Published on Oct 20, 2022 Updated 0 Hours ago

डिजिटल दुनिया से प्रिया का साबक़ा 2013 में पड़ा, जब उनकी उम्र महज़ 17 साल थी. उन्होंने अपने गांव के पास एक टाइपिंग सीखने की क्लास में हिस्सा लिया था. वहां पर उन्हें माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस सूट, ट्रिपल सी, और MS-CIT का इस्तेमाल करना भी सिखाया गया था.

प्रिया रवींद्र चामट: महाराष्ट्र के कवलेवाड़ा का पहियों पर चलता फिरता ‘बैंक’

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महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र के भंडारा ज़िले के कवलेवाड़ा गांव की रहने वाली 27 साल की प्रिया रवींद्र चामट के घर की खिड़की से छनकर सूरज की रौशनी आ रही है. दूर दूर तक धान के खेत फैले हुए हैं. ऐसा लगता है कि खेतों का अंतहीन सिलसिला है, जो कहीं ख़त्म नहीं होता. परिंदे शोर मचा रहे हैं और इनके साथ मिलकर बहती हवा यूं लगती है, मानो क़ुदरत सुर, लय और ताल के साथ कुछ गुनगुना रही है. प्रकृति के इस सौंदर्य के बीच प्रिया अपने घर के बाक़ी सदस्यों के लिए खाना पकाने की तैयारी कर रही हैं. जब प्रिया अपने आठ सदस्यों वाले परिवार के लिए खाना बनाने रसोई की तरफ़ बढ़ रही होती हैं, तो उनकी मांग का कुमकुम सूखा तक नहीं होता. ठीक उसी वक़्त प्रिया के पति, 36 वर्ष के रवींद्र चामट अपने काम पर रवाना होते हैं. वो एक ठेकेदार और रियल इस्टेट एजेंट हैं.

डिजिटल दुनिया से प्रिया का साबक़ा 2013 में पड़ा, जब उनकी उम्र महज़ 17 साल थी. उन्होंने अपने गांव के पास एक टाइपिंग सीखने की क्लास में हिस्सा लिया था. वहां पर उन्हें माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस सूट, ट्रिपल सी, और MS-CIT का इस्तेमाल करना भी सिखाया गया था. प्रिया को लगा कि उन्हें तो डिजिटल दुनिया के काम सीखने में महारत हासिल है.

प्रिया जब अपने मायके यानी मुरमाडी गांव में बड़ी हो रही थीं, तो उनकी ज़िंदगी आज से बिल्कुल अलग थी. प्रिया का मायका, उनकी ससुराल कवलेवाड़ा से 55 किलोमीटर दूर है. प्रिया कहती हैं कि उनकी ‘आई (मां) ने दसवीं तक पढ़ाई कर रखी थी, तो उन्होंने सुनिश्चित किया कि हम यानी उनके बच्चे भी अपनी पढ़ाई पूरी करें. उन्होंने अपने समुदाय के कई लोगों को अपना नाम लिखना और दस्तख़त करना सिखाया था. हालांकि मेरे मां-बाप दोनों की खेती करते हैं. फिर भी उनकी नज़र में पढ़ाई बहुत ज़रूरी थी.’ प्रिया अपने बचपन में स्कूल में वॉलीबाल खेलने और 2012 में चंद्रपुर ज़िले में राष्ट्रीय मुक़ाबले में मिली जीत के दिनों को याद करती हैं. वो कहती हैं कि उस वक़्त, ‘ज़िंदगी बहुत मज़े में कट रही थी.’

2019-21 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबक़, महाराष्ट्र में केवल 20.9 प्रतिशत लड़कियों ने बारहवीं या उससे अधिक की पढ़ाई की है. अपने पास-पड़ोस की बाक़ी लड़कियों के उलट प्रिया ने न केवल स्कूल की पढ़ाई पूरी की, बल्कि 2018 में शादी के बाद पत्राचार से अपना ग्रेजुएशन भी पूरा किया था.

