Published on Apr 02, 2021 Updated 0 Hours ago

सच कहें तो उभरते बाज़ारों में क्यूई का अबतक का अनुभव उत्साहवर्धक रहा है. लेकिन ये पथप्रदर्शक प्रयास अगर लंबे समय तक जारी रखे जाएं तो इससे नुकसान की संभावनाओं से इनकार भी नहीं किया जा सकता.

उभरते बाज़ारों में क्वांटिटेटिव ईज़िंग या ग़ैर-पारंपरिक मौद्रिक नीति के कई स्वरूप: जादू की छड़ी या पागलपन?

दुनिया की कई उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं ने कोविड-19 से उपजे वित्तीय झटकों का बेहद नाटकीय अंदाज़ में जवाब दिया. महामारी और उसके चलते मांग और आपूर्ति के मोर्चे पर संकटों की दोहरी मार एक ऐसे समय में पड़ी जब सरकारों की वित्तीय हालत में पहले से ही गिरावट का दौर जारी था. इन सबके चलते उभरते हुए बाज़ारों वाली सरकारों को तेज़ और नवाचार युक्त समाधानों की ओर ध्यान देना पड़ा.

मात्रात्मक सहजता या क्वांटिटेटिव ईज़िंग (क्यूई) और इसके स्वरूपों को पिछले कुछ समय से लोकप्रियता हासिल हुई है. इसको अक्सर वित्तीय घाटों के लिए रातोंरात रकम इकट्ठा करने से जोड़ा जाता है. क्यूई का मकसद संकट के समय ग़ैर-ज़रूरी सख्त़ियों की रोकथाम करना है. आमतौर पर यही समझा जाता रहा है कि अमेरिका, यूरोपीय संघ और जापान जैसे सिर्फ़ विकसित अर्थव्यवस्थाओं में ही मंदी के माहौल में अपनी अर्थव्यवस्थाओं को स्थिरता प्रदान करने के लिए अंतिम उपाय के तौर पर इसपर अमल किया जा सकता है. वो भी तब जब आधिकारिक ब्याज़ दर शून्य (अपनी निम्नतम सीमा) को छू लेती है जिसको और घटाना संभव नहीं होता. हालांकि, उभरती अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों ने क्यूई कार्यक्रमों को अपने हिसाब से गढ़कर मौद्रिक नीति में घोषित दरों को शून्य से भी नीचे पहुंचा दिया है. इसके पीछे उनका तर्क बाज़ार की गड़बड़ियों की रोकथाम कर अल्पकाल में तरलता से जुड़ी परिस्थितियों को आसान बनाना है. इस पृष्ठभूमि में उभरते बाज़ारों वाली अर्थव्यवस्थाओं के नीति निर्माताओं ने मुद्रास्फीति की चिंताओं और कर्ज़ के टिकाऊ बोझ के बीच संतुलन बिठाने की कोशिशें शुरू कर दी हैं. इस संदर्भ में वो अक्सर ये दावे करते हैं कि उनके पास विदेशी मुद्रा के पर्याप्त भंडार हैं और उनका चालू खाते का घाटा प्रंबंधनीय स्तर पर है.

क्वांटिटेटिव ईज़िंग या क्यूई एक ग़ैर-परंपरागत मौद्रिक नीति है. इसके तहत जब ब्याज़ दरें पहले से ही शून्य को छू लेती हैं तब सरकारी ऋण और दूसरी वित्तीय परिसंपत्तियों की खरीद के लिए नई नोटों की छपाई की जाती है. 

क्यूई क्या है?

क्वांटिटेटिव ईज़िंग या क्यूई एक ग़ैर-परंपरागत मौद्रिक नीति है. इसके तहत जब ब्याज़ दरें पहले से ही शून्य को छू लेती हैं तब सरकारी ऋण और दूसरी वित्तीय परिसंपत्तियों की खरीद के लिए नई नोटों की छपाई की जाती है. विकसित अर्थव्यवस्थाओं के अनुभवों के मुताबिक इसके पीछे नए बैंक रिज़र्व तैयार कर आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने का तर्क दिया जाता है. इन नए रिज़र्वों का मकसद मुश्किलों भरे वक़्त में ऋण से जुड़े बाज़ार को सामान्य बनाना होता है. लेकिन उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में क्यूई को अक्सर बिल्कुल भिन्न प्रकार की परिस्थितियों के दौरान उपयोग में लाया जाता है. ऐसे मामलों में जब कभी सरकारें अल्पकालिक तौर पर भारी वित्तीय दबाव महसूस करने लगती हैं तब केंद्रीय बैंकों की मदद ली जाती है. यही वो मौका होता है जहां असल रूप से जोख़िम सामने आते हैं.

