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इंडोनेशिया के राष्ट्रपति प्रबोवो सुबियांतो, 25 और 26 जनवरी 2025 को भारत की राजकीय यात्रा पर आए. पिछले साल अक्टूबर में सत्ता संभालने के बाद प्रबोवो का ये पहला भारतीय दौरा था, और उनकी ये यात्रा ऐसे वक़्त में हुई है, जब भारत और इंडोनेशिया द्विपक्षीय संबंधों की 75वीं सालगिरह का जश्न मना रहे हैं. 2018 में तत्कालीन राष्ट्रपति जोको विडोडो (जोकोवी) के दौरे के दौरान भारत और इंडोनेशिया ने अपने संबंधों का दर्जा बढ़ाकर इसे व्यापक सामरिक साझेदारी में तब्दिल किया था. लेकिन, अभी भी भारत और इंडोनेशिया के संबंधों में ऐसी तमाम संभावनाएं हैं, जो अधूरी हैं. ऐसे में सवाल ये उठता है कि वो कौन से व्यवहारिक क़दम हैं जिन्हें उठाने से तमाम क्षेत्रों में दोनों देशों के रिश्तों को मज़बूत बनाया जा सकता है?
जानकारों के बीच आम सहमति है कि अपने देश की विदेश और रक्षा नीति में प्रबोवो सुबियांतो की अहम भूमिका रहने वाली है, और अपने शासन काल में वो इंडोनेशिया की विदेश नीति बनाने और लागू करने में प्रबोवो सक्रिय भूमिका निभाने वाले हैं. क्या इससे भारत को इंडोनेशिया के साथ अपनी साझेदारी को और मज़बूत बनाने का मौक़ा मिलेगा? क्या प्रबोवो की ये भारत यात्रा, दोनों देशों के आपसी संबंधों को मज़बूती देने का रास्ता खोलेगी?
इंडोनेशिया के विदेश मंत्रालय (KEMLU) ने राष्ट्रपति प्रबोवो के भारत दौरे को ‘दोनों देशों के बीच सामरिक सहयोग को गहरा करने और ख़ास तौर से आर्थिक सुरक्षा और समुद्री क्षेत्रों में इसे और व्यापक बनाने के प्रयासों पर मुहर’ बताया था.
भारत के दौरे पर रवाना होने से पहले राष्ट्रपति प्रबोवो ने कहा था कि, ‘भारत हमारा दोस्त और इंडोनेशिया का एक अहम साझीदार है. भारत उन गिने चुने देशों में शामिल है, जिसने 1949 में आज़ादी हासिल करने के हमारे संघर्ष में पूरी मज़बूती से साथ दिया था.’ इस दौरे के दौरान प्रबोवो और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई समझौतों और सहमति पत्रों (MoU) पर रज़ामंदी जताई, ताकि स्वास्थ्य, शिक्षा, संस्कृति, सुरक्षा और समुद्री रक्षा के मसलों पर सहयोग को मज़बूती दे सकें. राष्ट्रपति प्रबोवो के साथ इंडोनेशिया के चैंबर ऑफ कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्री (Kadin) के प्रतिनिधि भी भारत के दौरे पपर आए, ताकि वो इंडोनेशिया में निवेश के अवसर देख रहे भारत के कारोबारियों के साथ सीधा संवाद कर सकें. इंडोनेशिया के विदेश मंत्रालय (KEMLU) ने राष्ट्रपति प्रबोवो के भारत दौरे को ‘दोनों देशों के बीच सामरिक सहयोग को गहरा करने और ख़ास तौर से आर्थिक सुरक्षा और समुद्री क्षेत्रों में इसे और व्यापक बनाने के प्रयासों पर मुहर’ बताया था.
प्रबोवो के नेतृत्व में इंडोनेशिया, क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय समीकरणों के प्रति अधिक स्वतंत्र और सक्रिय (bebas dan aktif) विदेश नीति और गुटनिरपेक्ष रुख़ अपना रहा है. हालांकि, पिछली जोकोवी सरकार की तुलना में प्रबोवो के राज में इंडोनेशिया की विदेश नीति में कुछ बड़े बदलाव भी देखने को मिल रहे हैं. ये बदलाव क्या होंगे और क्या इनसे भारत और इंडोनेशिया की व्यापक सामरिक साझेदारी को और आगे बढ़ाने में मदद मिल सकेगी? भारत इन बदलावों को अपने हित में कैसे इस्तेमाल कर सकता है , जिससे वो दक्षिणी पूर्वी एशिया के सबसे बड़े देश और शायद आसियान की सबसे मुखर आवाज़ इंडोनेशिया के साथ अपने रिश्तों को और मज़बूती प्रदान कर सके?