डिजिटल दुनिया से प्रिया का साबक़ा 2013 में पड़ा, जब उनकी उम्र महज़ 17 साल थी. उन्होंने अपने गांव के पास एक टाइपिंग सीखने की क्लास में हिस्सा लिया था. वहां पर उन्हें माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस सूट, ट्रिपल सी, और MS-CIT का इस्तेमाल करना भी सिखाया गया था. प्रिया को लगा कि उन्हें तो डिजिटल दुनिया के काम सीखने में महारत हासिल है. उसके बाद प्रिया ने उस संस्थान में दूसरे बच्चों को भी इनका इस्तेमाल पढ़ाया- सिखाया था. 2017 में प्रिया ने वीडियोकॉन के एक स्टोर में टेक्नीशियन के तौर पर काम करना शुरू किया. वहां पर प्रिया और उनके साथ के कर्मचारी रिमोट कंट्रोल और दूसरे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण तैयार करते थे. इस दौरान, प्रिया ने फीचर फ़ोन के बजाय स्मार्टफ़ोन का इस्तेमाल शुरू कर दिया था. शुरुआत में प्रिया केवल व्हाट्सऐप और फ़ेसबुक जैसे लोकप्रिय ऐप का इस्तेमाल करती थीं. आज वो कहती हैं कि उन्हें, ‘इस जादुई आले’ की बहुत सी ख़ूबियों का अंदाज़ा ही नहीं था.

प्रिया कहती हैं कि, ‘मेरे गांव की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक ये भी है कि यहां से शहर आने-जाने के साधन नहीं हैं. हमारे गांव में ज़्यादातर लोगों के पास अपनी गाड़ी नहीं है और नज़दीकी बस अड्डे तक पहुंचने के लिए भी हमें पांच किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ता है. हमारे गांव से सबसे नज़दीक जो बैंक है, वो भी 16 किलोमीटर दूर है. ऐसे में बैंक जाने का मतलब दिन भर की दिहाड़ी का नुक़सान करना है.’

अफ़सोस करते हुए प्रिया कहती हैं कि, ‘मुझे पढ़ाई पूरी करने के बाद भी अपना काम जारी रखने में बहुत ख़ुशी होती. लेकिन मेरी ज़िंदगी की मंज़िल कुछ और ही हो गई. शादी के बाद ज़िंदगी में बहुत कुछ बदल सकता है.’

महाराष्ट्र में (15-49 वर्ष उम्र की) महिलाओं का तकनीकी सशक्तिकरण
ऐसी महिलाओं की तादाद जिनके पास ख़ुद का मोबाइल फ़ोन है और जिसे वो ही इस्तेमाल भी करती हैं 54.8%
जिन महिलाओं के पास मोबाइल फोन है, उनमें से वो महिलाएं जो SMS पढ़ सकती हैं 82.9%
वो महिलाएं जो पैसों के लेन-देन के लिए मोबाइल का इस्तेमाल करती हैं 29.8%
जिन महिलाओं ने कभी न कभी इंटरनेट का इस्तेमाल किया है 52.9%