बिगड़ते राजकोषीय परिदृश्य से पैदा हुए संकट को ख़त्म करने के लिए केंद्रीय बैंक अनंत काल तक मुद्रा की छपाई नहीं कर सकते. यथोचित सीमा के बाद नोट छापे जाने से मुद्रास्फीति का डर पैदा हो सकता है और स्थानीय मुद्रा के प्रति भरोसे में गिरावट आ सकती है. ऋण को मुद्रीकृत करने की प्रवृति टिकाऊ नहीं होती. इससे अंतरराष्ट्रीय निवेशकों में भय का वातावरण बनता है. नतीजतन अर्थव्यवस्था से बाहर की ओर पूंजी का प्रवाह शुरू हो जाता है. विनिमय दर बिगड़ने लगती है. हालात चरम पर पहुंच जाएं तो बाहर की ओर पूंजी के प्रवाह से विकराल मुद्रा संकट खड़ा हो सकता है. लिहाजा सरकारों की ऋण भर देने की क्षमता के बारे में आम नज़रिया ही किसी राजसत्ता को कर्ज़ के बढ़ते जोख़िमों के सामने मज़बूती प्रदान कर सकता है.

आईएमएफ के मुताबिक इन उपायों से सरकारी बॉन्डों की आय को 20 से 60 बेसिस प्वाइंट तक कम करने में मदद मिली है. 

क्यूई को अमल में लाने के संदर्भ में दुनिया की प्रधान मुद्राओं (जैसे अमेरिकी डॉलर, यूरो) की भूमिका और हाशिए पर रहने वाली मुद्राओं के बीच के अंतर को रेखांकित करना ज़रूरी है. सिर्फ़ पहले प्रकार की मुद्राएं ही सही मायनों में वैश्विक मुद्राएं हैं क्योंकि विदेशी और घरेलू बाज़ार प्रतिभागी, दोनों ही इसकी मांग करते हैं. जबकि दूसरे प्रकार की मुद्रा की सिर्फ़ घरेलू तौर पर ही मांग की जाती है. हाशिए पर रहने वाली मुद्राओं को मुद्रा और ऋण संकटों के ऐतिहासिक प्रकरणों, ऊंची मुद्रास्फीति, कम विश्वसनीयता, और वहां के वित्तीय क्षेत्र और राजनीतिक व्यवस्थाओं की अंतर्निहित कमज़ोरियों की वजह से अक्सर ही कम करके आंका जाता है. इन्हीं वजहों से विकसित अर्थव्यवस्थाओं के मुक़ाबले उभरते बाज़ारों में क्यूई लागू करने पर संभावित जोख़िम काफ़ी बढ़ जाते हैं.

लाजमी तौर पर वित्तीय बाज़ारों में खलबली और घबड़ाहट का माहौल बनने पर निवेशक सबसे सुरक्षित परिसंपत्तियों जैसे यूएस ट्रेज़री सिक्योरिटी की ओर खिंचे चले जाते हैं. आम तौर पर ऐसा कम परिपक्व अर्थव्यवस्थाओं की क़ीमत पर होता है जहां से बड़ी तादाद में पूंजी का बाहर की ओर प्रवाह शुरू हो जाता है. नतीजतन कई उभरते हुए बाज़ारों को चढ़ते बॉन्ड आय और मियादी जमा के बढ़ते प्रीमियमों का सामना करना पड़ता है. ये लंबी परिपक्वता अवधि वाले बॉन्ड्स के लिए अतिरिक्त क्षतिपूर्ति के तौर पर सामने आता है.

अबतक क्या पता चला?

