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चीन के लिए यहां चिंता की बात ये है कि अमेरिका, यूके और कनाडा जैसे देशों ने आपसी तालमेल से उसके ख़िलाफ़ पाबंदियां लगाई हैं.
चीन में लंबे समय से चली आ रही ख़ुद को तबाह करने की प्रवृत्ति इन दिनों एक बार फिर देखने को मिल रही है. इस बार उसकी विदेश नीति के संदर्भ में इसकी झलक मिली है. ताज़ा मामला चीन में स्वीडन की बड़ी रिटेल कंपनी एचएंडएम के कारोबार पर साधे गए निशाने का है. ये मुद्दा 2020 में कंपनी द्वारा दिए गए उस बयान से शुरू हुआ जिसमें उसने कहा था कि कंपनी शिनजियांग प्रांत में पैदा होने वाले कपास का इस्तेमाल नहीं करती क्योंकि वहां इसकी खेती में जबरन मज़दूरी कराए जाने के आरोप लगे हैं.
शिनजियांग प्रांत में मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोपों में यूरोपीय संघ द्वारा चीनी व्यक्तियों पर लगाई गई पाबंदियों की प्रतिक्रिया में चीन द्वारा उठाए गए कदमों से दिसंबर 2020 में चीन और यूरोपीय संघ के बीच हुए समग्र निवेश समझौते (सीएआई) के तहत चीन और यूरोपीय संघ के बीच बेहतर संबंधों की स्थापना के वादे को झटका लग सकता है.
पश्चिमी देशों ने तो शिनजियांग के निचले स्तर के कर्मचारियों पर ही पाबंदियां लगाई हैं, लेकिन चीन ने इसकी प्रतिक्रिया में यूरोपीय संघ से जुड़ी 10 बड़ी हस्तियों पर अपनी ओर से प्रतिबंध लगा दिए हैं.
चीन के लिए यहां चिंता की बात ये है कि अमेरिका, यूके और कनाडा जैसे देशों ने आपसी तालमेल से उसके ख़िलाफ़ पाबंदियां लगाई हैं. बहरहाल इन पश्चिमी देशों ने तो शिनजियांग के निचले स्तर के कर्मचारियों पर ही पाबंदियां लगाई हैं, लेकिन चीन ने इसकी प्रतिक्रिया में यूरोपीय संघ से जुड़ी 10 बड़ी हस्तियों पर अपनी ओर से प्रतिबंध लगा दिए हैं. इनमें यूरोपीय संसद के चार सदस्यों के अलावा यूरोपीय परिषद की राजनीतिक और सुरक्षा मामलों की समिति, जाने-माने थिंक टैंक एमईआरआईसीएस समेत चार संस्थाएं भी शामिल हैं. न सिर्फ़ इनसे जुड़े अधिकारियों बल्कि उनके परिवारवालों पर भी पाबंदियां लगाई गई हैं.
जहां तक अमेरिका और कनाडा का सवाल है तो चीन ने द्विदलीय अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता से जुड़े अमेरिकी आयोग (यूएससीआईआरएफ) के चेयर गेल मांचिन और वाइस चेयर टोनी पार्किंस, कनाडा के सांसद माइकल चूंग और कनाडाई संसद की विदेश मामलों की समिति की मानवाधिकारों से जुड़ी उपसमिति को अपना निशाना बनाया है. मांचिन एक अमेरिकी सीनेटर की पत्नी हैं. ऐसे में लगता है कि चीन के अधिकारी अमेरिकी कांग्रेस को चुनौती दे रहे हैं जिसके लिए धार्मिक स्वतंत्रता एक बड़ा मुद्दा है.