राष्ट्रपति प्रबोवो के नेतृत्व में इंडोनेशिया की विदेश नीति
सत्ता संभालने के बाद से ही राष्ट्रपति प्रबोवो ने विदेश नीति के मोर्चे पर ऐसे कई फ़ैसले लिए हैं, जो उनके पूर्ववर्ती जोको विडोडो के दौर की विदेश नीति में बहुत बड़े परिवर्तन का संकेत देते हैं. प्रबोवो का पहला और सबसे अहम फ़ैसला तो परंपरा को तोड़ते हुए विदेश मंत्री के तौर पर सुगियोनो की नियुक्ति करना था. सुगियोनो, प्रबोवो के सियासी दल के एक पुराने वफ़ादार हैं और कइयों ने तो उन्हें प्रबोवो का ‘वैचारिक पुत्र’ भी कहा था. इससे पहले आम तौर पर इंडोनेशिया में विदेश मंत्री का पद विदेश मंत्रालय के तजुर्बेकार राजनयिकों को दिया जाता रहा था. इंडोनेशिया के विद्वानों और जानकारों ने इशारा किया है कि अपने इस क़दम से प्रबोवो ने ये दिखाया है कि वो इंडोनेशिया की विदेश नीति और भविष्य में उसके क़दमों का फ़ैसला करने की ज़िम्मेदारी अपने हाथों में रखना चाहते हैं. ज़्यादातर विद्वानों और विश्लेषकों का मानना है कि प्रबोवो, ‘एक कट्टर राष्ट्रवादी और यथार्थवादी हैं, जो ये मानते हैं कि एक अराजक दुनिया में किसी देश की समृद्धि की बुनियाद उसकी संपत्ति और सैन्य शक्ति ही रखते हैं.’ राष्ट्रपति चुनाव में उनकी परिचर्चाओं और बाद के बयानों को देखें, तो प्रबोवो ने कहा था कि इंडोनेशिया एक ‘अच्छा पड़ोसी’ होगा और ‘बहुत से दोस्त मगर दुश्मन एक भी नहीं’ की नीति पर चलना जारी रखेगा. प्रबोवो ने इस सूत्र वाक्य को अपने तरीक़े से पेश करते हुए इसे ‘सबका दोस्त, किसी का दुश्मन नहीं’ के तौर पर पेश किया है. प्रबोवो का चीन, अमेरिका और रूस के साथ साथ आसियान के सदस्य देशों जैसे कि मलेशिया का दौरा करना उनकी एशिया और यूरोप के तमाम भागीदारों के साथ मुलाक़ात करने और व्यापार, रक्षा, सुरक्षा और अन्य क्षेत्रों में इंडोनेशिया की स्थिति को मज़बूत बनाने की इच्छा का संकेत देता है.
राष्ट्रपति चुनाव में उनकी परिचर्चाओं और बाद के बयानों को देखें, तो प्रबोवो ने कहा था कि इंडोनेशिया एक ‘अच्छा पड़ोसी’ होगा और ‘बहुत से दोस्त मगर दुश्मन एक भी नहीं’ की नीति पर चलना जारी रखेगा. प्रबोवो ने इस सूत्र वाक्य को अपने तरीक़े से पेश करते हुए इसे ‘सबका दोस्त, किसी का दुश्मन नहीं’ के तौर पर पेश किया है.
प्रबोवो सुबियांतो इंडोनेशिया के राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए देश की सैन्य क्षमताएं बढ़ाने और उनमें सुधार करके आधुनिक बनाने का सिलसिला जारी रखेंगे. इंडोनेशिया के रक्षा मंत्री के तौर पर प्रबोवो ने ऑस्ट्रेलिया और सिंगापुर जैसे देशों के साथ समझौते किए थे. महामारी के दौरान उन्होंने भारत का भी दौरा किया था और दोनों देशों के रक्षा संबंधों की संभावनाओं और इनमें सहयोग के छुपे अवसरों को लेकर चर्चा की थी. जुलाई 2024 में राष्ट्रपति चुनाव जीतने के तुरंत बाद प्रबोवो रूस के दौरे पर गए थे, जो ‘इंडोनशिया की विदेश नीति में संभावित बदलाव और भविष्य में सैन्य हथियार ख़रीदने और रक्षा सौदों की संभावनाएं तलाशने’ का संकेत था.