स्रोत: राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण, 2019–21 1

महाराष्ट्र का भंडारा ज़िला, नागपुर से 144 किलोमीटर दूर है. ज़िले में एक साथ दो दुनिया बसती हैं. चहल-पहल से भरपूर भंडारा शहर में आधुनिक जीवन की सभी सुविधाएं, जैसे कि इंटरनेट कैफे से लेकर बैंकिंग संस्थान मौजूद हैं. लेकिन, शहर से बस दस किलोमीटर आगे बढ़ने पर तस्वीर पूरी तरह बदली नज़र आती है. झीलों का ज़िला कहे जाने वाले भंडारा में दो सब-डिवीज़न, सात सहसीलें, 870 गांव, सात ‘पंचायत समितियांa और चार ‘नगर परिषदें’ हैं. भंडारा का शहरी इलाक़ा महज़ 49.34 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है. जबकि ग्रामीण इलाक़ा 3667.3 1 वर्ग किलोमीटर का है. यही वजह है कि ज़िले की 85 फ़ीसद आबादी आज भी ग्रामीण इलाक़े में रहती है. 2006 में पंचायती राज मंत्रालय ने भंडारा को देश के 250 (उस वक़्त देश में कुल 640 ज़िले थे) पिछड़े ज़िलों में से एक का दर्ज़ा दिया था. आज भी भंडारा, महाराष्ट्र के उन 12 ज़िलों में से एक है, जिन्हें पिछड़ा क्षेत्र सहायता फंड कार्यक्रम (BRGF) से आर्थिक मदद मिलती है. 2 2011 की जनगणना के मुताबिक़, भंडारा में रहने वाली प्रमुख जनजातियों 3 में गोंड, राज गोंड, अराख, हल्बा और हल्बी शामिल हैं. ये अनुसूचित और अन्य पिछड़ी जनजातियां हैं, जो मुख्य रूप से खेती-किसानी और मज़दूरी के पेशे अपनाए हुए हैं.

तेज़ी से विकसित हो रहे ज़िलों में शुमार होने के बाद भी भंडारा की ज़्यादातर आबादी, देश के तेज़ी से हो रहे डिजिटलीकरण के दायरे से बाहर है. क्योंकि ज़िले के भीतर या आस-पास बैंकिंग और दूसरी सुविधाओं की कमी है. प्रिया कहती हैं कि, ‘मेरे गांव की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक ये भी है कि यहां से शहर आने-जाने के साधन नहीं हैं. हमारे गांव में ज़्यादातर लोगों के पास अपनी गाड़ी नहीं है और नज़दीकी बस अड्डे तक पहुंचने के लिए भी हमें पांच किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ता है. हमारे गांव से सबसे नज़दीक जो बैंक है, वो भी 16 किलोमीटर दूर है. ऐसे में बैंक जाने का मतलब दिन भर की दिहाड़ी का नुक़सान करना है.’

 

 

भारत में तहसील स्तर पर स्थानीय ग्रामीण सरकारी संस्था

 

कवलेवाड़ा में साक्षरता का मतलब महज़ अपना दस्तख़त बना लेना है. इसके दायरे में डिजिटल साक्षरता नहीं आती है. जब विदर्भ पर कोविड-19 महामारी का हमला हुआ, तो ये तल्ख़ हक़ीक़त और खुलकर उजागर हो गई. जैसे जैसे महामारी का असर समाज के सबसे कमज़ोर तबक़ों पर दिखने लगा, वैसे वैसे डिजिटल वर्गभेद के जोखिम और साफ़ दिखने लगे. गांव की सैकड़ों महिलाएं और उनके परिवार इसकी चपेट में आ गए. प्रिया कहती हैं कि, ‘मेरे गांव में 287 घर हैं. और यहां पिछले छह सालों के दौरान मैंने मर्दों के मुक़ाबले किसी भी महिला को स्मार्टफ़ोन इस्तेमाल करते नहीं देखा था. जहां गांव के दस में से आठ पुरुषों को मोबाइल का इस्तेमाल करना आता है. वहीं, दस में से महज़ चार औरतों को मोबाइल चलाना आता है. कोविड-19 महामारी के दौरान, बहुत से लोग आरोग्य सेतुb और कोविन ऐपc इस्तेमाल करने को लेकर परेशान रहे. वैसे तो गांव के ज़्यादातर परिवारों के पास कम से कम एक फ़ोन है. लेकिन, इन ऐप का इस्तेमाल करने के लिए हर एक को मदद चाहिए होती थी.’ मोबाइल जेंडर गैप रिपोर्ट 2022 के मुताबिक़, मोबाइल फ़ोन रखने वाली ऐसी महिलाओं की तादाद उम्र के साथ बढ़ती जाती है, जो मोहाइल को ख़ुद से चलाती हों. देश में 15 से 19 साल की केवल 32 प्रतिशत युवतियों के पास अपना मोबाइल है. वहीं, 25 से 29 साल आयु की 65 फ़ीसद महिलाओं के पास अपना मोबाइल फ़ोन है जिसे वो ख़ुद चलाती हैं. इसके बाद ज़्यादा उम्र की महिलाओं के आयु वर्ग (49 वर्ष से आगे) में मोबाइल इस्तेमाल करने वालों की संख्या फिर घटने लगती है.

