।” भारत बीआरआई के अंतर्गत परियोजना लागत के पारदर्शी मूल्यांकन का भी पुरजोर समर्थक रहा है। ज्ञातव्य हो की विश्व में भारत एकमात्र ऐसा मुख्य आर्थिक और सैन्य बल वाला देश था जिसने सम्पूर्ण रूप से पहले बीआरआई फोरम का बहिष्कार किया था। डोकलाम चीन का भारत को एक सन्देश भेजने का प्रयास था की वह एशिया में अपने समक्ष किसी दूसरी शक्ति का उद्भव सरलता से नहीं होने देगा। यदि कहा जाए तो यह भारतीय राजनैतिक, सैन्य और विदेश नीति की इच्छा शक्ति को परखने का प्रयास था। भारत के खरा उतरने का नतीजा वुहान की अनौपचारिक चर्चा थी।

सीपीईसी का सैन्य दृष्टिकोण भारत के सामरिक हितों के प्रतिकूल होने में कोई संदेह नहीं है। पाकिस्तान की अस्थिर राजनैतिक और सुरक्षा को देखते हुए कोई भी देश 62 मिलियन डॉलर के निवेश को व्यर्थ करने की भूल नहीं करेगा। निःसंदेह अपने आर्थिक और मानवीय निवेश की रक्षा के लिए चीन अपने सैन्य बल का उपयोग करेगा। ऐसी स्थिति में चीनी सेना पाक अधिकृत कश्मीर में अपने सैन्य अड्डे बनाने के साथ ग्वादर को एक नौसैनिक अड्डा बनाने की नीति को और मुखर करेगी। भारत जो अभी तक अपनी हिमालयी सीमा पर चीन का सामना कर रहा है उसके लिए संघर्ष के लिए सीमा का विस्तारीकरण हितकर नहीं है। चीन ने पिछले तीन दशकों में पाकिस्तान को प्रोत्साहित कर भारत को अपनी पश्चिमी सीमा पर उलझा कर रखा है। कश्मीर समस्या की जड़ में चीन द्वारा पाकिस्तान को प्रदान किया गया परोक्ष और प्रत्यक्ष समर्थन ही है। इस सहयोग के अभाव में पाकिस्तान के पास भारत से कोई संघर्ष करने का सामर्थ्य नहीं है।

ज्ञातव्य हो की विश्व में भारत एकमात्र ऐसा मुख्य आर्थिक और सैन्य बल वाला देश था जिसने सम्पूर्ण रूप से पहले बीआरआई फोरम का बहिष्कार किया था। डोकलाम चीन का भारत को एक सन्देश भेजने का प्रयास था की वह एशिया में अपने समक्ष किसी दूसरी शक्ति का उद्भव सरलता से नहीं होने देगा।

पाकिस्तान में सीपीईसी के अंतर्गत किया गया चीनी निवेश भारत के लिए इसलिए भी श्रेयस्कर नहीं है क्योंकि यह सर्वविदित है की पाकिस्तान में कोई भी निवेश केवल पाकिस्तान सेना के सौजन्य से होता है क्योंकि वहां हर प्रकार के व्यापार में सेना का सीधा हस्तक्षेप है। अतएव सीपीईसी में किया निवेश का उपयोग पाकिस्तानी डीप स्टेट कश्मीर में हिंसा फ़ैलाने के लिए करेगा।

पुलवामा के पश्चात भी चीन द्वारा संयुक्त राष्ट्र की 1,267 समिति में मसूद अज़हर पर प्रतिबन्ध पर तकनीकी रोक लगाकर चीन ने यह सिद्ध कर दिया है की वह भारत को प्रगति से रोकने के लिए आतंकवाद का सहारा लेने में नहीं चूकेगा। शिनजियांग में मुस्लिम जनसँख्या पर आतंकवाद का आरोप लगा हर प्रकार के अमानवीय प्रतिबन्ध लगाने वाले चीन का मसूद अज़हर को अभय दान देना चीनी कूटनीति के दोहरे मापदंड का प्रतिबिम्ब है। ऐसी परिस्थिति में भारत का द्धितीय बीआरआई फोरम का बहिष्कार भारत के अपने संप्रभुता और अखंडता के प्रति अपनी दृढ़संकल्पता को दर्शाता है।

बीआरआई के प्रति उन देशों में भी रोष उत्पन्न हो रहा है जो इसके लाभार्थी हैं। परियोजना की अपारदर्शिता और कठोर आर्थिक अनुबंध जो सिर्फ चीन के हित को साधते हैं वह इसके उपयोग पर प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं। द्धितीय बीआरआई फोरम में अमरीका ने भी अपनी सहभागिता का स्तर नीचे कर यह सिद्ध किया है की भारत का इस परियोजना का विरोध औचित्यपूर्ण है। इन परिस्थितियों में भारत का इस फोरम से दूरी बनाना एक सैद्धांतिक और सराहनीय कदम है जो राष्ट्रीय हितों के साथ पूरे उपमहाद्वीप के हितों की रक्षा करता है।


लेखक के बारे में

मयंक सिंह बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में संयुक्त कुलसचिव होने के अलावा ‘चीन-पाकिस्तान संबंध और उनका भारतीय सुरक्षा पर असर’ विषय पर शोध भी कर रहे हैं। उनका मिलिट्री थ्रिलर उपन्यास, Wolf’s Lair, को समीक्षकों की बहुत प्रशंसा मिली। उनके सुरक्षा और सामरिक विषयों पर अंग्रेज़ी आलेख Fair Observer, The Times of India, Swarajya, Firstpost में छप चुके हैं।

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