Author : Amish Tripathi

Published on Dec 06, 2019 Updated 0 Hours ago

रामायण के कई संस्करण हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत हो सकते हैं. हम इनसे सीख सकते हैं कि एक नेता को कैसा होना चाहिए और कैसा नहीं होना चाहिए.

राम जन्मभूमि: मंदिर बनने से लेकर राम राज्य की स्थापना तक..

राम जन्मभूमि मंदिर का बनना तय है. यह भव्य और शानदार होगा. यह हमारे महान ईश्वर, भगवान राम के गौरव का प्रतीक होगा. हम इस मंदिर में उनकी अराधना करेंगे. हम वहां उन्हें सम्मानित करेंगे. इस मंदिर के ज़रिये हम अपनी संस्कृति का जश्न मनाएंगे. लेकिन क्या हमें इतने पर ही रुक जाना चाहिए? इस धरती पर कदम रखने वाले महानतम में से एक भगवान राम के प्रति इतने भर से हमारा दायित्व  ख़त्म हो जाता है? आइए, ज़रा इस पर विचार करते हैं.

दिलचस्प बात यह है कि हमारे शानदार महाकाव्य रामायण के जितने भी संस्करण हैं, उनमें राम राज्य के बारे में बहुत कम लिखा गया है, जिसके लिए भगवान राम जाने जाते हैं. यह महाकाव्य भगवान राम के संघर्षों पर केंद्रित है. रावण को हराने के बाद मां सीता को लेकर भगवान राम जब अयोध्या लौटते हैं, तब तक के उनके संघर्षों पर इसमें ख़ास ज़ोर दिया गया है. भगवान जिन दर्शनों (फिलॉस्फी) को मानते थे और जिन्हें उन्होंने अपने राज के दौरान लागू किया, उन पर योग वशिष्ठ में चर्चा की गई है. हालांकि, रामायण में  ख़ासतौर पर उनके अयोध्या लौटने और राजा बनने तक की कहानी है. उसके बाद जो हुआ, उसका सारांश उत्तरकांड में दिया गया है, लेकिन इसमें राम राज्य का ब्यौरा नहीं मिलता है.

अगर आप देश में किसी भी धर्म, जाति या भाषाई पृष्ठभूमि के शख़्स  से पूछेंगे कि शासन किस तरह का होना चाहिए, तो शायद सब कहें कि राम राज्य जैसा

रामायण का शाब्दिक अर्थ राम की यात्रा है. हम भारतीयों के दिलोदिमाग में राम राज्य को लेकर कुछ छवियां और कल्पनाएं हैं, जो हमारी आत्मा से जुड़े जंतर की तरह हैं. भगवान राम के प्रति हमारे मन में जो सम्मान और प्रेम है, उसका आधार यही है. अगर आप देश में किसी भी धर्म, जाति या भाषाई पृष्ठभूमि के शख़्स  से पूछेंगे कि शासन किस तरह का होना चाहिए, तो शायद सब कहें कि राम राज्य जैसा. भगवान राम के युग के सदियों बाद राम राज्य शब्द को हम इतनी शिद्दत से क्यों महसूस करते हैं, इस बारे में कई थ्योरी हो सकती हैं, लेकिन इसके बावजूद रामायण में इस पर बहुत कम चर्चा हुई है.

राजकाज की बातें बोर करती हैं, उबाऊ होती हैं, जबकि प्रेम और युद्ध गाथाओं को केंद्र में रखकर महाकाव्य रचे जाते हैं. क्या इसी वजह से राम राज्य पर रामायण में बहुत कम लिखा गया है? महाभारत के शांति पर्व में राजकाज से जुड़े सबक दिए गए हैं, पर गिने-चुने लोग ही इसे महाकाव्य का पसंदीदा खंड मानते हैं या यह भी हो सकता है कि रामायण काल के लोगों को राम राज्य के बारे में पता हो और इसलिए उनकी अधिक रुचि भगवान की जीवन यात्रा में थी. इस सवाल का एक और संभावित जवाब मुझे लुभावना लगता है. हो सकता है कि हर युग का अपना राम राज्य रहा हो. भगवान राम के युग में जो भारतीय रह रहे थे, उन्होंने अपने राम राज्य की अपनी अवधारणा पूरी होती हुई देखी थी. हमारे पूर्वजों ने तय किया कि उनके वंशज अपने राम राज्य के बारे में ख़ुद निर्णय लेंगे. इसलिए, हमारी परंपरा कहती है कि हम इस पर सोचें-विचारें और बहस करें कि आज के दौर में राम राज्य का क्या मतलब है. अगर इस नज़रिये से देखें तो रामायण के कई संस्करण हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत हो सकते हैं. हम इनसे सीख सकते हैं कि एक नेता को कैसा होना चाहिए और कैसा नहीं होना चाहिए. प्रजा यानी जनता किस तरह की होनी या नहीं होनी चाहिए और सबसे बड़ी बात कि एक समाज के रूप में, सामूहिक तौर पर हम क्या पाने की उम्मीद करते हैं.