ये कोई पहली बार नहीं है कि चीन ने अपनी बाज़ार शक्ति का इस्तेमाल किसी विदेशी कंपनी को निशाना बनाने के लिए किया हो. कुछ साल पहले इसने दक्षिण कोरिया की बड़ी कंपनी लॉटे को भी ऐसे ही निशाने पर लिया था. तब कोरियाई सरकार ने अमेरिकी में बने टीएचएएडी एंटी मिसाइल डिफ़ेंस सिस्टम की स्थापना के लिए अपने स्वामित्व वाला एक गॉल्फ कोर्स मुहैया कराने का फ़ैसला किया था. ये विनाशकारी पाबंदी दो साल के बाद हटाई गई और तबसे दक्षिण कोरिया ने ये ध्यान रखा है कि वो बीजिंग को किसी भी सूरत में नाराज़ न करे.
अभी हाल ही में चीन ने कोयला, वाइन और जौ समेत कई ऑस्ट्रेलियाई वस्तुओं को अपने कारोबारी इंतकाम का निशाना बनाया. इसके पीछे की वजह ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन द्वारा कोविड-19 महामारी की शुरुआत को लेकर स्वतंत्र जांच कराए जाने की मांग थी. एचएंडएम का चीन से पुराना नाता रहा है. ये कंपनी वैश्विक बाज़ार के लिए चीन से ही अपने उत्पाद इकट्ठा करती है. चीन खुद भी एचएंडएम के लिए एक बड़ा बाज़ार है. पूरे देश में इसके 400 रिटेल स्टोर हैं. वैसे तो चीन के निशाने पर नाइके, एडिडास, यूनिलो, गाप और बरबरी जैसी कंपनियां भी हैं क्योंकि इन सबने भी ऐसे ही बयान दिए हैं. लेकिन लगता यही है कि इस वक़्त एचएंडएम ही चीन का प्रमुख निशाना है.
वैसे तो चीन के निशाने पर नाइके, एडिडास, यूनिलो, गाप और बरबरी जैसी कंपनियां भी हैं क्योंकि इन सबने भी ऐसे ही बयान दिए हैं. लेकिन लगता यही है कि इस वक़्त एचएंडएम ही चीन का प्रमुख निशाना है.
चीन की जानी-मानी हस्तियों ने एचएंडएम से किए गए विज्ञापन संबंधी करार तोड़ दिए और कंपनी को चीन में मैपिंग, राइड हेलिंग और ई-कॉमर्स से जड़े ऐप से भी हटा दिया गया है. ख़बरों के मुताबिक नाइके और एडिडास के ख़िलाफ़ छेड़े जाने वाले अभियान को फिलहाल मुल्तवी रखा गया है क्योंकि चीन में अगले साल होने वाले विंटर ओलंपिक्स के लिए इन कंपनियों द्वारा बड़ी मात्रा में विज्ञापन मुहैया कराए जाने के आसार हैं. लंबे समय से चीन में मुनाफे का कारोबार चला रही इन कंपनियों के लिए बीजिंग का दो टूक संदेश यही है कि अगर वो शिनजियांग जैसे मुद्दों पर चीन से पंगा लेंगे तो उन्हें चीन में अपने धंधे से हाथ धोना पड़ेगा.
इन परिस्थितियों के मद्देनज़र ये देखना दिलचस्प होगा कि अमेरिकी आपत्तियों के बावजूद यूरोपीय संघ ने चीन के साथ जिस सीएआई समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं उसे संसद की मंज़ूरी दिलाने को लेकर यूरोपीय संघ का रुख़ क्या होता है. यूरोप की सरकारों के लिए इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाना एक ऐसे समय में मुश्किलों भरा हो सकता है जब उसके चार सदस्यों पर चीन ने पाबंदियां लगा रखी हों. हालांकि, इस मामले में चीन कड़ा रुख़ अपनाए हुए है. चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता हुआ चुनइंग ने दो टूक कहा है कि सीएआई ‘एक पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष को दिया गया कोई उपहार नहीं है, बल्कि ये दोनों ही पक्षों के लिए समान रूप से लाभकारी और पारस्परिकता वाला समझौता है’. चीन के इन मौजूदा घटनाक्रमों का अमेरिकी कंपनियों पर भी सीधा प्रभाव पड़ना तय है. ये कंपनियां पिछले ट्रंप प्रशासन द्वारा चीन को होने वाले निर्यातों पर लागू पाबंदियों को हटाने को लेकर बाइडन प्रशासन की ओर आशा भरी निगाह लगाए हुए हैं.