गांव के सरपंच d और ग्राम पंचायत e के सदस्य उनका बहुत स्मान करते हैं. जब गांव में टीकाकरण अभियान शुरू हुआ, तो ग्राम पंचायत ने प्रिया से इस काम में मदद करने को कहा. हालांकि इस काम में वायरस का शिकार हो जाने का जोखिम भी था. प्रिया कहती हैं कि, ‘हमारे समुदाय को कुनबीf के नाम से जाना जाता है और हमारे जैसी कई जनजातियां हैं, जो कई पुश्तों से खेती-किसानी करते आ रहे हैं और मोबाइल फोन के ऐप का इस्तेमाल करना उन्हें नहीं आता. जब सरकार ने अपना टीकाकरण अभियान शुरू किया, तो मैंने अपने सैकड़ों भाई- बहनों को कोविन ऐप पर रजिस्टर करने में मदद की.’

जुलाई 2020 में तकनीकी माध्यमों से ग्रामीण समुदायों के वित्तीय समावेश के लिए काम करने वाले एक अलाभकारी संगठन, ग्रामीण फाउंडेशन ऑफ़ इंडिया (GFI) ने प्रिया से संपर्क किया और उन्हें अपने समुदाय और ख़ास तौर से महिलाओं की मदद करने के लिए ग्रामीण मित्र बनने का प्रस्ताव दिया, ताकि उनकी मदद से ये लोग संस्थागत चुनौतियों से पार पाकर वित्तीय व्यवस्थाओं का हिस्सा बन जाएं.

जुलाई 2020 में तकनीकी माध्यमों से ग्रामीण समुदायों के वित्तीय समावेश के लिए काम करने वाले एक अलाभकारी संगठन, ग्रामीण फाउंडेशन ऑफ़ इंडिया (GFI) ने प्रिया से संपर्क किया और उन्हें अपने समुदाय और ख़ास तौर से महिलाओं की मदद करने के लिए ग्रामीण मित्र बनने का प्रस्ताव दिया, ताकि उनकी मदद से ये लोग संस्थागत चुनौतियों से पार पाकर वित्तीय व्यवस्थाओं का हिस्सा बन जाएं. ये ग्रामीण मित्र बदलाव के संदेशवाहक होते हैं और वो लोग होते हैं, जिन्हें स्मार्टफ़ोन इस्तेमाल करना आता है और उनके ज़रिए बैंकिंग की जानकारी, उत्पाद और सेवाएं उन लोगों तक पहुंच पाती है, जिन समुदायों की सामान्य  बैंकिंग व्यवस्था तक पहुंच नहीं है. इस कार्यक्रम के ज़रिए ग्रामीण मित्र, सामाजिक उद्यमी बन जाते हैं. नए हुनर सीखते हैं और अपनी कमाई करके पैसे के मामले में अपने पैरों पर खड़े हो पाते हैं. हालांकि, प्रिया को मालूम था कि ये सब इतना आसान भी नहीं होगा. उन दिनों की याद करके वो कहती हैं कि, ‘पहले तो इसे सुनकर मुझे अपने कानों पर यक़ीन ही नहीं हुआ. मुझे और मेरे समुदाय को इस प्रस्ताव को लेकर शंकाएं थीं. हमारे ज़हन में सबसे बड़ा सवाल तो यही था कि आख़िर कोई भी हमारी मदद क्यों करना चाहेगा और वो भी एक महामारी के दौरान? ग्रामीण मित्र के तौर पर अपना काम शुरू करने से पहले मुझे याद है कि मैंने पहला डिजिटल लेन-देन ख़ुद से ही किया था. मैं ये भरोसा कर लेना चाहती थी कि हमारा पैसा सुरक्षित रहेगा. जैसे ही मैंने देखा कि मेरा पैसा मेरे खाते में दिख रहा है, वैसे ही मुझे यक़ीन हो गया कि ये कोई घोटाला नहीं है.’