हमारे पूर्वजों ने तय किया कि उनके वंशज अपने राम राज्य के बारे में ख़ुद निर्णय लेंगे. इसलिए, हमारी परंपरा कहती है कि हम इस पर सोचें-विचारें और बहस करें कि आज के दौर में राम राज्य का क्या मतलब ह

राम राज्य पर चर्चा तभी हो सकती है, जब हमारे सामने यह स्पष्ट हो कि हम कौन हैं. सही हो या गलत, यह फैसला सत्ताधारी वर्ग करता है, जिसमें शीर्ष नेता, नौकरशाह, न्यायपालिका के लोग,  अकादमिक जगत के लोग, मीडिया, कंपनियां और कलाकार आदि शामिल होते हैं. भारत के सत्ताधारी वर्ग में पिछले 150 वर्षों में कम से कम सांस्कृतिक तौर पर शायद ही बदलाव हुआ है. उन्हें मकाउलेपुत्र यानी  मकाउले की औलादें कहा जाता है. मकाउले को उन नीतियों का श्रेय दिया जाता है, जिनसे हमारे देश में ऐसा वर्ग बना था, जिसका लहू भारतीय था लेकिन खाना, संस्कृति और भाषा ब्रिटिश थी. इनके सांस्कृतिक उत्तराधिकारी आज इस सत्ताधारी वर्ग का हिस्सा हैं. यह वर्ग जिस मुहावरे या शैली का इस्तेमाल करता है, जिन कल्चरल मीम को फॉलो करता है और जिस भाषा में संवाद करता है, वह कमोबेश ब्रिटिश राज की विरासत हैं. इसका मतलब यह नहीं है कि इस वर्ग को भारत से प्यार नहीं है. वे देश में प्रेम करते हैं, बस उनका इस प्यार को जताने का तरीका अलग है. वे मानते हैं कि भारत प्री-मॉडर्न (इनमें से कुछ तो ‘असभ्य’ शब्द का भी इस्तेमाल करते हैं) युग में है और इसे सुधारने का ज़िम्मा उन पर है. अगर एक बार आप इस बात को समझ लें तो यह मानने में  दिक़्क़त नहीं होती कि हर भारतीय चीज़ को यह वर्ग किस नज़र से देखता है. हमारे प्राचीन भगवानों में यह  वर्ग सबसे ज्य़ादा भगवान राम को नापसंद करता है. इन लोगों के बीच भगवान राम की आलोचना करना एक फैशन की तरह है. फ्रांसिस फुकोयामा ने अपनी किताब ‘आइडेंटिटी’ में लिखा है कि हम सब अपनी जनजातीय पहचान से निर्देशित होते हैं. आज भारत में मौजूदा ‘रूलिंग एलीट’ को बेदख़ल करने के लिए एक और जनजाति उभर रही है. आइए, इस वर्ग को धरतीपुत्र कहते हैं. ये ज़मीन से जुड़े लोग हैं. धरतीपुत्र ही देश का भविष्य हैं. इसलिए इस वर्ग के बीच आज जो विमर्श चल रहा है, वह कहीं ज्यादा अहमियत रखता है.

 मकाउले पुत्रों की तरह इस वर्ग को भी भारत से प्यार है. वह भी आधुनिक युग की सबसे ताक़तवर चीज यानी पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित है. हालांकि, यह वर्ग जिन मुहावरों और शैलियों का इस्तेमाल करता है, जिन कल्चरल मीम को फॉलो करता है, जो खाना खाता है, उन सबके केंद्र में पुरानी भारतीय परंपराएं हैं. इसलिए इसमें हैरानी की बात नहीं है कि यह वर्ग भगवान राम को आदर्श मानता है. हालांकि, पारंपरिक भारतीय व्यवस्था की तरह उसकी आस्था बिना संदेह के नहीं है. इस वर्ग को जब सही लगता है, तब वह भगवान राम को लेकर सवाल करता है. उदाहरण के लिए, मां सीता के साथ उनका बर्ताव. हालांकि, इससे भगवान राम के प्रति उसकी गहरी श्रद्धा और सम्मान ख़त्म नहीं हो जाता. दिलचस्प बात है कि आदर और पूजा के बावजूद क्या यह वर्ग भगवान राम से कुछ सीखता है? हम इस मुद्दे पर जल्द ही लौटेंगे.