प्रबोवो के नेतृत्व में इंडोनेशिया वैसे तो अपना गुटनिरपेक्ष रुख़ बनाए हुए हैं. पर, इसके साथ ही साथ वो अपनी सामरिक स्वायत्तता बनाए रखते हुए तमाम शक्तियों के साथ संपर्क बढ़ा रहा है, और चीन एवं अमेरिका के साथ अपने संबंधों में संतुलन बनाने का सिलसिला जारी रखे हुए है. राष्ट्रपति चुने जाने के फ़ौरन बाद, निर्वाचित राष्ट्रपति के तौर पर प्रबोवो ने चीन और अमेरिका दोनों का दौरा किया था. इससे हिंद प्रशांत क्षेत्र के अन्य देशों के साथ साझेदारी करने और संपर्क बढ़ाने की कोशिश के तौर पर देखा जा सकता है.
इंडोनेशिया की ख़्वाहिश है कि वो ग्लोबल साउथ की प्रमुख आवाज़ बने और विश्व मंच पर उसको ‘विकसित और विकासशील देशों के बीच पुल’ के तौर पर देखा जाए. यही वजह है कि इंडोनेशिया ने ब्रिक्स (BRICS) में शामिल होने को लेकर काफ़ी उत्साह दिखाया था. इंडोनेशिया में बहुत से लोगों ने इस क़दम पर सवाल उठाते हुए पूछा था कि क्या ब्रिक्स में शामिल होकर इंडोनेशिया चीन और रूस के ज़्यादा क़रीब जाने की कोशिश कर रहा है. क्या ये इंडोनेशिया की लंबे समय से चली आ रही गुटनिरपेक्षता की नीति से समझौता नहीं है? लेकिन, राष्ट्रपति प्रबोवो और विदेश मंत्री सुगियोनो, दोनों ने ज़ोर देकर कहा है कि, ‘इंडोनेशिया ब्रिक्स में अपनी हैसियत का इस्तेमाल करके विकास का प्रवाह ऐसी दिशा में मोड़ सकता है, जो ग्लोबल नॉर्थ और ग्लोबल साउथ दोनों के हितों को संरक्षित कर सके.’ ये अटकलें भी लगाई जा रही हैं कि इंडोनेशिया के आर्थिक विकास में तेज़ी लाने के लिए राष्ट्रपति प्रबोवो सभी आर्थिक संगठनों में शामिल हो सकते हैं ताकि आर्थिक अवसरों के द्वार खोल सकें और सभी विकसित देशों के साथ सहयोग बढ़ा सकें. यही वजह है इंडोनेशिया ने आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (OECD) की सदस्यता हासिल करने की अर्ज़ी लगाई है.
भारत और इंडोनेशिया, ब्रह्मोस क्रूज़ मिसाइलों की ख़रीद-फ़रोख़्त के सौदे को लेकर पिछले लगभग एक दशक से बातचीत कर रहे हैं. एक और बाधा, जो इंडोनेशिया के लिए मसला हो सकती है, वो ये है कि इंडोनेशिया भी अपने यहां के रक्षा निर्माण उद्योग को बढ़ावा देना चाहता है.
प्रबोवो के नेतृत्व में इंडोनेशिया, हिंद प्रशांत क्षेत्र में एक वैश्विक खिलाड़ी बनने की कोशिश कर रहा है और चाहता है कि उसकी विदेश नीति केवल आसियान पर ध्यान केंद्रित करने वाली न हो.
क्या अब भारत और इंडोनेशिया की द्विपक्षीय साझेदारी को बहुप्रतीक्षित मिलेगी?
भारत का राष्ट्रपति प्रबोवो को अपने गणतंत्र दिवस के समारोह में मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित करना एक स्वागत योग्य क़दम है, और ये दिखाता है कि भारत की एक्ट ईस्ट नीति में इंडोनेशिया की कितनी ज़्यादा अहमियत है. ऐसे कई क्षेत्र हैं जिनमें सहयोग बढ़ाकर दोनों देश अपनी साझेदारी को मज़बूत बना सकते हैं. भारत, रूस के साथ मिलकर विकसित की गई सुपरसोनिक ब्रह्मोस मिसाइलें इंडोनेशिया को बेचने के लिए 45 करोड़ डॉलर के सौदे को अंतिम रूप देना चाहता है. दोनों देशों के नेताओं की बैठक में इस मुद्दे पर भी चर्चा हुई. फिर भी, चूंकि इंडोनेशिया इस सौदे पर मुहर लगाने के लिए पूंजी जुटाने की कोशिश कर रहा है, इसलिए इस सौदे की राह में अभी भी रोड़े बने हुए हैं. भारत और इंडोनेशिया, ब्रह्मोस क्रूज़ मिसाइलों की ख़रीद-फ़रोख़्त के सौदे को लेकर पिछले लगभग एक दशक से बातचीत कर रहे हैं. एक और बाधा, जो इंडोनेशिया के लिए मसला हो सकती है, वो ये है कि इंडोनेशिया भी अपने यहां के रक्षा निर्माण उद्योग को बढ़ावा देना चाहता है. इंडोनेशिया ने भी ‘मेड इन इंडोनेशिया’ के नाम से एक पहल की है. भविष्य के रक्षा सौदों के लिए ये एक अड़ंगा बन सकता है. इसीलिए, दोनों देशों को इस बात पर चर्चा करनी चाहिए कि भारत के ‘मेक इन इंडिया’ और इंडोनेशिया के ‘मेड इन इंडोनेशिया’ किस तरह एक दूसरे के पूरक बन सकते हैं और इनका दोनों देश किस तरह अधिकतम लाभ उठा सकते हैं.