एक आसान से ऐप ग्रामीण मित्र कनेक्ट के ज़रिए प्रिया को डिजिटल वित्तीय साक्षरता का व्यापक प्रशिक्षण दिया गया. उन्होंने बहुत से बैंकिंग उत्पादों और सेवाओं के बारे में जाना-समझा, जिनकी मदद से आगे चलकर प्रिया और उनके समुदाय को बैंकिंग की सेवाएं मिलीं और वो सब डिजिटल बैंकिंग व्यवस्था का हिस्सा बन सके. प्रिया ने ऑनलाइन नक़द पैसे निकाले और जमा किए. बिलों का भुगतान किया और अपने समुदाय के सदस्यों के मोबाइल रिचार्ज किए. इसके साथ साथ प्रिया ने उन सबको उपलब्ध सरकारी योजनाओं की जानकारी भी दी. बहुत जल्द समुदाय के लोग प्रिया से क़र्ज़ लेने, नौकरी हासिल करने और खेती के उत्पादों के बारे में और भी जानकारी मांगने लगे.

आज प्रिया के पास 800 नियमित ग्राहक हैं, जो अपनी वित्तीय ज़रूरतों के लिए उन्हीं के भरोसे हैं. अब वो एक विशेषज्ञ बन चुकी हैं. उनके दिन की शुरुआत सुबह 10.30 बजे होती है और काम ख़त्म होने का कोई तय वक़्त नहीं होता. महामारी के दौरान, प्रिया अपने ग्राहकों से अपने घर के बाहरी हिस्से में मिला करती थीं, ताकि सोशल डिस्टेंगिंग के नियमों का पालन हो और वो दूसरों के संपर्क में कम से कम आएं. जब उनसे पूछा गया कि क्या उनकी इस ज़िम्मेदारी के साथ परिवार को ढालना आसान था और उनकी नई भूमिका को लेकर उनके परिवार की क्या प्रतिक्रिया थी, तो प्रिया ने कहा कि, ‘बहुत से सवाल पूछे गए. लोगों के मन में शंकाएं भी बहुत थीं. लेकिन मैंने उन पर ध्यान नहीं दिया. मुझे पता था कि मैं ये करना चाहती थी और कुछ महीनों के बाद, ऐसा लगा कि सबने उनके काम को स्वीकार कर लिया है. इस दौरान, मेरे पति ने मेरा भरपूर साथ दिया, जिससे मुझे आगे बढ़ने में बहुत मदद मिली.’

किसी भी व्यस्तता वाले दिन में प्रिया का फ़ोन लगातार बजता रहता है और वो लगातार लेन-देन करके तीन हज़ार रुपए तक कमा लेती हैं. लेकिन, प्रिया के लिए ये काम सिर्फ़ पैसे कमाने का ज़रिया नहीं है. वो कहती हैं कि, ‘मेरे ज़्यादातर ग्राहक 50 साल से ज़्यादा उम्र के हैं और 10 फ़ीसद आस-पास वरिष्ठ नागरिक हैं, जिनको चलने फिरने में दिक़्क़त होती है. उन्हें मित्र सेवा से बहुत फ़ायदा मिलता है.’