ये बात जगज़ाहिर है कि उभरते बाज़ारों वाली कई अर्थव्यवस्थाओं ने हाल ही में अभूतपूर्व रूप से पूंजी का बाहर की ओर प्रवाह झेला है. इसके बाद अचानक से निवेशकों में पसरे घबड़ाहट की वजह से बॉन्ड आय में बढ़ोतरी देखी गई. इसके साथ ही स्टॉक्स, बॉन्ड्स, कमोडिटीज़ और प्रॉपर्टी जैसी निजी परिसंपत्तियों के ज़्यादातर बाज़ारों में तरलता में गिरावट आने की वजह से दबाव बढ़ गया. उभरते बाज़ार अर्थव्यवस्थाओं वाले कम से कम 20 देशों के केंद्रीय बैंकों ने तब से ही ब्याज़ दरों में तेज़ी से हुई कटौती के मद्देनज़र किसी न किसी तरह की परिसंपत्तियों की ख़रीद करनी शुरू कर दी है. इनमें राजकोषीय रूप से मज़बूत और कमज़ोर दोनों तरह के देश शामिल हैं. इसके पीछे का मकसद वित्तीय बाज़ारों में स्थिरता लाकर अर्थव्यवस्था को हादसों से बचाते हुए संरक्षित करना होता है. अबतक ज़्यादातर उभरते बाज़ारों में इन तेज़ और गहन उपायों का कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा है.

गहन रूप से नकदी या तरलता का प्रवाह सुनिश्चित करते रहने से केंद्रीय बैंकों की विश्वसनीयता को काफ़ी चोट पहुंच सकती है. इससे मुद्रास्फीति से जुड़े झटकों, मुद्रा संकट और विनिमय दरों में अस्थिरता जैसी परेशानियां खड़ी हो सकती हैं. 

दिलचस्प रूप से क्यूई की शुरुआत के वक़्त सिर्फ़ क्रोएशिया और चिली ही शून्य ब्याज़ दरों के नज़दीक थे जबकि पोलैंड उस स्तर तक कुछ विलंब से पहुंचा था. उभरते बाज़ारों वाले इस पहले समूह के केंद्रीय बैंकों ने क्यू को तभी अपनाया जब वो अपने ब्याज़ दरों में और अधिक कटौती करने के सारे उपाय कर चुके थे. एक दूसरे समूह ने मुख्य रूप से मौद्रिक की बजाए राजकोषीय प्रयोजनों से इसका प्रयोग शुरू किया. घाना और फिलीपींस के केंद्रीय बैंकों ने असाधारण परिस्थितियों का हवाला देते हुए हद से ज़्यादा दबाव को कम करने के लिए सॉवरेन डेट की ख़रीदगी कर खुलेआम अपनी-अपनी सरकारों को एक नया जीवन प्रदान किया. दक्षिण अफ्रीका, थाईलैंड और भारत जैसे देशों के सेंट्रल बैंक तीसरी श्रेणी में आते हैं. इन्होंने निजी निवेशकों में भरोसा बढ़ाने के लिए सिर्फ़ बाज़ार निर्माताओं की भूमिका ही निभाई. उनका इरादा केवल बॉन्ड मूल्य को बढ़ाना ही नहीं था बल्कि इसके साथ-साथ उसके फैलाव (जिसकी ग़ैर-मौजूदगी से बोली लगाने और प्रस्ताविक क़ीमतों में काफ़ी अंतर हो जाता है) में सख्ती लाकर उतार-चढ़ावों में कमी लाना था.

ज़ाहिर तौर पर एक अच्छी ख़बर ये है कि परिसंपत्ति बाज़ार में केंद्रीय बैंकों की मौजूदगी का निजी निवेशकों पर संतोषजनक प्रभाव पड़ा है. आईएमएफ के मुताबिक इन उपायों से सरकारी बॉन्डों की आय को 20 से 60 बेसिस प्वाइंट तक कम करने में मदद मिली है. सावधि प्रीमियम भी काफ़ी हद तक सामान्य हो गए हैं. सेंट्रल बैंकों द्वारा अल्पावधि सिक्योरिटीज़ को दीर्घावधि सिक्योरिटीज़ के साथ बदले जाने से इसके प्रभावों को आंशिक तौर पर ही सही, पर कम करने में मदद मिली है. इतना ही नहीं घरेलू मौद्रिक परिस्थितियां अल्पावधि में आसान हो गई हैं तरलता फिर से लौट आई है और साख के फैलाव में कसावट आई है. कुछ अपवादों को छोड़कर उभरते बाज़ारों की मुद्राओं में इन उपायों से शायद ही किसी तरह की गिरावट देखी गई. कुल मिलाकर प्रारंभिक प्रमाण निश्चित तौर पर अनुकूल लग रहे हैं.