बाइडेन के सत्ता संभालने के बाद से अमेरिका और यूरोपीय संघ के रिश्तों के तेवर बदल गए हैं. पिछले हफ़्ते अमेरिकी राष्ट्रपति ने यूरोपीय परिषद के एक शिखर सम्मेलन में यूरोपीय संघ के एक सम्मानित नेता के तौर पर वर्चुअल तरीके से हिस्सा लिया था. उसी समय अमेरिकी विदेश मंत्री एंथनी ब्लिंकेन ब्रुसेल्स में यूरोपीय संघ के नेताओं के साथ बैठकें कर रहे थे. इन वार्ताओं के ज़रिए दोनों पक्षों ने यूरोपीय संघ और अमेरिका के बीच चीन को लेकर होने वाली वार्ताओं को फिर से बहाल करने का फ़ैसला किया ताकि उनकी नीतियों में तालमेल बिठाया जा सके. इन घटनाओं से बीजिंग की चिंताएं बढ़ना लाजमी है.
बाइडेन के सत्ता संभालने के बाद से अमेरिका और यूरोपीय संघ के रिश्तों के तेवर बदल गए हैं. पिछले हफ़्ते अमेरिकी राष्ट्रपति ने यूरोपीय परिषद के एक शिखर सम्मेलन में यूरोपीय संघ के एक सम्मानित नेता के तौर पर वर्चुअल तरीके से हिस्सा लिया था.
हालांकि, ये भी सच्चाई है कि यूरोपीय संघ और अमेरिका की नीतियां एक दूसरे से पूरी तरह मेल नहीं खातीं. इस कड़ी में रूस से जर्मनी तक गैस लाने के लिए नॉर्डस्ट्रीम-2 पाइपलाइन के मुद्दे का ज़िक्र ज़रूरी हो जाता है. इस पाइपलाइन का काम पूरा किए जाने पर अमेरिका ने प्रतिबंधों की चेतावनी दी है. अमेरिका को फिक्र है कि इस पाइपलाइन से यूरोपीय संघ की रूसी गैस पर निर्भरता बढ़ जाएगी.
बाइडेन प्रशासन अटलांटिक के आर-पार उत्तरी अमेरिका और यूरोप के बीच मज़बूत रिश्तों की वकालत करता है. यही वजह है कि ट्रंप की ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति के चलते दोनों पक्षों में जो अविश्वास का माहौल बना था अब वो काफ़ी हद तक दूर हो चुका है. यूरोप धीरे-धीरे अमेरिका के साथ अपना स्वर मिलाने लगा है. इस बात का एक बड़ा उदाहरण दक्षिण चीन सागर में नौसैनिक उपस्थिति स्थापित करने के अमेरिकी प्रयासों में यूके, फ्रांस, नीदरलैंड्स और जर्मनी द्वारा शामिल होने को लेकर दिखाई जाने वाली दिलचस्पी के रूप में हमारे सामने है. सैनिक नज़रिए से देखें तो कुछ जहाज़ों की उपस्थिति से कोई बड़ा फ़र्क़ नहीं पड़ता लेकिन इन ताक़तवर यूरोपीय देशों द्वारा दुनिया के दूरदराज के इस हिस्से में अपनी उपस्थिति बनाने को लेकर दिखाई जाने वाली दिलचस्पी से चीन तक निश्चित तौर पर ये संदेश पहुंचता है कि एक उभरता हुआ गठजोड़ उसकी नीतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने को तैयार हो रहा है.
यह लेख मूलरूप से द ट्रिब्यून में प्रकाशित हो चुका है.
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Manoj Joshi is a Distinguished Fellow at the ORF. He has been a journalist specialising on national and international politics and is a commentator and ...
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