प्रिया ने अपने समुदाय के बाक़ी सदस्यों से भी मज़बूत रिश्ते बना लिए हैं. बहुत से लोग तो प्रिया को अपना ‘बैंक’ कहते हैं.

वो अपने गांव की ज़्यादातर आशा कार्यकर्ताओं की भी दोस्त हैं.g प्रिया ने देखा था कि माहवारी से जुड़े उत्पादों की बढ़ती मांग के चलते, अक्सर इन आशा कार्यकर्ताओं के पास महिलाओं को देने के लिए सैनिटरी नैपकिन ख़त्म हो जाता था. जब ग्रामीण फाउंडेशन ऑफ़ इंडिया (GFI) ने प्रिया को गांव में सस्ते दाम पर सैनिटरी नैपकिन बेचने का प्रस्ताव दिया, तो उन्होंने फ़ौरन ही ये मौक़ा भी लपक लिया. प्रिया कहती हैं कि, ‘वैसे तो साफ और सुरक्षित माहवारी के लिए बहुत काम हो रहा है. लेकिन अभी भी हमें इसमें लापरवाही की कई मिसालें देखने को मिल जाती हैं. गांव की कुछ दुकानों में सैनिटरी नैपकिन बिकता है. लेकिन, अक्सर महिलाओं को दुकान में बैठे मर्दों से नैपकिन मांगने में शर्म आती है. मैं केवल 30 रुपए में एक पैकेट बेचती हूं और ख़ुद भी उसे इस्तेमाल करती हूं.’

जब कवलेवाड़ा में रात का अंधेरा छाता है, तो प्रिया के बच्चे प्रियांश (4 बरस) और अनिया (1 साल), अपनी मां को खोजते हुए आते हैं. जब हमने प्रिया से पूछा कि वो अपने बच्चों का कैसा भविष्य देखती हैं, तो वो उम्मीद भरी आवाज़ में कहती हैं कि, ‘मैं उन्हें पहले एक अच्छा इंसान बनाना चाहती हूं और ये चाहती हूं कि वो जो कुछ करें, उसमें उन्हें ख़ुशी हासिल हो’. ठीक अपनी मां की तरह.

(डिजिटल फाइनेंशियल सर्विसेज़)

स्रोत: ग्रामीण फाउंडेशन इंडिया – ग्रामीण मित्रा कनेक्ट ऐप – सर्विस

मुख्य सबक़

  • मोबाइल फ़ोन ऐसे छोटे समुदायों तक बैंकिंग और दूसरी सेवाएं पहुंचा रहा है, जिन्हें बैंक तक जाने के लिए अपनी एक दिन की दिहाड़ी गंवानी पड़ती थी. ये सुविधा ख़ास तौर से गांव के बुज़ुर्गों के लिए बहुत मददगार साबित हुई है.
  • नेतृत्व करने वाली जो महिलाएं साथ ही साथ अपनी घरेलू ज़िम्मेदारियां भी संभाल लेती हैं, वो समुदाय की अन्य महिलाओं को हौसला देती हैं. महिलाओं को उनकी ऐसी महत्वाकांक्षाएं पूरी करने में मदद देकर, उनकी सामाजिक हैसियत बढ़ाई जा सकती है.

NOTES


1 Source: International Institute for Population Sciences, National Family Health Survey (NFHS-5), 2019–21: India: Volume 1, March 2022.

2 Indian Audit and Accounts Department, Regional Training Institute Kolkata, Comptroller and Auditor General, Government of India, “Backward

Regions Grant Fund: A Compendium,”  August 2008, https://cag.gov.in/uploads/media/BACKWARD-REGIONS-GRANT-FUND-20210626144840.pdf

3 Tribal Research and Training Institute, Government of Maharashtra, “Districtwise Major Tribes in Maharashtra State (As per Census 2011),”

https://trti.maharashtra.gov.in/images/statisticalreports/New%20District%20Wise%20and%20tribe%20wise%20population.pdf

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