सतर्कता की ज़रूरत

अल्पकालिक फ़ायदों के बावजूद ये समझना कठिन नहीं है कि आख़िरकार क्यूई को उभरते हुए बाज़ारों के लिए क्यों बेहद जोख़िम भरा विकल्प समझा जाता है. दरअसल सार्वजनिक ऋण औऱ घाटे के स्तर के और अधिक बिगड़ने की आशंका रहती है क्योंकि राजस्व के अनुमान से कम रहने और खर्चों में बढ़ोतरी का अनुमान रहता है. उत्पादन और रोज़गार से जुड़े मापदंडों के पटरी पर आने में समय लगता है. रकम जुटाने को लेकर बहुपक्षीय कर्ज़दाताओं की सीमित क्षमता और अंतरराष्ट्रीय पूंजी बाज़ारों में बढ़ते झिझक की वजह से केंद्रीय बैंकों को वित्तीय खामियों को पाटने के लिए मौद्रिक प्रोत्साहन के कदम उठाने की ज़रूरत पड़ सकती है. हालांकि, ये विकल्प हरेक उभरते बाज़ार के लिए उचित नहीं है क्योंकि बॉन्ड बाज़ार में नियमित रूप से सक्रिय रहने के साथ कई जोख़िम भी जुड़े हुए हैं. सच्चाई तो ये है कि लगातार और गहन रूप से नकदी या तरलता का प्रवाह सुनिश्चित करते रहने से केंद्रीय बैंकों की विश्वसनीयता को काफ़ी चोट पहुंच सकती है. इससे मुद्रास्फीति से जुड़े झटकों, मुद्रा संकट और विनिमय दरों में अस्थिरता जैसी परेशानियां खड़ी हो सकती हैं. इसके साथ ही निजी क्षेत्र के बैलेंस शीट के बिगड़ने और डेट डिस्ट्रेस की आशंकाएं भी रहती हैं.

विदेशी निवेशकों द्वारा पूंजी निकाल लेने की वजह से विनिमय दरों में गिरावट का दौर जारी है. तो वहीं दूसरी ओर भारत में भी पिछले कुछ महीनों के दौरान खाद्य और ईंधन के दाम में इज़ाफ़े की वजह से सालाना महंगाई दरों में बढ़ोतरी दर्ज की गई है. 

इस वक़्त ब्राज़ील, कोलंबिया और कोस्टारिका उन देशों में शुमार हैं जो ऋण के मोर्चे पर चुनौतीपूर्ण हालातों का सामना कर रहे हैं. इनमें ब्राज़ील को सबसे जोख़िम भरे हालात में समझा जा रहा है क्योंकि वो सुधारों को स्वीकार करने को तैयार नहीं है और उसका सार्वजनिक ऋण भार जीडीपी के 86 फीसदी तक पहुंच गया है. कोस्टारिका ऊंचे ब्याज़ भुगतान के बोझ तले दबा है. जबसे उसकी अर्थव्यवस्था रसातल में गई है तब से ये हालात ऋण के फैलाव के ढीलेपन से स्पष्ट भी हो रहे हैं.