भारत में मौजूदा ‘रूलिंग एलीट’ को बेदख़ल करने के लिए एक और जनजाति उभर रही है. आइए, इस वर्ग को धरतीपुत्र कहते हैं. ये ज़मीन से जुड़े लोग हैं. धरतीपुत्र ही देश का भविष्य हैं

अभी तक धरतीपुत्रों ने समूचे एलीट (अभिजात्य) स्पेस पर कब्ज़ा नहीं किया है. उनकी यात्रा तो अभी शुरू ही हुई है. विचारधारा के स्तर पर भी उन्हें बहुत कुछ सीखना है. उन्होंने हर चीज पर गौर नहीं किया है. इनमें से कुछ आज भी मैकालेपुत्रों को नापसंद करते हैं और उन्हें ‘दुश्मन’ मानते हैं. वे उनसे लड़ने में बहुत ज़्यादा ऊर्जा बर्बाद कर रहे हैं. इससे कुछ हाथ नहीं लगेगा. उन्हें भगवान राम से सीखना चाहिए. उन्हें देखना चाहिए कि वह दूसरों और यहां तक कि अपने शत्रु के साथ कैसा बर्ताव करते थे. भगवान राम से उन्हें और सीखने की ज़रूरत है ताकि केंद्र में यह प्रश्न आए कि आप जनता के लिए क्या करते हैं, न कि दुश्मनों के साथ आपका बर्ताव कैसा हो.

इस वर्ग के लोगों को जनता यानी हमारे, आम भारतीयों के लिए क्या करना चाहिए? हम किस तरह का समाज चाहते हैं? हमें किन ग्रंथों-किताबों से प्रेरणा लेनी चाहिए? भारत का सपना क्या है? विज्ञान के प्रति हमारा रवैया कैसा हो? महिला अधिकारों के प्रति हमारा रुख़  कैसा होना चाहिए? हमारी सेक्सुअल अप्रोच क्या हो और धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ बर्ताव कैसा होना चाहिए? क्या हम सामूहिक हक के आधार पर कानून बनाने के पक्ष में हैं (जैसा कि  मकाउले पुत्रों ने किया है) या हम व्यक्तिगत अधिकार और समानता के हिसाब से सबके लिए समान कानून चाहते हैं? आर्थिक विकास और पर्यावरण के बीच का संतुलन क्या हो? जो देश हमें नुकसान पहुंचाना चाहते हैं, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को देखते हुए उनके साथ संतुलन कैसे बनाया जाए? व्यवस्था और आज़ादी  के बीच कैसा संतुलन हो? क्या हम ऐतिहासिक अपराधों के लिए दोषी की अवधारणा पर यकीन करते हैं? शिक्षा के प्रति हमारी सोच क्या हो? इतिहास, आर्ट्स या साहित्य पर हमारा नज़रिया  कैसा होना चाहिए?

हमारे पास चर्चा करने के लिए कितने सारे विषय हैं. इन मुद्दों पर बहस होनी चाहिए और यह जनता के सामने हो. मैंने इनमें से कुछ सवालों के जवाब राम चंद्र सीरीज की अपनी लिखी पांच किताबों में देने की कोशिश की है. अगर इन पर और चर्चा हो तो मुझे अच्छा लगेगा. शायद ये चर्चाएं नए राम जन्मभूमि मंदिर में हो सकती हैं. इनमें संबंधित विषयों के तह तक पहुंचने की कोशिश आपसी सम्मान और परिपक्वता के साथ की जा सकती है, लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि बहस सिर्फ़  नाम के लिए नहीं होनी चाहिए. उनसे जो चीजें निकल आएं, उन पर अमल भी होना चाहिए यानी उन्हें कर्म में भी शामिल करना होगा. धरतीपुत्र और  मकाउलेपुत्र जनता की भलाई के लिए मिलकर काम करें. उनके बीच कभी-कभार मतभेद हो सकते हैं, लेकिन बेहतर होगा कि वे मिलकर इन्हें लागू करने के लक्ष्य को हासिल करने का प्रयास करें. भगवान राम तो हमसे यही उम्मीद करते हैं और उन्हें सम्मानित करने का यह सबसे अच्छा तरीका है.

रामराज्यवासी त्वम्, प्रोच्छ्रयस्व ते शिरम्,

न्यायार्थ युद्धस्व, सर्वेषु सम चर,

परिपालय दुर्बलम्, विद्धि धर्मं वरम्,

प्रोच्छ्रयस्व ते शिरम्, रामराज्यवासी त्वम्.

यानी

तुम रामराज्य वासी, अपना मस्तक ऊंचा रखो,

न्याय के लिए लड़ो, सबको समान मानो,

कमज़ोर की रक्षा करो, धर्म को सबसे ऊंचा जानो

अपना मस्तक ऊंचा रखो, तुम रामराज्य के वासी हो.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.