भारत, क्वॉडिलैटरल सिक्योरिटी डायलॉग जैसे बहुत से सीमित बहुपक्षीय समूहों का हिस्सा होने के बावजूद, अपनी सामरिक स्वायत्तता बरक़रार रखने में सफल रहा है. ये ऐसी नीति है, जिस पर चलने का प्रयास प्रबोवो भी कर रहे हैं.
इसके अलावा, दोनों देश समुद्री सुरक्षा के क्षेत्र में भी संभावनाएं तलाशने पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं. 2018 में भारत और इंडोनेशिया ने समुद्री सहयोग बढ़ाने के लिए एक साझा विज़न स्टेटमेंट पर दस्तख़त किए थे. अब समय आ गया है कि इस साझ़ा दृष्टिकोण को अमली जामा पहनाने या फिर लागू करने के लिए योजना पर चर्चा की जाए और इस बात की पड़ताल की जाए कि क्या इसे हिंद प्रशांत क्षेत्र की समुद्री सुरक्षा के साझा एक्शन प्लान में भी परिवर्तित किया जा सकता है. चूंकि इंडोनेशिया, मलक्का, सुंडा, लोमबोक, मकास्सर और ओमबोई वेटार जलसंधियों जैसे अहम व्यापारिक समुद्री मार्गों के क़रीब है, ऐसे में भारत और इंडोनेशिया को चाहिए कि वो समुद्री मार्गों की सुरक्षा पर चर्चा को अपनी बातचीत का अहम बिंदु बनाएं. इस संदर्भ में ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया और भारत के बीच त्रिपक्षीय सहयोग बढ़ाने की बातचीत को आगे बढ़ाना भी काफ़ी अहम होगा.
इस महीने की शुरुआत में विदेश नीति को लेकर अपने पहले भाषण में इंडोनेशिया के विदेश मंत्री सुगियोनो ने ज़ोर दिया था कि, ‘इंडोनेशिया की कूटनीति और विदेश नीति को विकास की स्वदेशी प्राथमिकताओं के हिसाब से लागू किया जाना चाहिए.’ सुगियोनो ने राष्ट्रपति की विकास संबंधी दो प्राथमिकताओं को रेखांकित किया था: खाद्य सुरक्षा और मुफ़्त भोजन के कार्यक्रमों के ज़रिए पूरे देश में पोषण को बढ़ावा देने के अभियान का संचालन. इंडोनेशिया लंबे समय से मुफ़्त खाने की योजना को लागू करना चाहता है. भारत में मिड-डे मील योजना पिछले 30 साल से लागू है. ऐसे में दोनों देशों के बीच सहयोग का एक और अवसर तैयार है.
मौजूदा सरकार के अंतर्गत इंडोनेशिया अपनी विदेश नीति को लेकर जो रुख़ अपना रहा है, उसका एक बड़ा हिस्सा विदेश नीति को लेकर भारत के अपने रुख़ से काफ़ी मिलता जुलता है. भारत भी गुटनिरपेक्ष देश होने के नाते अपनी वैश्विक और घरेलू महत्वाकांक्षाएं पूरी करने के लिए मुद्दों पर आधारित साझेदारियां बनाने की कोशिशें कर रहा है. भारत, क्वॉडिलैटरल सिक्योरिटी डायलॉग जैसे बहुत से सीमित बहुपक्षीय समूहों का हिस्सा होने के बावजूद, अपनी सामरिक स्वायत्तता बरक़रार रखने में सफल रहा है. ये ऐसी नीति है, जिस पर चलने का प्रयास प्रबोवो भी कर रहे हैं. दोनों ही देश ग्लोबल साउथ का हिस्सा हैं और G20 और BRICS के सदस्य हैं. इससे भारत के सामने एक शानदार अवसर है कि वो ऐसे क्षेत्रों की तलाश करे, जिससे नो इंडोनेशिया के साथ अपन रिश्तों को वो धार दे सके, जिसकी सख़्त ज़रूरत है.
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