इसी तरह तुर्की, पोलैंड, हंगरी और भारत उन देशों में शामिल हैं जो लगातार मुद्रास्फीति का ख़तरा झेलते हैं. हालांकि, इन जोख़िमों से निपटने की क्षमता भिन्न-भिन्न देशों में अलग-अलग है. उदाहरण के तौर पर देखें तो इसमें एक ओर तुर्की है जहां मुद्रास्फीति की दर दहाई में है और वास्तविक ब्याज़ दरें पिछले कुछ समय से नकारात्मक बनी हुई हैं. निवेशकों ख़ासतौर से विदेशी निवेशकों द्वारा पूंजी निकाल लेने की वजह से विनिमय दरों में गिरावट का दौर जारी है. तो वहीं दूसरी ओर भारत में भी पिछले कुछ महीनों के दौरान खाद्य और ईंधन के दाम में इज़ाफ़े की वजह से सालाना महंगाई दरों में बढ़ोतरी दर्ज की गई है. हालांकि, आयात पर अपेक्षाकृत कम निर्भरता और भारत के केंद्रीय बैंक की विश्वसनीयता जैसे कुछ संभावित कारकों के चलते वित्तीय रूप से नाज़ुक हालत वाले दूसरे उभरते बाज़ारों जैसे तुर्की के मुक़ाबले भारत की परिस्थितियां काफ़ी अलग है.

आख़िर में प्रयोजन हासिल हो जाने के बाद क्यूई से जुड़े उपायों को हल्का करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है. फिलहाल, ज़्यादातर केंद्रीय बैंक क्यू के आकार और मियाद को लेकर किसी भी प्रकार की सीमा तय करने से बचते रहे हैं. लिहाजा यहां इस बात को लेकर भी चिंतित होना लाजमी है कि क्या ये उपाय वास्तव में अल्पकालिक ही हैं. पोलैंड और इंडोनेशिया इस मामले में ख़ास तौर से संदेह पैदा करते हैं. दोनों देशों ने मार्च से अगस्त तक क्रमश: 4.6 फ़ीसदी से लेकर 6.8 फ़ीसदी तक के ऊंचे स्तर तक ऋण का मुद्रीकरण कर लिया है. पोलैंड को लेकर ये चिंता जताई जा रही है कि उसका केंद्रीय बैंक समूचे वर्ष के वित्तीय घाटे को पूरा करने जा रहा है. ये रकम जीडीपी का करीब 8 प्रतिशत है.

निष्कर्ष

अंत में ये बात ध्यान में रखनी होगी कि एक मज़बूत और विश्वसनीय केंद्रीय बैंक ही एक लंबे कालखंड में नई-नई और ग़ैर-पारंपरिक नीतियां बनाकर उन्हें कामयाबी से लागू कर सकता है. कमज़ोर और अस्थिर मुद्राओं वाले उभरते बाज़ारों के  केंद्रीय बैंकों को ग़ैर-पारंपरिक मौद्रिक नीतियों के मामलों में और अधिक सतर्क रहने की ज़रूरत है. मौजूदा समय असाधारण परिस्थितियों वाला है. ये सोच ग़लत भी हो सकती है कि जैसे-जैसे बाज़ार में दखल के मामले आम होते जाएंगे तो निवेशक एक ही तरह की प्रतिक्रिया दिखाते रहेंगे. इसके साथ ही एक ‘आदर्श’ क्यूई तय कर पाना बेहद मुश्किल साबित हो सकता है. लिहाजा अगर क्यूई बहुत बड़ा हो, लंबे समय तक चलाया जा रहा हो तो मध्यम-काल के लिए रकम उधार लेने की लागत में बढ़ोतरी हो सकती है (जो मियादी प्रीमियम के तौर पर दिखाई भी देती है). इसका समूचे वित्तीय हालात पर गंभीर प्रभाव पड़ने की आशंका रहती है.

क्यू के कुछ ऐसे विकल्प भी मौजूद हैं जो असमंजस कम करते हैं. सार्वजनिक ऋण को धीरे-धीरे बढ़ाना, व्यय की नए सिरे से प्राथमिकताएं तय करना और बहुपक्षीय संस्थाओं से मदद की जुगत लगाना ऐसे ही कुछ विकल्प हैं. सच कहें तो उभरते बाज़ारों में क्यूई का अबतक का अनुभव उत्साहवर्धक रहा है. लेकिन ये पथप्रदर्शक प्रयास अगर लंबे समय तक जारी रखे जाएं तो इससे नुकसान की संभावनाओं से इनकार भी नहीं किया जा सकता.


लेखक ORF में रिसर्च इंटर्न है.

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